Thursday, September 8, 2016

कौशल...मुंशी प्रेमचन्द की कहानी

कौशल

पंडित बलराम शास्त्री की धर्मपत्नी माया को  बहुत  दिनों से एक हार की लालसा थी और वह सैकडो ही बार पंडित जी से उसके लिए आग्रह कर चुकी थी, किन्तु पण्डित जी हीला-हवाला करते रहते थे। यह तो साफ-साफ ने कहते थे कि मेरे पास रूपये नही हैइनसे उनके पराक्रम में बट्टा लगता थातर्कनाओं की शरण लिया करते थे। गहनों से कुछ लाभ नहीं एक तो धातु अच्छी नहीं मिलती,श् उस पर सोनार रुपसे के आठ-आठ आने कर देता है और सबसे बडी बात यह है कि घर में गहने रखना चोरो को नेवता देन है। घडी-भर श्रृगांर के लिए इतनी विपत्ति सिर पर लेना मूर्खो का काम है। बेचारी माया तर्क शास्त्र न पढी थी, इन युक्तियों के सामने निरूत्तर हो जाती थी। पडोसिनो को देख-देख कर उसका जी ललचा करता था, पर दुख किससे कहे। यदि पण्डित जी ज्यादा मेहनत करने के योग्य होते तो यह मुश्किल आसान हो जाती । पर वे आलसी जीव थे, अधिकांश समय भोजन और विश्राम  में व्यतित किया करते थे। पत्नी जी की कटूक्तियां सुननी मंजूर थीं, लेकिन निद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे।

      एक दिन पण्डित जी पाठशाला से आये तो देखा कि माया के गले में सोने का हार विराज रहा है। हार की चमक से उसकी मुख-ज्योति चमक उठी थी। उन्होने उसे कभी इतनी सुन्दर न समझा था। पूछा यह हार किसका है?
      माया बोलीपडोस में जो बाबूजी रहते हैं उन्ही की स्त्री का है।
आज उनसे मिलने गयी थी, यह हार देखा , बहुत पसंद आया। तुम्हें दिखाने के लिए पहन कर चली आई। बस, ऐसा  ही एक हार मुझे बनवा  दो।
      पण्डितदूसरे की चीज नाहक मांग लायी। कहीं चोरी हो जाए तो हार तो बनवाना ही पडे, उपर से बदनामी भी हो।
      मायामैंतो ऐसा ही हार लूगी। २० तोले का है।
पण्डितफिर वही जिद।
मायाजब सभी पहनती हैं तो मै ही क्यों न पहनूं?
पण्डितसब कुएं में गिर पडें तो तुम भी कुएं में गिर पडोगी। सोचो तो, इस वक्त इस हार के बनवाने में ६०० रुपये लगेगे। अगर १ रु० प्रति सैकडा ब्याज रखलिया जाय ता वर्ष मे ६०० रू० के लगभग १००० रु० हो जायेगें। लेकिन ५ वर्ष में तुम्हारा हार मुश्किल से ३०० रू० का रह जायेगा। इतना बडा नुकसान उठाकर हार पहनने से क्या सुख? सह हार वापस कर दो , भोजन करो और आराम से पडी रहो। यह कहते हुए पण्डित जी बाहर चले गये।
      रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर कहा चोर,चोर,हाय, घर में चोर , मुझे घसीटे लिए जाते हैं।
      पण्डित जी हकबका कर उठे और बोले कहा, कहां? दौडो,दौडो।
मायामेरी कोठारी में गया है। मैनें उसकी परछाईं देखी ।
पण्डितलालटेन लाओं, जरा मेरी लकडी उठा लेना।
मायामुझसे तो डर के उठा नहीं जाता।
कई आदमी बाहर से बोलेकहां है पण्डित जी, कोई सेंध पडी है क्या?
मायानहीं,नहीं, खपरैल पर से उतरे हैं। मेरी नीदं खुली तो कोई मेरे ऊपर झुका हुआ था। हाय रे, यह तो हार ही ले गया, पहने-पहने सो गई थी। मुए ने गले से निकाल लिया । हाय भगवान,
पण्डिततुमने हार उतार क्यां न दिया था?
माया-मै क्या जानती थी कि आज ही यह मुसीबत सिर पडने वाली है, हाय भगवान्,
पण्डितअब हाय-हाय करने से क्या होगा? अपने कर्मों को रोओ। इसीलिए कहा करता था कि सब घडी बराबर नहीं जाती, न जाने कब क्या हो जाए। अब आयी समझ में मेरी बात, देखो, और कुछ तो न ले गया?
पडोसी लालटेन लिए आ पहुंचे। घर में कोना कोना देखा। करियां देखीं, छत पर चढकर देखा, अगवाडे-पिछवाडे देखा, शौच गृह में झाका, कहीं चोर का पता न था।
एक पडोसीकिसी जानकार आदमी का काम है।
दूसरा पडोसीबिना घर के भेदिये के कभी चोरी नहीं होती। और कुछ तो नहीं ले गया?
मायाऔर तो कुड नहीं गया। बरतन सब पडे हुए हैं। सन्दूक भी बन्द पडे है। निगोडे को ले ही जाना था तो मेरी चीजें ले जाता । परायी चीज ठहरी। भगवान् उन्हें कौन मुंह दिखाऊगी।
पण्डितअब गहने का मजा मिल गया न?
मायाहाय, भगवान्, यह अपजस बदा था।
पण्डितकितना समझा के हार गया, तुम न मानीं, न मानीं। बात की बात में ६००रू० निकल गए, अब देखूं भगवान कैसे लाज रखते हैं।
मायाअभागे मेरे घर का एक-एक तिनका चुन ले जाते तो मुझे इतना दु:ख न होता। अभी बेचारी ने नया ही बनावाया था।
पण्डितखूब मालूम है, २० तोले का था?
माया२० ही तोले को तो कहती थी?  
पण्डितबधिया बैठ गई और क्या?
मायाकह दूंगी घर में चोरी हो गयी। क्या लेगी? अब उनके लिए कोई चोरी थोडे ही करने जायेगा।
पण्डित तुम्हारे घर से चीज गयी, तुम्हें देनी पडेगी। उन्हे इससे क्या प्रयोजन कि चोर ले गया या तुमने उठाकर रख लिया। पतिययेगी ही नही।
माया तो इतने रूपये कहां से आयेगे?
पण्डितकहीं न कहीं से तो आयेंगे ही,नहीं तो लाज कैसे रहेगी: मगर की तुमने बडी भूल ।
मायाभगवान् से मंगनी की चीज भी न देखी गयी। मुझे काल ने घेरा था, नहीं तो इस घडी भर गले में डाल लेने से ऐसा कौन-सा बडा सुख मिल गया? मै हूं ही अभागिनी।
पण्डितअब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा? चुप हो के बैठो, पडोसिन से कह देना, घबराओं नहीं, तुम्हारी चीज जब तक लौटा न देंगें, तब तक हमें चैन न आयेगा।
                 
पण्डित बालकराम को अब नित्य ही चिंता रहने लगी कि किसी तरह  हार बने। यों अगर टाट उलट देते तो कोई बात न थी । पडोसिन को सन्तोष ही करना पडता, ब्राह्मण से डाडं कौन लेता , किन्तु पण्डित जी ब्राह्मणत्व के गौरव को इतने सस्ते दामों न बेचना चाहते थे। आलस्य छोडंकर धनोपार्जन में दत्तचित्त हो गये।
      छ: महीने तक उन्होने  दिन को  दिन और रात को रात नहीं जाना। दोपहर को सोना छोड  दिया, रात को भी बहुत देर तक जागते। पहले केवल एक पाठशाला में पढाया करते थे। इसके सिवा वह ब्राह्मण के लिए खुले हुए एक सौ एक व्यवसायों में सभी को निंदनिय समझते थे। अब पाठशाला से आकर संध्या एक जगह भगवत्की कथा कहने जाते वहां से लौट कर ११-१२ बजे रात तक जन्म कुंडलियां, वर्ष-फल आदि बनाया करते। प्रात:काल मन्दिर मं२  दुर्गा जी का पाठ करते । माया पण्डित जी का अध्यवसाय देखकर कभी-कभी पछताती कि  कहां से मैने  यह विपत्ति सिर पर  लीं कहीं बीमार पड जायें तो लेने के देने पडे। उनका शरीर क्षीण होते देखकर उसे अब यह चिनता व्यथित  करने जगी। यहां तक कि पांच महीने गुजर गये।
एक दिन संध्या समय वह दिया-बत्ति करने जा रही थी कि पण्डित जी आये, जेब से पुडिया निकाल कर उसके सामने फेंक दी और बोलेलो, आज तुम्हारे ऋण से मुक्त हो गया।
माया ने पुडिया खोली तो उसमें सोने का हार था, उसकी चमक-दमक, उसकी सुन्दर बनावट देखकर उसके अन्त:स्थल में गुदगदी सी होने लगी । मुख पर आन्नद की आभा दौड गई। उसने कातर नेत्रों से देखकर पूछाखुश हो कर दे रहे हो या नाराज होकर1.
पण्डितइससे क्या मतलब? ऋण तो चुकाना ही पडेगा, चाहे खुशी  हो या नाखुशी।
मायायह ऋण नहीं है।
पण्डितऔर क्या है, बदला सही।
मायाबदला भी नहीं है।
पण्डित फिर क्या है।
मायातुम्हारी ..निशानी?
पण्डिततो क्या ऋण के लिए कोई दूसरा हार बनवाना पडेगा?
मायानहीं-नहीं, वह हार चारी नहीं गया था। मैनें झूठ-मूठ शोर मचाया था।
पण्डितसच?
मायाहां, सच कहती हूं।
पण्डितमेरी कसम?
मायातुम्हारे चरण छूकर कहती हूं।
पण्डिततो तमने मुझसे  कौशल किया था?
माया-हां?
पण्डिततुम्हे मालूम है, तुम्हारे कौशल का मुझे क्या मूल्य देना पडा।
मायाक्या ६०० रु० से ऊपर?
पण्डितबहुत ऊपर ? इसके लिए मुझे अपने आत्मस्वातंत्रय को बलिदान करना पडा।
   

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