लोहे
की दीवार
नीचे सरदारजी के
यहाँ दीवार-घड़ी ने आठ बजाये। बाबूजी बाल्टी और गमछा सँभाल नीचे आँगन में हथबम्बे
पर नहाने उतर गये।
बाबूजी की पत्नी
गंगादेवी ने आटा गूँधकर एक ओर रखा। अँगीठी के कोयले बराबर कर उन्होंने हाथ धोया।
फिर सिल गिराकर उसे धोया और चटनी बनाने का सामान लेने बरसाती में जाने लगीं कि
अचानक उन्हें याद आया, बाबूजी तो रात
कुछ लाये ही नहीं थे। वे घबरा उठीं, अब क्या होगा? कैसी भुलक्कड़
हूँ, सोचा था, सुबह लडक़े को भेजकर मँगा लूँगी। बिल्कुल ही
भूल गयी। अब क्या करूँ? बाबूजी नहाने गये
हैं, आकर खाने पर बैठेंगे,
कैसे खाएँगे वे!
फिर भी वे बरसाती
में गयीं। अकारण ही सोचा, शायद डोलची में
पहले की कुछ सूखी-पूखी पत्तियाँ पड़ी हों, या और कुछ हो। लेकिन डोलची में कुछ भी तो नहीं था। उन्होंने उसे उठाकर उल्टा
करके पटका भी, लेकिन कुछ हो तब
तो गिरे। होता कहाँ से? पिछले चार-पाँच
महीनों से एकाध गड्डी धनिया की पत्तियों, दो-चार हरी मिर्चों और एक-दो टमाटरों के सिवा सब्जी के नाम पर आया ही क्या था?
ऐसा ही चल रहा है, आजकल। घर में हर चीज का अकाल पड़ा हुआ है। रोटी-चटनी के भी
लाले पड़े हुए हैं।
उन्होंने खूँटी
से लटके बाबूजी के कोट की जेबें टटोलनी शुरू कीं। एक चवन्नी कल वे ले गये थे,
चटनी का सामान लाने के लिए। नहीं लाये, तो चवन्नी जरूर किसी-न-किसी जेब में होगी।
बाबूजी यों खर्च करने वाले नहीं हैं। चवन्नी अन्दर की जेब के कोने में जैसे सहमी
हुई-सी दुबकी पड़ी थी। उन्होंने चवन्नी निकाली और बरसाती के बाहर आकर सामने छत पर
देखा। उनका बड़ा लडक़ा रमेश पूरब की ओर मुँडेर के पास बैठा पढ़ रहा था। वे लपककर
उसके पास गयीं और चवन्नी उसकी ओर बढ़ाकर बोलीं, ''बेटा,जल्दी दौडक़र एक
गड्डी धनिया की पत्ती, थोड़ी हरी
मिर्चें और एक टमाटर ला दे। बाबूजी नहाने गये हैं। आकर रोटी खाएँगे।''
''कल शाम वे नहीं
लाये क्या?'' रमेश ने पूछा।
''नहीं लाये,
बेटा'' गंगादेवी बोलीं, ''लाये होते तो
तुझे क्यों भेजती? उठ जल्दी,
देर मतकर।''
''क्यों नहीं लाये?''
रमेश बोला, ''रोज तो लाते थे। मेरा पहली से छमाही इम्तिहान है ...''
''बेटा, बहस करने के लिए वक्त नहीं है,'' गंगादेवी गिड़गिड़ाकर बोलीं, ''तेरे बाबूजी आते होगें। जल्दी ला दे, वरना वे रोटी कैसे खाएँगे?''
भुनभुनाता हुआ
लडक़ा उठा और चवन्नी लेकर नीचे जाने लगा। गंगादेवी ने ताकीद की, ''दौडक़र आओ, बेटा! देर बिल्कुल न हो!''
लौटकर वे
चौकी-बेलना सँभालकर अँगीठी के पास बैठ गयीं और रोटी सेंकने लगीं। मन-ही-मन वे
सिटपिटायी हुई-सी थीं। जाने लडक़ा कितनी देर में लौटेगा? आस-पास कोई सब्जी की दूकान भी तो नहीं है। बस-स्टैण्ड पर
जाना पड़ेगा। दौडक़र आये-जाये तो देर नहीं लगनी चाहिए। बाबूजी दस मिनट पहले जाते
हैं। धीरे-धीरे चलते हैं। नौ दस पर उनकी बस छूटती है। अभी तो साढ़े आठ भी नहीं बजे
होंगे।
गिनकर वे रोटियाँ
बनाती हैं। तीन बाबूजी के लिए, चार रमेश के लिए,
दो-दो तीन छोटे लडक़ों, एक लडक़ी और अपने लिए। रमेश का पेट नहीं भरता और बच्चों का
भी पेट क्या भरता होगा! रमेश तो, हों तो, छह-छह, आठ-आठ रोटियाँ खा सकता है, खाना ही चाहिए,
जवान हुआ। इतनी छोटी-छोटी रोटियाँ, वह भी रूखी, चार से उसका क्या होता होगा? साथ में सब्जी होती, दाल होती, दूध-दही होता तो
कोई बात नहीं। बेचारे छोटे-छोटे बच्चे तड़पकर रह जाते हैं। क्या करें? रोटियों का हिसाब उनकी जेहन में उतर गया है। वे
जानते हैं, अधिक रोटियाँ हो ही नहीं
सकतीं। अम्माँ ठीक-ठीक गिनकर रोटियाँ बनाती हैं। उसी तरह बाबूजी को तनख्वाह का
हिसाब भी उनकी जेहन में उतर गया है। वे जानते हैं, बाबूजी एक सौ साठ रुपये महीने में पाते हैं, जिनमें से चालीस रुपये इस बरसाती के किराये में
निकल जाते हैं। साढ़े बारह रुपये बाबूजी के दफ्तर आने-जाने के लिए मासिक बस-टिकट
में लगते हैं। भैया की फीस नौ रुपये सत्तावन पैसे, बस-टिकट के पाँच रुपये ...
रमेश की फीस माफ
न हो सकी, बाबूजी ने दो दिन की
दफ्तर से छुट्टी लेकर दौड़-धूप की थी। लेकिन रमेश का नाम सूची में नहीं आया था।
शाम को दफ्तर से लौटने पर बाबूजी को मालूम हुआ था, तो उनका सूखा हुआ मुँह और भी सूख गया था। उन्होंने फिर न
रमेश से कोई बात की, न किसी से। उस
रात पानी बरस रहा था। सब जने बरसाती मे ही ठँुसे हुए थे। रोटी भी बरसाती में ही
बनाई-खाई गयी थी। लेकिन लगता था कि बरसाती में कोई जीवित प्राणी है ही नहीं। सब
कितने चुप थे, कितने सहमे हुए
थे! लगता था कोई भी कुछ बोला तो सब एक ही साथ रो देंगे। दूसरे दिन जब बच्चे स्कूल
चले गये आौर बाबूजी दफ्तर चले गये, तो रमेश ने मुँह
खोला था,''अम्माँ, मैं कोई ट्यूशन कर लूँगा, कुछ भी कर लूँगा ...''
''हाँ, बेटा,'' गंगादेवी बोली थीं, ''तू बड़ा हुआ, समझदार हुआ, बाबूजी तुझसे तो
कुछ कहेंगे नहीं ...''
''रमेश कहाँ चला
गया, जी?''
बाबूजी की आवाज
सुनकर, जैसे सकपकाकर गंगादेवी ने
आँखें चौकी पर से उठायीं। बोलीं, ''अभी आ जाता है,
मैंने ही भेजा है।''
''क्यों भेजती हो
उसे, पढऩे-लिखने के वक्त?''
रेंगनी पर गमछा डालते हुए बाबूजी बोले,
''उसका पहली से इम्तिहान है न? जरा ध्यान रखो, भाई। लडक़ा अच्छी श्रेणी में पास हो जाए तो ...''
''वह तो खुद ही
कहीं नहीं जाता,'' गंगादेवी बोलीं,
''रात-दिन तो बेचारा पढ़ता रहता है। उसकी हालत
तुम नहीं देखते। सूखकर काँटा तो हो गया है ...''
बाबूजी जल्दी से
बरसाती में घुस गये। गंगादेवी ने होंठ काट लिये। उनका मन मसोस उठा। यह सब कहने की
क्या जरूरत है? बाबूजी के आँखें
नहीं हैं क्या? और क्या बच्चे ही
सूखकर काँटा हो गये हैं? खुद बाबूजी की
क्या हालत होती जा रही है ...
नीचे सरदार जी के
यहाँ दीवार-घड़ी ने साढ़े आठ बजने की सूचना दी। बाबूजी बरसाती से बाहर आकर बोले,
''लाओ, पेट में कुछ डाल लूँ।''
गंगादेवी रोटियाँ
कपड़े से झाड़ती हुई बोलीं, ''कपड़े पहन लो।
मैं पानी लाती हूँ।''
''पानी तो मैं
बाल्टी में लाया हूँ।''
''लेती आती हूँ साफ
लोटे में,'' कहती हुई लोटा
उठाकर गंगादेवी तेजी से चल पड़ीं।
सीढ़ी पर अगल-बगल
दो मियानियाँ हैं। एक में कारपोरेशन के स्कूल के एक मास्टर अपने परिवार के साथ
रहते हैं और दूसरे में मिल के एक क्लर्क अपने परिवार के साथ रहते हैं। गंगादेवी के
मन में आया कि इनमें से ही किसी से धनिया की दो पत्तियाँ माँग लूँ। वे ठिठकीं।
लेकिन फिर यह सोचकर नीचे उतर गयीं कि देखें शायद रमेश आता हो। नीचे लपककर वे फाटक
पर पहुँचीं और सामने सडक़ पर उन्होंने देखा। रमेश दिखाई नहीं पड़ा। उनके पाँव जैसे
जमीन पर जलने लगे। वे सामने सडक़ पर देखती हुई बेचैन खड़ी रहीं। मन में उठा कि
शायद मुझे इस तरह सडक़ ताकते हुए देखकर सरदारनी या कोई और पूछे कि किसे ताक रही
हैं? उन्होंने सोचा, कोई पूछेगा तो मैं कह दँूगी, रमेश धनिया की पत्ती लाने गया है। बाबूजी का
बिना चटनी के खाना नहीं होता। देर हो रही है। क्या बताऊँ? उन्हें लगा, तब पूछने वाला
शायद खुद ही कहे, ले लीजिए,
हमारे यहाँ धनिया की पत्ती है।
एक-एक क्षण जैसे
एक-एक सुई उनके कलेजे में चुभोता हुआ गुजरा जा रहा था। रमेश कहीं दिखाई न पड़ रहा
था। अब अधिक प्रतीक्षा नहीं की जा सकती थी। बाबूजी तैयार हो गये होंगे।
वे हताश होकर
पलटीं। दो कदम चलकर ठिठकीं और फिर सरदारजी के दरवाजे पर जा खड़ी हुईं। स्वर बरबस
मधुर बनाकर बोलीं, ''बहूजी!''
पर्दा हटाकर नौकर
बाहर आया, ''बहूजी नहा रही
हैं।''
दाहिने हाथ की दो
उँगलियाँ नौकर के सामने करके, मुँह चियारकर
गंगादेवी ने कहा, ''भैया, धनिया की दो पत्तियाँ हों तो दे दो। लडक़ा लाने
गया है, अभी तक नहीं आया, बाबूजी खाने पर बैठने वाले हैं।''
नौकर संकोचवश
मुस्कराया। बोला, ''है तो, लेकिन बहूजी से पूछे बिना ...''
''अच्छा-अच्छा,
जाने दो,'' आँखें झपकाकर कहती हुई गंगादेवी झट लौट पड़ीं।
फाटक पर फिर जाकर
उन्होंने सडक़ पर देखा। रमेश अब भी कहीं दिखाई न पड़ा, तो उनके मुँह से लडक़े के लिए एक गाली निकल गयी।
वे दौडक़र तेज
चलती हुई हथबम्बे पर आयीं। जल्दी-जल्दी दस्ता चलाकर लोटे में पानी भरा और सीढ़ियों
पर आ गयीं।
मियानियों के पास
आकर वे फिर ठिठक गयीं। दोनों के दरवाजे बन्द थे। किसी से पूछँू क्या ? मन में थोड़ा आगा-पीछा हुआ, फिर आखिरी कोशिश की तरह उन्होंने बढक़र धीरे से
क्लर्क का दरवाजा थपथपाया।
अन्दर से क्लर्क
की बीवी की आवाज आयी, ''कौन है?''
सूखे गले से
गंगादेवी बोलीं, ''मैं रमेश की माँ
हूँ, बहू। जरा सुनो।''
दरवाजा खोलकर
पीछे से बन्द करती हुई क्लर्क की बीवी बाहर आ खड़ी हुई, तो गंगादेवी बोलीं, ''अरी बहू, हो तो धनिया की
दो पत्ती दो-लडक़ा लेने गया है। जाने कहाँ अब तक मर रहा है! बाबूजी ...''
''आज सुबह तो हमारे
यहाँ कुछ आया ही नहीं,'' क्लर्क की बीवी
बोली, ''कल की कुछ सब्जी बची थी,
उसी से काम चला लिया, वे खाने बैठे हैं।''
''एक-आध मिर्चा तो
होगा ...''
''कुछ नहीं है,
माँजी, आपसे मैं झूठ बोलूँगी?'' कहते हुए उसने
दाँत दिखा दिये।
फिर तो बिना कुछ
कहे गंगादेवी खट्-खट् सीढ़ियाँ चढ़ गयीं।
ऊपर आकर बरसाती
में घुसती हुई वे सिर झुकाये हुए बोलीं, ''अन्दर ही खा लो ... कैसे खाओगे, रात तो कुछ लाये नहीं।''
''खा लेंगे,''
बाबूजी बोले, ''कल ऐसा हुआ रमेश की माँ, कि हमारी बस कैम्प पर ही रोक दी गयी। मालूम हुआ कि फौजी
गाड़ियों का कारवाँ आ रहा है। रास्ता बन्द है। वहाँ से हम लोग पैदल ही आये। धनिया
की पत्ती की याद ही नहीं रही। घर आये तो याद आयी। अब अपने मन का पाप तुमसे क्या
छिपाऊँ! सोचा, चलो, अच्छा ही हुआ, चार आने बच गये। लेकिन पैसे तो मेरे कोट में हैं नहीं,
तुमने निकाल लिये थे क्या?''
पीढ़ी रखती हुई
गंगादेवी बोलीं, ''हाँ।''
''तो दे दो,
आज लेता आऊँगा,'' पीढ़ी के पास आते हुए बाबूजी बोले, ''क्या जमाना आ गया है! एक-एक आने गड्डी धनिया की पत्ती बिक
रही है। दो ही साल पहले तो, तुम्हें मालूम है,
जब हम आजकल के दिनों में सब्जी खरीदते थे,
तो सब्जी वाले एक-एक गड्डी धनिया की पत्ती और
एक-एक मुठ्ठी हरी मिर्चें यों ही झोले में डाल देते थे।''
''सो तो है,
लेकिन तुम खाओगे कैसे?'' गंगादेवी बोलीं, ''ऐसा पाप मन में लाने से तो शरीर में जो दो हड्डियाँ रह गयी हैं ...''
''लाओ, लाओ,'' पीढ़ी पर बैठते हुए बाबूजी बोले, ''अभी तो रोटियाँ हैं, बाजरे की ही सही!''
वे हँसे और आगे बोले, ''थोड़ा गुड़ बचाकर रख लिया करो। सुनो!'' जैसे कुछ याद करके वे बोले, ''हमारे साथ एक बंगाली बाबू हैं। एक दिन वे कह रहे
थे कि बाजरे की रोटियाँ पानी में भिगोकर नमक के साथ खाकर कभी देखो। बड़ा मजा आता
है। लाओ, नमक तो होगा,'' वे फिर हँसे।
कैसी यह हँसी है!
गंगादेवी कुछ न बोल सकीं, थाली में रोटियाँ
डालकर लायीं और बाबूजी के सामने रख दीं। फिर चुटकी-भर नमक भी लाकर थाली में एक ओर
रख दिया।
बाबूजी एक-एक
करके रोटियों पर पानी चुपडऩे लगे, जैसे घी चुपड़
रहे हों। बोले, ''ऐसे ही बच्चों को
भी खाने को कहना। तुम भी खाकर देखना जरूर अच्छा लगेगा!''
बाबूजी ने नमक
बुरककर कौर उठाया।
गंगादेवी उनका
खाना देखने को वहाँ रूक न पायीं। बोलीं, ''देखें, रमेश अभी तक नहीं आया!''
''कहाँ भेजा है उसे?''
दरवाजा वे पार
करने ही वाली थीं कि बाहर से आवाज आयी, ''बाबूजी!''
गंगादेवी
हड़बड़ाकर पीछे से दरवाजा बन्द करती हुई बाहर आयीं।
''सब ठीक तो है?''
मुस्कराकर आगन्तुक ने पूछा और हाथ की पेंसिल
आगे करते हुए वह दरवाजे की ओर बढ़ा।
''ठीक है,''
मुँह बिगाडक़र गंगादेवी बोलीं, ''आप तो मनाते आते होंगे न कि किसी-न-किसी को
मलेरिया हो?''
''नहीं, माँ जी!'' आगन्तुक बोला, ''हम तो मलेरिया को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर देने के लिए नियुक्त हुए हैं।''
और उसने दरवाजे के बाहर दीवार पर बने खानों में
तारीख डाली और दस्तखत किये। बोला, ''बाबूजी दफ्तर चले गये क्या?''
''हाँ, आप फिर मत आइएगा!'' गंगादेवी जैसे डाँटकर बोलीं, ''आपको देखकर मेरे बदन में झुरझुरी होने लगती है।''
दुतकारे कुत्ते
की तरह हटते हुए आगन्तुक बोला, ''आपको नाराज नहीं
होना चाहिए, माँ जी। हम तो
आपके सेवक हैं।''
''दरवाजा खोलो,
भाई!'' अन्दर से बाबूजी ने पुकारा, ''यहाँ बिलकुल
अँधेरा हो गया है।''
''अरे!'' जीभ काटकर गंगादेवी ने किवाड़ों को थोड़ा
फफराकर दिया। बोलीं, ''माफ करना मुझे
खयाल नहीं रहा।''
''कौन था? मलेरिया वाला?'' बाबूजी ने पूछा।
''हाँ,'' गंगादेवी बोलीं, ''दुनिया में चाहे जो हो, इस मुए के आने की तारीख टल नहीं सकती!''
''महीने में एक ही
बार आता है?''
''जी।''
''इसे तो हफ्ते में
एक बार आना चाहिए, बल्कि रोज एक बार
आना चाहिए,'' बाबूजी ने कहा,
''जरा सोचो तो, कल किसी को मलेरिया हो जाए तो ये हजरत तो एक महीने बाद खबर
लेने आएँगे न?''
''अब यही मनाओ तुम!''
गंगादेवी बोलीं, ''एक बीमारी ही की तो कमी रह गयी है हमारे घर में।''
''नहीं-नहीं,
रमेश की माँ, यह तो मैंने एक बात की बात कही थी,'' बाबूजी बोले, ''लेकिन एक बात इस मलेरिया वाले के आने पर जरूर मेरे मन में उठती है। बताऊँ?''
''बताओ।''
''सोचता हूँ,''
बाबूजी बोले, ''कि कभी क्या ऐसा जमाना आ सकता है, जब इस मलेरिया वाले की ही तरह कोई बराबर आकर हमारे दरवाजे
पर पूछेगा, कहिए, घर में खाने-पीने को है न?''
कहकर बाबूजी जोर
से हँस पड़े।
बच्चों के घर पर
न रहने पर बाबूजी कुछ बोलते हैं, कुछ हँसते हैं।
लेकिन ऐसी हँसी तो, याद नहीं,
वे कब हँसते थे। गंगादेवी के शरीर में एक सिहरन
दौड़ गयी। वे व्याकुल होकर बोलीं, ''पता नहीं, लौंडा वहाँ जाकर
मर गया क्या?''
''कहाँ गया है वह?''
बाबूजी बोले, ''दरवाजा खोलो, भाई! क्या फायदा तोपने-ढाँकने से? हमा-सुमा जैसे सभी लोगों का यही हाल है।''
गंगादेवी ने
शर्माकर दरवाजा खोला। बाबूजी थाली पर से उठ गये थे- वे लोटा लिये हुये बाहर चले।
गंगादेवी थाली उठाने लगीं।
नीचे सरदारजी के
यहाँ दीवार-घड़ी ने नौ बजाये। बाबूजी में तेजी आ गयी। फुर्ती से उन्होंने कुल्ले
किये और उठकर गमछे से हाथ-मुँह पोंछते हुए बोले, ''रमेश नहीं आया। एक घण्टा हो गया उसे गायब हुए। तुमने सच ही
उसे कहीं भेजा है कि वह ...''
''देखना, रास्ते में कहीं मिले तो भेज देना,'' उनकी बात काटकर गंगादेवी बोलीं और उन्हें विदा
देने के लिए उनके पास आ खड़ी हुईं।
''अच्छा, चलता हूँ,'' बाबूजी बोले, ''चवन्नी दोगी क्या?'' और फिर तुरन्त
बोले, ''रहने दो, कल तो रविवार है।''
गंगादेवी सीढ़ी
तक बाबूजी के पीछे-पीछे आयीं। बाबूजी सीढ़ियाँ उतरकर, फाटक पारकर सडक़ पर आ गये और रोज की तरह धीरे-धीरे चलने
लगे।
अगल-बगल के कई
क्वार्टरों से निकल-निकलकर कई बाबू लोग उनके आगे-आगे चलते हुए निकल गये। चेहरे से
सभी परिचित होते हुए भी कितने अपरिचित हैं! रोज एक ही बस से जाते हैं, लेकिन कभी उनमें कोई बात नहीं होती, जैसे सभी दूसरे-दूसरे देश के रहने वाले हों और
दूसरी -दूसरी जगह को जा रहे हों।
बाबूजी अपनी ही
चाल से चलते रहे। बस मिल जाएगी, वे जानते हैं।
तेज चलना भी चाहें तो चल ही नहीं सकते थे। एक शिथिलता जैसे शरीर में आकर जम गयी है,
वह शायद अब कभी भी न पिघले।
अचानक वे ठिठककर
खड़े हो गये। एक मरियल कुत्ता ठीक उनके पाँवों के पास पड़ा हुआ था। वे न रुकते तो
अगला कदम उस पर जा पड़ता। तब शायद वह काट खाता। नहीं, शायद वह काट न पाता। बिल्कुल बेजान-सा तो पड़ा है।
बाबूजी एक ओर
होकर आगे बढ़े।
घरघराहट की आवाज
उनके कानों में पड़ी तो वे जरा चौंके। बस छूट रही है क्या?
नहीं, यह कैसे हो सकता है? नौ दस पर बस छूटती है, अभी दो-चार मिनट जरूर होंगे।
घरघराहट की आवाज
तेज होती गयी। फिर लगा कि जैसे घरघराहट की एक नदी बहती जा रही हो।
नुक्कड़ पर
पहुँचकर उन्होंने सामने सडक़ पर नजर डाली तो जो दिखाई पड़ा, उससे उनके पाँव और भी शिथिल हो गये। सडक़ पर फौजी गाड़ियों
का कारवाँ तेज गति से बहा जा रहा था। उन्होंने बस-स्टैण्ड की ओर देखा तो वहाँ कोई
बस नहीं थी। कुछ लोग खड़े जरूर थे।
वे पाँव घसीटते
हुए-से बस-स्टैण्ड पर पहुँचे और लोगों के पास ही खड़े हो गये। सब चेहरे पहचाने हुए
थे। सब नौ दस की ही बस से जाने वाले थे, सब एक ही जगह खड़े थे, जैसे सब एक ही बस
में बैठते हैं। कोई किसी से कोई बात नहीं कर रहा था। सब सामने दौड़ती हुई गाड़ियों
को जैसे गिन रहे थे।
''बाबूजी, मैं तबसे यहीं खड़ा हूँ।''
तेज घरघराहट के
ऊपर से आकर बाबूजी के कानों में ये शब्द पड़े, तो उन्होंने बगल में देखा। रमेश अपराधी-सा खड़ा हाथ मलता
हुआ कह रहा था, ''मैं उस पार जा ही
न सका। तब से यह कारवाँ चल रहा है। खत्म होने पर ही नहीं आता।''
''तुम उस पार क्या
करने जाने वाले थे?'' बाबूजी ने जैसे
कुछ भी न समझकर पूछा, ''तुम यहाँ क्यों
आये? इतनी देर से क्यों खड़े
हो?''
''अम्माँ ने धनिया
की पत्ती मँगायी थी न,'' रमेश बोला,
''उसी पार तो सब्जी की दूकानें है।'' और उसने चवन्नी बाबूजी की ओर बढ़ा दी।
''ओह!'' बाबूजी जैसे एक क्षण को खो-से गये। फिर जैसे
होश में आकर बोले, ''तुम जाओ, जल्दी जाओ! तुम्हें इतनी देर तक नहीं रुकना
चाहिए था।''
उनकी हथेली में
चवन्नी घुसेडक़र रमेश दौड़ पड़ा।
बाबूजी हथेली की
चवन्नी ऐसे देखने लगे, जैसे वे उसे
पहचानने की कोशिश कर रहे हों कि यह कल की ही चवन्नी है न!
कोट के अन्दर की
जेब में नीचे तक हाथ घुसेडक़र उन्होंने चवन्नी रखी। फिर उन्होंने सामने नजर उठायी
तो सहसा उन्हें लगा कि जैसे सडक़ पर एक लोहे की दीवार खिंचती चली जा रही हो ...!
No comments:
Post a Comment