Monday, September 19, 2016

जहर और दवा ... अभिमन्यु अनत की कहानी



 जहर और दवा

जब मैंने पिता को यह कहते सुना कि सोफिया हमारे यहाँ आकर घर के कामों को सँभाल लेगी, उस समय मुझे हैरानी तो तनिक भी नहीं हुई, लेकिन मैं उस बात पर काफी देर तक सोचता ही रह गया था। मेरी माँ को अस्पताल में दाखिल हुए आज तीसरा दिन था। उससे दो दिन पहले से ही मेरी बहन चचेरी बहनों के साथ समुद्र किनारे बँगले पर सर्दी की छुट्टियाँ बिता रही थी। हमारे घर के कामों को सँभालने के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत थी, इस बात को मैं पिता से अधिक समझता था। शहर में जहाँ हम रहते हैं, नौकरानियों की कमी नहीं थी, फिर भी सोफिया हमारे घर आ रही थी, इस बात से, जैसे कि मैं ऊपर कह आया हूँ, मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। इस प्रश्न को गौर से सोचते हुए मैं यह मान लेने को विवश था कि मेरे पिता को यह गवारा नहीं कि हाथ आया मौका यों ही चला जाए।


सोफिया को लेकर हमारे घर में काफी झमेला खड़ा हो चुका था। मेरी माँ के पास बात का कोई प्रमाण नहीं था, फिर भी वह सोफिया को मेरे पिता की रखैल मानती थी। नौबत यहाँ तक आ गई थी कि मेरी माँ ने गठरी सँभालते हुए पिता से कहा था कि दो में से एक यहाँ रहेगी। अगर वह रहती है तो सोफिया वाले नाटक की समाप्ति हो जानी चाहिए और अगर सोफिया वाला यह खेल खतम नहीं होता, तो वह इस घर में पल भर के लिए भी रहना पसंद नहीं करेगी।

शायद मेरे पिता को, जो कि सामाजिक सुरक्षा केंद्र के प्रधान हैं, अपनी इज्जत प्यारी थी, इसलिए मेरी माँ द्वारा लगाए आरोप को बेबुनियाद मानते हुए भी उन्होंने शर्त मान ली थी और कह ही डाला था कि सोफिया वाला नाटक समाप्त! मैंने पड़ोस वालों में भी एकाध बार इस बात की चर्चा सुनी थी, पर जब मेरे पिता उसे लांछन मात्र कह कर अपनी सफाई दे डालते, उस समय मैं भी उसे बेबुनियाद ही समझ बैठता।

उस दिन माँ को अपनी पुरानी बीमारी का दौरा पड़ा और उसे चारपाई लेनी पड़ गई थी। मेरे पिता ने उसी क्षण कह दिया था कि घर पर बीमारी के अधिक बढ़ जाने की संभावना हैं इसलिए अस्पताल बेहतर होगा। मेरी माँ को यह बात जरा भी पसंद नहीं थी। कहने लगी थी कि अगर मरना है, तो अपने ही घर की चारदीवारी में मरेगी। कुछ मिनट बाद डाक्टर ने भी मेरे पिता की बात का समर्थन करते हुए कहा था कि मेरी माँ के लिए अस्पताल ही एकमात्र स्थान था। जाते-जाते माँ मेरे पिता को कह गई थी कि वे बिल्ली की अनुपस्थिति में चुहिया को घर की रानी न बना लें।

माँ की यही बात इस समय मेरे कानों में गूँज रही थी। मुझे लगा कि सोफिया इस घर में नौकरानी के रूप में नहीं बल्कि रानी के रूप में पहुँच रही थी।

अपनी माँ का खयाल मुझे अपने पिता से कुछ अधिक था। इसलिए जब सोफिया के आने की बात हुई, तो मैंने चाहा कि अपने पिता से यह कह सोफिया के आगमन को रोक दूँ कि घर के सभी कामों को मैं सँभाल सकता हूँ। लेकिन मेरे पिता मेरे पिता मेरे भीतर इस भावना को ताड़ गए थे, तभी तो मेरे कुछ कहने से पहले ही वे कह उठे थे कि मैं अपना समय नाहक बरबाद न करूँ। सचमुच मेरी परीक्षा सामने थी और मैंने ऐसा अहसास किया कि इस बात की चिंता मुझसे अधिक मेरे पिता को थी।

सुबह को मेरे पिता सिंपोजियम में जाने को तैयार हो रहे थे कि तभी मैं उनके सामने पहुँचा। उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनके सामने मैं अपने आप नहीं पहुँचा था, बल्कि मेरी माँ ने मुझे वहाँ पहुँचने को विवश किया था। सिगरेट के टुकड़े को राखदान में अँगुलियों से कुचल कर मेरे पिता ने अपनी टाई की गाँठ को ठीक करते हुए मेरी ओर देखा। उनकी उस निगाह में यही प्रश्न था, जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी। अपने में आत्मविश्वास लाते हुए सबसे पहले मैंने आपसे कहा कि मैं अब बच्चा थोड़े ही हूँ। मैं बीस पार कर चुका था। पूरा साहस बटोर कर मैंने कहा - सोफिया के बिना भी घर के सभी काम हो सकते हैं।

मेरे इस प्रश्न के समाप्त होने से पहले ही मेरे पिता ने कड़कते स्वर में पूछा - करेगा कौन?

मैं कर सकता था और कौन? पर यह कहने की हिम्मत जाती रही। मुझे सहमा-सा पा कर मेरे पिता ने अपनी आवाज में कुछ नरमी लाते हुए धीरे से कहा - तुम सुबह आठ बजे उठते हो और साढ़े सात बजे मुझे काम पर जाने के लिए घर से निकल जाना पड़ता है।

मुझे वकील बनाना मेरे पिता के जीवन की सबसे बड़ी तमन्ना थी। मैं और वकील! मैं, जो हर दूसरे प्रश्न पर अपने को निरुत्तर पाता हूँ, जो अपने दिमाग के किसी कोने में भी दलील न पा सके। पिता के चले जाने पर मैं देर तक अपनी माँ के बारे में सोचता रहा, फिर सोफिया के बारे में। ऐसे तो सोफिया के बारे में बहुत कुछ सोच चुका हूँ। सोफिया एक बहुचर्चित किस्म की लड़की थी। यही कारण था कि उसके बारे में सोचने के पहले भी कई अवसर मुझे मिल चुके थे। अपने मित्रों द्वारा भी यह सुन चुका हूँ कि यह लाजवाब हैं।

सोफिया के बारे में मैं अपने उस खयाल को अधिक महत्व देता हूँ, जो मैंने माँ से सुना हैं।

अपने कमरे में बैठा मैं यह सोचता रहा कि सोफिया के इस घर में आ जाने पर मेरा क्या कर्तव्य हो जाता है? सोफिया को यह कहकर घर से निकाल देना दुश्वार था कि वह मेरी माँ को फूटी आँख पसंद नहीं, इसलिए मुझे भी उससे घृणा हैं। उसके साथ हिल-मिल कर अपनी आँखे बंद कर लेना भी उतना ही कठिन था। मैं कुछ भी निर्णय नहीं कर पा रहा था; फिर भी मेरे भीतर एक प्रश्न अवश्य था कि किसी भी हालत में मैं उसे अपनी माँ के अधिकारों को लूटने नहीं दे सकता।

कोने में टेलिविजन सेट था। ऑन होने पर जिसके भूरे पर्दे से स्टेशन के सभी के सभी कार्यक्रम दिखाई पड़ते और ऑफ होने पर उसमें कमरे का पूरा दृश्य झिलमिलाता-सा दिखाई पड़ता। उसमें मैं अपने आपको देख रहा था। वह स्क्रीन हमारे घर के शीशों से अधिक निश्छल था, क्योंकि उसमें चेहरे को सौंदर्यमय बनाने की वह शक्ति नहीं थी। मेरे भीतर असमंजस का जो भाव था, वह पर्दे पर के मेरे चेहरे पर स्पष्ट था। मैं अब भी यही सोच रहा था कि क्या कोई भी ऐसा उपाय नहीं, जिससे मैं अपने पिता को इरादा बदलने के लिए मजबूर कर दूँ। पर मेरे पिता को तो प्रमाण चाहिए। ये दलील चाहते हैं, पर दलील आए तो कहाँ से? जो प्रमाण मेरी माँ नहीं दे सकी थी, उसे मैं कहाँ से लाता?

मेरे वे दो मित्र जिन्होंने उस दिन यह कहा था कि मेरे पिता सोफिया को अपनी मोटर में लिए समुद्र के किनारों पर घूमा करते हैं, मेरे पिता के सामने गूँगे हो जाएँगे। इस बात का मुझे पूरा यकीन था।

बहुत पहले मैंने यह बात भी अपने आप में पूछी थी कि मेरे पिता, जो हर जगह आते जाते रहते हैं, कभी भूल से सिलवर होटल की ओर क्यों नहीं भटक जाते! मुझे इस बात का पूरा विश्वास था कि एक बार वहाँ सोफिया को देख कर वे उसे कभी भूल से भी देखने की बात नहीं सोचते। अपने मित्रों के विश्वास के दावे पर मुझे यह विश्वास था।

अपनी कोशिशों के बावजूद जब मुझे यह मालूम हो गया कि सोफिया की छाया इस घर से बाहर रखना उतना ही कठिन था, जितना कि मेरा वकील बनना, तो मैंने जो कुछ होनेवाला था, उसके लिए अपने को तैयार कर लिया। बड़े हो संकल्प के साथ अपने आप से कहा कि उसके आ जाने पर देखा जाएगा।

मैं सोफिया के आने की प्रतीक्षा करता रहा।

उसके हमारे यहाँ पहुँचने से कुछ मिनट पहले मेरे पिता ने अपने डिप्लोमेटिक बैग जैसे बस्ते को मेज पर से उठाते हुए कहा - सोफिया आ रही है। खबरदार, उसके साथ किसी तरह की बदतमीजी न करना।

इससे पहले कि मैं अपने पिता की बातों का मतलब समझता, वे घर से बाहर हो गए थे। अपनी जगह पर खड़ा मैं मोटर के इंजन को स्टार्ट होते हुए सुनता रहा। वह पुरानी मोटर कराहती हुई गेट से बाहर हुई। मैं खिड़की के पास खड़ा उसे देखता रहा। उसके ओझल हो जाने पर भी कुछ देर तक उसकी दर्दनाक आवाज मेरे कानों तक आती रही। जिसके यहाँ आने से मुझे चिढ़ थी, उसी की राह ताकते हुए मैं अपने में बेसब्री महसूस करने लगा था। मेरी आँखे बार-बार घड़ी की ओर पहुँच जाती थी। और मैं अपने बेताब होने के कारण को खुद नहीं समझ पा रहा था।

मुझे अपनी माँ की याद आई। अस्पताल की चारपाई पर वह हमारी याद कर रही होगी। सबसे अधिक याद उसे मेरे पिता की आती होगी और मेरे पिता को सबसे अधिक याद सोफिया की आती होगी। सोफिया इस समय अपने शृंगार को आखिरी टच दे रही होगी और चंद मिनटों में वह हमारे घर का दरवाजा खटखटाएगी। उसके यहाँ पहुँच जाने के एक या दो घंटे बाद मेरे पिता भी सिरदर्द का बहाने से घर लौट आएँगे और मुझे किसी जरूरी काम से घर से बाहर जाना पड़ेगा। ड्राइंगरूम में बैठा मैं दरवाजे पर दस्तक का इंतजार करता रहा।

उसकी उपस्थिति में मैं घर में क्या करूँगा? उसे घर में अकेली छोड़ बाहर चला जाना भी तो ठीक नहीं होगा और उसके सामने बैठे रहना अपने से शायद न हो सके। टेलिविजन पर दिन का कार्यक्रम भी ग्यारह से पहले शुरू नहीं होता। आज टीवी पर श्रीमती इंदिरा गांधी की मॉरिशस यात्रा का प्रोग्राम था। न जाने देखना नसीब होगा या नहीं! खयाल आया, इस समय भारत की प्रधानमंत्री हमारे देश के सबसे रमणीक बाग में वह पौधा लगा रही होंगी जो कोई तीन सौ वर्ष तक हमें उनकी याद दिलाता रहेगा।

मनोरंजन का कोई न कोई साधन ढूँढ़ता रहा। सोचा फोन कर के अपने एक दो मित्रों को भी यहाँ बुला लेना क्या उचित न होगा। परंतु परिस्थिति से प्रोत्साहित मेरे मित्रों से कुछ अनुचित हो गया, तो उसकी कोई जिम्मेदारी मेरी होगी। और चूँकि मैं स्थिर नहीं था, इसलिए कोई उपन्यास लेकर बैठ जाने से भी कुछ नहीं बनता। सोचा, बैठा रहूँगा, जब तक मेरे पिता सिर दर्द के बहाने लौट न आएँ। फिर तो लाइब्रेरी जाने के बहाने मैं संगम देखने पहुँच सकता हूँ। और फिर जो संगम यहाँ होना हो, वह होता रहेगा।

सामने की मेज से अखबार उठा कर, पढ़ने की कोई इच्छा न रखते हुए भी मैंने शीर्षकों और उपशीर्षकों पर दौड़ती नजर डाली। फलाना मंत्री फलाने मिशन पर फलाने देश को जा रहा था। फलाना देश से फलाने मिशन (असफल) के बाद फलाना प्रधानमंत्री द्वीप को लौट रहा था। ये उबा देनेवाली बातें थी। मैंने अखबार को मेज पर रख दिया। कोई पाँच मिनट बाद ही घड़ी की टन्-टन् की आवाज के साथ दरवाजे पर खटखटाहट हुई।

मैं बैठा रहा। खटखटाहट फिर हुई। और तब मैं अपनी जगह से उठ कर दरवाजे की ओर बढ़ा। मेरे खोलने से पहले खटखटाहट एक बार फिर हुई। दरवाजा खुलते ही उसने कहा - हेलो! सो रहे थे क्या?

वह जितनी सुंदर थी, उतनी ही भद्दी थी उसकी वह आवाज। सफेद ब्लाउज और नीले रंग के मिनी स्कर्ट में थी वह। उसकी कमर में वही जंजीर नुमा रोल्ड-गोल्ड की पेटी थी, जिसके लिए मेरी बहन कई दिनों से मेरे पीछे लगी हुई थी। फैशन के बाजार में वह लेटेस्ट था। दुकान तक पहुँच कर भी मैं उसे नहीं खरीद सका था, क्योंकि कीमत काफी ऊँची थी, उसकी आँखों पर मस्कारा स्पष्ट था। होठों की लाली गुलाबी और लाल के बीच के रंग की थी। मेरे कुछ कहने से पहले ही मुस्कराती हुई वह भीतर आ गई।

मेरे दरवाजे बंद कर लौटते-लौटते वह सोफे पर बैठ चुकी थी और उसका बटुआ हाथ में झूल रहा था। वह कुछ कहती कि इससे पहले ही मैं बोल उठा - रसोई उस ओर हैं।

- जानती हूँ। उसने अपनी उस मुस्कान को बनाए रखा।

मैं उससे यह नहीं सुनना चाहता था कि वह पहले भी इस घर में आ चुकी थी, इसलिए आगे बिना कुछ कहे मैं सामने के सोफे पर बैठ गया। उसके वी स्टाइल बालों के उपर वही गोल्डन पिन था, जिसका डिजाइन मेरे पिता की मेज पर के सोख्ते पर था। उसे अपनी ओर एक टक घूरते पा कर मैंने उसे लड़का और अपने को लड़की महसूस किया। मैंने पलकें झुका लीं। मुझे यह समझने में बड़ी कठिनाई हो रही थी कि सोफिया घर के कामों को सँभालने आई थी या घर ही को।

जिस ढंग से सोफे पर बैठी थी, उससे उसकी ओर आँखें उठा कर देखना मुझसे नहीं हो रहा था। उस हालत में उसका मिनी स्कर्ट और भी मिनी हो चला था। अपनी आँखों की ललक को मैंने अपने ही पैरों पर लोटने दिया। मेरी आँखों की हिचकिचाहट और झिझक को समझकर उसने कहा - क्या बात है सोनी?

- कुछ नहीं।

- गँवार लड़कियों की तरह सिर झुकाए क्यों बैठे हो?

मन में आया कि पूछूँ, आखिर मुझे करना क्या हैं, पर चुप रह जाना बेहतर समझा; लेकिन सोफिया को चुप रहना गवारा नहीं था। उसने अपनी भद्दी आवाज में मृदुलता लाने का प्रयास करते हुए कहा - तुम एक प्राइमरी स्कूल के बच्चे-से लग रहे हो।

मुझे उसकी यह बात जरा भी पसंद नहीं आई। मैंने कभी यह नहीं चाहा कि कोई मुझे बच्चा समझे। यह प्रमाणित करने के लिए कि मैं बच्चा नहीं था, मैंने एक समूचे मर्द की नजर से उसकी ओर देखा।

अपने एक पैर को दूसरे पैर पर रखते हुए वह हँस पड़ी। उसकी उस हँसी में व्यंग्य था, जिससे मेरी आँखों की स्निग्धता और भी बढ़ गई। उसका स्कर्ट कुछ उपर हो गया था, जिससे उसकी जाँघों का गोरापन हँसता-सा लग रहा था। मैंने अपने को विचलित-सा पाया। तभी उसने अपने हाथ की चेन को नीचे गिरा दिया, जिसे वह अपनी अँगुली पर घुमा रही थी। वह उसे उठाने के लिए झुक गई। उसके ब्लाउज का खुला हुआ ऊपरी भाग कुछ और अलग हो गया, जिससे मेरे अपने शरीर में सनसनी-सी दौड़ गई। मेरी धमनियों का खून खौल-सा गया। उसने मेरी ओर देखा और मैंने उसकी आँखों में अजीब सा भाव पाया, जिसमें शायद व्यंग्य भी मिश्रित था। हँसते हुए उसने पूछा - मेरी उपस्थिति तुम्हें खल तो नहीं रही हैं?

- नहीं तो...

- तुम घबराए-से लग रहे हो।

बिना कुछ कहे मैं कुछ अधिक सँभल कर बैठ गया। ऐसा करते हुए मैंने अपने भीतर की घबराहट को सचमुच ही झकझोर डालने का प्रयत्न किया।

- क्या पियोगे तुम! घर की मालकिन के स्वर में उसने प्रश्न किया।

- कुछ नहीं।

- पर मुझे तो प्यास लगी है। मैं फ्रिज से तुम्हारे लिए भी कुछ निकाल लाती हूँ।

इसमें जरा भी शक नहीं था कि वह हमारे घर के चप्पे चप्पे को जानती थी।

वह सोफे से उठ कर रसोईघर की ओर जाने लगी। मैं उसकी चाल को देखता रहा, जिसमें पर्याप्त अदा थी। अकेले रह जाने पर मेरे खयाल और भी विद्रोह कर उठे। कई तरह की बातें मेरे दिमाग में कौंधने लगीं थीं। ऐसा लगा मैं अपने आप में नहीं था। अब तक सोफिया के प्रति मेरे भीतर नफरत के जो भाव थे, वे मेरे विद्रोही खयालातों से दब गए थे।

उसकी वे आँखें! वे होंठ! वह उभरा हुआ ब्लाउज! वहाँ की संपूर्णता! फिर मिनी स्कर्ट का कुछ अधिक मिनी हो जाना, वह गोरा रंग!

मुझे अपने भीतर की गर्मी का खयाल आया। एक गर्मी जो काँप रही थी। ये बातें एकदम नई तो नहीं थीं फिर भी नई नई सी लगती थीं नफरत के खत्म हो जाने का मतलब होगा, उससे प्यार हो जाना। मुझे उससे प्यार नहीं था। वह केवल चाह थी जो उसके लिए मैं अपने में महसूस कर रहा था।

उसकी क्षणिक अनुपस्थिति में मुझे अपनी माँ की याद आई और अपने पिता की भी। दूर से आती हुई एक अस्पष्ट आवाज की अनुध्वनि भी मुझे सुनाई पड़ी और ऐसा लगा कि वह मेरी माँ की आवाज थी, यह कहती हुई कि मुझे उसके हक की हिफाजत करनी चाहिए। दो गिलासों में फ्रूट जूस लिए वह आ गई। मेरे एकदम पास आ कर उसने एक गिलास मुझे थमाया। उसके कपड़े और संभवतः समूचे शरीर से एलिजाबेथ आर्डन की भीनी भीनी गंध आ रही थी। उस गंध में एक भारी कशिश थी। एक मूक आमंत्रण था। अपने सोफे पर बैठ कर उसने कहा - तुम दूरी पर बैठे हो!

आज्ञाकारी नौकर की तरह मैं उसके एकदम पासवाले सोफे पर जा बैठा। गिलास से पहली चुस्की लेती हुई वह मुझे एक टक देख रही थी। मैंने भी अपने में दृढ़ता लाते हुए वैसा ही करने का प्रयत्न किया। मुझे ऐसा लगा कि मेरी नजर उससे सट गई हो। हैरत हुई, पर उसे होना था। बात कुछ भी हो, कोई इस बात को नकार नहीं सकता कि सोफिया निहायत हसीन थी।

मेरा दिल जोरों से उछलने लगा था। धड़कनें तेज हो चली थीं। मेरे भीतर का भाव तीव्रता पा चुका था। भीतर की ऊष्मता मेरी आँखों तक आ गई थी। समुद्र के ज्वार भाटे की तरह कोई चीज मुझमें ऊधम मचा रही थी। सोफिया का गोरा हाथ मेरे सोफे पर टिका हुआ था। उसकी पतली-पतली अँगुलियाँ गोया प्यानो पर हों, मन में उन अँगुलियों को अपने हाथों में लेने की इच्छा हुई। यह सोच कर कि शायद उसमें बिजली हो, मैं हिचकता रहा। लेकिन जब मेरे इरादे को जैसे ताड़ती हुई उसने मुस्करा दिया, उस समय मेरा डर जाता रहा। हिचकिचाहट जाती रही और मैंने अपने हाथ को उसके कोमल हाथ पर इस तरह गिर जाने दिया। जैसे कि अनजाने में वैसा हो गया हो। उसने अपने हाथ को ज्यों का त्यों बनाए रखा और मैंने अपने में साहस का अनुभव किया। मेरी अँगुलियाँ उसकी अँगुलियों से खेलने लगी। वह मुसकराती रही और मेरा हाथ उसके हाथ की चूड़ियों पर जा पहुँचा था। चूड़ियों की झनकार से मेरे भीतर के तार-तार भी झनझना उठे।

मन ही मन मैंने अपने को मर्द माना और दूसरे ही क्षण में सोफिया की बगल में था। मेरे ललाट से बालों की एक आवारा लट को अपनी पतली अँगुलियों से हटाते हुए उसने कहा - तुम काँप रहे हो!

- नहीं तो। पूरे विश्वास के साथ मैंने कहा।

अपने जीवन में किसी औरत के इतने अधिक निकट मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया था। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरी किशोरावस्था यहाँ समाप्त हो गई थी। और एक नई अवस्था का श्रीगणेश हुआ था। इसको कभी न कभी तो आना ही था। अगर कुछ पहले आ गई तो हर्ज ही क्या था। सभी कंपन और गर्म धड़कानों के साथ मैंने सोफिया को अपनी बाँहों में बाँध लिया। वह निर्जीव-सी बंध गई। उसे अपनी आँखें मूँदते देख मुझे आश्चर्य हुआ, पर तभी पुस्तकों में पढ़ी बातें याद आ गईं और मैंने उसे एक प्रत्यक्ष आमंत्रण समझा। सचमुच ही वह दावत थी।

मुझे अपनी माँ की याद आई। उसकी आवाज की वही अनुध्वनि फिर सुनाई पड़ी। मुझे पूरा विश्वास था कि मैं अपनी माँ की बात को कभी भी टाल नहीं सकता। उसके हक को बनाए रखने में अगर मैं उसके काम नहीं आया, तो फिर और कौन आ सकता था!

जितना मैं अपने पिता को समझता हूँ, उतना मेरी माँ भी नहीं समझती। मैं भली भांति जानता हूँ कि किन चीजों से मेरे पिता को प्यार है और किन चीजों से घृणा! वे किस बात के लिए किसी के दास बन सकते है और किस बात के लिए किसी को दुत्कार सकते हैं, मैं यह भी जानता हूँ। मुझे उपाय मिल गया था, जिससे मैं उनके भीतर सोफिया के लिए नफरत पैदा कर दूँ। सौदा महँगा था, पर मुझे अपनी माँ का खयाल था। एक तरह से सौदा तनिक महँगा नहीं था, क्योंकि मैं जवान हो हो चला था और...

मैंने जो बातें सोची थीं, वे सच निकलीं। बाहर मोटर रुकने की आवाज सुनाई पड़ी। मुझे मालूम हो गया कि मेरे पिता पहुँच गए हैं। मेरे दोनों हाथ सोफिया के बालों पर दौड़ते हुए उसके कानों पर आ गए थे, जिससे मोटर के रुकने की आवाज उसे नहीं सुनाई पड़ी।

चंद मिनटों में मेरे पिता भीतर आ जाएँगे। आज तक उन्होंने कुछ भी नहीं देखा था, पर मैं चाहता था कि आज वे कुछ देखें, अपनी आँखों से देखें और जिस बात पर उन्हें बहुत पहले विश्वास करना चाहिए था, आज कर लें। अब तक सोफिया की बाँहों ने भी मुझे जकड़ लिया था। अपनी पूरी ताकत के साथ उसे अपने शरीर से कस कर मैंने अपने काँपते होठों को उसके गर्म होठों पर रख दिया। वह मुझसे अधिक सक्रिय थी। तभी एकाएक दरवाजा खुला और उस ओर बिना देखे ही मुझे मालूम हो गया कि मेरे पिता सामने खड़े अनहोनी देखते हुए काँप रहे होंगे।

प्रश्न!

उनमें हमारे सामने पहुँचने की हिम्मत थी? या अपनी वापसी जताए बिना ही वे लौट जाएँगे?

1 comment:

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    This is very nice blog about reading Hindi stories. Thankyou for sharing this information...

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