अजातशत्रु की हास्य
कथा
राजा हरिश्चन्द्र के आंसू
वह रो रहा था। सचमुच रो
रहा था। जब मैंने उसकी आँखों में टावेल लगाया। कहा, ‘‘भैया, मत रोओ, सिर दुखेगा।’’
उसने कहा, ‘‘होनी को कौन टाल सका है ? देखो, क्या होना था, क्या हो गया।’’
और उसके आंसुओं ने फिर स्पीड पकड़ ली। उसने
अचानक पास में रखी हुई मसाला दोचने की लुढ़िया उठायी और अपने सिर पर मारते हुए कहा,
‘‘ले भुगत।’’
उसके सर पर एक बहुत बड़ा
गुरमा निकल आया। मैंने टावेल निचोड़कर उसकी आँखों पर रख दिया।
वह फूड इंस्पेक्टर था।
यूं उसका रंग वही था, जो भगवान कृष्ण
का था, मगर उसके गाल लाल सुर्ख
थे। इस सदी में यदि किसी को निखालिस दूध मिलता था, तो उसे ही, क्योंकि वह शहर
के होटलों में दूध चेक करता था। उसके बच्चे भी मोटे-ताजे थे और उसकी बीवी गहनों से
लदी रहती थी। वह स्वयं घी का व्यापारी नही था पर उसके घर में घी के कनस्तर रखे
रहते थे। वह फूड इंस्पेक्टर की नौकरी करता में इतना खुश था कि अगर राष्ट्र के सबसे
बड़े पद का आफर भी मिलता, तो वह ठुकरा
देता। वह जानता था कि किसी को भी वह एडवांटेज नहीं है, जो फूट इंस्पेक्टर को है।
वह हफ्ते में एक बार शहर
के बाहर नाके पर खड़ा हो जाता था और देहात से दूध लाने वाले ग्वालों के दूध में
डिग्री लगाता था। यदि दूध में पानी होता, तो वह सैंपल की बोतल भर लेता और गद्वाले से कहता, ‘‘अब कचहरी में मिलना।’’
ग्वाला कहता, ‘‘छोड़ दो मालिक।’’
वह कहता, ‘‘तुम भ्रष्टाचार छोड़ दो।’’
ग्वाला कहता, ‘‘हुजूर, भ्रष्टाचार से तो गृहस्थी चलती है। विशुद्ध दूध बेचूंगा तो शुद्ध गृहस्थी कैसे
चलेगी।’’
वह कहता, ‘‘फिर मेरी कैसे चलेगी ?’’
ग्वाला विचार करता।
अब चपरासी कहता,
‘‘अबे, समझा नहीं ? दूध में पानी
मिलाता है और अकल नहीं रखता ? चल उधर कोने में।’’
ग्वाला कोने में चला
जाता। चपरासी पूछता, ‘‘कितना दूध लाता
है ?’’
‘‘बीस सेर।’’
‘‘पानी कितना डालता है ?’’
‘आधा।’’
‘‘साले, भ्रष्टाचार के घूस-रेट फिक्स हैं। अगर तू बीस
सेर में दस सेर दूध लाता है तो पांच रुपये हफ्ता देना पड़ेगा। ज्यादा जल डालेगा तो
हफ्ते के रेट भी बढ़ जायेंगे।’’
‘‘अगर मैं बिलकुल न मिलाऊं
तो ?’’
चपरासी खीझ जाता। कहता,
‘‘अबे, पानी तो मिलाया ही कर। वरना तू क्या खायेगा और हम क्या खायेंगे ? हमारे साहब को भी दूध में पानी मिलाने में
एतराज नहीं है। उन्हें एतराज है हफ्ता न देने का। अब तू जा और दूसरे दूध वालों को
समझा दे। मिल-जुलकर जो होता है, वह भ्रष्टाचार
नहीं होता।’’
ग्वाला टेंट से पांच
रुपये निकालता और चपरासी को दे देता। आगे जाकर वह नगरपालिका के नल से और पानी मिला
देता, क्योंकि पांच रुपये की
चेंट वह क्यों भोगे ?’’
वह रोये जा रहा था।
तौलिया भीगकर वजनदार हो गया।
उसने रोते हुए कहा,
‘‘तुम्हारे पास टिक ट्वेंटी है ?’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं।’’
वह बोला, ‘‘मैं पैसे देता हूं। ला सकते हो ?’’
मैंने कहा, ‘‘आज दुकान बंद है।’’
वह बहुत निराश हुआ और
रोने लगा। उस समय वह आत्महत्या करने के मूड में था और मूड का कोई भरोसा नहीं,
कब बदल जाये, इसलिए लगातार रो रहा था।
मैंने कहा, ‘‘उठो और मुंह धो लो। तुम्हारी क्या गलती थी ?
तुमने तो अपना कर्तव्य किया।’’ वह चिढ़ गया। बोला, ‘‘कर्तव्य ने ही तो मुझे डुबाया। कर्तव्य करके इस जमाने में कौन सुखी हुआ है ?’’
मैंने उसे पहली बार इतना
दार्शनिक होते हुए देखा था। दूध की डिग्री से वह दर्शन पर कैसे आ गया, वह एक गोलाईदार बात है ?’’
मैंने कहा, ‘‘फिर तुमने सैंपल की बोतलें फार्वर्ड क्यों कर
दीं ?’’
वह बोला, ‘‘बोतलें मैंने तो धमकी देने के लिए धरी थीं। पर
वह मिलने नहीं आया तो मैं क्या करूं। ड्यूटी ही कर डाली। नीति कहती है कि जब जनता
के साथ बेईमान न हो सको तो सरकार के साथ ईमानदार हो जाओ। अच्छे कर्मचारी की यही
परिभाषा है।’’
मैंने कहा, ‘जब इतना समझते हो तो रोते क्यों हो ? आखिर सरकार तो तुमसे खुश है।’’
वह चिढ़ गया। बोला,
‘‘नहीं, सरकार ने भी उस पार्टी का साथ दिया, जिसके खिलाफ मैंने मिलावट का केस चलाया। कर्त्तव्यपरायणता ने मुझे मार डाला।
आह !’’ फिर पूरा किस्सा सुनाया।
....कुछ हफ्ते पहले की बात है,
वह डिग्री लेकर बाजार में खड़ा था। उसे पता चला
कि कुछ नये दूधवालों ने धंधा शुरू किया है और बिना ‘हफ्ता’ दिये मिलावट का
दूध बेचते हैं। इससे जनता के स्वास्थ पर भी भारी असर पड़ता था और उसकी कमाई पर भी।
सो, उसने चपरासी से कहा,
‘‘देखो कालूराम,’’ मैं सामने मंदिर के पीछे छिप जाता हूं। जैसे ही कुप्पे आयें,
तुम पूछ-पूछ कर छोड़ते जाना। जो काम का है,
उसे रोक लेना।’’
चपरासी ने कहा, ‘‘जी हाँ, हुजूर। मैं देख लूंगा। फिकर मत करें। यह कोई आज का काम तो
है नहीं ?’’
साहब बहुत खुश हुआ और
मंदिर के पीछे छिप गया। थोड़ी देर में दूध वाले आने लगे। चपरासी ने पहली साइकिल को
रोका। पूछा, ‘‘हफ्ता दे दिया ?’’
दूधवाले ने कहा,
‘‘साहब के घर जाकर दिया है।’’ चपरासी ने साइकिल छोड़ दी। कुछ देर बाद दूसरी
साइकिल आयी। यह एक नये दूधवाले की थी। चपरासी ने उसे भी रोका। दूधवाले ने पूछा,
‘‘क्या बात है ?’’
चपरासी ने कहा दूध में
डिग्री लगेगी।’’
दूधवाले ने कहा,
‘‘सबके दूध में लगती है ?’’
चपरासी बोला, ‘‘लग भी सकती है और नहीं भी लग सकती। यह तो हमें
तय करना है कि किसके दूध में डिग्री लगेगी। तुमने ‘हफ्ता’ नहीं दिया इसलिए
तुम्हारे दूध में लगेगी।’’
‘‘अगर मैं हफ्ता न दूं तो ?’’
चपरासी खिलखिलाकर हंसा।
बोला, ‘‘फिर कानून किसलिए है ?
यहीं पर तो हम कानून का सहारा लेते हैं।’’
दूधवाले ने कुछ न कहा और
जाने लगा। चपरासी ने इशारा किया और साहब मंदिर के पीछे से निकल आये। आते ही बोले,
‘‘ऐ रुको, डिग्री लगेगी।’’
साहब ने डिग्री लगायी।
बोतलें भरी और दूध वाले से कहा, ‘‘जाओ, बाद में हमसे मिल लेना। या तो कुछ होगा नहीं या
बहुत कुछ होगा। सोच लेना।’’
दूधवाला सर झुकाकर चला
गया।....
मैंने कहा, ‘‘यार, चुप भी हो जाओ। देखो पूरी दरी भीग गयी है।’’
वह कहने लगा, ‘‘अजातशत्रु भाई, मैंने तीन दिन दूधवाले की राह देखी। बोतलें जाँच के लिए
नहीं भेजीं। सोचा कि वह जरूर आयेगा। शुद्ध दूध कब तक बेचेगा, पर वह नहीं आया। लाचार होकर मैंने सैंपल की
बोतलें ‘फारवर्ड’ करवा दीं। तुम्हीं बताओ, जब घूस न मिले तो अपनी ड्यूटी नहीं करनी चाहिए ?’’
मैंने कहा, ‘‘करनी चाहिए।’’
उसे राहत हुई और उसने आगे बोलना शुरू किया,
‘‘और, भैया, थोड़े ही दिनों में ‘पब्लिक एनालिस्ट’ (दूध-विश्लेषक) की रिपोर्ट आ गयी। उस दूध वाले पर केस कायम
हो गया। दूध में पानी निकला।’’
मैंने कहा, ‘‘ठीक है, उसे सजा मिलनी चाहिए।’’
वह बिगड़ उठा। बोला,
‘‘जानते-समझते नहीं हो, बीच में क्यों बोल पड़ते हो। कल शाम को ही उस दूधवाले के एक
रिश्तेदार आए थे। वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मेरे मित्र हैं। उन्होंने मुझसे
कहा, ‘‘यार डायन भी एक घर छोड़
देती है तुमने हमारे आदमी का ही दूध पकड़ लिया।’
‘मैं बहुत लज्जित हुआ,
क्योंकि पिछले साल जब मेरे खिलाफ नगर
भ्रष्टाचार उन्मूलन युवक समिति ने शासन को लिखा था और रातोंरात मेरा तबादला करवाया
था, तब इन्हीं सज्जन ने मेरा
ट्रांसफर रुकवाया था और उक्त समिति के नेता को पिटवाया था।’’
‘‘तुमने उन्हें क्या सफाई
दी ?’’ मैंने पूछा।
वह बोला, ‘‘मैंने जवाब दिया कि मामा जी, अगर मुझे पता चलता कि यह आपके आदमी का दूध है
तो मैं खुद उसे सलाह देता कि पानी डाल ले, पर उसने भी कुछ नहीं बताया। फिर मैंने बोतल भी खोल रखी थी, पर वह नहीं आया। अब तो मैं कुछ कर नहीं सकता।
उसे बचाऊंगा तो खुद फस जाऊंगा।’’
इतना कहकर वह चुप हो गया
और गर्दन नीचे झुका ली।
मैंने बाल-जिज्ञासा से
पूछा, ‘‘अब क्या होगा ?’’
‘‘होगा क्या ? हो चुका है।’’ उसने कहा, ‘‘उस दूधवाले के
रिश्तेदार ने ऊपर जाकर मेरा ट्रांसफर करा दिया है। कहा है, ‘‘और लगा ले दूध में डिग्री ?’’ और इतना कहकर वह दहाड़ें मार कर रो उठा। मेरे
पास अब गद्दा बचा था, इसलिए मैंने उसे
ही उसकी आंखों से लगा दिया। वह रोते हुए कहता जा रहा था, ‘‘देखो, मैंने अपनी
ड्यूटी की, तो सरकार ने ट्रांसफर कर
दिया। अब कितना भरोसा करूं—ईमान का या
बेईमानी का ?’’
गद्दा गीला होता जा रहा
था। मुझे उसकी चिंता थी।
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