दोनों आमने-सामने बैठे थे
- काले शीशों का परदा आँखों पर डाले बूढ़ा और मुँह में सिगार दबाए, होठों के दाएँ खखोड़ से फुक-फुक धुँआ फेंकता
फ्रेंचकट युवा। चेहरे पर अगर सफेद दाढ़ी चस्पाँ कर दी जाती और चश्मे के एक शीशे को
हरा पोत दिया जाता तो बूढ़ा 'अलीबाबा और चालीस
चोर' का सरदार नजर आता। और
फ्रेंचकट? लंबोतरे चेहरे और खिंची
हुई भवों के कारण वह चंगेजी मूल का लगता था।
आकर बैठे हुए दोनों को
शायद ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था, क्योंकि मेज अभी
तक बिल्कुल खाली थी।
बूढ़े ने बैठे-बिठाए
एकाएक कोट की दाईं जेब में हाथ घुमाया। कुछ न मिलने पर फिर बाईं को टटोला। फिर एक
गहरी साँस छोड़ कर सीधा बैठ गया।
'क्या ढूँढ रहे थे?'
फ्रेंचकट ने पूछा, 'सिगार?'
'नहीं...'
'तब?'
'ऐसे ही...' बूढ़ा बोला, 'बीमारी है थोड़ी-थोड़ी देर बाद जेबें टटोल लेने की। अच्छी
तरह पता है कि कुछ नहीं मिलेगा, फिर भी...'
इसी बीच बेयरा आया और मेज
पर मेन्यू और पानी-भरे दो गिलास टिका गया। अपनी ओर रखे गिलास को उठा कर मेज पर
दाईं तरफ सरकाते हुए बूढ़े ने युवक से पूछा, 'और सुनाओ... किस वजह से...?'
'सिगार लेंगे?' बूढ़े के सवाल का जवाब न दे कर अपनी ओर रखे
पानी-भरे गिलास से हल्का-सा सिप ले कर युवक ने पूछा।
'नहीं,' बूढ़ा मुस्कराया, 'बिल्कुल पाक-साफ तो नहीं हूँ, लेकिन कुछ चीजें मैं तभी इस्तेमाल करता हूँ जब उन पर मुझे
मेरे कब्जे का यकीन हो जाए।'
'एज यू लाइक।' युवक भी मुस्करा दिया।
'...मैं सिर्फ तीस मिनट ही
यहाँ रुक सकता हूँ।' बूढ़ा बोला।
इस बीच ऑर्डर की उम्मीद
में बेयरा दो बार उनके आसपास मँडरा गया। उन्होंने उसकी तरफ जैसे कोई तवज्जो ही
नहीं दी, अपनी बातों में उलझे रहे।
'मैं तहे-दिल से
शुक्र-गुजार हूँ आपका कि एक कॉल पर ही आपने चले आने की कृपा की...।' युवक ने बोलना शुरू किया।
'निबंध मत लिखो। काम की
बात पर आओ।' बूढ़े ने टोका।
'बात दरअसल यह है कि आपसे
एक निवेदन करना है...'
'वह तो तुम मोबाइल पर भी
कर सकते थे!'
'नहीं। वह बात न तो आपसे
मोबाइल पर की जा सकती थी और न आपके ऑफिस में।' युवक बोला, 'यकीन मानिए...
मैं बाई हार्ट आपका मुरीद हूँ...।'
'फिर निबंध?'
'क्या ले आऊँ, सर?' ऑर्डर के लिए उन्हें पहल न करते देख बेयरे ने इस बार बेशर्मी से पूछा।
'अँ... बताते हैं अभी...
दस मिनट बाद आना।' चुटकी बजा कर हाथ
के इशारे से उसे टरक जाने को कहते हुए युवक बोला।
'फिलहाल दो कॉफी रख जाओ,
फीकी... शुगर क्यूब्स अलग से।' बेयरे की परेशानी को महसूस कर बूढ़े ने ऑर्डर
किया।
बेयरा चला गया।
'कॉफी... तो... जहाँ तक
मेरा विचार है... आप लेते नहीं हैं!'
'तुम तो ले ही लेते हो।'
'हाँ, लेकिन दो? आप अपने लिए भी कुछ...।'
'नहीं, मेरी इच्छा नहीं है इस समय कुछ भी लेने की।'
बूढ़ा स्वर को रहस्यपूर्ण बनाते हुए बोला,
'लेकिन... दो हट्टे-कट्टे मर्द सिंगल कॉफी का
ऑर्डर दें, अच्छा नहीं महसूस होता।
इन बेचारों को तनख्वाह तो खास मिलती नहीं हैं मालिक लोगों से। टिप के टप्पे पर जमे
रहते हैं नौकरी में। यह जो ऑर्डर मैंने किया है, जाहिर है कि बिल भुगतान के समय कुछ टिप मिल जाने का फायदा
भी इसको मिल ही जाएगा। ...लेकिन उसकी मदद करने का पुण्य कमाने की नीयत से नहीं
दिया है ऑर्डर। वह सेकेंडरी है। प्रायमरिली तो अपने फायदे के लिए किया है...।'
'अपने फायदे के लिए?'
युवक ने बीच में टोका।
'बेशक... कॉफी रख जाएगा तो
कुछ समय के लिए हमारे आसपास मँडराना बंद हो जाएगा इसका। उतनी देर में, मैं समझता हूँ कि तुम्हारा निबंध भी पूरा हो
जाएगा। अब... काम की बात पर आ जाओ।'
फ्रेंचकट मूलतः राजनीतिक
मानसिकता का आदमी था और बूढ़ा अच्छी-खासी साहित्यिक हैसियत का। युवक ने राजनीतिज्ञ
तो अनेक देखे थे लेकिन साहित्यिक कम। बूढ़े ने राजनीतिज्ञ भी अनेक झेल रखे थे और
साहित्यिक भी। कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए युवक राजनीति के साथ-साथ साहित्य के
अखाड़े में भी जोर आजमा रहा था। उसके राजनीतिक संबंध अगर कमजोर रहे होते और वह अगर
लेशमात्र भी नजर-अंदाज होने की हैसियतवाला आदमी होता तो अपना ऑफिस छोड़ कर बूढ़ा
उसके टेलीफोनिक आमंत्रण पर एकदम से चला आनेवाला आदमी नहीं था।
'काम की बात यह है कि...
आप से एक निवेदन करना था...'
'एक ही बात को बार-बार
दोहरा कर समय नष्ट न करो...' सरदारवाले मूड
में बूढ़ा झुँझलाया।
'आप कल हिंदी भवन में होने
वाले कार्यक्रम में शामिल न होइए, प्लीज।'
'क्यों?' यह पूछते हुए उनकी दाईं आँख चश्मे के फ्रेम पर
आ बैठी। काले शीशे के एकदम ऊपर टिकी सफेद आँख। गोलाई में आधा छिलका उतार कर रखी गई
ऐसी लीची-सी जिसके गूदे के भीतर से उसकी गुठली हल्की-हल्की झाँक रही हो। उसे देख
कर फ्रेंचकट थोड़ा चौंक जरूर गया, लेकिन डरा या
सहमा बिल्कुल भी नहीं।
'आ...ऽ...प नहीं होंगे तो
जाहिर है कि अध्यक्षता की बागडोर मुझे ही सौंपी जाएगी। इसीलिए, बस...' वह किंचित संकोच के साथ बोला।
'बस! इतनी-सी बात कहने के
लिए तुमने मुझे इतनी दूर हैरान किया?' यह कहते हुए बूढ़े की दूसरी आँख भी काले चश्मे के फ्रेम पर आ चढ़ी। पहले जैसी
ही - गोलाई में आधी छील कर रखी दूसरी लीची-सी।
बेयरा इस दौरान कॉफी-भरी
थर्मस और कप-प्लेट्स वगैरा रखी ट्रे को मेज पर टिका गया था। युवक ने थर्मस उठा कर
एक कप में कॉफी को पलटने का उद्यम करना चाहा।
'नहीं, थर्मस को ऐसे ही रखा रहने दो अभी।' बूढ़े ने धीमे लेकिन आक्रामक आवाज में कहा। वह
आवाज फ्रेंचकट को ऐसी लगी जैसे कोई खुले पंजोंवाली भूखी चील अपने नाखूनों से उसके
नंगे जिस्म को नोचती-सी निकल गई हो। आशंकित-सी आँखों से उसने बूढ़े की ओर देखा -
वह भूखी चील लौट कर कहीं वापस तो उसी ओर नहीं आ रही है? और उसकी आशंका निर्मूल न रही, चील लौट कर आई।
'कार्यक्रम का अध्यक्ष तो
मैं अपने होते हुए भी बनवा दूँगा तुम्हें...' उसी आक्रामक अंदाज में बूढ़ा बोला, 'मैं खुद प्रोपोज कर दूँगा।'
'आपकी मुझ पर कृपा है,
मैं जानता हूँ।' चील से अपने जिस्म को बचाने का प्रयास करते हुए युवक तनिक
विश्वास-भरे स्वर में बोला, 'महत्वपूर्ण मेरा
अध्यक्ष पद सँभालना नहीं, उस पद से आपको
दो-चार गालियाँ सर्व करना होगा। ...और वैसा मैं आपकी अनुपस्थिति में ही कर पाऊँगा,
उपस्थिति में नहीं।'
उसकी इस बात को सुन कर
बूढ़े ने फ्रेम पर आ टिकी दोनों लीचियों को बड़ी सावधानी से उनकी सही जगह पर
पहुँचा दिया। चील के घोंसले से मांस चुराने की हिमाकत कर रहा है मादर...! - उसने
भीतर ही भीतर सोचा। बिना प्रयास के ही प्रसन्नता की एक लहर-सी उसकी शिराओं में
दौड़ गई जिसे उसने बाहर नहीं झलकने दिया। बाहरी हाल यह था कि अपनी जगह पर सेट कर
दी गई लीचियाँ एकाएक एक-साथ उछलीं और फ्रेम से उछलकर सफेदी पकड़ चुकी भवों पर जा
बैठीं।
'मेरी मौजूदगी में,
मुझसे ही अपनी इस वाहियात महत्वाकांक्षा को
जाहिर करने की हिम्मत तो तुममें है, लेकिन गालियाँ देने की नहीं! ... कमाल है।' बूढ़ा लगभग डाँट पिलाते हुए उससे बोला।
युवक पर लेकिन लीचियों की
इस बार की जोरदार उछाल का कोई असर न पड़ा। वह जस का तस बैठा रहा। बोला, 'बात को समझने की कोशिश कीजिए प्लीज! ...पुराना
जमाना गया। यह नए मैनेजमेंट का जमाना है, पॉलिश्ड पॉलीटिकल मैनेजमेंट का। अकॉर्डिंग टु दैट - आजकल दुश्मन वह नहीं जो
आपको सरे-बाजार गाली देता फिरे; बल्कि वह है जो
वैसा करने से कतराता है...'
'अच्छा मजाक है...।'
बूढ़ा हँसा।
'मजाक नहीं, हकीकत है!' युवक आगे बोला, 'मैं बचपन से ही आपके आर्टिकल्स पढ़ता और सराहता आ रहा हूँ। मानस-पुत्र हूँ
आपका...।'
'फिर फालतू की बातें...'
'देखिए, लोगों के चरित्र में इस सदी में गजब की गिरावट
आई है। दुनिया भर के साइक्लॉजिस्ट्स ने इस गिरावट को अंडरलाइन किया है। आप एक
मजबूत साहित्यिक हैसियत के आदमी हैं। चौबीसों घंटे आपके चारों तरफ मँडराने,
आपकी जय-जयकार करते रहने वाले आपके प्रशंसकों
में कितने लोग मुँह में राम वाले हैं और कितने बगल में छुरीवाले - आप नहीं जान
सकते। इस योजना के तहत उक्त अध्यक्ष पद से मैं आपको ऐसी-ऐसी बढ़िया और इतनी ज्यादा
गालियाँ दूँगा... लोगों के अंतर्मन में दबी आपके खिलाफवाली भावनाओं को इतना भड़का
दूँगा कि मुखालफत की मंशावाले सारे चूहे बिलों से बाहर आ जाएँगे... मेरे साथ आ
मिलेंगे...'
'यानी कि एक पंथ दो काज।'
चश्मा बोला, 'साँप भी मर जाएगा और...'
'साँप? ... मैं आपके बारे में ऐसा नहीं सोच सकता।' युवक ने कहा।
'नहीं सोच सकते तो गालियाँ
दिमाग के किस कोने से क्रिएट करोगे?'
'यह सोचना आपका काम नहीं
है।'
'अच्छा! यानी कि मुझे यह
कहने या जानने का हक भी नहीं है कि मुझे गालियाँ देने की अनुमति मुझसे माँगनेवाला
शख्स वैसा करने में सक्षम नहीं है।'
'कुछ बातें मौके पर सीधे
सिद्ध करके दिखाई जाती हैं, बकी नहीं जातीं।'
'यानी कि खेल में बहुत आगे
बढ़ चुके हो!'
'आपके प्रति अपने मन में
जमी श्रद्धा की खातिर।'
'तुम्हारे मन में जमी
श्रद्धा के सारे मतलब मैं समझ रहा हूँ।' चश्मे ने कहा, 'बेटा, मुझे गालियाँ बक कर दिल की भड़ास भी निकाल लोगे
और मेरी नजरों में भले भी बने रहोगे, क्यों?'
उसके इस आकलन पर चंगेजी
मूल का दिखनेवाले उस युवक को लाल-पीले अंदाज में उछल पड़ना चाहिए था, या फिर वैसा नाटक तो कम से कम करना ही चाहिए था;
लेकिन उसने ये दोनों ही नहीं किए। अविचल बैठा
रहा।
बूढ़े ने एकाएक ही दोनों
हथेलियों को अपने सीने पर ऊपर-नीचे सरका कर ऊपर ही ऊपर जेबें टटोल डालीं।
टटोलते-टटोलते ही वह खड़ा हो गया और ऊपर ही ऊपर पैंट की जेबों पर भी हथेलियाँ
सरकाईं। फिर दाईं जेब से पर्स बाहर निकालते हुए बुदबुदाया, 'शुक्र है, यह जेब में चला
आया... मेज की दराज में ही छूट नहीं गया।'
'अरे... पर्स क्यों निकाल
लिया आपने?' युवक दबी जुबान
में लगभग चीखते हुए बोला।
'अब... यह चला आया जेब में
तो निकाल लिया।' पर्स को अपने
सामने मेज पर रखकर वापस कुर्सी पर बैठते हुए बूढ़ा बोला।
'अब आप इसे वापस जेब के ही
हवाले कर दीजिए प्लीज।' युवक आदेशात्मक
शाही अंदाज में फुसफुसाया।
'एक बात कान खोलकर सुन
लो...' बूढ़ा कड़े अंदाज में
बोला, 'कितने भी बड़े तीसमार खाँ
सही तुम... तुम्हारी किसी भी बात को मानने के लिए मजबूर नहीं हूँ मैं।' दिस इज अ रिक्वेस्ट, नॉट एन ऑर्डर सर!' युवक ने हाथ जोड़ कर कहा।
'तुम्हारी हर रिक्वेस्ट को
मान लेने के लिए भी मैं मजबूर नहीं हूँ।' बूढ़ा पूर्व-अंदाज में बुदबुदाया; और युवक कुछ समझता, उससे पहले ही
उसने सौ रुपए का एक नोट पर्स से निकाल कर कॉफी के बर्तन रखी ट्रे में डाल दिया।
'यह... यह क्या कर रहे हैं
आप?' उसके इस कृत्य से चौंक कर
युवक बोल उठा। 'अब सिर्फ पाँच
मिनट बचे हैं तुम्हारे पास।' उसकी बात पर
ध्यान दिए बिना वह निर्णायक स्वर में बोला।
'यह ओवर-रेस्पेक्ट का
मामला बन गया स्साला... और ओवर-कॉन्फिडेंस का भी।' साफ तौर पर उसे सुनाते हुए बेहद खीझ-भरे स्वर में युवक
बुदबुदाया, 'बेहतर यह होता कि
आपको विश्वास में लेकर काम की शुरुआत करने के बजाय, पहले मैं काम को अंजाम देता और आपके सामने पेश हो कर बाद
में अपनी सफाई पेश करता। इस समय पता नहीं आप समझ क्यों नहीं पा रहे हैं मेरी योजना
को?'
'कैसे समझूँ? मैं राजनीतिक मैनेजमेंट पढ़ा हुआ नई उम्र का
लड़का तो हूँ नहीं, बूढ़ा हूँ अस्सी
बरस का! फिर, पॉलिटिकल आदमी
नहीं हूँ... लिटरेरी हूँ।' दूर खड़े बेयरे
को ट्रे उठा ले जाने का इशारा करते हुए चश्मे ने कहा। बेयरा शायद आगामी ऑर्डर की
उम्मीद में इनकी मेज पर नजर रखे था। इशारा पाते ही चला आया और ट्रे को उठा कर ले
गया।
'न समझ पाने जैसी तो कोई
बात ही इस प्रस्ताव में नहीं है।' युवक बोला,
'मूर्ख से मूर्ख...'
'शट-अप... शट-अप। गालियाँ
देने की इजाजत मैंने अभी दी नहीं है तुम्हें।'
'ओफ शिट्!' दोनों हथेलियों में अपने सिर को पकड़ कर
फ्रेंचकट झुँझलाया, 'यह मैं गाली दे
रहा हूँ आपको?'
'तुम क्या समझते हो कि
मेरी समझ में तुम्हारी यह टुच्ची भाषा बिल्कुल भी नहीं आ रही है?'
'इस समय तो आप मेरे एक-एक
शब्द का गलत मतलब पकड़ रहे हैं।' वह दुखी अंदाज
में बोला, 'इस स्टेज पर मैं अगर अपनी
योजना को ड्रॉप भी कर लूँ तो आपकी नजरों में तो गिर ही गया न... विश्वास तो आपका
खो ही बैठा मैं!'
इसी दौरान बेयरे ने ट्रे
में बिल, बाकी बचे पैसे और
सौंफ-मिश्री आदि ला कर उनकी मेज पर रख दिए।
'ये सब अपनी जेब में रखो
बेटे और ट्रे को यहीं छोड़ दो।' बकाए में से पचास
रुपएवाला नोट उठा कर अपनी जेब के हवाले करके शेष रकम की ओर इशारा करते हुए बूढ़े
ने बेयरे से कहा। एकबारगी तो वह बूढ़े की शक्ल को देखने लगा, लेकिन आज्ञा-पालन में उसने देरी नहीं की।
उसके चले जाने के बाद
बूढ़े ने फ्रेंचकट से कहा, 'बिल्कुल ठीक कहा।
मेरी नजरों में गिरने और मेरा विश्वास खो देने के जिस मकसद को ले कर यह मीटिंग
तुमने रखी थी, उसमें तुम कामयाब
रहे। मतलब यह कि गालियाँ तो अब सरे-बाजार तुम मुझे दोगे ही। ...अब तुम मेरी इस बात
को सुनो - यह रिस्क मैं लूँगा। हिंदी भवन वाले कार्यक्रम में मैं नहीं जाऊँगा।
अध्यक्ष बन जाने का जुगाड़ तुम कर ही चुके हो और मुझे गालियाँ बक कर मेरे कमजोर
विरोधियों का नेता बन बैठने का भी; ...लेकिन मैं परमिट करता हूँ कि उस कार्यक्रम के अलावा भी, तुम जब चाहो, जहाँ चाहो... और जब तक चाहो मेरे खिलाफ अपनी भड़ास निकालते रह सकते हो।
...तुम्हारे खिलाफ किसी भी तरह का कोई बयान मेरी ओर से जारी नहीं होगा। हाँ,
दूसरों की जिम्मेदारी मैं नहीं ले सकता।'
'भड़ास नहीं सर, यह हमारी रणनीति का हिस्सा है।' पटा लेने की आश्वस्ति से भरपूर फ्रेंचकट
प्रसन्न मुद्रा में बोला।
'हमारी नहीं, सिर्फ तुम्हारी रणनीति का।' चर्चा में बने रहने का एक सफल इंतजाम हो जाने
की आश्वस्ति के साथ बूढ़ा कुर्सी से उठते हुए बोला,
'बहरहाल, तुम अपने मकसद में कामयाब रहे... क्योंकि मैं
जानता हूँ कि ऐसा न करने के लिए मेरे रोने-गिड़गिड़ाने पर भी तुम अब पीछे हटनेवाले
नहीं हो।'
युवक ने इस स्तर पर कुछ
भी बोलना उचित न समझा। बूढ़ा चलने लगा तो औपचारिकतावश वह उठकर खड़ा तो हुआ,
लेकिन बाहर तक उसके साथ नहीं गया। बूढ़े को
उससे ऐसी अपेक्षा थी भी नहीं शायद। समझदार लोग मुड़-मुड़ कर नहीं देखा करते,
सो उसने भी नहीं देखा।
'खुद ही फँसने चले आते हैं
स्साले!' - रेस्तराँ से बाहर कदम
रखते हुए उसने मन ही मन सोचा - 'और पैंतरेबाज
मुझे बताते हैं।'
बाहर निकल कर वह ऑटो में
बैठा और चला गया।
उसके जाते ही फ्रेंचकट
जीत का जश्न मनाने की मुद्रा में धम से कुर्सी पर बैठा और निकट बुलाने के
संकेत-स्वरूप उसने बेयरे की ओर चुटकी बजाई। उसकी आँखों में चमक उभर आई थी और चेहरे
पर मुस्कान।
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