माता का ह्रदय
माधवी की आंखों में सारा संसार अंधेरा हो रहा था । काई अपना
मददगार दिखाई न देता था। कहीं आशा की झलक न थी। उस निर्धन घर में वह अकेली पडी
रोती थी और कोई आंसू पोंछने वाला न था। उसके पति को मरे हुए २२ वर्ष हो गए थे। घर
में कोई सम्पत्ति न थी। उसने न- जाने किन तकलीफों से अपने बच्चे को पाल-पोस कर बडा
किया था। वही जवान बेटा आज उसकी गोद से छीन लिया गया था और छीनने वाले कौन थे ?
अगर मृत्यु ने छीना होता तो वह सब्र कर
लेती। मौत से किसी को द्वेष नहीं होता। मगर स्वार्थियों के हाथों यह अत्याचार असहृ
हो रहा था। इस घोर संताप की दशा में उसका जी रह-रह कर इतना विफल हो जाता कि इसी
समय चलूं और उस अत्याचारी से इसका बदला लूं जिसने उस पर निष्ठुर आघात किया है।
मारूं या मर जाऊं। दोनों ही में संतोष हो जाएगा।
कितना सुंदर, कितना
होनहार बालक था ! यही उसके पति की निशानी, उसके जीवन का आधार उसकी अम्रं भर की कमाई थी। वही लडका इस वक्त
जेल मे पडा न जाने क्या-क्या तकलीफें झेल रहा होगा ! और उसका अपराध क्या था ?
कुछ नही। सारा मुहल्ला उस पर जान देता
था। विधालय के अध्यापक उस पर जान देते थे। अपने-बेगाने सभी तो उसे प्यार करते थे। कभी उसकी कोई शिकायत
सुनने में नहीं आयी।ऐसे बालक की माता होन पर उसे बधाई देती थी। कैसा सज्जन,
कैसा उदार, कैसा परमार्थी ! खुद भूखो सो रहे मगर
क्या मजाल कि द्वार पर आने वाले अतिथि को रूखा जबाब दे। ऐसा बालक क्या इस योग्य था
कि जेल में जाता ! उसका अपराध यही था, वह कभी-कभी सुनने वालों को अपने दुखी भाइयों का दुखडा सुनाया
करता था। अत्याचार से पीडित प्राणियों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था। क्या
यही उसका अपराध था?
दूसरो की सेवा करना भी अपराध है ? किसी अतिथि को आश्रय देना भी अपराध है ?
इस युवक का नाम आत्मानंद था। दुर्भाग्यवश उसमें वे सभी सद्गुण
थे जो जेल का द्वार खोल देते है। वह निर्भीक था, स्पष्टवादी था, साहसी था, स्वदेश-प्रेमी था, नि:स्वार्थ था, कर्तव्यपरायण था। जेलल जाने के लिए
इन्हीं गुणो की जरूरत है। स्वाधीन प्राणियों के लिए वे गुण स्वर्ग का द्वार खोल
देते है, पराधीनो के लिए नरक
के ! आत्मानंद के सेवा-कार्य ने, उसकी
वक्तृतताओं ने और उसके राजनीतिक लेखो ने उसे सरकारी कर्मचारियों की नजरों में चढा
दिया था। सारा पुलिस-विभाग नीचे से ऊपर तक उससे सर्तक रहता था, सबकी निगाहें उस पर लगीं रहती थीं। आखिर
जिले में एक भयंकर डाके ने उन्हे इच्छित अवसर प्रदान कर दिया।
आत्मानंद के घर की तलाशी हुई, कुछ पत्र और लेख मिले, जिन्हें पुलिस ने डाके का बीजक सिद्व
किया। लगभग २० युवकों की एक टोली फांस ली गयी। आत्मानंद इसका मुखिया ठहराया गया।
शहादतें हुई । इस बेकारी और गिरानी के जमाने में आत्मा सस्ती और कौन वस्तु हो सकती
है। बेचने को और किसी के पास रह ही क्या गया है। नाम मात्र का प्रलोभन देकर
अच्छी-से-अच्छी शहादतें मिल सकती है, और पुलिस के हाथ तो निकृष्ट-से- निकृष्ट गवाहियां भी देववाणी
का महत्व प्राप्त कर लेती है। शहादतें मिल गयीं, महीनें-भर तक मुकदमा क्या चला एक स्वांग
चलता रहा और सारे अभियुक्तों को सजाएं दे दी गयीं। आत्मानंद को सबसे कठोर दंड मिला
८ वर्ष का कठिन कारावास। माधवी रोज कचहरी जाती; एक
कोने में बैठी सारी कार्यवाई देखा करती।
मानवी चरित्र कितना दुर्बल, कितना नीच है, इसका उसे अब तक अनुमान भी न हुआ था। जब
आत्मानंद को सजा सुना दी गयी और वह माता को प्रणाम करके सिपाहियों के साथ चला तो माधवी मूर्छित होकर
गिर पडी । दो-चार सज्जनों ने उसे एक तांगे पर बैठाकर घर तक पहुंचाया। जब से वह होश
में आयी है उसके हृदय में शूल-सा उठ रहा है। किसी तरह धैर्य नही होता । उस घोर
आत्म-वेदना की दशा में अब जीवन का एक लक्ष्य
दिखाई देता है और वह इस अत्याचार का बदला है।
अब तक पुत्र उसके जीवन का आधार था। अब शत्रुओं से बदला लेना ही
उसके जीवन का आधार होगा। जीवन में उसके लिए कोई आशा न थी। इस अत्याचार का बदला
लेकर वह अपना जन्म सफल समझगी। इस अभागे नर-पिशाच बगची ने जिस तरह उसे रक्त के आसूं
रॅलाये हैं उसी भांति यह भी उस रूलायेगी। नारी-हृदय कोमल है लेकिन केवल अनुकूल दशा
में: जिस दशा में पुरूष दूसरों को दबाता है, स्त्री शील और विनय की देवी हो जाती है।
लेकिन जिसके हाथों में अपना सर्वनाश हो गया हो उसके प्रति स्त्री की पुरूष से कम
घ्ज्ञृणा ओर क्रोध नहीं होता अंतर इतना ही है कि पुरूष शास्त्रों से काम लेता है,
स्त्री कौशल से ।
रा भीगती जाती थी और माधवी उठने का नाम न लेती थी। उसका दु:ख
प्रतिकार के आवेश में विलीन होता जाता था। यहां तक कि इसके सिवा उसे और किसी बात
की याद ही न रही। उसने सोचा, कैसे
यह काम होगा? कभी
घर से नहीं निकली।वैधव्य के २२ साल इसी घर कट गये लेकिन अब निकूलूंगीं। जबरदस्ती
निकलूंगी, भिखारिन बनूगीं,
टहलनी बनूगी, झूठ बोलूंगी, सब कुकर्म करूंगी। सत्कर्म के लिए संसार
में स्थान नहीं। ईश्वर ने निराश होकर कदाचित् इसकी ओर से मुंह फेर लिया है। जभी तो
यहां ऐसे-ऐसे अत्याचार होते है। और पापियों को दडं नहीं मिलता। अब इन्हीं हाथों से
उसे दंड दूगी।
संध्या का समय था। लखनऊ के एक सजे हुए बंगले में मित्रों की
महफिल जमी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। एक तरफ आतशबाजियां रखी हुई थीं। दूसरे
कमरे में मेजों पर खना चुना जा रहा था। चारों तरफ पुलिस के कर्मचारी नजर आते थें
वह पुलिस के सुपरिंटेंडेंट मिस्टर बगीची का बंगला है। कई दिन हुए उन्होने एक
मार्के का मुकदमा जीता था।अफसरो ने खुश होकर उनकी तरक्की की दी थी। और उसी की खुशी
में यह उत्सव मनाया जा रहा था। यहां आये दिन ऐसे उत्सव होते रहते थे। मुफ्त के
गवैये मिल जाते थे, मुफ्त
की अतशबाजी; फल
और मेवे और मिठाईयां आधे दामों पर बाजार से आ जाती थीं। और चट दावतो हो जाती थी।
दूसरों के जहों सौ लगते, वहां
इनका दस से काम चल जाता था। दौड़-धूप करने को सिपाहियों की फौज थी हीं। और यह
मार्के का मुकदमा क्या था? वह
जिसमें निरपराध युवकों को बनावटी शहादत से जेल
में ठूस दिया गया था।
गाना समाप्त होने पर लोग भोजन करने बैठें। बेगार के मजदूर और
पल्लेदार जो बाजार से दावत और सजावट के सामान लाये थे, रोते या दिल में गालियां देते चले गये
थे; पर एक बुढ़िया अभी तक
द्वार पर बैठी हुई थी। और अन्य मजदूरों की तरह वह भूनभुना कर काम न करती थी। हुक्म
पाते ही खुश-दिल मजदूर की तरह हुक्म बजा लाती थी। यह मधवी थी, जो इस समय मजूरनी का वेष धारण करके अपना
घतक संकल्प पूरा करने आयी। थी।
मेहमान चले गये। महफिल उठ गयी। दावत का समान समेट दिया गया।
चारों ओर सन्नाटा छा गया; लेकिन
माधवी अभी तक वहीं बैठी थी।
सहसा मिस्टर बागची ने पूछा—बुड्ढी तू यहां क्यों बैठी है? तुझे कुछ खाने को मिल गया?
माधवी—हां
हुजूर, मिल गया। बागची—तो जाती क्यों नहीं?
माधवी—कहां
जाऊं सरकार , मेरा
कोई घर-द्वार थोड़े ही है। हुकुम हो तो यहीं पडी रहूं। पाव-भर आटे की परवस्ती हो
जाय हुजुर।
बगची –नौकरी
करेगी?2
माधवी—क्यो
न करूंगी सरकार, यही
तो चाहती हूं।
बागची—लड़का
खिला सकती है?
माधवी—हां
हजूर, वह मेरे मन का काम
है।
बगची—अच्छी
बात है। तु आज ही से रह। जा घर में देख, जो काम बतायें, वहा
कर।
एक महीना गुजर गया। माधवी इतना तन-मन से काम करती है कि सारा घर
उससे खुश है। बहू जी का मीजाज बहुम ही चिड़चिड़ा है। वह दिन-भर खाट पर पड़ी रहती
है और बात-बात पर नौकरों पर झल्लाया करती है। लेकिन माधवी उनकी घुड़कियों को भी
सहर्ष सह लेती है। अब तक मुश्किल से कोई दाई एक सप्ताह से अधिक ठहरी थी। माधवी का
कलेजा है कि जली-कटी सुनकर भी मुख पर मैल नहीं आने देती।
मिस्टर बागची के कई लड़के हो चुके थे, पर यही सबसे छोटा बच्चा बच रहा था।
बच्चे पैदा तो हृष्ट-पृष्ट होते, किन्तु
जन्म लेते ही उन्हे एक –न
एक रोग लग जाता था और कोई दो-चार महीनें, कोई साल भर जी कर चल देता था। मां-बाप दोनों इस शिशु पर प्राण
देते थे। उसे जरा जुकाम भी हो तो दोनो
विकल हो जाते। स्त्री-पुरूष दोनो शिक्षित थे, पर बच्चे की रक्षा के लिए टोना-टोटका ,
दुआता-बीच, जन्तर-मंतर एक से भी उन्हें इनकार न था।
माधवी से यह बालक इतना हिल गया कि एक क्षण के लिए भी उसकी गोद
से न उतरता। वह कहीं एक क्षण के लिए चली
जाती तो रो-रो कर दुनिया सिर पर उठा लेता। वह सुलाती तो सोता, वह दूध पिलाती तो पिता, वह खिलाती तो खेलता, उसी को वह अपनी माता समझता। माधवी के
सिवा उसके लिए संसार में कोई अपना न था। बाप को तो वह दिन-भर में केवल दो-नार बार
देखता और समझता यह कोई परदेशी आदमी है। मां आलस्य और कमजारी के मारे गोद में लेकर
टहल न सकती थी। उसे वह अपनी रक्षा का भार संभालने के योग्य न समझता था, और नौकर-चाकर उसे गोद में ले लेते तो
इतनी वेदर्दी से कि उसके कोमल अंगो मे
पीड़ा होने लगती थी। कोई उसे ऊपर उछाल देता था, यहां तक कि अबोध शिशु का कलेजा मुंह को
आ जाता था। उन सबों से वह डरता था। केवल माधवी थी जो उसके स्वभाव को समझती थी। वह
जानती थी कि कब क्या करने से बालक प्रसन्न होगा। इसलिए बालक को भी उससे प्रेम था।
माधवी ने समझाया था, यहां कंचन बरसता होगा; लेकिन उसे देखकर कितना विस्मय हुआ कि बडी मुश्किल से महीने का
खर्च पूरा पडता है। नौकरों से एक-एक पैसे का हिसाब लिया जाता था और बहुधा आवश्यक
वस्तुएं भी टाल दी जाती थीं। एक दिन माधवी ने कहा—बच्चे के लिए कोई तेज गाड़ी क्यों नहीं
मंगवा देतीं। गोद में उसकी बाढ़ मारी जाती है।
मिसेज बागजी ने कुठिंत होकर कहा—कहां से मगवां दूं? कम से कम ५०-६० रुपयं में आयेगी। इतने
रुपये कहां है?
माधवी—मलकिन,
आप भी ऐसा कहती है!
मिसेज बगची—झूठ
नहीं कहती। बाबू जी की पहली स्त्री से पांच लड़कियां और है। सब इस समय इलाहाबाद के
एक स्कूल में पढ रही हैं। बड़ी की उम्र १५-१६ वर्ष से कम न होगी। आधा वेतन तो उधार
ही चला जाता है। फिर उनकी शादी की भी तो फिक्र है। पांचो के विवाह में कम-से-कम २५
हजार लगेंगे। इतने रूपये कहां से आयेगें। मै चिंता के मारे मरी जाती हूं। मुझे कोई
दूसरी बीमारी नहीं है केवल चिंता का रोग है।
माधवी—घूस
भी तो मिलती है।
मिसेज बागची—बूढ़ी,
ऐसी कमाई में बरकत नहीं होती। यही क्यों
सच पूछो तो इसी घूस ने हमारी यह दुर्गती कर रखी है। क्या जाने औरों को कैसे हजम
होती है। यहां तो जब ऐसे रूपये आते है तो कोई-न-कोई नुकसान भी अवश्य हो जाता है।
एक आता है तो दो लेकर जाता है। बार-बार मना
करती हूं, हराम की कौड़ी घर मे
न लाया करो, लेकिन
मेरी कौन सुनता है।
बात यह थी कि माधवी को बालक से स्नेह होता जाता था। उसके अमंगल
की कल्पना भी वह न कर सकती थी। वह अब उसी की नींद सोती और उसी की नींद जागती थी।
अपने सर्वनाश की बात याद करके एक क्षण के लिए बागची पर क्रोध तो हो आता था और घाव
फिर हरा हो जाता था; पर
मन पर कुत्सित भावों का आधिपत्य न था। घाव भर रहा था, केवल ठेस लगने से दर्द हो जाता था।
उसमें स्वंय टीस या जलन न थी। इस परिवार पर अब उसे दया आती थी। सोचती, बेचारे यह छीन-झपट न करें तो कैसे गुजर
हो। लड़कियों का विवाह कहां से करेगें! स्त्री को जब देखो बीमार ही रहती है। उन पर
बाबू जी को एक बोतल शराब भी रोज चाहिए। यह लोग स्वयं अभागे है। जिसके घर में
५-५क्वारी कन्याएं हों, बालक
हो-हो कर मर जाते हों, घरनी
दा बीमार रहती हो, स्वामी
शराब का तली हो, उस
पर तो यों ही ईश्वर का कोप है। इनसे तो मैं अभागिन ही अच्छी!
दुर्बल बलकों के लिए बरसात बुरी बला है। कभी खांसी है, कभी ज्वर, कभी दस्त। जब हवा में ही शीत भरी हो तो
कोई कहां तक बचाये। माधवी एक दिन आपने घर चली गयी थी। बच्चा रोने लगा तो मां ने एक
नौकर को दिया, इसे
बाहर बहला ला। नौकर ने बाहर ले जाकर हरी-हरी घास पर बैठा दिया,। पानी बरस कर निकल गया था। भूमि गीली
हो रही थी। कहीं-कहीं पानी भी जमा हो गया था। बालक को पानी में छपके लगाने से
ज्यादा प्यारा और कौन खेल हो सकता है। खूब प्रेम से उमंग-उमंग कर पानी में लोटने
लगां नौकर बैठा और आदमियों के साथ गप-शप करता घंटो गुजर गये। बच्चे ने खूब सर्दी
खायी। घर आया तो उसकी नाक बह रही थीं रात
को माधवी ने आकर देखा तो बच्चा खांस रहा था। आधी रात के करीब उसके गले से खुरखुर
की आवाज निकलने लगी। माधवी का कलेजा सन से हो गया। स्वामिनी को जगाकर बोली—देखो तो बच्चे को क्या हो गया है। क्या
सर्दी-वर्दी तो नहीं लग गयी। हां, सर्दी
ही मालूम होती है।
स्वामिनी हकबका कर उठ बैठी और बालक की खुरखराहट सुनी तो पांव
तलेजमीन निकल गयीं यह भंयकर आवाज उसने कई बार सुनी थी और उसे खूब पहचानती थी।
व्यग्र होकर बोली—जरा
आग जलाओ। थोड़ा-सा तंग आ गयी। आज कहार जरा देर के लिए बाहर ले गया था, उसी ने सर्दी में छोड़ दिया होगा।
सारी रात दोंनो बालक को सेंकती रहीं। किसी तरह सवेरा हुआ।
मिस्टर बागची को खबर मिली तो सीधे डाक्टर के यहां दौड़े। खैरियत इतनी थी कि जल्द
एहतियात की गयी। तीन दिन में अच्छा हो गया; लेकिन इतना दुर्बल हो गया था कि उसे देखकर डर लगता था। सच पूछों
तो माधवी की तपस्या ने बालक को बचायां। माता-पिता सो जाता, किंतु माधवी की आंखों में नींद न थी। खना-पीना तक भूल गयी। देवताओं की
मनौतियां करती थी, बच्चे
की बलाएं लेती थी, बिल्कुल
पागल हो गयी थी, यह
वही माधवी है जो अपने सर्वनाश का बदला लेने आयी थी। अपकार की जगह उपकार कर रही
थी।विष पिलाने आयी थी, सुधा
पिला रही थी। मनुष्य में देवता कितना प्रबल है!
प्रात:काल का समय था। मिस्टर बागची शिशु के झूले के पास बैठे
हुए थे। स्त्री के सिर में पीड़ा हो रही थी। वहीं चारपाई पर लेटी हुई थी और माधवी
समीप बैठी बच्चे के लिए दुध गरम कर रही थी। सहसा बागची ने कहा—बूढ़ी, हम जब तक जियेंगे तुम्हारा यश गयेंगे।
तुमने बच्चे को जिला लियां
स्त्री—यह
देवी बनकर हमारा कष्ट निवारण करने के लिए आ गयी। यह न होती तो न जाने क्या होता।
बूढ़ी, तुमसे मेरी एक विनती
है। यों तो मरना जीना प्रारब्ध के हाथ है, लेकिन अपना-अपना पौरा भी बड़ी चीज है। मैं अभागिनी हूं। अबकी
तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से बच्चा संभल गया। मुझे डर लग रहा है कि ईश्वर इसे
हमारे हाथ से छीन ने ले। सच कहतीं हूं बूढ़ी, मुझे इसका गोद में लेते डर लगता हैं।
इसे तुम आज से अपना बच्चा समझो। तुम्हारा होकर शायद बच जाय। हम अभागे हैं, हमारा होकर इस पर नित्य कोई-न-कोई संकट
आता रहेगा। आज से तुम इसकी माता हो जाआ। तुम इसे अपने घर ले जाओ। जहां चाहे ले जाओ,
तुम्हारी गोंद मे देर मुझे फिर कोई
चिंता न रहेगी। वास्तव में तुम्हीं इसकी माता हो, मै तो राक्षसी हूं।
माधवी—बहू
जी, भगवान् सब कुशल
करेगें, क्यों जी इतना छोटा
करती हो?
मिस्टर बागची—नहीं-नहीं
बूढ़ी माता, इसमें
कोई हरज नहीं है। मै मस्तिष्क से तो इन बांतो को ढकोसला ही समझता हूं; लेकिन हृदय से इन्हें दूर नहीं कर सकता।
मुझे स्वयं मेरी माता जीने एक धाबिन के हाथ बेच दिया था। मेरे तीन भाई मर चुके थे।
मै जो बच गया तो मां-बाप ने समझा बेचने से ही इसकी जान बच गयी। तुम इस शिशु को
पालो-पासो। इसे अपना पुत्र समझो। खर्च हम बराबर देते रहेंगें। इसकी कोई चिंता मत
करना। कभी –कभी जब हमारा जी
चाहेगा, आकर देख लिया करेगें।
हमें विश्वास है कि तुम इसकी रक्षा हम लोंगों से कहीं अच्छी तरह कर सकती हो। मैं
कुकर्मी हूं। जिस पेशे में हूं, उसमें
कुकर्म किये बगैर काम नहीं चल सकता। झूठी शहादतें बनानी ही पड़ती है, निरपराधों को फंसाना ही पड़ता है। आत्मा
इतनी दुर्बल हो गयी है कि प्रलोभन में पड़ ही जाता हूं। जानता ही हूं कि बुराई का
फल बुरा ही होता है; पर
परिस्थिति से मजबूर हूं। अगर न करूं तो आज नालायक बनाकर निकाल दिया जाऊं। अग्रेज
हजारों भूलें करें, कोई
नहीं पूछता। हिनदूस्तानी एक भूल भी कर बैठे तो सारे अफसर उसके सिर हो जाते है।
हिंदुस्तानियत को दोष मिटाने केलिए कितनी ही ऐसी
बातें करनी पड़ती है जिनका अग्रेंज के दिल में कभी ख्याल ही नहीं पैदा हो
सकता। तो बोलो, स्वीकार
करती हो?
माधवी गद्गद् होकर बोली—बाबू जी, आपकी इच्छा है तो मुझसे भी जो कुछ बन
पडेगा, आपकी सेवा कर दूंगीं
भगवान् बालक को अमर करें, मेरी
तो उनसे यही विनती है।
माधवी को ऐसा मालूम हो रहा था कि स्वर्ग के द्वार सामने खुले
हैं और स्वर्ग की देवियां अंचल फैला-फैला कर आशीर्वाद दे रही हैं, मानो उसके अंतस्तल में प्रकाश की
लहरें-सी उठ रहीं है। स्नेहमय सेवा में कि कितनी शांति थी।
बालक अभी तक चादर ओढ़े सो रहा था। माधवी ने दूध गरम हो जाने पर
उसे झूले पर से उठाया, तो
चिल्ला पड़ी। बालक की देह ठंडी हो गयी थी और मुंह पर वह पीलापन आ गया था जिसे
देखकर कलेजा हिल जाता है, कंठ
से आह निकल आती है और आंखों से आसूं बहने लगते हैं। जिसने इसे एक बारा देखा है फिर
कभी नहीं भूल सकता। माधवी ने शिशु को गोंद से चिपटा लिया, हालाकिं नीचे उतार दोना चाहिए था।
कुहराम मच गया। मां बच्चे को गले से लगाये रोती थी; पर उसे जमीन पर न सुलाती थी। क्या बातें
हो रही रही थीं और क्या हो गया। मौत को धोखा दोने में आन्नद आता है। वह उस वक्त कभी नहीं आती जब लोग उसकी राह देखते
होते हैं। रोगी जब संभल जाता है, जब
वह पथ्य लेने लगता है, उठने-बैठने
लगता है, घर-भर खुशियां मनाने
लगता है, सबकों विश्वास हो
जाता है कि संकट टल गया, उस
वक्त घात में बैठी हुई मौत सिर पर आ जाती है। यही उसकी निठुर लीला है।
आशाओं के बाग लगाने में हम कितने कुशल हैं। यहां हम रक्त के
बीज बोकर सुधा के फल खाते हैं। अग्नि से पौधों को सींचकर शीतल छांह में बैठते हैं।
हां, मंद बुद्धि।
दिन भर मातम होता रहा; बाप रोता था, मां
तड़पती थी और माधवी बारी-बारी से दोनो को समझाती थी।यदि अपने प्राण देकर वह बालक
को जिला सकती तो इस समया अपना धन्य भाग समझती। वह अहित का संकल्प करके यहां आयी थी
और आज जब उसकी मनोकामना पूरी हो गयी और उसे खुशी से फूला न समाना चाहिए था,
उस उससे कहीं घोर पीड़ा हो रही थी जो
अपने पुत्र की जेल यात्रा में हुई थी। रूलाने आयी थी और खुद राती जा रहीं थी। माता
का हृदय दया का आगार है। उसे जलाओ तो उसमें दया की ही सुगंध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। वह
देवी है। विपत्ति की क्रूर लीलाएं भी उस स्वच्छ निर्मल स्रोत को मलिन नहीं कर
सकतीं।
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