स्वयं प्रकाश की कहानी
चौथा
हादसा
मेरा तबादला
जैसलमेर हो गया था और वहाँ की फिजा में ऐसा धीरज, इतनी उदासी, ऐसा इत्मीनान,
इस कदर अनमनापन, ऐसा 'नेचा' है कि सोचा अजीब माहौल है यार, चलो ऐसा कुछ करें जैसा और जगह नहीं कर सकते।
मसलन किसी दिन लुंगी पहन कर दफ्तर चले जायें, या गले में ढेर सारी मालाएँ पहन लें और लोगों के हाथ देखने
लगें या दिनदहाड़े छत पर खड़े हो कर नंगे नहाएँ! एक अपेक्षाकृत बड़ी जगह से इस
छोटी जगह आया था इसलिए जरा ज्यादा ही मस्ती लग रही थी। और यह मस्ती वहाँ की हर चीज
में थी। लोग आराम से उठते, चाय पीने से पहले
आधा घंटा खाली बैठते, अखबार दो घंटे
में पढ़ते, दफ्तर के लिए तैयार होने
में एक घंटा लगाते, रास्ते में कोई
मिल जाता तो हाथ मिलाने के दो-दिन मिनट बाद बात शुरू करते - कहिए क्या हाल है?
और आप पहले पूछे लें कि क्या हाल है तो डेढ़
मिनट रुक कर, जैसे काफी सोच कर
जवाब देते कि बस ठीक-ठाक है! किसी को कहीं जाने की जल्दी नहीं थी। दिन था, जो घटनाविहीन-सा था, रातें थीं, जिनमें कोई
लंबे-चौड़े सपने नहीं थे, रिश्तेदारियाँ
थीं, जो बहुत सीमित थीं। पैंसठ
की लड़ाई और फैमीन के किस्से थे जो बीसियों बार सुन-सुनाए जा चुके थे। बच्चे थे,
जो अपने आप आहिस्ता-आहिस्ता बड़े हो रहे थे। और
एक सूनी-सपाट-निष्प्रयोजन-अलस जिंदगी थी जो धीरे-धीरे रेंग रही थी।
मैं यह
सर्वग्रासी शैथिल्य देख कर दंग रह गया। हे भगवान! मैंने सोचा। हिंदुस्तान कहाँ का
कहाँ भाग रहा है, जमाना इतनी तेजी
से बदल रहा है कि किसी शहर में दो साल बाद जाओ तो वह पहचान में नहीं आता, खुद अपने ही शहर में अपनी गली, अपना मकान ढूँढ़ना पड़ता है, अपना बचपन किताबों में पढ़ी चीज-सा लगता है,
अपने लड़कपन की पवित्र गुदगुदी मोहब्बत बचकाना
और वाहियात लगती है, अपने छोटे भाई
बॉस लगते हैं और पिताजी के दोस्त पुरानी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के पात्र, अपने लिए जिन आदर्शों-मूल्यों का वरण किया था,
झूठे लगते हैं, जिन कविताओं को गा-गा कर झूमते या रो पड़ते थे, हास्यास्पद लगती हैं...। और यहाँ? यहाँ तो लगता है अट्ठारह सौ सत्तावन का गदर
पिछले ही साल हुआ था!
जी में आया
सदियों से सोई पड़ी इस शांत झील में बड़ा-सा भाटा फेंक दूँ। इस उबाऊ और एकरस
जिंदगी को हब्बीड़ा मार कर हचमचा दूँ। किसी ऊँची इमारत से नीचे कूद पड़ूँ, कोई सनसनीखेज अफवाह फैला दूँ...। किसी शरीफजादी
को ले कर भाग जाऊँ...। किसी भी तरह इस ऊँघते इत्मीनान को दो-चार तमाचे जड़ दूँ और
हँस पड़ूँ।
पर वहाँ के लोग
पता नहीं किस सन-संवत में जीते थे। वे लोग दिनकर की 'उर्वशी' को एकदम नई कविता
की किताब समझते थे। कोई हवाई जहाज आ जाता तो सब लोग अपने-अपने काम छोड़ कर आसमान
की तरफ ताकने लगते थे, कहो कि राहुल
सांकृत्यायन कब के मर गए तो विश्वास नहीं करते थे, राजनीति पर कभी बात करते तो इस तरह कि अच्छा बताइये इंदिरा
गांधी हिंदू है या मुसलमान?और सुबह आपका
रूमाल खो जाए तो शाम को कम से कम पचास लोग पूछ लेते - सुना है आपका रूमाल खो गया!
कैसे खोया? क्या बात हो गई थी?एक खबर बन जाती। सुना आपने? आज तो फलाँ साहब का रूमाल खो गया।
लेकिन इधर मैं
जड़ता पर हावी होने की सोच ही रहा था कि जड़ता ने मुझे घेरना-ढकना शुरू कर भी
दिया। तालाब की जलकुंभी की तरह... झाड़ियों की अमरबेल की तरह... मैदान की गाजरघास
की तरह... आसमान की टिड्डियों की तरह... वह मुझ पर छाने लगी। मैंने चुस्ती से खुद
को नोचा, दस-पाँच दंड-बैठकें
लगायीं, पंद्रह मिनट कदमताल किया
और हुल्लड़-प्रेमी बंदे ढूँढ़ने निकल पड़ा। दाढ़ी जरूर बढ़ जाने दी। मरहूम जड़ता
की यादगार में। चढ़ती जवानी में मानव सभ्यता के डर से नहीं बढ़ाई थी - हमारे यहाँ
अच्छा नहीं मानते। अब बढ़ा ली। यह छोटी-सी बात हुई। यही लेकिन आगे महत्वपूर्ण बन
गई। इसने दिमाग को खूब नाश्ता दिया। फिलहाल यह कहानी मेरी (अब भूतपूर्व) उस दाढ़ी
के बारे में है।
अच्छी
सुनहरी-सुनहरी घनी दाढ़ी थी। कुछ तो नई जगह का अपरिचय, कुछ मेरा उर्दू लहजा, कुछ धर्म-वर्म के प्रति अनास्था और कुछ मेरा कंबख्त चेहरा
जो अब मजे से दढ़िया गया था - नतीजा बड़ा मजेदार हुआ। लोग मुझे मुसलमान समझने लगे।
शुरू में तो मुझे पता ही नहीं चला। जब पता चला तो मजा आया। मैंने खंडन भी नहीं
किया। क्यों करता? मुस्करा दिया।
लोगों का शक पुख्ता हो गया। फिर कुछ कड़वे-मीठे हादसे पेश आए। आपके पास वक्त हो तो
अर्ज करूँ?
पहला हादसा तो यह
हुआ कि एक दिन एक प्याऊ पर पानी पीने गया तो वहाँ पिलाने के लिए जो डोकरी बैठी हुई
थी। उसने पूछा - थें कुण हो? मतलब मैं कौन हूँ?
बड़ा दार्शनिक प्रश्न था। मैं सोच में पड़ गया
कि क्या जवाब दूँ? आदमी हूँ यह तो
इसे दिख ही रहा होगा। क्या यह बताना चाहिए कि व्यापार करता हूँ या नौकरी? लेकिन फिर यह पूछेगी कि किस विभाग में हो?
किस पद पर हो? बेसिक पे क्या? वगैरह। नहीं, यह सब नहीं
पूछेगी। मुझे पानी पिलाना है, मेरे साथ बेटी
थोड़ी परणानी है! उसने झुँझला कर फिर पूछा - थें हो कुण? वह बाएँ हाथ का पंजा पूरा फैला कर अपना आशय समझाते हुए बोली
- हिंदू हो या मुसलमान?ओह! तो यह बात
थी। मैंने झट से कहा - हिंदू हूँ, और अँजुरी माँड
दी। और हालाँकि मैं हिंदू था जब पैदा हुआ, अब नहीं हूँ, पर वह मेरे उत्तर
से संतुष्ट और आश्वस्त हो गई और मुझे पानी पिलाने लगी। अच्छा था। ठंडा और मीठा।
भरपूर पानी पी कर मैंने मुस्करा कर उसके झुर्रीदार चेहरे को देखा और उसकी मार की
रेंज से बाहर हो कर उसे दुआ दी - अल्ला तेरा भला करे भाई! वह भौंचक भाव से बड़ी
देर तक मुझे गालियाँ बकती रही और कोसती रही। वे बड़े दुर्लभ और संग्रहणीय 'कोसने' थे। एकदम टेप करने लायक। ऐसे कोसने आजकल कहाँ सुनने को मिलते हैं? औरतें तो सब कुछ भूलती जा रही हैं।
दूसरा हादसा घर
पर हुआ। घर पर मैं लुंगी-कुरता पहने बैठा रहता था और गालिब भाई और मीर भाई की
गजलें दहाड़ता रहता था। मेरा मकान सुनारों की गली में था। पीछे 'सिलावटों' का मोहल्ला था। सिलावट यानी पत्थर का काम करने वाले मुसलमान
मजदूर-कारीगर। पड़ोस में एक नौजवान लेक्चरर रहते थे जो मुझे बड़े मियाँ, बर्खुरदार बगैरह कहते रहते थे। बाद में हम साथ
खाना बनाने लगे। पीछे सिलावटों के मोहल्ले की चक्की पर ही हमारा अनाज पिसता था।
वहाँ एक मीट की दुकान भी थी जहाँ से हर इतवार हम मीट ला कर पकाते थे। वहाँ खूब
सारी जवान, गद्दर और गरीब लड़कियाँ
थीं जो हमें आकर्षित करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं करती थी। खैर...
एक दिन मैं बैठा
था। एक साहब आए। रमजान मियाँ उनका नाम है। मकानों के ठेकेदार है। कहने लगे - शाम
का क्या परोगराम है? मैंने कहा - कुछ
नहीं। बोले शाम को वाज है। चलना। मैंने कहा - चलो भई चले चलेंगे। ज्ञान की बातें
भी सुन लेंगे और यह भी देख लेंगे कि वह वाइज ससुरा होता कैसा है, जिसकी शायरों ने इतनी बुराई की है। लेकिन शाम
को वाज में पहुँचने से पहले ही रमजान मियाँ अपनी बेटी के बारे में मेरी राय और
वालिद साहब का नाम-पता ठिकाना पूछने लगे। राय तो उनकी बेटी के बारे में मेरी खैर
ठीक ही थी, पर वालिद साहब का नाम सुन
कर उनके हाथों के तोते उड़ गए। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि पिताजी का नाम सुन कर
कभी किसी को इतना सदमा पहुँचेगा। बाकी उनकी बेटी पर और दूसरियों पर क्या गुजरी,
पता नहीं।
तीसरा हादसा बस
के सफर में हुआ। मैं जालौर जा रहा था। बस खचाखच भरी हुई थी। एक जगह उतरा तो कोई और
साहब मेरी जगह पधार गए, तो जरा तकरार हो
गई। एक साहब बीच-बचाव करते हुए बोले - यहाँ आ जाइए खान साहब यहाँ बैठ जाइए। कोई
बात नहीं। दो घंटे की तो बात ही है। मुसाफिरी में तो...।
मैं अपनी हक की
सीट छोड़ कर इस परदुखकातर के पास आ बैठा। अब जिसने मेरी सीट हड़पी थी वह गुर्रा
रहा था और जिसने जगह दी थी, पुचकार रहा था।
हड़पू अब अपने पड़ोसियों को ज्ञान दे रहा था ये मियें तो साले गद्दार हैं और इनमें
से अधिकतर तो पाकिस्तान के जासूस होते हैं वगैरह! और हैरानी की बात यह थी कि उसके
पास वाले उसकी बातों पर बड़े भक्तिभाव से मुंडकी हिला रहे थे। इधर मेरे हमदर्द पड़ौसी
ने उन 'चुभती' बातों से मेरा ध्यान हटाने के लिए मुझसे पूछा -
कहाँ जा रहे हैं? मैंने कहा,
जालौर। बोला, कहाँ से आ रहे हैं? मैंने कहा जैसलमेर से। बोला, जालौर में तो आप
लोगों के काफी घर हैं? मैंने कहा,
हैं। हालाँकि मुझे नहीं मालूम। मैं तो पहली बार
जालौर जा रहा था। कुछ देर चुप रह कर वह फिर बोला - बिजनेस है? मैंने कहा - हाँ। बोले, किस चीज का? मैंने कहा
चूड़ियों का। वह चुप हो गया।
उधर हड़पू अपने
पड़ोसियों को जोधपुर के एक मियें का किस्सा सुना रहा था जो पैंसठ के वार में रात के
अँधेरे में (पाकिस्तानी हवाई जहाज को पहचान कर) उसे टॉर्च दिखा रहा था और (अपने घर
बाल-बच्चों पर) बम डालने की दावत दे रहा था! इधर इस दयालु ने पानबहार का डिब्बा
निकाल कर दो चम्मच फंकी लगाई और डिब्बा रखते-रखते फिर खोल कर मुझे पानबहार पेश
किया। एक चम्मच मैंने भी गड़प लिया। मुझे खुशी हुई कि यह साला दयालु का बच्चा अब
कुछ देर चुप रहेगा।
उधर वह हड़पू अब
जोश में आ गया था। दूसरे भी उसकी हाँ में हाँ मिला रहे थे। वह कह रहा था, अजी इन 'कटवों' ने तो देश का
सत्यानाश कर दिया है। साले चार-चार शादियाँ करते हैं और बीस-बीस बच्चे पैदा करते
हैं, ताकि एक दिन हम हिंदू
इनसे कम हो जाएँ और ये हम पर शासन कर सकें। और गौरमेंट भी इन्हें कुछ नहीं कहती।
इन सालों को तो निकाल बाहर करना चाहिए। साले भिष्ट!
जी में आया उठूँ
और तड़ से एक झापड़ जमा दूँ। पर मुमकिन नहीं था। अब तक दसियों आदमी उसकी सहमति से
ल्हिसड़ चुके थे और उधर एक अजीब धार्मिक उन्माद उफन रहा था। कुछ तो फुदक रहे थे।
मैं जानता था कि मैं अपनी इस कंबख्त दाढ़ी और लहजे के कारण मुसलमान सिद्ध हो चुका
हूँ। चूँ-कपड़ करूँगा तो सब मिल कर ठोक देंगे। और कहूँगा कि हिंदू हूँ... पर कह
सकूँगा? और यही मेरा जमीर है?
नहीं, मर जाऊँगा पर यह नहीं कहूँगा। पर मान लो कहूँ कि हिंदू हूँ तो? पतलून खोल दूँ तो भी कोई नहीं मानेगा। खामोशी
से बैठा रहा और जहर के घूँट पीता रहा। सोचता रहा कि हे भगवान! इन गधों को कब
सद्बुद्धि आएगी? (और उत्पीड़ितों
में वह साहस... कि इनका मुँहतोड़ जवाब दे सकें सबके बीच)
जोधपुर के
मिनर्वा होटल में चाय पीते हुए ये तीनों हादसे मैंने अपने दोस्तों को सुनाए। दाढ़ी
मुँड़ाने के बाद। नंदू, पारस, रामबक्ष और हबीब। चारों खूब हँसे। हँसते-हँसते
अचानक हबीब खामोश हो गया और सिगरेट जला कर कुर्सी पर पसर कर धुएँ के छल्ले छोड़ने
लगा और होटल की छत को घूरने लगा। अपने बेहद पुरमजाक और हमेशा हँसते रहने वाले इस
दोस्त की यह मुद्रा देख कर पारस ने पूछा - तुझे क्या हो गया बे!
स्वयंप्रकाशुर्रहमान? फिर सब हँस दिए।
वह उठता हुआ बोला - बेटा नंदू! ऐलान कर दो कि हमें कुछ नहीं हुआ। ऐलान कर दो कि हम
सिर्फ पिक्चर के बारे में सोच रहे थे। ऐलान कर दो कि हिंदुस्तान सिर्फ तुम्हारे
बाप का नहीं है। वह हमारे बाप का भी है ध्वेंऐंग...!! धमाधम धमाधम धमाधम
धमाधम...!!
हबीब की इस
नगाड़ेबाजी पर सब खूब हँसे।
पर मैं सोचता हूँ,
वह सिर्फ मजाक नहीं कर रहा था। आपका क्या खयाल
है?
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