Saturday, September 24, 2016

कड़ियाँ .. अज्ञेय की कहानी



कड़ियाँ
प्रभात तो नित्य ही होता है, किन्तु ऐसा प्रभात! सत्य को जान पड़ रहा है, उसने वर्षों बाद ऐसा प्रभात देखा है - शायद अपने जीवन में पहली बार देखा है। उसमें कोई नूतनता नहीं है, कोई विशेषता नहीं है, और वह चिर-नूतन है, अत्यन्त विशिष्ट है...

आज उसे दिल्ली से मेरठ ले जाएँगे, वहाँ से उसकी कल रिहाई होनी है। सत्य तीन वर्ष से दिल्ली जेल में पड़ा है। उसे कांग्रेस-आन्दोलन के सम्बन्ध में सज़ा हुई थी - एक सभा का प्रधानत्व ग्रहण करने के लिए। उस दिन से वह वहाँ बैठा अपने दिन गिन रहा था-और अपनी मशक़्कत कर रहा था। उसके लिए प्रभात में कोई विशेषता नहीं होती थी। जेल में प्रभात क्या है? मशक़्कत करने का एक और दिन।


पर आज! आज वह जेल से निकल कर लारी में बैठा है। वह पुलिसवालों से घिरा हुआ है, पर जेल की दीवारों से बाहर तो है! वह अभी तक क़ैदी है, पर कल तो नहीं रहेगा! और कल... उससे कौन-कौन नहीं मिलने आएगा! तीन वर्ष तक वह अकेला पड़ा रहा है पर कल! जो उसे तीन वर्ष से भूले हुए हैं, कल उन्हें याद आएगा कि उनका एक मित्र कभी जेल गया था और अब ख्याति पाकर निकला है! कल वे उसे घेर-घेर कर कहेंगे, तुम्हारे बिना हमारा जीवन निस्सार था। तुम देश के उद्धारकर्ताओं में से एक हो-भारतमाता के सुपुत्र। तुम्हारी देश को बहुत आवश्यकता है। और वह गौरव से कहेगा, अभी मैं और बीस दफ़े जेल जा सकता हूँ - जाऊँगा। अभी तो मैं कर ही क्या पाया हूँ।

क्योंकि जो कोई नैतिक जुर्म करे, वह तो दोषी ही होता है; पर जो राजनैतिक कार्य करे, उसका तो गौरव बढ़ना ही चाहिए...’’

सत्य प्रभातकालीन सूर्य में यही गौरव का स्वप्न देख रहा है। इसीलिए उसे जान पड़ता है, ऐसा प्रभात कभी नहीं हुआ! क्योंकि आज तो सूर्य मानो उसी के तेज से चमक रहा है-मानो उसी का पथ आलोकित करने को निकला है।

लारी चली। कोटले के पास से घूमकर वह जमुना के किनारे हो ली। वह सामने बिजली घर है - अरे, यह कहाँ तक पानी भर आया है! सुना तो था कि नदी में बाढ़ आयी है, पर इतना पानी! सड़क से कुछ ही दूर रह गया है, तमाम खेत भर रहे हैं, मकई गल-गलकर गिर रही है - बेचारे किसान अपने फूस के छप्पर उठा-उठाकर सड़क पर ले आये हैं...

हाय गरीबी! देखो, ये लोग कैसे डिब्बों में भरे आचार की तरह भिंच रहे हैं... और आसपास ही इनके पशु खड़े हैं... लड़के-लड़कियाँ रो रही हैं - खाने को नहीं है - और कभी जब कोई भाग्यशालिनी माँ अपनी बच्ची को एक रोटी का टुकड़ा ऐसे लोकर देती है, मानो स्वर्ग की सारी विभूति छीन लाई हो और उसे दे रही हो, तब दूसरे भूखे बच्चों की मुग्ध आँखों के आगे ही कोई कुत्ता आकर उस टुकड़े को छीन ले जाता है! उसमें टुकड़े की रक्षा करने की शक्ति नहीं है - भूखा मानव भूखे कुत्ते से भी कमजोर होता है...

पर इनका जीवन कितना सरल होता है! दिन-भर भूखे रहते हैं; दुःख झेलते हैं, रोते-कलपते हैं; किन्तु जब रात को सोने लगते हैं, तब शान्त और सन्तुष्ट! इनका जीवन कैसा सदा प्रेम से भरा रहता होगा - इनके जीवन में तो एक ही भावना होती होगी - प्रेम की। लोभ, मोह और क्रोध के लिए इनमें स्थान कहाँ होगा? और मैं इनकी सेवा करूँगा, इनका स्नेह पाऊँगा...

अब छूटकर इन्हीं पीड़ितों की सेवा करनी है। अब की ऐसा यत्न करूँगा कि अपने राजनैतिक कार्य के साथ-साथ कुछ समाज-सेवा भी कर सकूँ। बाढ़ से इन लोगों को उबारने के लिए चन्दा इकट्ठा करना होगा...

लारी तेज़ गति से चली जा रही है, मेरठ की ओर, और सत्य का मन उससे भी तेज़ गति से चला जा रहा है, मेरठ से भी आगे के भविष्य की ओर...

यह क्या है? वह कौन है?

सत्य देखता है - एक अधेड़ उम्र का आदमी, नंगे-बदन, हाथ में लाठी लिये दौड़ा जा रहा है, और बीच-बीच में एक बीभत्स हँसी हँसकर कहता जाता है, ‘‘वह पाया! तेरी-!’’ और उससे कोई आठ-दस गज़ आगे एक देहाती युवती है - भय, पीड़ा, लज्जा, करुणा और एक अवर्ण्य भावना-एक बलिदान या अभिमान या दोनों की मुद्रा का एक जीवित पुंज लहँगे की गरिमा में सिमट कर भागा जा रहा है। भागा जा रहा है जान लेकर। ओढ़नी का पता नहीं कैसे लहँगे का बोझ सँभाले हुए है - जब वह उछलती है, तो लहँगा कुछ उठ जाता है, घुटने तक उसकी टाँगें दीख जाती हैं - टाँगें भी पतली, बरसों की भूखी!-और पैर में चाँदी के कड़ों के नीचे खून लग रहा है, पर वे थमते नहीं - ज़मीन पर भी टिकते नहीं, शिकार और शिकारी का अन्तर कम नहीं होता...

लारी उस युवती से आगे निकल गयी है - सत्य गर्दन मोड़ कर सब देख रहा है...

यह क्या लाठी फेंकेगा? वह औरत है, या दानवी? एक उछाल - सत्य ने देखा, अब की क्षण-भर के लिए घुटनों से भी बहुत ऊपर तक लहँगा उठ गया है - वह कूद पड़ी है जमुना की बाढ़ में - वह गिरी - ओफ़! यह तो काँटों की एक बड़ी झाड़ी में गिरी और धँस गयी - जब तक निकलने की चेष्टा करेगी, तब तक पानी और कीच में डूब जाएगी? - कैसी घुट-घुटकर! - और काँटे...

पर अब कुछ नहीं दीखता। लारी आगे निकल आयी है। केवल लारी के पहियों से उठी हुई धूल। और सरकंडे के झुरमुट। और लम्बे-लम्बे घने झाऊ। और कहीं-कहीं थोड़े-से नरसल। और एक अर्जुन के पेड़ पर से उड़ा जा रहा नीलकंठ। और जमुना का प्रवाह-एक साथ ही क्षुद्र और गम्भीर, प्रशान्त और उद्वेगपूर्ण।

लारी जमुना को पार कर रही है।
कहाँ गया वह उत्साह? कहाँ गया वह प्रभात का सौन्दर्य? कहाँ गयी वह तीन वर्षों के बाद छूटने की उत्तेजना?

सत्य निष्प्रभ-सा लारी में बैठा है। उसकी तनी हुई शिराएँ धीरे-धीरे ढीली पड़ रही हैं और साथ-ही-साथ उसकी उत्तेजना और उसका उल्लास भी ठंडे होते जा रहे हैं। जिस गौरवपूर्ण सार्वजनिक जीवन की उसने कल्पना की थी, उसमें इसके लिए स्थान नहीं था-इस अनियन्त्रित उन्माद के लिए, जीवन के प्रति ऐसे उपेक्षापूर्ण त्याग के लिए-इस विशेष प्रकार की पीड़ा के लिए। और सबसे बढ़कर इस भयंकर निस्सहायता के लिए, जिसका उसने आज लारी में बैठे-बैठे अनुभव किया, जिसके कारण उसे वह रोमांचकारी दृश्य देखना पड़ा...

वह कौन था? वह कौन थी? वह क्या था? सत्य इन प्रश्नों पर अपनी बुद्धि की कुल शक्ति खर्च कर चुका है, पर उसकी समझ में कुछ नहीं आया। और जब तक वह समझ नहीं लेगा, उसे चैन नहीं मिलेगा...

नशा उतर गया है, उल्लास बैठ गया है, उत्तेजना ठंडी पड़ गयी है; पर नशे के बाद बदन टूटता है, उल्लास के बाद थकान आती है, उत्तेजना के बाद मूर्च्छा। सत्य के हाथ बहुत थोड़े-थोड़े काँप रहे हैं और उसका मन उद्वेग से भर रहा है।

वह जो मैंने देखा, वह क्या हो रहा था? उसका और उसका क्या सम्बन्ध था? उस आदमी का मुँह जिस भाव से विकृत हो रहा था, वह क्रोध की ज्वाला थी, या वासना की; वह उसके शरीर पर अपनी क्रोधाग्नि शान्त करना चाहता था, या कामाग्नि? क्यों? वह कुमारी थी या विवाहिता? (विधवा तो नहीं थी...’’)

जासूसों के संशयों की भाँति अनेक चलचित्र सत्य के सामने से एक-एक करके जा रहे थे। वह उसकी स्त्री है, वह सती है, पर उसका पति उस पर सन्देह करता है। नहीं, वह असती है, और पकड़ी गयी है। वही किसी और की स्त्री है, और उसके पास प्रेम का प्रस्ताव लिए आयी है, यह धमका रहा है। वह अविवाहिता है, यह उसका प्रेमी; उसने विश्वासघात किया है, यह बदला ले रहा है; वह इसे प्रेम नहीं करती, यह ईर्ष्या करता है...

नहीं, उसका दोष नहीं है, उसका पिता उसकी शादी और कहीं करना चाहता है; वह आज्ञा मान लेती है, इसलिए इसे क्रोध आ गया है। तभी तो उस लड़की के मुख पर ऐसा विचित्र भाव था-जिसमें साथ ही भय और करुणा, ग्लानि और पीड़ा, और वह बलिदान और अभिमान का सम्मिश्रण हो रहा था।

यह तो तब भी हो सकता है, यदि वह बिलकुल अबोध बाला ही हो, प्रेम-व्यापार से अपरिचित, और वह कामी अपनी वासना की तृप्ति के लिए उसे अकेली पाकर पकड़ने दौड़ा है। यह भी हो सकता है - उसके मुख पर जो हिंस्र भाव था, वह क्रोध भी हो सकता है और उग्र तीप्त काम-लिप्सा भी। और उस लड़की का...

उसका मुख, वह फटी-फटी-सी आँखें...

सत्य अपनी आँखें मूँद कर उस दृश्य का पुननिर्माण करने का यत्न करता है। पर, कल्पना में उसे उस लड़की का मुख क्यों नहीं दीखता? वह सामने जमुना का बढ़ा हुआ गँदला पानी-वह सरकंडों के झुरमुट-ये कँटीली झाड़ियाँ-वह पीछे लाठी लिये दौड़ा आ रहा है-वह कूदी-उसके अस्तव्यस्त कपड़े और बिखरे बाल-उड़ता हुआ लहँगा - सब कुछ दीखता है; पर मुख क्यों नहीं याद आता? सत्य खीझकर आँखें खोलता है, फिर बन्द करके केवल उसके मुख पर ध्यान केन्द्रित करता है। पर वहाँ तो शून्य-ही-शून्य दीखता है, मुख नहीं। वह प्रकम्पित चोली, वह लहँगा-

नहीं, लहँगा-वहँगा कुछ नहीं सोचूँगा! वह मुख!

सत्य फिर चेष्टा करता है। उसके लिए, वह बहुत धीमे स्वर में उस मुख की एक-एक विशेषता का वर्णन करता है।

बिखरे हुए केश; रंग न साँवला, न गोरा, कुछ साँवलेपन की ओर अधिक; गठन न सुन्दर, न कुरूप, किन्तु एक अनिर्वचनीय लुनाई लिये हुए; भँवें मानो एक-दूसरे को छूने के लिए बाँहें फैला रही हों; आँखें, आँखें तो सोची ही जा सकती हैं, शब्दों में बँध नहीं सकतीं; नाक छोटी-सी थी; ओठ खुले, निचला ओठ कुछ भरा हुआ, कोने खिंचे और कुछ नीचे झुके हुए; कोने के पास -क्या तिल? और ठोड़ी-

खाक-धूल! सत्य का कल्पना-क्षेत्र तो वैसा ही शून्य है। वह उसके मुख के एक-एक अंग की एक-एक खूबी का बखूबी वर्णन कर सकता है; पर उसके मूर्त चित्रण में उसकी कल्पनाशक्ति जवाब दे जाती है।

वह झुँझलाकर सोचता है, इस विषय को भुला दूँगा। वह मुँह फेरकर सड़क पर भागती हुई लारी के इंजन के बानेट (शीर्ष) पर लगे हुए गरुड़ चिह्न की ओर देखने लगता है। वह पीतल का गरुड़ पंख फैलाए हुए ऐसा सन्नद्ध खड़ा है, जैसे किसी शिकार पर झपट पड़ने की क्रिया में ही रुक गया हो।

या, जैसे वह स्त्री-बाढ़ के पानी में अधडूबी झाड़ी में कूदते समय थी - तना हुआ शरीर, फैले हुए डैने की तरह लहँगा, नंगी टाँगें...

छिः!

मानो संसार में उन नंगी टाँगों के अतिरिक्त कुछ रह ही न गया हो-क्यों बार-बार मेरी दृष्टि के आगे वे ही आ जाती हैं? क्या इन दो-तीन वर्षों के दूषित वातावरण ने मेरे मन को भ्रष्ट, पतित, व्यभिचारी बना दिया है? मेरे मन को, जिसे अभी देश का इतना कार्य करना है, जो भारतमाता का सुपुत्र होने का दावा करता है?

और सत्य का - भारतमाता के सुपुत्र सत्य का-ढीठ मन फिर भागा। अबकी बार बड़ी दूर। सैकड़ों मीलों की मंज़िल मारकर, सैकड़ों दिन का व्यवधान पार कर। तब जब सत्य ने नया-नया बी.ए. पास किया था और छुट्टियों के लिए काश्मीर जा रहा था। और किस सम्बन्ध से वह इतनी दूर भागा, यह वही जाने। सत्य तो नहीं जानता-अभी इस पर ध्यान देने की फ़ुरसत भी कहाँ? वह तो अभी कुछ और ही दृश्य देख रहा है। वह नहीं देख रहा, दृश्य स्वयं ही बाढ़ की तरह उमड़ता हुआ उसकी चेतना को परिप्लावित कर रहा है...

मुजफ़्फ़राबाद की तलहटी में दोपहर।

जेहलम और कृष्णगंगा दोनों ही में बाढ़ आयी है। दोनों ही के पुल खतरे में हैं। जो लोग एबटाबाद से कश्मीर आते हैं, वे यहीं पर दोनों नदियाँ पार करते हैं किन्तु पुल खतरे में होने के कारण आजकल लारियाँ उन्हें पार नहीं कर सकतीं, इसलिए एबटाबाद की ओर से आनेवाले यात्री दोनों पुल पार करते हैं और दुमेल में दूसरी लारियों में बैठकर काश्मीर जाते हैं, और जो लारियाँ कोहाला होकर आती हैं, वे इन यात्रियों को लेने के लिए दुमेल में रुकी रहती हैं।

सत्य जिस लारी में आया है, वह रात को दुमेल पहुँची थी और एक दिन दुमेल ही में प्रतीक्षा में रुकेगी। सत्य को कोई जल्दी नहीं थी, इसलिए वह इस प्रोग्राम का विरोध नहीं कर रहा है।

वह रात को अपनी छोटी दूरबीन, दो-तीन कम्बल, कमीज़, निकर और तौलिया लेकर दुमेल में जेहमल का पुल पार करके दोनों नदियों के संगमस्थल के ऊपर त्रिकोण में बसी हुई बस्ती मुजफ़्फ़राबाद में घुस गया था। उसे आशा थी, कहीं रात काटने का प्रबन्ध हो जाएगा। जब उसे निराशा हुई, तब वह सड़क पर से नीचे उतरकर कृष्णगंगा के तट पर पहुँचा। वहीं वह बिस्तर लगाने के योग्य कोई स्थान ढूँढ़ रहा था, तो उसने देखा-वहाँ से कुछ ही दूर पर एक छोटे-से सोते के पास, जिसमें किसी वन्य-वृक्ष की आगे निकली हुई छाल पर से होकर मोतियों की लड़ी-सी पानी की धार आ रही है, दो-चार बड़ी-बड़ी सिलें जोड़कर एक चबूतरा-सा बनाया गया। उसने मन-ही-मन सोचा, ‘मुसलमानों की पाकगाह होगी’, और वह उसी पर कम्बल बिछाकर पड़ गया।

वह थी कल की बात। सुबह वह उठा, तो देखा, उस झरने पर कई-एक स्त्रियाँ पानी भरने के लिए जमा हो रही हैं। उसे उठा देखकर उन्होंने लम्बे-लम्बे घूँघट तान लिये। सत्य थोड़ी देर उन्हें देखता रहा, फिर उठकर घूमने लगा और आसपास लगी हुई जंगली झरबेरियाँ बीन-बीनकर खाने लगा...

अब तीसरे पहर वह दोबारा सोकर उठा है। जंगली अखरोट के पेड़ों से छन कर आती हुई धूप में दोपहर-भर सोने से उसके शरीर में एक अपूर्व मस्ती छा गयी है। वह उठकर नदी के किनारे पर बैठा है और नहाने का निश्चय करके भी आलस किये जा रहा है-वह मस्ती इतनी मधुर मालूम हो रही है...

सत्य जहाँ बैठा है, वहाँ से कृष्णगंगा के श्याम और जेहलम के मटमैले पानी का संगम दीख पड़ता है। कृष्णगंगा के परली पार सत्य देख रहा है, पाँच-सात गूजरियाँ क्रीड़ा कर रही हैं। सत्य को उनके मुख स्पष्ट नहीं दीखते; पर फिर भी वह उन्हें अच्छी तरह देख सकता है।

सत्य कपड़े उतार चुका है और पानी में घुस गया है। उसने किनारे के पास ही कपड़े उतार फेंके हैं, और रेत पर लेटी हुई धूप सेक रहे हैं।

सत्य पानी में बैठा हुआ उन्हें देख रहा है। वह अपना स्नान भूल गया है, किनारे से दूरबीन उठाकर देख रहा है। उसे क्षीण-सा ज्ञान है कि वह अच्छा नहीं कर रहा है; पर साथ ही यह विचार उसे प्रोत्साहन दे रहा है कि वह परले पार से नहीं दीखता। और फिर जब वे खुलेआम नहा रही हैं, तो अनेक लोग उन्हें देख रहे होंगे, वह अकेला थोड़े ही है!

सत्य, तू कब तक ऐसे बैठा रहेगा? अपने जीवन की जिन दबी हुई शक्तियों को तू आज उन्मुक्त कर रहा है, वे कहीं तुझे ही न कुचल डालें...

उँह! वह देखो, गूजरियों के साथ दो छोटी-मोटी लड़कियाँ हैं, कितने तीव्र स्वर से हँस रही हैं! सत्य को जान पड़ता है, या भ्रम होता है कि वह नदी के प्रवाह-मर्मर के ऊपर उस तीखे स्वर को सुन सकता है।

वह एक युवती उठकर चट्टान पर खड़ी हुई और सूर्य की ओर उन्मुख होकर अँगड़ाई ले रही है मानो कोई वनसुन्दरी सूर्य को ललकार रही है - तू सुन्दर है या मैं? उसने कन्धे पर अपना काला पैरहन रखा हुआ है, किसके मुकाबले में उसका शरीर अत्यन्त गोरा जान पड़ रहा है।

बहुत देख लिया। वे शक्तियाँ तुझे नहीं छोड़ेंगी। तेरी मानवता पुकार रही है - तेरी दासताबद्ध स्वाभाविक कामनाएँ अत्यधिक नियन्त्रण के कारण और अधिक बलवती होकर फूट निकली हैं! तू सँभल-इस अपूर्व उत्तेजना को दबा डाल!

और यह सोचते-सोचते उसने दूरबीन किनारे पर रखी, एक लम्बी साँस ली और फिर गोता लगा गया। जब उसका सिर पानी से बाहर निकाला, तब वह आधी से अधिक नदी पार कर आया था। उसने पानी में उछलकर साँस ली। उसकी आँखों ने तब तक यह चट्टान खोज ली...

वह चौंकी-उसके ओठ कुछ खुलकर फिर एक भय और विस्मय की चीख को पी गये-उसका मुख क्षण ही में भय, लज्जा, शायद पीड़ा और एक साथ ही कोमल और कठोर अभिमान की छाया दिखा गया। उसी क्षण उसने हाथ तनिक ऊपर उठाये और उँगलियाँ एड़ियों पर सध गयीं। अगले क्षण सत्य ने देखा, मानो एक बड़ा-सा काला गरुड़ अपने डैने फैलाये उस चट्टान पर मँडरा रहा है-वह युवती पानी में कूद पड़ी है और बैठ गयी है, और उसका काला पैरहन पानी पर तैर रहा है। और उसी क्षण में सत्य झेंपा हुआ, लज्जित; पानी में ही पसीना आ रहा है।

सत्य लड़खड़ा कर गिरा। सैकड़ों मील, सैकड़ों दिन व्यवधान पार करते हुए - मुजफ़्फ़राबाद से मेरठ...

सत्य, भारतमाता का सुपुत्र, आवेश में आकर लारी में ही खड़ा हो गया है। पुलिसवाले चौंककर उसकी ओर देखते हैं। वह घोर लज्जा का अनुभव कर रहा है। - उसके माथे पर पसीना आ गया है।

और जिस चेहरे की कल्पना करने की चेष्टा में उसने इतनी शक्ति लगा दी थी, इतनी शक्ति लगाकर भी असफल रहा था, वह उसके सामने नाच रहा है। एक अकेला नहीं, हज़ारों। सत्य को देख पड़नेवाला कुल वायुमंडल ही सहस्रों वैसे चेहरों से भर गया है-वही बिखरे केश, मिलती भँवें, अनुपम आँखें, भरे ओठ, वही विचित्र मुद्रा। भय, लज्जा, करुणा, ग्लानि। वह कोमल और कठोर बलिदान या अभिमान।

यह सब उसकी उत्तेजना की उठान में नहीं, किन्तु तब, जब भारतमाता का सुपुत्र आत्म-ग्लानि का पुंज बनकर फिर बैठ गया है।

जिस चीज़ को मैं समझता था कि मैंने अपने आदर्श जीवन में भुला दिया है, वह अभी तक मेरे भीतर इतने उग्र रूप में विद्यमान है - भारतमाता के सुपुत्र! देश के उद्धारकर्ता! छिः-छिः!

रिहा तो हर हालत में होना ही था; किन्तु सत्य जिस सुख और गौरव की कल्पना कर रहा था, उसका अणुमात्र भी उसे नहीं प्राप्त हुआ। जब भीड़-की-भीड़ लोगों की उसे लेने आयी, जब उसके इष्ट-मित्र’ (जो तीन वर्ष तक उसकी स्मृति को हृदय में छिपाए बैठे थे) उसे बढ़ावा देते हुए खींचकर ले गये और लारी में बिठाकर देहली चलने को हुए-उसके नाम के नारे लगाते हुए-तब सत्य को ऐसा प्रतीत हुआ, वह बच नहीं सकेगा; लज्जा से वहीं धँस जाएगा। उसके जी में आया, चिल्लाकर कहूँ-मैं अत्यन्त नीच, घृणित, पतित हूँ; मुझे धक्के दे-देकर निकालो - नहीं, फिर वापस जेल भेज दो! मैं इसी योग्य हूँ। उसे जान पड़ा, अगर यह नहीं कहूँगा, तो जल जाऊँगा, ज्वालामुखी की तरह फट पड़ूँगा।

पर उसने कहा नहीं। उसके मुँह से बोल नहीं निकला। केवल जब किसी ने पूछा - ‘‘आपको अभी से देश की चिन्ता लग गयी?’’ और सत्य ने देखा कि पूछने-वाले की मुद्रा में व्यंग्य का नहीं, श्रद्धा का-सा भाव है, तब उसने ग्लानि और क्रोध की पराकाष्ठा में, उसी को छिपाने के लिए, जैसा भी सूझा, अच्छा-बुरा, भद्दा मज़ाक करना शुरू किया, और फिर ऐसा चला कि बस रुकने में नहीं आया।

पर जमुना के पुल के पास पहुँचते-पहुँचते फिर वही हाल। सत्य चुप-गुम-सुम। लोग बात करते हैं, तो उत्तर नदारद-मानो सुना ही नहीं।

पुल पार करते ही सत्य ने कहा, ‘‘लारी रुकवाओ, उतरूँगा।’’

दोस्तों ने विस्मित होकर कारण पूछा तो-किसी से इधर मिलने जाना है शाम तक नहीं रुक सकता।

कोई साथ चले? नहीं, अकेले जाएँगे। प्राइवेट काम है।

लीडर के सौ ख़ून माफ़। सत्य को उतारकर लारी आगे बढ़ी। सत्य जल्दी-जल्दी बेला रोड पर चलने लगा। न-जाने किस आशा में उसने इस पर कोई विचार नहीं किया था। वह चलता जा रहा था और उसकी आँखें आसपास किसी परिचित चिह्न की तलाश में फिरती थीं!

ये रहे नरसल - और वह रहा झाऊ-वह सामने सरकंडे का झुरमुट - मकई का तो कहीं नाम-निशान भी नहीं दीख पड़ता, वह तो बिलकुल बैठ गयी है। अब तक तो सड़ गयी होगी। और यह-

सत्य ठिठक गया।

यह समाने वही कँटीली झाड़ी है। आसपास कहीं नहीं कोई दीख पड़ता। दूर पर फूस के छप्पर पड़े हैं; पर उनके पास-पड़ोस में कोई मानवी आकार नहीं दीखता। क्या करूँ। उतरकर देखूँ, झाड़ी में क्या है? अगर कुछ होता भी, तो अब तक कौन छोड़ेगा? शायद ख़ून के क़तरे-

नहीं, कुछ नहीं है। स्वप्न में भले ही आग देखी हो, दिन में उसका धुआँ भी नहीं नज़र आता।

सत्य बैठा है। संसार अपनी अभ्यस्त गति से चला जा रहा है; पर सत्य के लिए नहीं। उसके लिए सृष्टि मर चुकी है। अब रह गया है वह और एक वायदा। एक वायदा जो कि पूरा नहीं हुआ। न होगा। न हो सकता है। वह अब वैसा ही है, जैसे कोई प्रेमिका मिलने का वचन देकर मर गयी हो, उसकी अभिसारी प्रतीक्षा में बैठा रहे। दिन, महीनों, बरसों, नहीं; अनन्त काल तक प्रतीक्षा में बैठा रहे... दिन ढल गया है, जमुना का गँदला पानी सान्ध्य धूप में ताँबे-सा दीख पड़ता है, और नरसल ऐसे, जैसे ताँबे को ज़ंग लग गया हो; हवा चलने लगी है, और उससे पानी वृद्धिंगत होते हुए घर्र-घर्रशब्द के साथ ही नरसल और झाऊ की दर्द-भरी सरसराहट मिल गयी है; दूर कहीं से पक्षियों के रव से न छिपा सकनेवाली पड़कुलिया की पुकार कह रही है, ‘तू-ही-तू!पर इस परिवर्तन में सत्य का संसार अपरिवर्तित खड़ा है - पत्थर पर खिंचे हुए चित्र की तरह जड़!

वह जो बुड्ढा चला आ रहा है, सत्य ने उसे नहीं देखा; पर वह सत्य की ओर आ रहा है, बात करना चाहता है।

‘‘बाबूजी, यहाँ क्या कर रहे हो?’’

सत्य ने चौंककर कहा, ‘‘क्यों?’’

‘‘बाबूजी, यहाँ मत बैठो, यह जगह अच्छी नहीं है।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्या बताएँ बाबूजी, यहाँ तो कल गाँव के नाम को बट्टा लग गया।’’

सत्य जानता था कि यह भ्रम है; पर उसे मालूम हुआ, पानी से एक पुकार उठ रही है -‘‘हाय मोह बचइयो!’’ वह सँभलकर बैठ गया और बोला, ‘‘क्या बात हुई?’’

‘‘बात कुछ नहीं, खेत के बारे में कुछ झगड़ा हो गया था, उसी से लड़ाई हो गयी-’’

‘‘सो कैसे?’’

बुड्ढे ने खँखार कर पूछा, ‘‘बाबूजी, आप तमाखू पीते हैं?’’ और जवाब पाकर थोड़ी देर चुप रहकर कहने लगा, ‘‘हमारे गाँव में एक ही बड़े किसान हैं, बाक़ी हम तो सब ग़रीब लोग हैं। ये आसपास के सब खेत उनके ही हैं। हमारा तो कहीं एक-आध खेत होगा। जब बाढ़ आयी, तो हम सब अपने छप्पर इधर सड़क पर ले आये। एक ग़रीब घर का छप्पर भी बह गया था। वे रात-भर भीगते बैठ रहे थे। उसके घर में एक लड़का बेराम था। उसकी माँ रोती थी। बाप तो कहीं काम को गया हुआ था। वह सास से बोली कि मैं थोड़े झाऊ और नरसल ले आती हूँ, बच्चे के लिए छपरिया छा लेंगे। वह उठकर-’’

‘‘तो और किसी ने उन्हें जगह नहीं दी?’’

‘‘और कहाँ से देते! वे सब तो आप भीग रहे थे - छप्परों में जगह कहाँ थी? हाँ, तो वह हँसुई लेकर चल दी। पता नहीं, किधर गयी। हमने थोड़ी देर बाद सुना कि उसकी चौधरी के बेटे से रार हो गयी है! वह पूछ रहा है कि मेरे खेत से मकई काट रही है? तो वह जवाब देती है कि मैं नरसल काटने आयी हूँ। वह गाली देता है कि साली, झूठ बोलती है, तो वह कहती है कि ज़बान सँभालकर बात करो। वह और गाली देता है तो वह माँ-बहिन की याद दिला देती है।’’

‘‘पर मकई तो वैसे ही गल गयी, काम तो आती नहीं-?’’

‘‘बाबूजी, अपनी चीज़ सड़े तो, गले तो, अपनी ही है।’’

‘‘पर-’’ कहकर सत्य चुप हो गया। बुड्ढा फिर कहने लगा - ‘‘हाँ तो, थोड़ी देर में दोनों चुप हो गये - हम सोचते रहे कि क्या हुआ है। तब बहू लौट आयी - थोड़े-से नरसल काट लायी थी -उसमें दो-चार पौधे शायद मकई के भी थे।’’

‘‘फिर?’’

‘‘हमने बहू की सास से कहा कि उसे समझा दे, गाँव के चौधरी से रार करना अच्छा नहीं होता। बहू कुछ नहीं बोली। घूँघट काढ़कर छपरिया छाने बैठ गयी है। हमने समझा कि बात खत्म हो गयी है!’’

‘‘फिर?’’

‘‘तब भोर होनेवाली थी। बरसात बन्द हो चुकी थी। धूप निकल आयी, तब हम बाहर निकलकर बदन सुखाने लगे। पर वे सास-बहू बैठी रहीं - बहू अभी तक अपना काम किये जा रही थी। तभी, हमने सुना, सास बड़े ज़ोर से चीख पड़ी! बच्चा एक बार छटपटा कर मर गया...

‘‘हम धीरे-धीरे उसके पास गये कि समझाएँ, दिलासा दें। बहू ने काम करना बन्द कर दिया; सन्न-सी वह बैठ रही। हम भी कुछ कह नहीं पाये थे, अभी चुप ही थे कि चौधरी का बेटा एक लाठी लिये आया और उसे देखकर बोला - क्यों री, तू ही चुराकर लायी थी न मकई?’ और कहते-कहते लाठी से उसकी बनाई हुई अधूरी छपरिया को बिखेर दिया। उसमें एक-आध पौध मकई का दीख पड़ा, तो लाठी से बहू को धकेलते हुए बोला, ‘अब क्यों बोल नहीं निकलता?’ और गन्दी गाली दो। तब बहू ने घूँघट हटा दिया ओर बोली - चौधरी, अपना काम करो, ग़रीबों को सताना अच्छा नहीं।

‘‘चौधरी और भी गर्म हुआ। गालियाँ देने लगा और एक लाठी भी बहू की टाँग में जमा दी। बहू हमारी ओर देखकर बोली, ‘तुम लोग देखते नहीं हो?’ पर हम सब ऐसे घबरा गये थे कि हिल-डुल भी न सके, बोले भी नहीं। इतनी देर में उसने एक लाठी और मारी। बहू हटकर बची तो, पर उसके पैर में चोट लगी। तब वह भागी और चौधरी उसके पीछे-पीछे।’’

‘‘फिर?’’

‘‘हम वहीं बैठे रह गये - फिर क्या हुआ, हमने नहीं देखा-’’

सत्य को ऐसा हुआ, कहूँ, ‘‘मैंने देखा! मैंने देखा’’, पर वह चुपचाप सुनता रहा।

‘‘जब हमने फिर देखा, तो चौधरी इसी जगह खड़ा था। और वह वहीं झाड़ी में डूब रही थी। हमने मिलकर उसे निकाला, वह बेहोश थी। उसके कई जगह चोटें थीं, ख़ून बह रहा था।’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर हम उसे अस्पताल ले गये। वहाँ पड़ी है। अभी तक होश नहीं आया। बचेगी नहीं।’’

बुड्ढा चुप हो गया। थोड़ी देर बाद सत्य ने पूछा - ‘‘और चौधरी?’’

‘‘चौधरी क्या?’’ प्रश्न में ऐस विस्मय था, मानो सत्य का प्रश्न उठ ही नहीं सकता - उसका उत्तर इतना स्वतःसिद्ध है! हाँ, चौधरी क्या? चौधरी कुछ नहीं। वह तो चौधरी है ही।

बहुत देर मौन रहा! बुड्ढे ने देखा, सत्य चुप है, न जाने किस विचार में लीन है। वह निराश-सा होकर वृद्धों के प्रति संसार की उपेक्षा का विचार करके चला गया।

सूर्यास्त हो गया। अँधेरा हो गया। तारे निकल आये। पक्षियों का रव बन्द हो गया। पानी की घरघराहट और गम्भीर हो गयी पर सत्य का पत्थर में खिंचा हुआ संसार नहीं पिघला - नहीं पिघला।

एक पत्थर का बुलबुला था, ठोस, अपरिवर्तित, मुर्दा। किन्तु बुलबुला होने के कारण वह जीवन की निरन्तर परिवर्तनशीलता, विचित्रता, रंगीनी और क्षुद्र नश्वरता का द्योतक बना रहता था। वह चिह्न था अनुभूति का, प्रेम का, उत्साह का, किन्तु उसकी वास्तविकता थी छलना, वेदना, वज्र कठोरता, मानव के जीवन का नंगापन...

वह बुलबुला फूट गया है, इसलिए उसका भेद खुल गया है। सत्य भी देख सकता है कि वह जीवन का सौन्दर्य नहीं, उसके पीछे निहित कठोरता है; वह पत्थर है जो नहीं पिघलेगा, नहीं पिघलेगा।

कहानी जीवन की प्रतिच्छाया है, और जीवन स्वयं एक अधूरी कहानी है, अधूरी कहानियों का संग्रह है : एक शिक्षा है, जो आयु-भर मिलती रहती है और कभी समाप्त नहीं होती। हमारी कहानी की बात भी अधूरी, देशसेवा की बात भी अधूरी, जीवन ही अधूरा रह गया है... पर, जिस प्रकार किसी लेखक की मृत्यु के बाद छपी हुई अधूरी कहानियों को पढ़कर भी उसके जीवन की प्रगति का एक पूरा चित्र खींचा जा सकता है, उसी प्रकार संसार की अपूर्ण विशालता में, विशाल आपूर्णता में भी एक तथ्य मिलता है, एक प्रवाह, एक तारतम्य, एक किसी निश्चित, परिपूर्ण फलन की ओर अग्रसर होती हुई अचूक प्रगति...

सत्य का स्वप्न बिखर गया है। उसकी दबी हुई कामनाएँ और लिप्साएँ दबी ही रह गयी हैं। सत्य की बुद्धि ने उन्हें बाँध कर कुचल डाला है, फूटने नहीं दिया। पर उन्होंने भीतर-ही-भीतर फैल कर सत्य की मानसिक प्रयोगशाला में न जाने कौन-कौन से अभूतपूर्व रसायन तैयार किये हैं, और वे रसायन न जाने किन-किन शक्तियों से लदे हैं सत्य को किधर धकेल ले जाएँगे! उसके कौन-कौन से आदर्श तोड़ेंगे। उसकी मेहनत से संचित की हुई, या दबाई हुई, किन-किन गुप्त स्मृतियों को उखाड़ फेंकेंगे, नंगा कर देंगे। उसकी किन-किन सदभिलाषाओं को, उच्चतम आकांक्षाओं, उत्सर्ग-चेष्टाओं की व्युत्पत्ति पतित-से पतित, गर्हित-से-गर्हित, जघन्यतम धातुओं से सिद्ध कर देंगे। प्रेम-जीवन के किस-किस कमल का उद्भव वासना-सर के किस गँदले कीच से कराएँगे...

और यह सारी विराट् क्रिया मानव के लिए एक अपूर्णता ही रह जाएगी, जिसे वह समझकर भी नहीं समझेगा। वह इसकी तारतम्यता को नहीं समझ पाएगा। जैसे ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाकर जलाएँ-एक धड़ाका होता है और हम देखते हैं, न ऑक्सीजन है न हाइड्रोजन। उसे हम विस्फोट कहते हैं। पानी बनने की इस क्रिया में हम उसकी अनिवार्य परात्परता नहीं देखते-हम यही समझते हैं कि दोनों गैसों की जीवनी अधूरी रह गयी-एक विस्फोट में उलझ कर खो गयी।

ऐसा ही विस्फोट सत्य के जीवन में भी हुआ; पर हमारी कहानी का वह अंग नहीं है, क्योंकि हमारी कहानी की सम्पूर्णता विस्फोट के पूर्व के इस अधूरेपन में ही है। उस विस्फोट का इस प्रारम्भ से कोई सम्बन्ध नहीं था, फिर भी जीवन की विशाल असम्बद्धता में वे दोनों एक ही क्रिया की दो अभिन्न कलाएँ थीं।

इस घटना के दो वर्ष बाद सत्य की मृत्यु हो गयी। मृत्यु नहीं हुई, हत्या हुई। संयुक्त प्रान्त में जो किसान-विद्रोह हुआ, उसके प्रपीड़ित, अज्ञात, नाम से घबराने वाले, बल्कि नामहीन अगुओं में से सत्य भी एक था। उसी सिलसिले में एक गाँव में शान्ति स्थापनाके समय पुलिस के हाथों गोली से वह मारा गया। किसी ने यह भी न जाना कि भारतमाता के उस सुपुत्र का समाधि-स्थल कहाँ रहा।

यह भी अपूर्ण कहानी है। किन्तु इन अनेक टूटी-फूटी कड़ियों को जोड़ देने पर जीवन-शृंखला पूरी हो जाती है। यह और बात है-कि इन कड़ियों को जोड़ देने की शक्ति मानव में नहीं है - कि इसके लिए हमारे जीवन-संघर्ष की अपेक्षा कहीं अधिक ताव की, कहीं अधिक प्रोज्ज्वल भट्टी की आवश्यकता है।

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