रूपसिंह चंदेल की कहानी
हादसा
पर्यावरण के
संबंध में उसे इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में वक्तव्य देना था। हारवर्ड
विश्वविद्यालय से ‘पर्यावरण
प्रबन्धन’ की उपाधि लेकर जब एक साल
पहले वह स्वदेश लौटा, सरकार के
पर्यावरण विभाग ने उसकी सेवाएँ लेने के लिए कई प्रस्ताव भेजे. लेकिन स्वयं कुछ
करने के उद्देश्य से उसने सरकारी प्रस्तावों पर उदासीनता दिखाई। वह जानता है कि
ऐसी किसी संस्था से बँधने से उसकी स्वतंत्रोन्मुख सोच और विकास बाधित होंगे। वह
स्वयं को अपने देश तक ही सीमित नहीं रखना चाहता, बावजूद इसके कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ देश के लिए देना चाहता
है।
पर्किंग से गाड़ी
निकालते समय पिता ने पूछा, ‘अमि, (उसका पूरा नाम अमित है) कब तक लौट आओगे?’
‘दो घण्टे का सेमिनार है बाबू जी... नौ तो बज ही
जाएँगे।’ पिता चुप रहे, लेकिन वह सोचे बिना नहीं रह सका, ‘अवश्य कोई बात है, वर्ना बाबू जी उसके आने के विषय में कभी नहीं पूछते।’
गेट से पहले गाड़ी रोक वह उतरा और ‘कोई खास बात बाबू जी?’ पूछा। ‘हाँ...आं...’
बाबू जी मंद स्वर में बोले, ‘मेरा मित्र अमृत है न!... उसकी बेटी की शादी
है... रोहिणी में... सेमिनार खत्म होते ही निकल आऊँगा।’
‘तुम परेशान मत
होना। मैं ऑटो ले लूँगा...’ बाबू जी ने
सकुचाते हुए कहा।
‘कार्यक्रम आठ बजे
समाप्त हो जाएगा। लोगों से बिना मिले निकल आऊँगा... यहाँ पहुँचने में एक घण्टा तो
लग ही जाएगा, लेकिन आप ऑटो के
चक्कर में नहीं पड़ेंगे... मैं आ जाऊँगा।’ उसने पिता को बॉय किया और गाड़ी स्टार्ट कर सड़क पर उतर गया।
अमित जब हारवर्ड
पढ़ने गया था, माँ जीवित थीं।
पिता रेल मंत्रालय से निदेशक पद से अवकाश प्राप्त कर चुके थे। माँ-बाप का वह
इकलौता बेटा था। उन लोगों ने कभी अपनी इच्छाएँ उस पर नहीं थोंपीं, लेकिन उसने भी उन्हें कभी निराश नहीं किया।
हारवर्ड जाने के एक वर्ष बाद ही माँ का निधन हो गया। पिता अकेले रह गये। पटेल नगर
के तीन सौ वर्ग गज के उस मकान में नितांत एकाकी। उसने वापस लौटने की इच्छा व्यक्त
की, लेकिन पता ने पहली बार
उसे सख्त आदेश सुनाया, ‘मेरे लिए लौटने
की बात तुम्हारे दिमाग में आयी कैसे अमि... अपनी शिक्षा पूरी करो... ‘कुछ देर तक चुप रहे थे बाबू जी और वह सिर झुकाए
उनके सामने बैठा रहा था। तब वह माँ के दसवें पर आया था।
‘तुम्हें दूसरों
से कुछ अलग करना चाहिए... अलग बनना चाहिए। मेरे लिए अगले दस वर्षों तक तुम्हें
सोचने की आवश्यकता नहीं है। नौकरी से अवकाश ग्रहण किया है... शरीर और मन से नहीं।
वंदना... तुम्हारी माँ थी तो अधिक बल था, लेकिन...’ पिता फिर चुप हो
गए थे। अतीत में खो गए थे वह। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह धीमे स्वर में फिर बोले,
‘तुम्हें कुछ ऐसा करना है, जिससे देश-समाज... देशान्तर को लाभ पहुँचे...
नौकरी सभी कर लेते हैं, लेकिन दुनिया
उससे आगे भी है...’
अमित चुपचाप पिता
की ओर देखता रहा था।
पढ़ाई समाप्त कर
लौटने के बाद पिता ने केवल एक बार पूछा, ‘क्या करना चाहते हो?’
‘फिलहाल नौकरी
नहीं... अपना कुछ करने के विषय में सोच रहा हूँ।’
‘अपना...?’
‘पर्यावरण सम्बन्धी
एक संस्था स्थापित करना चाहता हूँ...।’
‘हुँह।’ कुछ देर की चुप्पी के बाद... कुछ सोचते हुए
पिता बोले, ‘अच्छा विचार है।’
संस्था को लेकर
उसने देश के पर्यावरणविदों से सलाह करना प्रारंभ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप
सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने पहले उसे अपने सेमीनारों में श्रोता के रूप में,
फिर वक्ता के रूप में बुलाना प्रारंभ कर दिया
था।
सेमिनार खत्म
होते ही वह निकलने लगा। चाहता था कि कोई उसे देखे, टोके-रोके, उससे पहले ही वह
गाड़ी में जा बैठे, लेकिन वैसा हुआ
नहीं। वह हाल से बाहर निकला ही था कि सामने दिल्ली के प्रसिद्ध पर्यावरणविद डॉ.
मुरलीधरन टकरा गए।
‘क्या खूब बोलते
हो नौजवान!’ पकी दाढ़ी और
सफेद बोलों में स्पष्ट वैज्ञानिक दिखनेवाले मुरलीधरन बोले, डॉ. सुनीता नारायण को तुम जैसे युवकों से परामर्श लेना
चाहिए।’
‘सर, वह बहुत विद्वान हैं... विश्व में उनकी पहचान
है। मैं तो अभी...’
‘यही न कि अभी कम
उम्र - कम अनुभवी हो!’ ठठाकर हँसे
मुरीधरन तो वह संकुचित हो उठा।
दोनों देर तक चुप
रहे। अंततः कुछ सोचकर, शायद यह भाँपकर
कि उसे चलने की जल्दी है, मुरलीधरन बोले,
‘ओ। के। यंगमैन, हम फिर मिलेंगें।’
‘जी सर।’ वह गाड़ी की ओर बढ़ा यह सोचते हुए कि अनुभवी
लोग चेहरे से ही अनुमान लगा लेते हैं कि कोई क्या सोच रहा है।’
वह सामान्य गति
से गाड़ी चला रहा था। कभी तेज गाड़ी चलाता भी नहीं वह। दिल्ली की सड़कें और
ट्रैफिक की अराजकता... वह पैंतालीस-पचास तो कहीं-कहीं बीस-तीस की गति से चला रहा
था। तालकटोरा स्टेडियम के पास गोल चक्कर पर ट्रैफिक कुछ अधिक था। उसकी गाड़ी
रेंग-सी रही थी। तभी उसके बगल में हट्टा-कट्टा लगभग बत्तीस वर्ष के युवक ने अपनी
पल्सर रोकी और चीखता हुआ बोला, ‘गाड़ी चलानी नहीं
आती? गाड़ी (मोटरसाइकिल) को
टक्कर मार देता अभी।’
वह भौंचक था,
क्योंकि उसकी जानकारी में कुछ हुआ ही नहीं था।
उसने धीमे और सधे स्वर में, जैसा कि उसका
स्वभाव था, कहा, ‘टक्कर लगी तो नहीं!’
वह कुछ समझ पाता
उससे पहले ही मोटर साइकिल सवार ने मोटर साइकिल आगे बढ़ाकर उसकी कार के आगे लगा दी।
वह गोल चक्कर पार कर शंकर रोड चौराहे की ओर कुछ कदम ही आगे बढ़ा था। उसने गाड़ी
रोक दी। मोटरसाइकिल सवार युवक उसकी ओर झपटा। वह कुछ समझ पाता उससे पहले ही उसने
उसे गाड़ी से बाहर खींचा और फुटपाथ की ओर घसीटने लगा।
‘बात क्या है...
आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?’ विरोध करता हुआ
वह उसकी मजबूत पकड़ के समक्ष अपने को असहाय पा रहा था।
‘तेरी माँ की...
बताता हूँ कि बात क्या है... मादर... के कहता है कि लगी तो नहीं...’ युवक का झन्नाटेदार तमाचा उसके गाल पर पड़ा। वह
लड़खड़ा गया। उसे चक्कर -सा आ गया। जब तक वह सँभलता मोटर साइकिल सवार का दूसरा
तमाचा उसके दूसरे गाल पर पड़ा।
पैदल चलने वालों
की भीड़ इकट्ठा हो गयी। लेकिन कोई भी वाहन वाला नहीं रुका। भीड़ मूक दर्शक थी और
मोटर साइकिल सवार युवक दरिन्दे की भाँति उस पर लात-घूँसे बरसा रहा था। लगभग अधमरा
कर उसने उसे छोड़ दिया और फुटपाथ से नीचे उतरकर घूरकर उसे देखने लगा। अमित फुटपाथ
पर पसरा हुआ था... निस्पंद। भीड़ में कुछ लोग अपनी राह चल पड़े थे। कुछ खड़े थे...
लेकिन उनमें अभी भी साहस नहीं था कि वे अमित को उठा सकते, क्योंकि मोटर साइकिल सवार वहीं खड़ा था अमित को घूरता हुआ।
लगभग दस मिनट बाद
उसने आँखें खोलीं और किसी प्रकार उठकर बैठा। बैठते ही उसका हाथ मोबाइल पर गया।
उसका दिमाग, जो सुन्न था,
अब काम करने लगा था। पिता को यह बताने के लिए
कि पहुँचने में उसे कुछ देर हो जाएगी, वह उनका नम्बर मिलाने लगा। उसे नम्बर मिलाता देख मोटर साइकिल सवार झपटकर
फुटपाथ पर चढ़ा और उससे मोबाइल छीनते हुए उसके जबड़े पर मारकर चीखा, ‘धी के... पुलिस को फोन करता है... स्साले इतने
से ही सबक ले... शुक्र मना कि बच गया...’ उसने अमित का फोन अपनी जेब के हवाले किया, मोटर साइकिल स्टार्ट की और अमित के इर्द-गिर्द खड़े लोगों
को हिकारत से देखता हुआ तेज गति से शंकर रोड चौराहे की ओर मोटर साइकिल दौड़ा ले
गया।
अमित फिर फुटपाथ
पर लेट गया। भीड़ फुसफुसा रही थी ‘अस्पताल ले जाना
चाहिए...’ ‘कैसा दरिन्दा था! रुई की
तरह धुन डाला...’ ‘पुलिस को फोन
करना चाहिए।’ ‘पुलिस के लफड़े
में पड़ना ठीक नहीं।’ ‘वह कोई गुण्डा
था!’ ‘दिल्ली में ऐसे लोगों की
संख्या बढ़ती जा रही है...’ ‘दिल्ली
गुण्डों... बाइकर्स के आंतक में जी रही है और पुलिस असहाय है।’ ‘भाई पुलिस वालों के वे साले जो लगते हैं...
हफ्ता पुजाते हैं। असहाय-वसहाय कुछ नहीं है... जिसने हफ्ता नहीं दिया... हवालात
उसके लिए है।’ एक दूसरी आवाज
थी। ‘राम सेवक... तुम्हें
गाड़ी चलानी आती है न!’ किसी ने अपने
साथी से पूछा।’ ‘आती है।’ फिर हम दोनों इन्हें राममनोहर लोहिया अस्पताल
ले चलते हैं... इन्हीं की गाड़ी में...’ अमित सभी को सुन रहा था। उसने आँखें खोलीं। दो लोग उसके ऊपर झुके हुए थे।
दूसरे कुछ हटकर खड़े थे। ‘बाबू... हम आपको
अस्पताल पहुँचा देते हैं।’ अमित चुप रहा।
‘हाँ, आपकी ही गाड़ी से...’ ‘धन्यवाद।’ अमित फुसफुसाकर
बोला, ‘आप लोग कष्ट न करें...
मैं ठीक हूँ।’
रामसेवक और उसका
साथी एक-दूसरे के चेहरे देखते कुछ देर खड़े रहे, फिर बिड़ला मंदिर की ओर मुड़कर चले गए। दूसरे ने पहले ही
जाना प्रारंभ कर दिया था।
लगभग पंद्रह मिनट
बाद अमित ने साहस बटोरा और उठ बैठा। सिर अभी भी चकरा रहा था। उसे चिन्ता हो रही थी
उसकी प्रतीक्षा करते बाबू जी की। वह अपने को रोक नहीं पाया। आहिस्ता से फुटपाथ से
नीचे उतरा, गाड़ी में बैठा और चल पड़ा।
एक्सीलेटर, ब्रेक और क्लच पर पैर ढंग
से नहीं पड़ रहे थे। फिर भी वह धीमी गति से गाड़ी चलाता रहा।
राजेन्द्र नगर की
रेड लाइट तक पहुँचने में उसे काफी समय लगा। चौराहा पार कर वह किसी पी.सी.ओ. से
पिता को फोन करना चाहता था। लेकिन जैसे ही वह रेड लाइट के निकट पहुँचा, वहाँ का दृश्य देख उसे चक्कर-सा आता अनुभव हुआ।
रेड लाइट से कुछ पहले बाईं ओर एक मोटर साइकिल पड़ी हुई थी और उससे कुछ दूर एक युवक
के इर्द-गिर्द खड़े कई लोग पुलिस को कोस रहे थे।
उसने सड़क किनारे
गाड़ी खड़ी की... उतरा। कुछ देर पहले अपने साथ हुआ हादसा उसके दिमाग में ताजा हो
उठा, ‘तो यह उस युवक का नया
शिकार था।’ उसने सोचा और धीमी गति से
आगे बढ़ा। चोट के कारण वह तेज नहीं चल पा रहा था।
‘टक्कर इतनी
जबरदस्त थी... शुक्र है कि गाड़ी इसके ऊपर से नहीं गुजरी।’ भीड़ में कोई कह रहा था।
‘किस गाड़ी ने
टक्कर मारी?’ कोई पूछ रहा था।
‘ब्लू लाइन बस
थी... मैंने देखा... मैं उस समय उधर पेशाब कर रहा था ‘कहने वाले ने हाथ उठाकर पेशाब करने की जगह की ओर इशारा
किया। ‘तेज आवाज हुई तो मैंने
मुड़कर देखा।’ बोलने वाला
क्षणभर के लिए रुका, ‘बस ने टक्कर नहीं
मारी भाई जान! मोटरसाइकिल इतनी तेज थी... इतनी... रहा होगा ये सौ से ऊपर की स्पीड
में... यही टकराया बस से और मोटर साइकिल इधर और यह उधर... बच गया। लेकिन चोट बहुत
है।’
अमित आगे बढ़ा।
‘कितनी देर हुई?’
उसने एक व्यक्ति से पूछा। ‘यही कोई आध घण्टा...’ ‘आध घण्टा... और आप लोग खड़े इसे देख रहे हैं? पुलिस को किसी ने सूचित किया?’ वह यह कह तो गया लेकिन तत्काल सोचा कि अपरिचित
राहगीरों से उसे इस प्रकार नहीं बोलना चाहिए था।
अमित के प्रश्न
पर मौन छा गया था। कुछ देर बाद किसी की बुदबुदाहट सुनाई दी, ‘पी.सी.आर. वैन यहीं खड़ी रहती है... आज नदारद
है।’ ‘पुलिस को फोन करके कौन
मुसीबत मोल ले।’ भीड़ में कोई और
बुदबुदाया।
अमित चुप रहा। वह
घायल युवक के पास पहुँचा और उसे देख भौंचक रह गया। वह वही युवक था जिसने कुछ देर
पहले अकारण ही बुरी तरह उसे पीटा था।
‘मैं इसे अस्पताल
पहुँचाऊँ?’ अमित के मन में विचार
कौंधा। ‘कदापि नहीं।’ लेकिन तभी अंदर से एक आवाज आयी, ‘अमित, तुम्हें दूसरों से कुछ अलग करना है... अलग बनना है,’ यह पिता की आवाज थी।’ मैं इसे अस्पताल पहुँचाऊँगा... राम मनोहर लोहिया अस्पताल
पास में है।’ उसने निर्णय कर
लिया और वहाँ एकत्रित लोगों से बोला, ‘आप लोग इतनी सहायता करें कि इसे उठाकर मेरी गाड़ी में पीछे की सीट पर लेटा
दें। इसे अस्पताल ले जाऊँगा।’ ‘मैं भी आपके साथ
चलता हूँ।’ एक व्यक्ति बोला।’
आप परेशान न हों... केवल गाड़ी में इसे लेटा
दें...बस...’
अस्पताल में जिस
समय एमरजेंसी के सामने उसने गाड़ी रोकी मोटर साइकिल सवार को होश आ गया। उसे देख
कराहते हुए वह चीखा, ‘तुम... तुम... ‘और वह फिर बेहोश हो गया था।
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