लेखक को इलाहाबाद
मे एक बार ताँगे मे लम्बा सफर करने का संयोग हुआ। तांगे वाले मियां जम्मन बड़े
बातूनी थे। उनकी उम्र पचास के करीब थी, उनकी बड़ से रास्ता इस आसानी से तस हुआ कि कुछ मालूम ही न हुआ। मै पाठकों के मनोरंजन
के लिए उनकी जीवन और बड़ पेश करता हूं।
जुम्मन—कहिए बाबूजी, तांगा…वह तो इस तरफ
देखते ही नहीं, शायद इक्का
लेंगे। मुबारक। कम खर्च बालानशीन, मगर कमर रह जायगी
बाबूजी, सडक खराब है, इक्के मे तकलीफ होगी। अखबार मे पढ़ा होगा कल
चार इक्के इसी सड़क पर उलट गये। चुंगी (म्युनिस्पिलटी) सलामत रहे, इक्के बिल्कुल बन्द हो जायेगें। मोटर, जारी तो सड़क खराब करे और नुकसान हो हम गरीब
इक्केवालों का। कुछ दिनों मे हवाई जहाज मे सवारियां चलेंगी, तब हम इक्केवालों कों सड़क मिल जायेगी। देखेंगे उस वक्त इन
लारियों को कौन पूछेता है, आजायबघरों मे
देखने को मिले तो मिलें। अभी तो उनके दिमाग ही नही मिलते। अरे साहब, रास्ता निकलना दुश्वार कर दिया है, गोया कुल सड़क उन्ही के वास्ते है और हमारे
वास्ते पटरी और धूल! अभी ऐठतें है, हवाई जहाजों को
आने दीजिए। क्यो हूजुर, इन मोटर वाले की
आधी आमदनी लेकर सरकार सड़क की मरम्मत मे क्यों नही खर्च करती? या पेट्रोल पर चौगुना टैक्स लगा दे। यह अपने को
टैक्सी कहते है, इसके माने तो
टैक्स देने वाले है। ऐ हुजूर, मेरी बुढिया कहती
है इक्का छोड़ तांगा लिया, मगर अब तांगे मे
भी कुछ नही रहा, मोटर लो। मैने
जवाब दिया कि अपने हाथ-पैर की सवारी रखोगी या दूसरे के। बस हुजूर वह चुप हे गयी।
और सुनिए, कल की बात है कल्लन ने
मोटर चलाया, मियां एक दरख्त
से टकरागये, वही शहीद हो गये।
एक बेवा और दस बच्चे यतीम छोड़े। हुजूर, मै गरीब आदमी हूं, अपने बच्चों को
पाल लेता हूं, और क्या चाहिए।
आज कुछ कम चालीस साल से इक्केवानी करता हूं, थोड़े दिन और रहे वह भी इसी तरह चाबुक लिये कट जायेगें। फिर
हुजूर देखें, तो इक्का,
तांगा और घोड़ा गिरे पर भी कुछ-न-कुछ दे ही
जायेगा। बरअक्स इसके मोटर बन्द हो जाय तो हुजूर उसका लोहा दो रूपये मे भी कोई न
लेगा। हुजूर घोड़ा घोड़ा ही है, सवारियां पैदल जा
रही है, या हाथी की लाश खीचं रही
है। हुजूर घोड़े पर हर तरह का काबू और हर सूरत मे नफा। मोटर मे कोई आराम थोड़े ही
है। तांगे मे सवारी भी सो रही है, हम भी सो रहे है
और घोड़ा भी सो रहा है मगर मंजिल तय हो रही है। मोटर के शारे से तो कान के पर्दे
फटते है और हांकने वाले को तो जैस चक्की पीसना पड़ता है।
ऐ हुजूर, औरतों भी इक्के-तांगे को बड़ी बेदर्दी से
इस्तेमाल करती है। कल की बात है, सात-आठ औरते आई
और पूछने लगी कि तिरेबेनी का क्यो लोगे।
हुजूर निर्ख तो तय है, कोई व्हाइटवे की
दुकान तो है नहीं कि साल मे चार बार सेल
हो। निर्ख से हमारी मजदूरी चुका दो और दुआए लो। यों तो हुजूर मालिक है, चाहें एक बर कुछ न दें मगर सरकार, औरतें एक रूपए का काम हे तो आठ ही आना देती
हैं। हुजूर हम तो साहब लोगों का काम करते है। शरीफ हमशा शरीफ रहते है ओर हुजूर औरत
हर जगह औरत ही रहेगी। एक तो पर्दे के बहाने से हम लोग हटा दिए जाते है।
इक्के-तांगे मे दर्जनों सवरियां और बच्चे बैठ जाते है। एक बार इक्के की कमानी टूटी
तो उससे एक न दो पूरी तेरह औरते निकल आई। मै गरीब आदमी मर गयां। हुजूर सबको हैरत
होती है कि किस तरह ऊपर नीचें बैठ लेती है कि कैची मारकर बैठती है। तांगे मे भी
जान नही बचती। दोनों घुटनो पर एक-एक बच्चा को भी ले लेती है। इस तरह हुजूर तांगे
के अन्दर सर्कस का-सा नक्शा हो जाता है। इस पर भी पूरी-पूरी मजदूरी यह देना जानती
ही नहीं। पहले तो पर्दे को जारे था। मर्दो से बातचीत हुई और मजदूरी मिल गई। जब से
नुमाइश हुई, पर्दा उखड गया और
औरतें बाहन आने-जानें लगी। हम गरीबों का सरासर नुकसान होता है। हुजूर हमारा भी
अल्लाह मालिक है। साल मे मै भी बराबर हो रहता हूं। सौ सुनार की तो एक लोहार की भी
हो जाती है। पिछले महीने दो घंटे सवारी के बाद आठ आने पैसे देकर बी अन्दर भागीं।
मेरी निगाह जो तांगे पर पड़ी तो क्या देखताहूं कि एक सोने का झुमका गिरकर रह गया।
मै चिल्लाया माई यह क्या, तो उन्होने कहा
अब एक हब्बा और न मिलेग और दरवाजा बन्द। मै दो-चार मिनट तक तो तकता रह गया मगर फिर
वापस चला आया। मेरी मजूदरी माई के पास रही गई और उनका झुमका मेरे पास।
कल की बात है,
चार स्वाराजियों न मेरा तांगा किया, कटरे से स्टेशन चले, हुकुम मिला कि तेज चलों। रास्ते-भर गांधीजी की जय! गांधीजी
की जय! पुकारते गए। कोई साहब बाहर से आ रहे थे और बड़ी भीड़े और जुलूस थे। कठपुतली
की तरह रास्ते-,भर उछलते-कूदते
गए। स्टेशन पहुचकर मुश्किल से चार आने दिए। मैने पूर किराया मांगा, मगर
वहां गांधी जी की जय! गांधी जी की जय के सिवाय क्या था! मै चिल्लाया मेरा
पेट! मेरा पेट! मेरातांगा थिएटर का स्टेज था, आप नाचे-कूदे और अब मजदूरी नी देते! मगर मै चिल्लाता ही रहा,
वह भीड़ मे गायब हो गए। मै तो समझता हू कि लोग
पागल हो गए है, स्वराज मांगते है,
इन्ही हरकतों पर स्वराज मिलेगा! ऐ हुजूर अजब
हवा चल रही है। सुधर तो करते नही, स्वराज मांगते
है। अपने करम तो पहले दुरूस्त होले। मेरे लड़के को बरगलाया, उसने सब कपड़े इकटठे किए और लगा जिद करने कि आग लाग दूंगा।
पहले तो मैने समझाया कि मै गरीब आदमी हूं, कहा से और कपड़े लाऊंगा, मगर जब वह न माना
तो मैने गिराकर उसको खूब मारा। फिर क्या था होश ठिकाने हो गए। हुजूर जब वक्त आएगा
तो हमी इक्के-तांगेवाला स्वराज हांककर लांएगे। मोटर पर स्वराज हर्गिज न आएगा। पहले
हमको पूरी मजदूरी दो फिर स्वराज मांगो। हुजूर औरते तो औरतें हम उनसे न जबान खोल
सकते है न कुछ कह सकते है, वह जो कुछ दे देती है, लेना पड़ता है। मगर कोई-कोई नकली शरीफ लोग औरतो के भी कान
काटते है। सवार होने से पहले हमारे नम्बर देखते है, अगर कोई चील रास्ते मे उनकी लापरवाही से गिर जाय तो वह भी
हमारे सिर ठोकते है और मजा यह कि किराया कम दे तो हम उफ न करें। एक बार का जिक्र सुनिए, एक नकली ‘वेल-वेल’ करके लाट साहब के दफ्तर गए, मुझको बाहर छोड़ा और कहां कि एक मिनट मे आते है,
वह दिन है कि आज तक इन्तजार ही कर रहा हूं। अगर
यह हजरत कही दिखाई दिये तो एक बार तो दिल खोलकर बदला ले लूंगा फिर चाहे जो कुछ हो।
अब न पहले के-से
मेहरबान रहे न पहले की-सी हालत। खुदा जाने शराफत कहां गायब हो गई। मोटर के साथ हवा हुई जाती है। ऐ हुजूर आप
ही जैसे साहब लोग हम इक्केवालों की कद्र करते थे, हमसें भी इज्जत पेश आते थे। अब वह वक्त है कि हम लोग छोटे
आदमी है, हर बात पर गाली मिलती है,
गुस्सा सहना पड़ता है। कल दो बाबू लोग जा रहे
थे, मैने पूछा, तांगा…तो एक ने कहा, नही हमको जल्दी
है। शायद यह मजाक होगां। आगे चलकर एक साहब पूछते है कि टैक्सी कहां मिलेगी?
अब कहिए यह छोटा शहर है, हर जगह जल्द से जल्द हम लोग पहुचा देते है। इस पर भी हमीं
बतलाएं किटैक्सी कहां मिलेगी। अन्धेरे है अन्धेरे! खयाल तो कीजिए यह नन्ही सी जान
घोड़ों की, हम और हमारे बाल-बच्चे और
चौदह आने घंटा। हुजूर, चौदह आने मे तो
घोड़ी को एक कमची भी लगाने को जी नही चाहता। हुजूर हमें तो कोई चौबीस घंटे के
वास्ते मोल ले ले।
कोई-कोई साहब हमीं से नियारियापन करते है। चालीस साल से हुजूर, यहीकाम कर रहा हूं। सवारी को देखा और भांप गए
कि क्या चाहते है। पैसा मिला और हमारी घोड़ी के पर निकल आए। एक साहब ने बड़े
तूम-तड़ाक के बाद घंटों के हिसाब से तांगा तय किया और वह भी सरकारी रेट से कम। आप
देखे कि चुंगी ही ने रेट मुकर्रर करते वक्त जान निकाल ली है लेकिन कुछ लोग बगैर
तिलों के तेल निकालना चाते है। खैर मैने भी बेकारी मे कम रेट ही मान लिया। फिर
जनाब थोड़ी दूर चलकर हमारातांगा भी जनाजे की चाल चलने लगा। वह कह रहे है कि भाई
जरा तेज चलो, मै कहता हूं कि
रोज का दिन है, घोड़ी का दम न
टूटे। तब वह फरमाते है, हमें क्या तुमहार
ही घंटा देर मे होगा। सरकार मुझे तो इसमें खुशी है आप ही सवार रहे और गुलाम आपको
फिराता रहे।
लाट साहब के
दफ्तरमें एक बड़े बाबू थे। कटरे मे रहते
थे। खुदा झूठ न बुलवाए उनकी कमर तीन गज से कम न होगी। उनको देखकर इक्के-तांगेवाले
आगे हट जाते थे। कितने ही इक्के वह तोड़ चुक थे। इतने भारी होने पर भी इस सफाई से
कूदते थे कि खुद कभी चोट न खाई। यह गुलाम ही कि हिम्मत थी कि उनको ले जाता था।
खुदा उनको खुश रक्खे, मजदूरी भी अच्छी
देते थे। एक बार मै ईंदू का इक्का लिए जा रहा था, बाबू मिल गए और कहा कि दफ्तर तक पहुचा दोगे? आज देर हो गई है, तुम्हारे घोड़े मे सिर्फ ढाचां ही रह गया है। मैने जवाब
दिया, यह मेरा घोड़ा नही है,
हुजूर तो डबल मजदूरी देते है, हुकूम दे तो दो इक्के एक साथ बांध लू और फिर
चलूं।
और सुनिए,
एक सेठजी ने इक्का भाड़ा किया। सब्जी मंडी से
सब्जीवगैरह ली और भगाते हुए स्टेशन आए। इनाम की लालच मे मै घोड़ी पीटता लाया।
खुदाजानता है, उस रोज जानवर पर
बड़ी मार पड़ी। मेरे हाथ दर्द करने लगे। रेल का वक्त सचमुच बहुत ही तंग था। स्टेशन
पर पहूचें तो मेरे लिए वही चवन्नी। मै बोला यह क्या? सेठ जी कहते है, तुम्हारा भाड़ा तख्ती दिखाओ। मैने कहा देर करे आप और मेरा घोड़ा मुफ्त पीटा
जाय। सेठती जवाब देते है कि भई तुम भी तो जल्दी फरागत पा गए और चोट तुम्हारे तो
लगी नही। मैने कहा कि महाराज इस जानवर पर तो दया किजीए। तब सेठजी ढीले पड़े और
कहां, हां इस गरीब का जरूर
लिहाज होना चाहिए और अपनी टोकरी से चार पत्ते गोभी के निकाले और घोड़ी को खिलाकर
चल दिए। यह भी शायद मजाक होगां मगर मै गरीब मुफ्त मरा। उस वक्त से घोड़ी का हाजमा
बदल गया।
अजब वक्त आ गा है, पब्लिक अब दूसरों का तोलिहाज ही नही करती। रंग-ढ़ग
तौर-तरीका सभी कुछ बदल गए है। जब हम अपनी मजदूरी मांगते है तो जवाब मिलता है कि
तुम्हारी अमलदारी है, खुली सड़क पर लूट
लो! अपने जानवरो को सेठजी हलुआ-जलेबी खिलाएगें, मगर हमारी गर्दन मारेगें। कोई दिन थे, कि हमको किराये के अलावा मालपूर भी मिलते थे।
अब भी इस गिरे जमाने मे भी कभी-कभी शरीफ रईस
नजर आ ही जाते है। एक बार का जिक्र सुनिए,
मेरे तांगे मे सवांरिया बैठी। कश्मीरी होटल से
निकलकर कुछ थोड़ी-सी चढ़ी थी। कीटगंज पहुचकर सामने वाले ने चौरास्ता आने से पहले
ही चौदह आने दिये और उतर गया। फिर पिछली एक सवारी ने उतरकर चौदह आने दिए। अब तीसरी
उतरती नही। मैने कहा कि हजरत चौराहा आ गया। जवाब नदारद। मैने कहा कि बाबू इन्हे भी
उतार लो। बाबू ने देखा-भाला मगर वह नशे मे चूर है उतार कौन! बाबू बोले अब क्या
करें। मैने कहा—क्या करोगे।
मामला तो बिल्कुल साफ है। थाने जाइए और अगर दस मिनट मे काई वारिस ने पैदा हो तो
माल आपका।
बस हुजूर, इस पेश मे भी नित नये तमाशे देखने मे आते है। इन आखों सब
कुछ देखा है हुजूर। पर्दे पड़ते थे, जाजिमें बांधी जाती थी, घटाटोप लगाये
जाते थे, तब जनानी सवारियां बैठती
थी। अब हुजूर अजब हालत है, पर्दा गया हवा के
बहाने से। इक्का कुछ सुखो थोड़ा ही छोड़ा है। जिसको देखो यही कहता थाकि इक्का नही
तांगा लाओं, आराम को न देखा।
अब जान को नही देखते और मोटर-मोटर, टैक्सी-टैक्सी
पुकारते है। हुजूर हमें क्या हम तो दो दिन
के मेहमान है, खुदा जो दिखायेगा,
देख लेगें।
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