भैरव प्रसाद
गुप्त की कहानी
मास्टरजी
योगेश कमरे में
एक कुर्सी खींचकर बैठ गया और कुरते की जेब से खद्दर का रूमाल निकालकर अन्दर के
दरवाज़े के पर्दे पर आँखें उठाये माथे और गले का पसीना पोंछने लगा।
पर्दे के छल्ले
एक-दूसरे से टकराकर खनखना उठे। योगेश सचेत-सा हो रूमाल जेब में रखने लगा।
-नमस्ते! -एक
दबी-सी आवाज़ बाहर निकलते-निकलते शीला के सटे होंठों में ही गुम हो गयी। शीला
पर्दे को पुन: फैलाकर सिर नीचा किये, बायें हाथ में कापियाँ और किताबें लटकाये, दाहिने हाथ से आँचल ठीक करती हुई मेज़ के सामने बढ़ आयी और
कुर्सी को ज़रा पीछे हटा, मेज़ पर किताबें
रख, ब्लाउज के गले से
फाउण्टेनपेन निकालकर आँखें झुकाये बैठ गयी।
-लेख लिखा है?-शीला के हाथों की ओर, जो एक कापी उलटने में लगे थे, देखते हुए योगेश ने पूछा।
शीला ने सिर
उठाकर ब्लाउज के आस्तीन में से एक नन्हा-सा हल्के गुलाबी रंग का रूमाल निकाल,
अपने गुलाब-से चेहरे पर हल्के-फुल्के फेरकर,
अपने लाल होंठों से लगाकर, योगेश की ओर एक दबी नज़र से देखा। योगेश की
आँखें उसकी नज़र से मिलते ही तिलमिलाकर झुक गयीं, जैसे नज़र में शीला के हृदय की कोई दबी टीस फूटकर तीर की
तरह योगेश की आँखों में चुभ गयी हो; और उसकी पलकें काँपकर मुँदने को हो गयी हों। उसका हृदय सन्न सा हो गया। यह-सब
क्या देख रहा है वह आज?
शीला का सिर
पूर्ववत् मेज़ पर झुक गया। किताबों पर आँखें गड़ाये उसने अपना निचला होंठ दाँतों
से ज़ोर से भींच लिया, जैसे हृदय के
किसी उच्छ्वसित भाव को बरबस मुँह से बाहर निकलने से रोक लेना चाहती हो। योगेश ने
सँभलकर सिर ज़रा नीचे किये हुए ही एक तीव्र दृष्टि शीला के मर्म-भरे चेहरे पर
फेंकी, जैसे ऊपरी आवरण भेदकर वह
उसके हृदय के दबे भावों को जान लेना चाहता हो।
-शीला! -उस पर
दृष्टि गड़ाये योगेश तनिक आश्चर्य से बोला।
-जी,-आँखें योगेश की ओर तिरछी करती शीला बोली। उसके
होंठ कुछ फडफ़ड़ाकर रह गये।
-शीला! -आवेश पर
अधिकार न पा योगेश जरा ज़ोर से बोल पड़ा।
शीला की पलकों पर
दो बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदें लटक गयीं।
योगेश अस्थिर हो
उठा। उसके मुँह से सहसा निकल गया-ओफ़!
और शीला की पलकों
पर लटकी बूँदें चू पड़ीं किताब पर-टप्-टप्!
योगेश कुर्सी पर
आगे खिसककर मेज से सट गया और अपने को सँभालकर संयत स्वर में बोला-शीला, तुम्हारी आँखों में आँसू कैसे?
शीला रूमाल से
आँखों का पानी पोंछकर उसे मुँह पर रखकर सिसक पड़ी।
-क्या हुआ,
शीला? आज अचानक तुम इस कदर, मर्माहत-सा शीला
की भीगी पलकों की ओर देखता हुआ योगेश चुप हो गया।
शीला की सिसकियाँ
लम्बी हो धीरे-धीरे रुक गयीं। रूमाल से मुँह पोंछ, एक लम्बी साँस ले, उसने व्यथा-भरी आँखों से योगेश की ओर देखा।
-क्या पढ़ें,
मास्टरजी?-शीला ने नज़र मोडक़र आँखें मलकाते हुए पूछा।
-शीला, क्या तुम्हारी आँखों के इन आँसुओं में आज क्या
कुछ कम पढऩे को है कि कोई किताब खोली जाए?
-क्षमा कीजिए,
मास्टरजी! मैं अपने को रोक न सकी। नहीं तो यों
हृदय की कमज़ोरी। ...
-यह क्या कह रही
हो, शीला?-बीच में ही योगेश बोल पड़ा-क्या यह-सब भी मुझसे
कहने की बातें हैं? मुझे तो दु:ख
होता, यदि तुम अपने मास्टरजी के
सामने इन आँसुओं को निकलने से पहले ही पी जातीं, अपने हृदय की व्यथा उच्छ्वसित होने से रोक लेती, अपने प्राणों की विह्वलता पर पर्दा डाल देती।
भला तुम्हारी कमजोरियाँ तुम्हारे मास्टरजी की नज़र में तुम्हें गिरा सकती हैं?
-मास्टरजी,
इसीलिए तो जिस व्यथा को मैं अपने हृदय के कोने
में आज दिन-भर दबाये तड़पती रही, आपके सामने वही
आँसू बनकर फूट पड़ी, जैसे वह आप ही के
आने की राह देख रही थी! -शीला की आँखें योगेश के प्रति अपनत्व से भरकर उसकी ओर उठकर,
झुक गयीं।
-शीला, चार बरसों के बीच आज यह पहला अवसर है, जो तुम्हें यों उद्विग्न होते देख रहा हूँ! आज
मुझे भी कम दु:ख नहीं हुआ है।
-मास्टरजी,
मुझे अफ़सोस है कि मेरी वजह से आपका दिल दुखा।
-हूँ! पगली,
क्या किसी की वजह से किसी को दुख होता है?
अरे, सुख-दुख का सागर तो अपना ही मानस है। जब मन्द
समीर अपने संगीत-भरे पंखों को फैलाये इसके ऊपर उड़ता है, तो इस सागर की सतह पर लोल लहरियाँ उठ मधुर गुंजन करती हैं
और जब तूफान अपने भयावह पंखों को फडफ़ड़ाता इसके ऊपर छा जाता है, तो वही लोल लहरियाँ विकराल लहरें बनकर क्रन्दन कर
उठती हैं, सागर का किनारा थर्रा
उठता है! -अर्द्ध-निमीलित नयनों से जैसे सुदूर तक देखता हुआ, अपने में डूबा-सा योगेश बोला।
-मैं समझी नहीं,
मास्टरजी, -शीला के चेहरे पर एक उलझन-सी व्यक्त हो गयी।
-अच्छा, तो यों समझो! एक कलाकार ने सालों की जी-तोड़
मेहनत के बाद एक मूर्ति की रचना की। कलाकार की आँखों के सामने उसके परिश्रम का
सुन्दरतम रूप एक मूर्ति बनकर खड़ा हो गया। कलाकार की आँखों में उसे देखकर
गर्व-मिश्रित हर्ष भर गया। वह अपने निर्माण के सौष्ठव पर स्वयं मुग्ध हो झूम उठा।
अचानक एक हवा का प्रचण्ड झोंका आया। मूर्ति काँपकर धराशायी हो गयी। उसका
अंग-प्रत्यंग क्षत-विक्षत हो गया। कलाकार की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। उसका
हृदय विर्दीण हो गया। उसकी आत्मा चीत्कार कर उठी! -और फिर शीला की गम्भीर मुद्रा
की ओर देखते हुए योगेश पूछ बैठा-अब तुम्हीं बताओ, शीला, कलाकार को जो
दु:ख हुआ, उसका दोष क्या मूर्ति के
ऊपर पड़ता है?
-नहीं, मास्टरजी,! -छोटा-सा उत्तर दे, शीला योगेश की ओर उत्सुक आँखों से देखने लगी, जैसे वह उससे और कुछ सुनना चाहती हो।
-तो फिर किसको दोष
दिया जाय?-धीरे से पूछा योगेश ने।
-हवा के प्रचण्ड
झोंके को।
-हवा के प्रचण्ड
झोंके को,-एक निपुण तर्क-शास्त्री
की तरह दुहराते हुए अपने उद्देश्य की ओर बढ़ते हुए योगेश ने फिर पूछा-और, शीला, क्या हवा-पानी पर भी मनुष्य का अधिकार है?
-ऊँहूँ! -शीला ने
कहते हुए अपनी आँखें योगेश की ओर उठा दीं। उनमें एक तीव्र उत्सुकता मचल रही थी।
-तो, शीला, जिस पर हमारा अधिकार नहीं, यदि उसी के कारण
किसी को दुख पहुँचे,-योगेश शीला की
आँखों में एक रहस्यमय आलोक की चमक देखकर बोला-तो क्या हम उसके दोषी ठहराये जा सकते
हैं? इसी बात को यों तौल लो,
अपने मास्टरजी को कलाकार के स्थान पर बैठा दो,
और तुम स्वयं मूर्ति बनकर उनके सामने खड़ी हो
जाओ! फिर सोचो! ...
-मास्टरजी! -कुछ
उतावली-सी बीच ही में शीला बोल पड़ी-आप कलाकार! मैं आपकी मूर्ति!
-हाँ-हाँ, शीला! तुम मेरी वह एक मूर्ति हो, जिसे मैं आज चार वर्षों से अपनी सारी
आत्मानुभूतियों, अपने प्राणों की
लगन, मस्तिष्क के ज्ञान और
हृदय को स्नेह लगाकर अनवरत परिश्रम से गढ़ रहा हूँ। तुम्हें आश्चर्य होगा यह जानकर,
क्योंकि तुम जानती हो कि मैं युनिवर्सिटी में
सैकड़ों लडक़े-लड़कियों का मास्टर हूँ फिर मैंने एक ही मूर्ति का कलाकार अपने को
क्यों कहा? इसके उत्तर में मैं अपने
ही हृदय की बात कहूँगा। शीला, सैकड़ों
लडक़े-लड़कियों के बीच एक ही मास्टर को रखकर लोग या तो अध्यापक के गुरुतर भार के
सम्बन्ध में नासमझी से काम लेते हैं या शिक्षक शब्द का मखौल उड़ाते हैं। एक कलाकार
को सैकड़ों शिला-खण्डों के बीच खड़ाकर उससे कहा जाए कि, कलाकार, तू अपनी छेनी और
हथौड़ी उठा, और इन सब
शिला-खण्डों में एक ही कला भर दे, इनकी सौन्दर्य
प्रतिमाएँ खड़ी कर दे, इनमें सत्यम्
शिवम् की शाश्वत भावनाओं की ज्योति छिटका दे, तो, शीला उस कलाकार
की क्या हालत होगी?-तनिक रुककर योगेश
आगे बोला-मुझे शुरू से ही अध्यापन-कार्य में दिलचस्पी थी। बीस वर्ष की आयु में
मैंने मनोविज्ञान से एम.ए. की परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। फिर मैं
अपने पूरे मनोयोग से खोज में लग गया। तीन साल के बाद मैंने 'शिक्षा के उद्देश्य' पर थीसिस लिखी। विश्वविद्यालय ने मुझे डाक्टरेट की उपाधि
दी। फिर अपने ही विश्वविद्यालय में मेरी नियुक्ति हो गयी। उन दिनों तुम्हारे
स्वर्गीय पिता इस प्रान्त के शिक्षा मन्त्री थे। उनकी मेरी पहली भेंट
विश्वविद्यालय की एक पार्टी में हुई थी, जो उनके शिक्षा-मन्त्री होने के उपलक्ष में दी गयी थी। वह इस विश्वविद्यालय के
स्नातक थे। उस पार्टी में मैंने बधाई भाषण के साथ शिक्षा तथा अध्यापन कार्य पर
अपने स्वतन्त्र विचारों का उल्लेख करते हुए उनसे अपील की थी कि वह मेरे विचारों पर
ध्यान दें तथा शिक्षा संस्थाओं में प्रयोगात्मक रूप से उन्हें कार्यान्वित करने का
प्रयत्न करें। उन पर मेरा प्रभाव पड़ा था। दूसरे ही दिन सुबह वह मेरे बंगले पर
आये। मुझे आज भी याद है, उन्होंने मेरे
विचारों की उच्चता स्वीकार करते हुए कहा था, डाक्टर योगेश, आपके शिक्षा-सम्बन्धी विचार अत्यन्त उत्कृष्ट हैं तथा आपके उद्देश्य महान हैं!
किन्तु दुख है कि अपने सीमित साधनों तथा आप-जैसे शिक्षा विशारदों के अभाव के कारण
हम उससे फ़िलहाल कोई लाभ नहीं उठा सकते। फिर भी मैं चाहता हूँ कि, यदि आपकी इच्छा हो और यदि सचमुच आप शिक्षा के
कलात्मक रूप के प्रयोग का साधक बनना चाहते हों, तो मैं आपके लिए एक प्रयोगशाला का प्रबन्ध कर दूँगा। मैंने
सहर्ष अपनी स्वीकृति दे दी तब उन्होंने कहा, यदि मैं आपके सामने कुछ प्रार्थना-स्वरूप रखूँ, तो आप उसे अपनी शान के खिलाफ़ तो न समझेंगे?
मैं उनकी बात सुनकर चकरा गया। कुछ घबराया-सा
बोल पड़ा, यह आप क्या कह रहे हैं?
आप मेरे पिता-तुल्य हैं। आपकी हर बात मेरे लिए
आशीर्वाद-स्वरूप है! आप नि:संकोच कहिए! मेरी बात सुनकर वह एक-ब-एक गम्भीर हो गये।
उनका सिर झुक गया। फिर न जाने हृदय के किन भावों की कशमकश में उनके मुँह से ये
शब्द फूट पड़े, डाक्टर योगेश,
मैं धन्य हूँगा, यदि आप मेरे भवन को अपनी प्रयोगशाला बनाएँ और मेरी इकलौती
पुत्री शीला को अपनी शिष्या। सुनकर मैं अनियन्त्रित-सा उनके चरणों पर झुक गया।
उन्होंने मुझे उठाकर छाती से लगा लिया। मैं एक बच्चे की तरह उनसे लिपट गया। उनकी
आँखों से स्नेह-स्रोत फूट पड़ा।
योगेश कुछ असंयत
स्वर में आगे बोला-शीला, वह अपनी भावनाएँ
हृदय में ही दबाये चले गये। उनकी बातें अब याद ही बनकर रह गयी हैं। उनको छेडऩे से
हृदय के ज़ख़्मों में काँटे चुभेंगे। हाँ, तो सुनो, मैं कह रहा था,-योगेश संयत हो अपनी पहली बातों का सिलसिला
जोड़ते हुए बोला-फिर हमारा परिचय हुआ। तुम्हें देखकर मैं वैसे ही खुशी से झूम उठा
जैसे कोई कवि अपने हृदय में कोई सुन्दर कल्पना उठने पर। किन्तु तुम्हारा
ट्यूटर-गर्जियन बनते समय मैं झिझक और उलझनों से परेशान हो उठा, ठीक उसी तरह जैसे कोई कलाकार अपने हृदय के
उमड़ते भावों को अंकित करने के लिए कूँची उठाते समय होता है। तुम देखती हो कि वह
झिझक और उलझन अब भी बदस्तूर कायम है और तब तक कायम रहेगी, जब तक कि मेरी कला पूर्ण विकसित हो तुम्हारे प्राणों को
सौन्दर्य-सौरभ से भरकर तुम्हें संसार में खड़ा न कर दे। आज चार वर्षों से मैं वही
उद्देश्य लिये मंजि़ल-पर-मंजि़ल तय करता हुआ चला आ रहा हूँ। ज्यों-ज्यों आखिरी
मंजि़ल समीप आती जा रही है, त्यों-त्यों मेरे
हृदय की खुशी बढ़ती जा रही है। किन्तु आज तुम्हारी आँखों के ये आँसू तुम्हारे हृदय
के उच्छ्वासों का यह तूफान मेरी साधना को कँपा रहा है, शीला! क्या मेरी साधना अपूर्ण रहेगी?
-नहीं-नहीं,
मास्टरजी, ऐसा न कहिए! ऐसा न कहिए! यह मेरा सौभाग्य है, जो आपके प्राणों की साधना की पात्री बनने का
मुझे गौरव प्राप्त हुआ! मैं इस गौरव के योग्य बनूँगी! -दृढ़ता के स्वर में शीला
बोली।
-शीला, साधक की साधना उसका प्राण होती है, उसका सर्वस्व होती है। जब भी उसकी साधना को कोई
ठेस पहुँचती है, तो वह तिलमिला
उठता है।
-मैं जानती हूँ,
मास्टरजी।
-तो फिर क्या मैं
जान सकता हूँ कि वह कौन-सी बात थी, जिससे तुम इतनी
अस्थिर हो उठी?
-कुछ नहीं,
मास्टरजी, कुछ नहीं! मैं बिलकुल ठीक हूँ! मलकती हुई आँखों में कुछ
छिपाती-सी शीला बोली।
-शीला, तुम अपने मास्टरजी की आँखों को धोखा देना चाहती
हो?-तनिक मुस्कराते हुए योगेश
ने पूछा।
-मैं चाहूँ तो भी
क्या यह सम्भव है?
-तो फिर बोलो,
क्या बात है?-कुछ उत्सुक-सा योगेश बोला।
-क्या अम्मा ने आप
से कुछ नहीं कहा? मैं तो समझती थी
कि आपको सब-कुछ मालूम है।
-मुझे कुछ भी
मालूम नहीं, शीला। मेरी जान
में ऐसा कुछ कैसे हो सकता है, जिससे तुम्हारे
हृदय की भावनाओं को चोट पहुँचे?
-तो फिर क्या आपकी
राय इसमें नहीं है?
-किस बात में,
शीला? मैं कहता हूँ, मुझे कुछ नहीं
मालूम है। ईश्वर के लिए, जल्दी बताओ,
शीला! -अत्यधिक उत्सुकता की बेचैनी योगेश की
आँखों में उभर आयी।
-मेरी शादी होने
जा रही है, मास्टरजी! -कहते-कहते एक
व्यथा-भरी हल्की मुस्कान शीला के फडक़ते होंठों पर उभर आयी।
-ओह! तो यह बात
है। मैं कहूँ कि...शेष शब्द जैसे योगेश की आँखों की सिकुडऩ में लुप्त हो गये।
-मास्टरजी!
मास्टरजी! आप इस तरह गम्भीर क्यों हो गये?-योगेश की ओर आँखें फाड़े शीला बोली।
टन्-टन्-टन्...दीवार
की घड़ी ने सात बजने की सूचना दी।
-अच्छा, शीला, सात बज गये। आज बड़ी देर हो गयी। फिर कल बातें होंगी।-कहते हुए योगेश उठ खड़ा
हुआ, जैसे वहाँ के उलझे
वातावरण से वह एक-ब-एक घबरा उठा हो। शीला की व्यथा से तड़पती आँखें योगेश के चेहरे
पर उठकर रह गयीं। योगेश एक ठण्डी साँस लेकर कमरे से बाहर हो गया।
२
-मास्टरजी! -योगेश
कुर्सी पर बैठा ही था कि शीला की अम्मा की आवाज़ आयी।
-जी! -योगेश ने
सकपका कर उत्तर दिया।
-ज़रा इधर आइए।
ड्राइंगरूम में
एक कोच की ओर इशारा करते हुए, जिसके सामने एक
छोटी-सी शीशे की चमकती मेज़ पर मिठाइयों और नमकीनों की तश्तरियाँ सजी हुई थीं शीला
की अम्मा ने कहा-बैठिए।
योगेश धीरे से
कोच पर बैठ गया। सामने दीवार पर टँगे शीला के स्वर्गीय पिता के तैल चित्र पर उसकी
आँखें उठ गयीं। वह कुछ सोचता हुआ तनिक देर के लिए कुछ खो-सा गया।
-कुछ खाइए,
चाय अभी आ रही है,-योगेश के सामने कोच पर बैठकर शीला की अम्मा ने कहा।
-ओह! -अपने में
आकर, चित्र से आँखें हटाते हुए
योगेश ने कहा-आपने इतना कष्ट क्यों किया?
-नहीं-नहीं,
मास्टरजी, इसमें कष्ट की क्या बात है? आप शुरू कीजिए।
और योगेश जैसे
फिर कुछ सोचने लगा। फिर यों ही उसने हाथ बढ़ाया और एक समोसे का टुकड़ा उठाकर मुँह
में डाल लिया।
इधर-उधर एक
चौकन्नी दृष्टि डालकर शीला की अम्मा ने योगेश को छेड़ा-मास्टरजी, आज आप से कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं।
योगेश जैसे
चिहुँककर मुँह का टुकड़ा तेज़ी से चबाता हुआ बोला-जी?
-मास्टरजी,
आप आज कुछ खोये-से लगते हैं। तबीयत तो ...
-जी हाँ। मैं
बिलकुल ठीक हूँ। जरा यों ही...हाँ, तो आप मुझसे कुछ
कह रही थीं?
-हाँ, कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं।
-अच्छा, तो कहिए- मठरी का एक टुकड़ा उठाकर उनकी ओर
देखते हुए योगेश बोला।
-आज-कल शीला कुछ
उदास रहती है।
-जी।
-जानते हैं क्यों?
-जी।
-तब तो आपको
बहुत-सी बातें मालूम ही हैं। मुझे थोड़ा ही कहना पड़ेगा। मास्टरजी, शीला के पिताजी की इच्छा थी कि शीला की शादी के
विषय में मास्टरजी की राय ज़रूर ली जाए।
-जी।
-तो फिर आपको पसन्द
है न?
-भला मुझे क्या
आपत्ति हो सकती है?
-जी, यह तो मैं जानती हूँ। किन्तु मैं यह नहीं चाहती
कि इस अहम मसले पर आपकी राय लिये बिना मैं कुछ भी करके उनकी स्वर्गीय आत्मा को
किसी भी तरह दु:ख पहुँचाऊँ। मैं चाहती हूँ कि उनकी हर इच्छा पूरी हो!
-वह तो होगा ही!
आप तो जानती ही हैं, माँजी, कि उनका मेरे ऊपर अपार स्नेह और ममता थी,
जो उन्होंने इस तरह अपने कौटुम्बिक जीवन में
मुझे खींच लिया था। उनके इसी अपनापे ने मुझे एक दिन शीला की शिक्षा-दीक्षा का भार
अपने ऊपर लेने को विवश किया था। मैंने उनकी अनुपस्थिति में अपने कर्तव्यों का पालन
कहाँ तक किया है, यह तो उनकी
स्वर्गीय आत्मा को ही ज्ञात होगा। शीला इस साल बी.ए. कर लेगी। कालेज की पढ़ाई के
अलावा मैंने जीवन के सच्चे आदर्शों के अनुसार उसके जीवन को गढऩे की चेष्टा की है।
मैं अपने कार्य में कहाँ तक सफल हुआ हूँ, इसका उत्तर तो शीला के आगे का जीवन ही देगा। किन्तु माँजी, शादी से भी हमारे जीवन का गहरा सम्बन्ध होता
है। आपने जहाँ शीला की शादी तय की है, वह शीला के आदर्शों के अनुकूल नहीं जान पड़ता, क्योंकि शीला इस बात को सुनकर दु:खी है। मुझे डर है कि यह
शादी शीला के आगे जीवन को किसी और राह न लगा दे।-कहते-कहते योगेश की आवाज़ जैसे
कुछ भर्रा गयी।
-ओह! लेकिन,
मास्टरजी, शीला ने तो मुझसे कुछ नहीं कहा। और फिर आप ही बताइए,
अनिल में ऐसी कौन-सी बात है, जो वह शीला के योग्य नहीं? वह एम०ए० है। इम्पीरियल सिक्रेटे्ररियट में एक
अफ़सर है। हज़ार-बारह सौ रुपया मासिक उसका वेतन है। देखने में सुशील और सुन्दर है।
अब और क्या चाहिए?
योगेश कुछ घबरा
गया। वह उनकी बातों का क्या उत्तर दे, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। घबराहट में ही उसके मुँह से निकल गया-इसका
उत्तर तो, माँजी, शीला ही बेहतर दे सकती है। क्यों न आप उसी से
साफ़-साफ़ पूछ लें!
-मैं ऐसा करना तो
नहीं चाहती थी, मास्टरजी,
किन्तु जब आपकी यही राय है, तो उससे भी पूछे लेती हूँ,-अपना सिर योगेश की ओर से घुमाते हुए उन्होंने
पुकारा-खानसामा!
बायीं ओर के
दरवाज़े का पर्दा कन्धे से हटाकर हाथ में चाय की सजी हुई टे्र लिये खानसामा दाखिल
हुआ और माँजी की ओर देखता हुआ योगेश की ओर बढ़ा।
-चल, जल्दी कर! टे्र रखकर बीबी को तो बुला!
अदब से योगेश के
सामने मेज पर टे्र रखकर खानसामा बाहर चला गया।
-मास्टरजी,
तब तक आप चाय पी लें।
योगेश ने एक
प्याली में चाय बना, उसे होंठों से
लगा, एक घूँट ले, दाहिनी ओर के दरवाजे की ओर दबी कनखियों से
देखा।
-क्या है, ममी?-कहते हुए सिकुड़ी-सी शीला माँ के सामने आकर खड़ी हो गयी। योगेश चाय की प्याली
होंठों से हटाकर उससे उठती हुई भाप को देखने लगा।
-बैठों, वहाँ! -दाहिनी ओर की दीवार से लगी कोच की ओर
इशारा करते माँजी ने कहा।
निचला होंठ
दाँतों से चबाते, आँखें झुकाये,
शीला कोच पर बैठ गयी।
-चाय पी चुके,
मास्टरजी? बात शुरू करने की गरज से माँजी ने जानना चाहा।
-जी, हाँ, -कहते हुए अधखाली प्याली योगेश ने टे्र में रख दी और सँभलकर माँजी की ओर देखा।
माँजी की मुद्रा
एक-ब-एक गम्भीर हो उठी। उन्होंने शासन की दृष्टि से शीला की ओर एक बार देखा। शीला
ने निचला होंठ अन्दर को मोड़, सिर झुकाये ही,
पलकें ज़रा ऊपर उठायीं। माँजी की तीर-सी नज़र
से उसकी नज़र मिली नहीं कि उसकी आँखें दहशत से भरकर झुक गयीं। उसका हृदय काँप-सा
गया।
-शीला, यह तो तुम जानती हो न कि अगली बीस मार्च को
तुम्हारी अठ्ठारहवीं वर्ष-गाँठ मनायी जाएगी?
-जी,-का अस्फुट शब्द शीला के होंठों पर काँपकर गुम
हो गया।
-तुम्हारी बी.ए.
की पढ़ाई भी इस साल खत्म हो जाएगी। इसलिए हमारे लिए अब ज़रूरी हो गया है कि जितनी
जल्दी हो सके तुम्हारे हाथ पीले कर दिये जाएँ।
शीला से कुछ
सुनने की प्रतीक्षा में माँजी अपनी आँखें शीला पर गड़ाये रहीं। शीला ने अपने
दाहिने हाथ में आँचल का छोर ले बायें हाथ की उँगली में लपेटती, योगेश की ओर काँपती नज़रों से देखा। योगेश किसी
विचार में डूबा-सा बायें हाथ पर माथा टिकाये, दाहिने हाथ के नाखून कोच की गद्दी पर रगड़ रहा था।
-बेटी, अब तू बच्ची तो रही नहीं। इसलिए मैं सब बातें
तेरे सामने साफ-साफ रख देना चाहती हूँ, ताकि तू स्वयं विचार करके अपने जीवन-साथी के बारे में अपनी राय कायम कर सके।
आज एक हफ्ते से अनिल बाबू यहाँ आ रहे हैं। तुम दोनों को एक-दूसरे से मिलने-जुलने
की पूरी स्वतन्त्रता मैंने दे रखी है, ताकि तुम दोनों एक-दूसरे के जीवन से सम्बद्घ होने के पहले एक-दूसरे को पूरी
तरह जान लो। अनिल बाबू अपना विचार मुझसे प्रकट कर चुके हैं। अब तुम्हारे मास्टरजी
के सामने मैं तुम्हारे विचार जानना चाहती हूँ। बोलो, शीला, अनिल बाबू के
विषय में तुम्हारी क्या राय है?
शीला का सिर गड़
गया। उसके हृदय की मूक व्यथा उसकी झुकी हुई मलिन पलकों पर मुखरित हो उठी। वह बोली
कुछ नहीं।
माँजी के चेहरे
की निराशा कुछ गम्भीर हो एक-ब-एक उग्र हो उठी। वह आवेश में कुछ हाँफती-सी
बोलीं-शीला, इस चुप्पी का
क्या मतलब है? मैं चाहती हूँ कि
तू साफ-साफ अपने मन की बात कह। मैं भी तो कुछ समझूँ।
-हाँ-हाँ, शीला, तू बोलती क्यों नहीं? तू अपने दिल की
बात माँजी से न कहेगी, तो किससे कहेगी?-माँजी के चेहरे पर लाल-पीली, बनती-बिगड़ती रेखाओं को देखकर योगेश परिस्थिति
की गम्भीरता को कुछ हलका करने के लिए, शीला को सहारा देना आवश्यक समझ बोल पड़ा।
शीला की सहमी
आँखें ऊपर को उठीं। अपने में सिमटती, सकुचायी-सी वह बोली-ममी, अनिल बाबू के
जीवन का अफसरी तौर-तरीका मुझे कुछ पसन्द नहीं! -शीला कह तो गयी, किन्तु वाक्य पूरा-करते-करते जैसे वह थर्रा गयी
कि कैसे यह बात ममी से कहने की उसने हिम्मत की।
माँजी छूटते ही
बरस पड़ीं-उसका अफसरी तौर-तरीका पसन्द नहीं? तो क्या तू चाहती है कि अनिल बाबू एक भिखारी की तरह दर-दर
हाथ फैलाते और सिर झुकाते चलें? वह अफसर है और अफसर
की तरह रहता है! कोई स्वाँग नहीं रचता और तुझे तो इस बात का गर्व होना चाहिए कि तू
एक अफसर की पत्नी होने जा रही है।-माँजी के होंठ बात खत्म करते-करते फडफ़ड़ा गये।
-यही तो मुझसे न
होगा, ममी! -शीला आवेश में बोल
पड़ी। जोर से जैसे उसके हृदय का सत्य डर का बन्धन तोडक़र तड़प उठा हो।
-बेशर्म! माँजी की
आँखों में क्रोध भडक़ उठा।
-माँजी!
माँजी-योगेश चिल्ला उठा।
शीला काँपती हुई
उठ गयी और झुकी हुई आँखों से टप-टप आँसू चुआती बाहर चली गयी। माँजी बिफरती हुई
उसकी ओर घूरती रहीं।
-माँजी! माँजी!
-योगेश फिर चिल्लाया।
-मास्टरजी,
आप समझते नहीं कि इसका नतीजा क्या होगा!
-लेकिन आप शान्त
तो होइए!
-आप शान्त होने के
लिए कह रहे हैं? मास्टरजी,
आप तो जानते हैं कि हमारी सोसायटी कैसी है। आज
एक हफ्ते से शीला और अनिल हर जगह साथ-साथ रहे हैं, सभा-सोसायटी में साथ-साथ घूमें हैं, सिनेमा-क्लबों में एक-दूसरे की बगल में घण्टों बैठे हैं।
क्या इससे लोगों को मालूम नहीं हो गया होगा कि शीला और अनिल की शादी तय हो गयी है?
-लेकिन, माँजी, इसमें दोष शीला का नहीं है, आपका है।
-मेरा दोष है?
मैं क्या जानती थी कि शीला ...
-आपने जानने की
कोशिश ही कब की, माँजी?-बीच ही में योगेश बोल पड़ा-आप शीला की माँ हैं,
लेकिन माँ बनकर आपने अपनी बेटी को जानने का कब
प्रयत्न किया? शैशव में उसे आया
की खरीदी हुई गोद नसीब हुई, बचपन में उसे
कानवेण्ट की सिस्टरों के कृत्रिम प्यार के झूले में गढ़ी हुई लोरियाँ सुनने को
मिलीं। कुछ बड़ी होकर कानवेण्ट से कैम्ब्रिज की जूनियर परीक्षा पास कर जब घर आयी,
तो इकलौती होने के कारण पिता के नयनों का तारा
बनी। आपको भला अपने पश्चिमी जीवन के तौर-तरीकों और सभा-सोसाइटी से फ़ुरसत ही कब
मिली, जो आप अपनी बेटी को अपनी
आतुर गोद में ले तनिक दुलारतीं, अपनी आँखों का
स्नेह-रस तनिक उसकी भोली आँखों में ढरकातीं, अपने होंठों में मातृत्व का प्यार भर तनिक उसके पतले-पतले
सरस होंठों को चूमतीं?
-इससे क्या?
मेरा भी तो लालन-पालन ऐसे ही हुआ था। हमारी
सोसायटी में शिशु-पालन का यही रिवाज है।
-तभी तो मैं कहता
हूँ, कि आप से बेहतर शीला को
उसकी आया समझती है, जिसने शैशव में
उसे अपनी छाती का दूध पिलाया था; कानवेण्ट की उन
सिस्टरों का शीला का मनोवैज्ञानिक अध्ययन आप से कहीं अधिक ठोस होगा, जिन्होंने बचपन में उसे शिक्षा-दीक्षा दी और
उसके साथ खेली-कूदीं। और शीला के पिता तो सचमुच शीला के निर्माता थे, जिन्होंने अपने हृदय के प्यार और अपने प्राणों
की साधना से उसकी रचना की थी! -कहते-कहते योगेश की आँखों में शीला के पिता की
पूर्व स्मृतियाँ झलमला उठीं।
माँजी ने एक
ठण्डी साँस ले तनिक विह्वल आँखों से योगेश की ओर देखा।
योगेश ने फिर
कहा-उन्होंने शीला को समझा था, माँजी! मुझे याद
है, उस दिन शीला की उच्च
शिक्षा का भार मेरे कन्धों पर रखते हुए उन्होंने कहा था, डाक्टर योगेश, शीला मेरे हृदय का टुकड़ा है, उसमें मेरे ही
आदर्शों की धडक़न पैदा करनी है! यद्यपि उसके बचपन के संस्कार मेरी भावनाओं से मेल
नहीं खाते, फिर भी अभी मिट्टी कच्ची
है, उसे इच्छित रूप देना
तुम्हारे जैसे कुशल शिक्षक के लिए असम्भव नहीं है! मेरी शिक्षा का और शीला के पिता
के जीवन का आदर्श एक था और वह था देश-सेवा! अब आप ही बताइए, माँजी, एक देश-प्रेम की
मूर्ति को जिसके अन्दर एक देश-प्रेमी पिता की आत्मा ने प्राण फूँके हों, जिसके अंग-प्रत्यंग के सौष्ठव-गढऩ में एक
देश-प्रेमी कलाकार ने अपने हृदय की भावनाओं को मूत्र्त किया हो, क्या अनिल-जैसे अफ़सरी प्रकृति के युवक के हाथ
में देना उचित है? शीला आपका लिहाज़
करती है, जो एक हफ्ते तक आपकी
आज्ञानुसार अपने हृदय पर पत्थर रखकर अनिल बाबू के साथ घूमने-फिरने को मजबूर रही है,
वरना क्या वह कभी इसे पसन्द करती?
-मास्टरजी,
शायद आपको पता नहीं कि शीला के पिता मेरे
तौर-तरीकों से खुद भी चिढ़ते थे। और इसीलिए वह जब तक रहे, शीला को मेरे निजी संसर्ग में आने से भरसक रोकते रहे। इसी
बात को लेकर न जाने कितनी बार हममें लड़ाई-झगड़े हुए। आखिरी वक़्त अपनी
मृत्यु-शय्या पर भी मुझसे उन्होंने कहा था, सुमित्रा शीला की चिन्ता लिये मैं जा रहा हूँ। योगेश पर
मुझे भरोसा है। उसी पर तुम शीला को छोड़ देना। तुमसे मेरी यह आखिरी बात है कि
भूलकर भी अब शीला पर अपनी छाप डालने की कोशिश न करना। शीला मेरी सच्ची बेटी बनेगी।
मेरे अधूरे स्वप्नों को पूरा करेगी! मास्टरजी, उनके रहते जब मैं शीला को अपने पास न खींच सकी, तो उनके बाद ऐसा करके उनकी आत्मा को दु:ख
पहुँचाना भी मैंने उचित न समझा। लेकिन अब तो शीला की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर है।
मैं चाहती हूँ कि मेरे जीते-जी शीला किसी अच्छे घर पहुँच जाए। अनिल बाबू में वे सब
बातें हैं, जो एक सम्पन्न, आधुनिक युवक में होनी चाहिए। रही बात उनके
रहन-सहन की, सो तो सम्बन्ध हो
जाने पर शीला यदि उन्हें प्रभावित कर सकी, तो आसानी से बदली जा सकती है।
-आप ठीक कहती हैं।
किन्तु इसमें खतरा भी है। यदि शीला ऐसा न कर सकी, तो?
-तो भी कोई चिन्ता
की बात नहीं है। उसे अपने आदर्शों के अनुसार जीवन यापन करने की पूरी स्वतन्त्रता
होगी, जैसे शीला के पिता को
मेरे रहते भी थी। क्या मैं किसी तरह भी उनकी राह को बदलने में समर्थ हो सकी?
सच्ची लगन होनी चाहिए, मास्टरजी!
-लेकिन, माँजी, आप भूलती हैं कि वह पुरुष थे।
-स्त्री-पुरुष में
इस तरह भेद करना मैं स्त्री की शक्ति का अपमान समझती हूँ!
-तो, माँजी, यह शीला की शादी न होकर उसके जीवन के साथ एक खतरनाक प्रयोग होगा। शादी का अर्थ
दो अनुकूल हृदयों का चिर-मिलाप, दो समान शक्तियों
की चिर-सन्धि है, न कि दो विरोधी
भावनाओं का संघर्ष?
-संघर्ष में ही
जीवन विकसित होता है, मास्टरजी! खैर,
छोडि़ए इन बातों को। मैं अधिक बहस करना नहीं
चाहती। मेरा सिर अब दर्द करने लगा है। अच्छा हो, यदि आप शीला को समझा दें। यह माँ-बेटी की लड़ाई नहीं,
माँ-बेटी की इज़्ज़त का सवाल है! यदि अनिल और
शीला का सम्बन्ध टूट गया, तो मैं सोसायटी
में सिर उठाने के क़ाबिल न रहूँगी, और साथ-ही शीला
भी बदनाम हो जाएगी! इसलिए, मास्टरजी,
आप शीला को समझाएँ। वह आपकी बात मान जाएगी! -कहकर
माँजी ने अपना सिर कोच की पीठ पर डाल दिया। उनकी पलकें चिन्ता-भार से बोझिल हो झुक
गयीं।
योगेश की आँखें
माँजी पर फैलकर रह गयीं।
३
योगेश का चेहरा
तमतमा रहा था। उसकी लाल आँखों में परेशानियाँ झलक रही थीं। सिर के बाल बेढंगे तौर
पर ललाट पर बिखरे हुए थे। न जाने कब से यह आरामकुर्सी पर पड़ा-पड़ा शीला के ख्याल
में उलझता अपने को परेशान कर रहा था।
-मास्टरजी!
योगेश का ध्यान
टूटा। मुड़ते हुए वह बोला-कौन?
उसकी आँखों के
ठीक सामने दरवाजे की चौखटों की फ्रेम में मढ़ी हुई सी शीला की प्रतिमा सन्ध्या की
आभा में प्रदीप्त हो उठी वह आँखें मलकाता हुआ बोल पड़ा-ओह! शीला, तुम?
शीला चुपचाप खड़ी
रही।
-आओ, आओ! बैठो, वहाँ कब से खड़ी हो?
-अभी आयी हूँ,-एक कुर्सी की ओर बढ़ते हुए शीला धीरे से बोली।
-मैं आज आ न सका।
ज़रा तबीयत ...
यही सोचकर तो मैं
चली आयी कि कहीं आपकी बतीयत खराब न हो गयी हो। मैं समझती थी कि आप बहुत थक गये
हैं।-कुर्सी के अगले हिस्से पर ज़रा तिरछे बैठते हुए शीला बोली।
-हाँ, थकावट तो मुझे है, शीला, मगर वैसी नहीं
जैसी तुम सोचती हो।
-आपको आराम की
सख्त ज़रूरत है, मास्टरजी! मैं
ठीक सोचती हूँ! देखिए न, आपकी आँखें कितनी
लाल हो रही हैं। चेहरे पर भी थकावट के चिह्न स्पष्ट हैं! आपको पूरे आराम ...
-आराम? शीला, अब तो आराम ही आराम है। तुम्हारी परीक्षा के बाद तुम्हारी शादी की भीड़-भाड़
रह गयी थी, वह भी परसों समाप्त ही हो
गयी। मुझे अब काम ही क्या रह गया? ...अरे हाँ, तुम लोग दिल्ली
कब जा रहे हो? -आँखों में कुछ
छिपाते हुए योगेश बोला।
-अनिल बाबू की राय
तो कल ही जाने की है,-धीरे से शीला
बोली।
-कल ही? सुबह आठ बजे वाली ट्रेन से?
-जी।
-ओह, तब तो, शीला, तुमने अच्छा किया,
जो चली आयी, वरना शायद मैं तुमसे मिल भी न पाता।
-क्यों? आप सोचते थे कि शीला बिना अपने मास्टरजी के
आशीर्वाद लिये ही ससुराल चली जाएगी?-शीला के शब्दों में एक हल्का व्यंग्य था।
-शीला, क्या तुम्हारे सामने भी मुझे शर्मिन्दा होना
पड़ेगा?-कहकर योगेश ने शीला की ओर
आँखें उठायीं।
शीला ने देखा,
योगेश की आँखों में उसका प्रेम जैसे एक दर्द
बनकर उभर आया था। सिर हिलाते हुए वह बोली-नहीं-नहीं, मास्टरजी, ऐसा न कहिए। यह
तो मेरे दिल का दर्द है, जो आपके सामने भी
एक व्यंग्य बनकर उभर आया। मुझे माफ़ करें।
-शीला, तुम तो जानती हो कि यह-सब कैसे हुआ। लोग कहते
हैं कि कार्य करने या न करने की स्वतन्त्रता कर्मशील पर निर्भर करती है। किन्तु,
शीला, कर्मशील की भी अपनी परवशताएँ होती हैं, जिनके सामने वह कभी-कभी सिर झुका देने को मजबूर हो जाता है।
फिर भी गुज़रे का मोह छोडक़र आगे देखना कर्मशील का कर्तव्य है। परिस्थितियों से
लडक़र आगे बढऩा युवक-हृदय का धर्म है।
-विपरीत
परिस्थितियों से संघर्ष लेने में तो शक्ति का ह्रास होता है न, मास्टरजी! अपने ध्येय तक पहुँचने के लिए जिस
शक्ति का उपयोग होना चाहिए, उसी को, अपने कार्य को स्थगित कर, विपरीत परिस्थितियों से लडऩे में खर्च करना
क्या उचित है?
-यदि वे
परिस्थितियाँ ध्येय की राह में रोड़े साबित हों, तो उन रोड़ों को दूर करने में जो शक्ति लगायी जाती है,
वह उचित ही तो है, शीला! आदमी को प्रारम्भिक स्थिति में ऐसा करना ही पड़ता है।
-लेकिन यहाँ तो
बात ही कुछ और है। अनिल बाबू, जो मेरी राह में
इस तरह आ गये हैं, मेरे ध्येय-पथ
में रोड़े न हो, मुझे मेरे ध्येय
से पथ-भ्रष्ट करने वाले हैं। क्या अपनी राह के प्रारम्भ में ही अपने कार्य से
मुडक़र मुझे जो उनसे संघर्ष लेना होगा, उसमें मेरी शक्ति का ह्रास और ध्येय-प्राप्ति में विलम्ब न होगा?
-होगा। इसलिए
तुम्हारे लिए दो राहें खुली हैं, एक यह कि तुम
अपने कार्य को कुछ दिन तक स्थगित कर अनिल बाबू की भावनाओं से संघर्ष लो। लेकिन यह
तभी ठीक होगा, जब तुम्हें
विश्वास हो कि एक-न-एक दिन वह तुमसे प्रभावित हो, तुम्हारे सहयोगी बन, तुम्हारी राह ही पर आ जाएँगे। दूसरी यह कि तुम अनिल बाबू की
चिन्ता छोड़ पूरी स्वतन्त्रता से अपने कार्य में ही लग जाओ।
-आप ठीक कहते हैं।
लेकिन पहली राह के विषय में, जब तक मैं उनको
अच्छी तरह समझ नहीं लेती, कुछ निश्चय करना
कठिन है और दूसरी राह कुछ खतरनाक दिखाई पड़ती है, क्योंकि वह पति हैं। वह अपना अधिकार जताएँगे और यह भी कोशिश
करेंगे कि मैं उनकी इच्छाओं पर नाचूँ। मेरे ऐसा न करने पर यह भी सम्भव है कि वह
मेरे जीवन से कटु खेल खेलने लगें।
-तुम ठीक कहती हो।
पहले कुछ समय तुम्हें उन्हें समझने में देना ही होगा। इसलिए उस समय तक तो तुम अपने
को किसी उलझन में डालो ही नहीं, जब तक कि उनके बारे
में तुम्हारी कोई धारणा पक्की नहीं हो जाती। यदि उस समय तुम्हारे लिए केवल दूसरी
राह ही खुली रह जाए, तो भी कोई चिन्ता
नहीं। खतरे के डर से अपने जीवन-ध्येय का त्याग नहीं किया जा सकता! यदि किसी दुविधा
या शंका के कारण तुम्हारे क़दम डगमगाएँ, तो तुम्हारे मास्टरजी का हाथ तो तुम्हें सहारा देने को है ही, शीला!
-मास्टरजी,
क्या यह भी कहने की बात है? मैं जो भी कुछ अपने जीवन में कर पाऊँगी,
उसका सारा श्रेय इन्हीं आपके हाथों को ही
मिलेगा!
-इसका मुझे गर्व
होगा, शीला! -योगेश का सिर
कहते-कहते गर्व से उठ गया।
-और यही मेरे लिए
गौरव की बात है, मास्टरजी! -शीला
का मस्तक मास्टरजी के प्रति हृदय की भक्ति से नत हो गया।
-अच्छा, तो अब तुम्हारी आगे की पढ़ाई के बारे में
तुम्हारी ममी की क्या राय है?
-अनिल बाबू की राय
है कि मैं दिल्ली से ही एम.ए. करूँ।
-ठीक है। ...अब
कहो, कुछ जलपान करोगी?
-मास्टरजी,
आज-कल मुझे खाना-पीना अच्छा नहीं लगता है। फिर
भी आपकी आज्ञा मैं कैसे... शीला के हृदय की व्यथा जैसे फिर उभर आयी।
-शीला,-बात काटते योगेश बोल पड़ा। मैंने तुम्हें लाख
समझाया, लेकिन देखता हूँ कि अब तक
तुम अपने हृदय को समझा न सकी। मैं मानता हूँ कि यह कोई ऐसी टीस नहीं जो किसी के
समझाने-बुझाने से मिट जाए। फिर भी इस तरह कमज़ोर बन अपने को दु:ख के हवाले कर देना
एक कर्मशील नारी को शोभा नहीं देता! तुम क्या नहीं जानती कि मुझे स्वयं इस बात से
कितनी व्यथा हुई है। एक कलाकार अपनी सुन्दरतम, महानतम कृति परिस्थितियों से मजबूर हो जब किसी कुपात्र के
हाथ सौंपने जाता है, तो शीला, क्या तुम नहीं समझती कि वैसा करने में उसका
कलेजा निकल आता है, उसकी आँखें खून
के आँसू रोती हैं! फिर भी मैं शान्त हूँ! -यही तो आपकी महानता है, मास्टरजी! -शीला ने भर्रायी हुई आवाज़ में कहा।
उसकी आँखों में आँसू तैर रहे थे।
-जानती हो,
शीला, मैं क्यों शान्त हूँ? मैं शान्त हूँ
इसलिए कि कलाकार की कृति हीरा है। कुपात्र के हाथ में जाकर भी उसकी चमक मन्द नहीं
पड़ती। वह चमकती रहती है अनन्त काल तक कोहनूर की तरह!
शीला की भीगी
आँखों में योगेश की बात जैसे कोहनूर का प्रकाश बन चमक उठी। वह आँखें मलकाती हुई उठ
खड़ी हुई और आगे बढ़ योगेश के चरण छू हाथ माथे से लगा लिया। योगेश के दाहिने हाथ
का शीला के सिर पर स्नेह-स्पर्श हुआ। शीला ने बरसती आँखें ऊपर उठायीं। योगेश ने
उसे उठाकर उसके आँसू अपने हाथ से पोंछ दिये।
४
शीला ने आहिस्ते
से दरवाज़ा खोल, सैण्डिल के पंजों
पर कमरे के अन्दर हो, दरवाजे को धीरे
से बन्द कर चिटखनी चढ़ा दी। फिर चोर की निगाहों से अनिल के पलंग की ओर देखती हुई
अपने बिस्तर की तरफ बढ़ी।
-कौन?-अनिल ने बेड-स्विच दबाते हुए आवाज दी।
कमरे में प्रकाश
भर गया। शीला जहाँ-की-तहाँ खड़ी रह गयी गड़ी-सी।
-ओह, शीला, तुम! -बिस्तर पर उठकर बैठता हुआ अनिल बोला।
शीला ने सिर
उठाया और खट-खट अपने पलंग पर जाकर निर्भीक सी बैठ गयी।
-शीला, कहाँ थी तुम इतनी रात गये तक?-शीला की ओर देखते अनिल ने प्रश्न किया।
शीला पैर उठा
सैण्डिल खोलने में व्यस्त थी।
-यह क्या देख रहा
हूँ मैं?-कुछ झुँझलाहट का भाव था
अनिल के प्रश्न में।
शीला ने एक बार
नज़र उठाकर देखा। फिर सैण्डिल को पलंग के नीचे कर बिस्तर पर लेटने को हुई कि अनिल
की कुछ कड़ी आवाज़ आयी-शीला, कुछ सुन रही हो
तुम?
शीला ने कुहनियों
पर टेक दिये, तनिक रुककर अनिल
को देखा, और लेट गयी।
अनिल गुस्से में
उठ शीला के पलंग के पास जा क्षुब्ध स्वर में बोला-शीला!
-कहिए?-शीला सहज भाव से बोली।
-जानती हो,
इस वक्त कितने बजे हैं?
-बजे होंगे दो।
-तुम इस वक्त कहाँ
से आयी हो?
-यह मैं आपको
बताना नहीं चाहती!
-क्यों?
-क्योंकि इसका
आपसे कोई सम्बन्ध नहीं है। मेरी व्यक्तिगत बातों में आपको दखल देने का कोई अधिकार
नहीं है।
-पति और पत्नी के
जीवन में कोई बात एक-दूसरे की व्यक्तिगत नहीं हो सकती। विवाह का सम्बन्ध पुरुष और
स्त्री के व्यक्तिगत अधिकारों को एक-दूसरे में लय कर अधिकारों की एक इकाई स्थापित
कर देता है।
-होना तो ऐसा ही
चाहिए। किन्तु ऐसा होने के पहले यह भी तो आवश्यक है कि पति-पत्नी किसी विशेष
उद्देश्य के लिए एक हों, और उसी उद्देश्य
की पूर्ति के लिए एक-दूसरे में मिल एक बलवती शक्ति का संगठन करें। यदि पति-पत्नी
के जीवन उद्देश्यों में सामंजस्य न हो, तो यह कैसे सम्भव हो सकता है? आज ढाई वर्षों से
मैं आपके साथ रह रही हूँ। इतने दिनों में मैं अच्छी तरह से जान गयी हूँ कि आपके
जीवन का उद्देश्य खाओ, पीओ और मौज करो
है। दो वर्षों तक तो मेरा विद्यार्थी-जीवन ही रहा। आपकी विशेष कृपा रही, जो आपने उस काल में मुझे अपने मनोरंजन का सामान
बनाकर मेरे अध्ययन में बाधा पहुँचाना उचित न समझा। अब मेरे एम.ए. कर लेने पर आपकी
बेचैनी को चैन नहीं। आप चाहते हैं कि अब मैं भी आपके मनोरंजन में योग दूँ और अपने
जीवन का उद्देश्य आपके ही जैसा बना लूँ। किन्तु, अनिल बाबू, मुझे दु:ख है कि
मैं ऐसा न कर सकूँगी।-अपनी दाहिनी कुहनी तकिये में गड़ाकर, हथेली पर सिर टेक, आँखें नीची किये ही शीला ने तनिक ऊपर खिसकाकर पैरों को मोड़ लिया।
-शीला, मैं कैसे कहूँ कि तुमने ग़लत समझा है मुझे। मैं
तुम्हारी भावनाओं की इज़्ज़त करता हूँ। तुम्हें अपनी राह चलने की पूरी स्वतन्त्रता
भी प्राप्त है। अगर ऐसा न होता, तो तुम अपनी
परीक्षा के बाद आज तीन महीनों से हर रात दस बजे से दो बजे तक मेरी नज़र बचाकर जहाँ
जाती हो वहाँ न जा पाती। तुम समझती हो कि मुझे यह सब मालूम नहीं है। लेकिन,
शीला, तुम्हें मालूम नहीं कि मैं तुम्हारे बाहर जाने-आने की पूरी खबर रखता हूँ। तुम
कहाँ जाती हो, क्या करती हो,
यह भी मुझसे छिपा नहीं है। फिर भी कुछ कहने की
ग़लती मैंने नहीं की, सिर्फ इसलिए कि
तुम पर मुझे विश्वास है और जिस राह पर तुम चल रही हो वह भी मुझे पसन्द है। रही
मेरे जीवन की राह, सो तो तुमने समझ
ही ली है। किन्तु, शीला, तुम्हारी इस समझ में मुझे कोई विशेषता नहीं
दिखाई पड़ती।
शीला सन्नाटे में
आ उसकी ओर आश्चर्य-मिश्रित उत्सुकता से आँखें फैलाये देखती रही, जैसे उसके सामने कुछ अप्रत्याशित घटने जा रहा
हो।
-शीला, अब तक मैं चुप रहा। आज तुम्हारे सामने अपने दिल
की भड़ास निकालना चाहता हूँ। सुन सकोगी तुम मेरी बातें?
-हाँ-हाँ, आप कहिए! -अपने हृदय की उत्सुकता दबाते हुए
शीला ने धीरे से कहा।
-शीला, मैं तुमसे अपने गुजरे जीवन की वे बातें कहने जा
रहा हूँ, जो दुनिया में कोई भी पति
अपनी पत्नी से कभी नहीं कहता। तुममें और औरतों की अपेक्षा कुछ विशेषता है, इसलिए ही मैं यह सब कहने की हिम्मत अपने
वैवाहिक जीवन के सुखों को खतरे में डालकर कह रहा हूँ। मुझे उम्मीद है कि तुम
नासमझी से काम न ले सहृदयता से पेश आओगी।
-आप इसकी फिक्र न
करें! शीला के जीवन में सस्ती भावनाओं और सामयिक आवेशों का कोई स्थान नहीं है।
-अच्छा, तो सुनो! -आँखों की पलकें झुकाते हुए अतीत में
गुम होता-सा अनिल बोला-तुम्हें यह सुनकर आश्चर्य होगा कि यह अनिल, जिसके जीवन को तुम आज इस रूप में देख रही हो,
अपने कालेज-जीवन में क्रान्तिकारी विचारों वाला
एक युवक था।
अनिल आगे
बोला-लेकिन मेरे जीवन में एक ऐसी तरुणी आयी, जिसने मेरे हृदय की आग को पानी कर दिया, जिसने मेर जीवन को क्रान्ति की राह से हटाकर
प्रेम की डगर में खींच लिया। जवानी का नशा था हृदय का पागलपन था मैं अन्धा हो अपनी
राह से भटक गया।
-फिर?-शीला ने पूछा।
-फिर जीवन की राह
पर पूनों की चाँदनी बिछ गयी। वह और मैं एक दूसरे से गुँथे-से चाँदनी की बिछलन में
जगह-जगह फिसलते चल पड़े। शीतल मन्द, सुगन्धित वायु हमारे दिलों को गुदगुदाने लगी। संगीतमय वातावरण हमारे कानों में
यमन की तानें भरने लगा। वृक्षों की मस्ती में झूमती शाखाएँ हमारी आँखों में
प्रेमासव छलकाने लगीं। हम आत्म-विभोर हो डगमगाते कदमों से आगे बढ़ते गये...बढ़ते
गये ...
-फिर?
-फिर...फिर अचानक
समाज ने मेरी बाँहों को झिंझोडक़र उसे मुझसे छीन लिया। चाँद छिप गया। राह पर
भयावना अन्धकार छा गया। मेरी दुनिया उजड़ गयी। हृदय टूट गया। आँखें वीरान हो गयीं।
कहते-कहते अनिल का चेहरा व्यथा से विकृत हो गया।
शीला की आँखें भर
आयीं। भीगे स्वर में वह बोली-उसके बाद?
-उसके बाद की
कहानी मेरी बरबादी की कहानी है। अपनी व्यथा को बहलाने के लिए मैंने क्लबों और नाचघरों
का सहारा लिया, अपने हृदय को
भुलाये रखने के लिए मैंने अपने को सुरा में डुबो दिया। फिर अपने जीवन में व्यस्तता
लाने के लिए मैंने नौकरी कर ली। धीरे-धीरे समय मेरे ज़ख्मी दिल पर मरहम लगाता गया।
विस्मृतियाँ व्यथा के अंकुर नष्ट करने लगीं। पिछली बातें धीरे-धीरे धुँधली हो
चलीं। जि़न्दगी एक राह पर आ टिकी। दिन कुछ मज़े में कटने लगे। आशाएँ फिर अपना जाल
बुनने लगीं। लालसा ने अपना सिर उठाना शुरू कर दिया। जीने का मोह जागा। जि़न्दगी को
नये तरीक़े से गुलजार करने की इच्छा प्रबल हो उठी?-दम लेने के लिए अनिल रुका।
-उसके बाद?-शीला तन्मय-सी बोली।
-उसके बाद शिमले
की एक उजली रात के रुपहले वातावरण में एक पार्टी के बीच तुम लोगों से मेरी
मुलाक़ात हुई। तुम्हारी ममी की आँखों में न जाने मेरी कौन-सी बात खुब गयी कि उनकी
भावनाओं में मैं बैठ गया। उन्होंने तुम्हारे विषय में मुझसे प्रस्ताव किया। मैंने
तुम्हारी आँखों में अपने प्रारम्भिक यौवन-काल के सपने देखे। वे सपने पुन: मेरी
आँखों के सामने चित्रमय हो थिरक उठे। मैंने हठात् हाथ बढ़ा दिये। तुम मेरे जीवन
में खिंच आयी। मेरा हृदय प्रफुल्ल हो खिलखिला उठा। किन्तु मैंने संयम और सब्र से
काम लिया। तुम्हारे उगते जीवन को पनपने की पूरी स्वतन्त्रता दी। तुम एम.ए. कर
चुकी। तुम्हारे जीवन की प्रारम्भिक तैयारी खत्म हुई। तुमने अपने कर्म-क्षेत्र में
प्रवेश किया। तुम्हारी शक्ति-संगठन की योजनाएँ, विद्यार्थी संघ की कल्पनाएँ, देश के कोने-कोने में राजनैतिक जागरण उत्पन्न करने के लिए
साहित्य-निर्माण की बातें, सब मैं सुन चुका
हूँ। मैं अपनी मुस्कराती आँखों से हृदय का हर्ष दबाये तुम्हारे कार्य-कलापों को
देखता रहा। आज हृदय की उमंगें बरबस जोर पर आ गयीं। मैं अधिक अपने को सँभाल न सका।
भावों के आवेश ने मुझे इस तरह तुम्हारे सामने लाकर खड़ा कर दिया। बोलो, शीला, क्या मेरे सपने सपने ही रह जाएँगे?-आँखों में कुछ छिपाते अनिल ने शीला की ओर हाथ बढ़ा दिया।
शीला ने उसका हाथ
अपने हाथों में ले ज़ोर से दबाते हुए कहा-तुम बड़े वो हो! पहले ही तुमने यह सब
मुझसे क्यों न बता दिया? मेरा हृदय जो तुम्हारे
भय के भार से दबा-दबा सा रहता था, आज पूर्णरूप से
उन्मुक्त हो गया। आज मैं खुश हूँ, बहुत खुश,
अनिल! -शीला की आँखों से खुशी छलक पड़ी। आवेश
में उसने अनिल को अपनी ओर ज़ोर से खींच लिया। कमरे में दोनों की खिलखिलाहट गूँज
उठी, जैसे ज्वाला की गोद में
क्रान्ति खिलखिला उठी हो!
५
-शीला! शीला! -
चिल्लाता हुआ अनिल शीला के अध्ययन-कक्ष की ओर दौड़ पड़ा।
शीला ने
मुस्कराती आँखें किताब से उठायीं।
अनिल शीला के
कन्धों को पकडक़र खुशी के पागलपन में झकझोरता हुआ बोला-मास्टरजी ...
-मास्टरजी! -शीला
की आँखें एक-ब-एक खिल उठीं। अनिल को पीछे छोड़ वह ड्राइंग रूम की ओर हाथ में किताब
लिये ही बेतहाशा भागी।
योगेश शीला को
देख खड़ा हो गया। शीला योगेश से सटकर, हाथ जोड़े सिर झुकाये, हृदय की
उत्फुल्लता छाती में दबाये खड़ी हो गयी। योगेश की स्नेह-भरी उँगलियाँ शीला के
बालों में फिरने लगीं। दो क्षण को दोनों खो गये। अनिल दरवाजे पर खड़ा इन
स्नेहमूर्तियों का रस-भरा, अपूर्व मिलन
मलकती आँखों से देखता रहा, देखता रहा जब तक
कि उसके हृदय के विह्वल हर्ष के रस में उसकी आँखें भीग न गयीं।
-शीला! -योगेश का
सम्बोधन स्नेह-सिक्त था।
-मास्टरजी! -प्यार
में डूबा शीला के हृदय से यह शब्द निकला।
-बैठो।
शीला पास की कोच
पर बैठ गयी।
बगल की कोच पर
बैठते योगेश ने देखा, दरवाजे पर अनिल
खोया-सा खड़ा था। वह बोला-आइए न, अनिल बाबू! आप
वहाँ कैसे खड़े हैं?
अनिल जैसे किसी
मीठे सपने में चिहुँककर बोला-आप शीला से तब तक बातें कीजिए। मैं आपके जलपान...
-अरे इसकी
क्या...-योगेश के वाक्य पूरा करने के पहले ही अनिल भाग गया। शीला ने एक तिरछी नजर
से योगेश की ओर देखते हुए मुस्करा दिया।
-शीला, उन्हें बुलाओ न!
-क्यों? उनके सन्तोष के लिए भी तो कुछ चाहिए। अच्छा,
मास्टरजी, मेरा पत्र आपको मिल गया था न?
-हाँ।
-आप आ गये,
यह बड़ा अच्छा हुआ! मैं आपको देखने को तड़प रही
थी!
-शीला, मैं तो इस वक्त के इन्तजार में ही था। मैं सोच
रहा था कि एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा, जब तुम दोनों
मिलकर मुझे एक आवाज़ से पुकारोगे। तुम दोनों को इस तरह देख आज मुझे कितनी खुशी हो
रही है! मेरी मनोकामना की लता जैसे आज पुष्पित हो मेरी आँखों के सामने झूम रही है!
मेरा हृदय फूला नहीं समाता, शीला!
-यह तो सब आपके
आशीर्वाद फल रहे हैं, मास्टरजी! अच्छा,
ममी तो अच्छी हैं न?
-हाँ, वह भी बहुत खुश हैं! आने के पहले मैं उनसे मिला
था। पुरानी बातों की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा, देखा, मास्टरजी,
मेरा चुनाव सफल रहा न? मैंने कहा, माँजी, आप सचमुच अद्भुत पारखी हैं! सुनकर वह हँसने
लगीं। लेकिन...हाँ, एक बात है,
उनको अनिल बाबू का नौकरी से इस्तीफा देना कुछ
जँचा नहीं। मैंने कहा, माँजी, जो-कुछ आपके पास है, वह क्या शीला और अनिल बाबू के लिए कम है? और दूसरा है ही कौन उसे भोगनेवाला? इस पर वह हँस पड़ीं।
-यहाँ आने को नहीं
कह रही थीं? उनकी याद मुझे
बहुत सताती है, मास्टरजी! उनके
प्रति जो क्षोभ मेरे हृदय में भर गया था, वह तो जैसे अब श्रद्धा में बदल गया है। मेरे बगैर घर कितना सूना-सूना लग रहा
होगा! उन्हें भी आप क्यों नहीं लेते आये? थोड़े दिन रहकर फिर चली जातीं।
-आने को वह कह रही
थीं, शीला, मगर मैंने ही रोक दिया। उनका स्वभाव तो तुम
जानती ही हो। और...और ...
-आँखों में कुछ
छिपाता सा योगेश रुक गया।
-और क्या, मास्टरजी? आप रुक क्यों गये?-उत्सुक हो उठी शीला।
-क्या यह भी
तुम्हें बताना होगा, शीला?
-मास्टरजी,
आप साफ-साफ क्यों नहीं कहते?-शीला की उत्सुकता बेचैन हो उठी।
-आकाश पर छाये हुए
घने-घने बादलों को तुम नहीं देख रही हो?-गम्भीर होता योगेश बोला।
-ओह! यह मतलब है
आपका?
-हाँ, शीला, देश अब चुप नहीं रहेगा। बहुत सब्र किया इसने। युद्घ की ज्वाला धू-धू कर रही
है। देश के नौजवान लपटों में जूझने के लिए भेजे जा रहे हैं। देश इन नौजवानों की
कीमत माँगेगा! इन कुरबानियों का सिला चाहेगा! देश के नेता सरकार का द्वार
खटखटाएँगे।
-फिर?
-फिर क्या होगा,
कुछ नहीं कहा जा सकता। भविष्य धुँधले पर्दे से
ढँका हुआ है। अभी इसको मेरी आँखें भेदने में असमर्थ हैं।
-मास्टरजी,
मेरी आँखें तो देख रही हैं कि क्या होगा! -एक
मेज खींच कर योगेश के सामने जलपान का ट्रे रखते अनिल बोला।
-ओह, अनिल बाबू! ...आपका क्या ख्याल है?-योगेश ने कहा।
-नतीजा वही होगा,
जो अब तक होता आया है। मैं तो कितनी बार यही
बात लेकर शीला से झगड़ चुका हूँ। यह भी आप ही की शिष्या है न! आप लोग तो बस सरकार
के दरवाजे पर सदा लगाते रहेंगे। अरे, मास्टरजी कहीं इस तरह माँगने से आजादी मिलती है?
-तो क्या आपका
ख्याल है कि इस बार भी सरकार देश की माँग ठुकरा देगी? अनिल बाबू, आप इतनी
निराशावादिता से क्यों काम ले रहे हैं।
-आशावादी होना
बुरा नहीं, मास्टरजी! किन्तु आशाओं
के ही आधार पर देश का भविष्य नहीं छोड़ा जा सकता। और फिर सरकार की स्थिति इस देश
में आप जैसी बुरी समझते हैं, वैसी नहीं है।
स्थिति बदलने के लिए सरकार की एक चाल काफी होगी। जनता मुँह ताकती रह जाएगी।
-जनता की बुद्घि
और शक्ति में मैं अविश्वास नहीं कर सकता, अनिल बाबू! फिर भी हमें आने वाली विषम परिस्थितियों को ही दृष्टि में रखकर
जनता को तैयार करना है। जनता का संगठन, जनता की शक्ति हमारे नेताओं की माँग को बल देगी।
-परसों 'जन जागरण सभा' की बैठक है। उसमें हम अपने अन्य सहयोगियों के साथ इस विषय
पर क्यों न चर्चा करके अपना कार्यक्रम निश्चित कर आगे कदम बढ़ाएँ? मास्टरजी, आप तो अभी रहेंगे न?-शीला ने कहा।
-हाँ, मैंने तीन महीने की छुट्टी ले ली है। तब तक मैं
तुम्हीं लोगों के साथ रहूँगा। मैं सोचता हूँ कि इसी के बीच कुछ-न-कुछ होकर रहेगा।
ऐसे में मैं तुम लोगों को अकेले नहीं छोडऩा चाहता।
-मास्टरजी,
आपका नेतृत्व और सहयोग हमारे लिए अमूल्य सिद्घ
होगा।-शीला बोली।
-अच्छा शीला,
तू तो आते ही मास्टरजी का दिमाग़ चाटने लगी।
इन्हें कुछ जलपान तो कर लेने दे! -हँसता हुआ अनिल बोला।
-अरे हाँ-हाँ! अब
मास्टरजी, आप ...
योगेश ने तश्तरी
की ओर हाथ बढ़ाया, शीला प्याली में
चाय ढालने लगी।
६
वर्षा की अँधेरी
रात आकाश में छायी घनी घटाओं के नीचे उसाँसें भर रही थी। रह-रहकर आकाश में बिजली
बादलों का सीना चीरती सी कौंध-कौंध जाती। बादल चीत्कार कर उठते। सारा वातावरण
त्रस्त-सा थर्रा उठता। हवा के झोंके पेड़ों की डालों को झकझोरते निकल जाते। पेड़ों
की पत्तियाँ टूट-टूट कर हवा में फडफ़ड़ाने लगतीं।
दरवाजों और
खिड़कियों को बन्द किये कमरे में योगेश कुर्सी पर सिमटा-सा हाथ में एक किताब खोले
बैठा था। बिजली की थकी-सी रोशनी कमरे में जैसे ऊँघ सी रही थी। चिन्तित सा योगेश
अपने को किताब में भुलाने का असफल प्रयास कर रहा था। उसकी बगल में मेज़ से तनिक हट
कर आरामकुर्सी पर ही शीला पैर समेटे सो गयी थी। उसकी छाती पर खुली किताब पट पड़ी
थी। पीली रोशनी में उसके चेहरे पर थकावट के चिह्न स्पष्ट झलक रहे थे। कुछ
अस्त-व्यस्त बाल उसके ललाट और गालों पर बिखरे परेशानियों की रेखाओं से प्रतीत हो
रहे थे। उसकी आँखों की फूली पलकों पर कड़ी मेहनत ने एक हल्की स्याही सी फेर दी थी।
योगेश की
करुणा-भरी आँखें रह-रहकर किताब से हट कर शीला के माँदे चेहरे पर उठ जाती हैं। शीला
का वह शान्त रूप जैसे उसके हृदय में एक व्यथा की टीस उठाता सा कसक जाता है। वह
पलकें मूँदता किसी ख्याल में खो-सा जाता है। उसके अन्तर में एक द्वन्द्व सा मचने
लगता है। वह विचारों में डूबा-ही-डूबा सोचता है-कर्तव्य कितना निष्ठुर और सेवा
कितनी करुण होती है! कुसुम सी कोमल शीला क्या काँटों से अपना दामन उलझाने के लिए
पैदा हुई थी? नवनीत-सा
स्नेह-भरा उसका हृदय क्या चिन्ताओं की आँच के सामने पल-पल गलने के लिए था? उसकी गीत-भरी आवाज़ क्या किसी मंच पर खड़े हो
गला फाड़-फाडक़र चिल्लाने के लिए थी? योगेश, यह तुमने क्या किया?
शीला, जो किसी की रानी बनकर उसके हृदय में रूप का माधुर्य, उसके प्राणों में प्यार के गीत और उसकी आत्मा में सौन्दर्य
का आनन्द भरने के लिए पैदा हुई थी, उसे तुमने किस
हृदय से नुकीले कंकड़ों-भरी राह पर घसीट लिया?
-मास्टरजी!
मास्टरजी! -शीला डरी हुई आँखें खोलकर चिल्ला उठी।
योगेश जैसे नींद
से चौंक पड़ा हो। आँखें मलते हुए बोला-शीला, तुमने पुकारा है मुझे?
-मास्टरजी! -सहमी
आँखें योगेश की ओर उठाते हुए शीला फिर चिल्लायी।
योगेश उसके पास
झुककर उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोला-क्या हुआ, शीला?
-मास्टरजी,
सपना...-हाँफती हुई शीला बोली।
-कैसा सपना?
बड़ा डरावना,
मास्टरजी, बड़ा भयावना!
-दुत, पगली! ऐसे भी कहीं डरा जाता है?-शीला के ललाट के बाल ऊपर करते हुए योगेश ने
कहा।
-नहीं-नहीं,
मास्टरजी! मैंने देखा...-भय से शीला सहम गयी।
-क्या देखा,
मुझसे कह न! -मुस्कराते हुए शीला का गाल थपथपा
योगेश बोला।
-मैंने देखा,
मास्टरजी, कि मेरे घर में किसी ने आग लगा दी है। लपटों की लपलपाती
जिह्वा हमारी ओर बढ़ रही है। मैं और अनिल पास ही पास सोये हैं। अनिल की नींद खुल
जाती है। वह मुझे हाथों में ले लपटों से बाहर निकलने को भागता है कि कुर्सी से
टकराकर मुझे लिये हुए धड़ाम से गिर जाता है। ज्वालाएँ हू-हू कर हमें भस्म करने को
बढ़ती हैं। मैं अनिल से लिपटी चिल्ला पड़ती हूँ, मास्टरजी! मास्टरजी! आप न जाने कहाँ से लपटों के बीच निकल
आते हैं और एक बगल में मुझे और दूसरी बगल में अनिल को दाबे लपटों से लड़ते हुए
हमें बाहर निकाल लाते हैं। बाहर आते ही, मास्टरजी, आप...आप...-कहते-कहते
शीला अपनी आँखों को हाथों से ढाँपती हुई फूट पड़ी।
-शीला, अरे, तू सपने से घबरा गयी? देख-देख, मैं तो तेरे सामने खड़ा हूँ! उठ, चल, बिस्तरे पर सो रह! तू बहुत थक गयी है। -योगेश ने शीला का हाथ पकड़ उसे उठाते
हुए कहा।
शीला खड़ी हो
गयी। योगेश ने उसके आँसू पोंछ दिये।
-मास्टरजी,
अनिल बाबू कहाँ हैं?
-तुम्हारे सामने
ही तो ए.पी. के आफिस गये थे समाचार लेने।
-अभी तक वह नहीं
आये क्या?
-समाचार अभी नहीं
मिलेगा। वह आते ही होंगे। चलो, तुम सो रहो।
शीला को बिस्तर
पर लिटा, उसे कम्बल से अच्छी तरह
ढँक, उसकी पलकों पर हाथ फेरते
हुए योगेश ने धीरे से कहा-तुम आराम से सो रहो। मैं अनिल बाबू का इन्तजार करूँगा।
योगेश जब वहाँ से
हटकर ड्राइंग रूम में आया, तो जैसे शीला का
सपना सच्चा हो उसकी आँखों के सामने नाच उठा।
-मास्टरजी! -अनिल
ने दरवाज़ा खटखटाते हुए पुकारा।
योगेश ने दरवाजा
खोलकर पूछा-क्या समाचार लाये, अनिल बाबू?
अनिल सामने शून्य
में आँखें टिकाये हुए चुप रहा।
अनिल सिर झुकाये
ही कोच की ओर बढ़ा और माथा हाथ पर टेककर बैठ गया। एक लम्बी साँस उसके मुँह से निकल
गयी।
योगेश उसके सामने
की कोच पर बैठकर तनिक देर उसकी ओर देखता रहा। फिर सूखे गले से बोला-अनिल बाबू! आप
मुझसे कुछ कहते क्यों नहीं?
अनिल ने धीरे से
सिर उठाकर कहा-क्या बताऊँ, मास्टरजी?
-अनिल बाबू,
यों हतोत्साह होना आपको शोभा नहीं देता। आप
बोलिए न, क्या समाचार आया है?
-मास्टरजी,
मेरी आँखों के सामने तो जैसे गहन अन्धकार छा
रहा है। मैं किंकत्र्तव्य-विमूढ़ सा हो रहा हूँ। आप भी वह समाचार सुनेंगे, तो आपकी भी यही दशा होगी। मेरी तो समझ में नहीं
आता कि सरकार ने आखिर क्या समझकर ऐसा कदम उठाया है।
-क्या हुआ?
आप-साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते?
-अच्छा तो सुनिए,
मास्टरजी! हमारे नेता एक साथ गिरफ़्तार कर लिये
गये।-वाक्य पूरा होते ही जैसे कमरे का वातावरण सन्न-सा रह गया। वह आगे बोला-बोलिए,
मास्टरजी, अब क्या होगा?
-यही प्रश्न तो
मेरे दिमाग़ को बौखला रहा है। चन्द घण्टों के बाद जब खूनी सुबह की क़ातिल हवा इस
लाल खबर को सारे देश में फैला देगी, तो क्या होगा?
-देश दीवाना हो
जाएगा, जनता पागल हो उठेगी।
सरकार को मालूम नहीं कि देश के नेता जनता के कितने प्यारे हैं!
-फिर?
-फिर वही होगा,
जो चोट खाने के बाद अन्धा होकर शेर करता है।
-नतीजा?
-नतीजा संयोग पर
अवलम्बित है। हो सकता है कि शेर शिकारी को मार डाले या यह भी सम्भव है कि शेर
शिकारी की गोलियों का ...
-नहीं-नहीं,
अनिल बाबू, ऐसा न कहिए। हम जनता को पागल न होने देंगे।
-जनता अन्धी होती
है। उसके प्रबल वेग को रोकना मानवी शक्ति के वश की बात नहीं।
-हम उसे भरसक
रोकने की कोशिश करेंगे। हम अहिंसा का खून न होने देंगे। नेताओं की अनुपस्थिति में
हम उनकी नीति की अवहेलना कर उनके नाम पर धब्बा न लगने देंगे। सरकार का विरोध हम
शान्तिपूर्वक प्रदर्शन से करेंगे। हमें असीम धैर्य और अपार शान्ति से काम लेना
होगा। हमे अपने स्वयंसेवकों को भी ऐसा ही आदेश देना होगा। समय कम है। हमें अभी से
इस कार्य में जुट जाना चाहिए।
-हाँ, हम अभी चलेंगे। शीला कहाँ है?
-शीला, बहुत थक गयी है। उसे थोड़ी देर और आराम कर लेने
दो। तुम भी अभी यहीं रहो, नहीं तो शीला
उठने पर हम दोनों में से किसी को न पाकर घबरा जाएगी। किन्तु देखना, शीला कहीं धैर्य न खो बैठे। उसके सामने तुम्हें
भी साहस से काम लेना होगा। मैं जल्द-से-जल्द लौटने की कोशिश करूँगा।
योगेश कमरे से
बाहर हो लम्बे डग भरता अँधेरे में मिल गया।
७
वातावरण में भीषण
आतंक छाया हुआ था। हवा में विद्रोह की चिनगारियाँ छिटक रही थीं। आकाश से सूर्य
अपनी खूनी आँखों से धरती को घूर रहा था। जुलूस जन-सागर की अनन्त लहरों की तरह
उद्दाम गति से राजपथ पर बढ़ रहा था। हजारों नर-मुण्डों के ऊपर तिरंगे झण्डे हवा
में लहरा रहे थे। जनता की आँखों से शोले फूट रहे थे। क्रोध से उनकी भौहें तन रही
थीं। योगेश, शीला और अनिल
जुलूस के आगे-आगे भयानक धैर्य और साहस से जुलूस का शान्तिपूर्वक संचालन कर रहे थे।
स्वयंसेवक ओज-भरे स्वर में गा रहे थे। उनकी देश-प्रेम में डूबी पंक्तियाँ फ़िजा
में गूँज रही थीं-
मुल्क पर कुरबान
होना शेर-दिल का काम है,
उठ्ठो, उठ्ठो! नौजवानों! मौत का पैग़ाम है ...
जुलूस बढ़ रहा
था। इंक़लाबी नारे शेरों की चिंग्घाड़ की तरह धरती-आकाश को कँपा रहे थे। तिरंगे
झण्डों पर सूर्य की किरणें विद्युत रेखाओं की तरह चमक रही थीं। हवा के झोंके उनमें
फडफ़ड़ा रहे थे। गीतों की गूँज फ़िजा में थर्रा रही थी। स्वयंसेवक गा रहे थे-
हम कैसे जवाँ हैं
भारत के, यह दुनिया को दिखला
देंगे! ...
जुलूस चौराहे पर
प्रबल वेगवती धारा की तरह मुड़ा कि किसी का गर्जन हवा को चीरता हुआ आया-जुलूस रोक
दो!
सामने सशस्त्र
घुड़सवार सैनिकों की क़तारें, सडक़ रोके हुए
थीं। योगेश ने जुलूस की ओर मुँह करके स्वयंसेवकों को आदेश दिया-जुलूस रोक दो!
जुलूस में खलबली
मच गयी। जन-धारा प्रवाह की राह न पा किनारों को तोडऩे-फोडऩे लगी। विकराल लहरों सा
गर्जन हुआ-हम नहीं रुक सकते! हमारा रास्ता छोड़ दो! ...
-रुक जाओ! -योगेश,
शीला, अनिल और सैकड़ों स्वयंसेवक गला फाड़-फाडक़र चिल्लाने लगे। खतरे की भयानकता
उनकी आँखों में काँप रही थी। जुलूस के सामने हाथ फैलाये हुए वे ज़ोर लगाकर,
पीछे पैर अड़ाये बढ़ती हुई जनता को रोक रहे थे।
-हमें कोई नहीं
रोक सकता! हम आगे बढ़ेंगे! -एक हुँकार के साथ हज़ारों मुठ्ठियाँ हवा में लहरा
उठीं। फ़िज़ा दहशत से लरज गयी। भीड़ ने जोर मारा। रोकने वालों के कदम उखडऩे लगे।
...
सैनिकों की आँखों
में बिजलियाँ चमक उठीं। उनके हाथों में संगीनें खनक उठीं। हुक्म हुआ-फायर!
सनसनाती हुई
गोलियाँ हवा को चीरती हुई आसमान में धुआँ भर गयीं।
जन-सागर में
तूफान उठ गया। उन्मत्त लहरें फुफकारती हुईं प्रलय वेग से बढ़ीं। अग्रिम पंक्ति
टूटने ही वाली थी कि फिर आवाज़ आयी-फायर!
अनिल शीला के आगे
पीठ करके खड़ा हो गया। गोलियाँ सनसनायीं और करीब था कि अनिल के सीने में गोली
पैवस्त हो जाती कि योगेश अनिल के सामने आ गया। शीला चिल्लायी-मास्टरजी! मास्टर ...
मास्टरजी अनिल के
कन्धे पर आ रहे। स्वयंसेवक लपके। मास्टरजी का सीना रंग गया।
सेवा-समिति के
हरे-भरे मैदान में सैकड़ों की भीड़ के बीच स्ट्रेचर पर शहादत की चादर ओढ़े योगेश
शान्त पड़ा था। सन्ध्या की सुनहरी किरणें उस पर सोने का तार बुन रही थीं। उसके
चेहरे पर देश-प्रेम मुस्करा रहा था। उसकी शहादत पर अमरत्व न्यौछावर हो रहा था।
लोगों के चेहरों पर ठण्डी उदासी छायी हुई थी। अनिल फफककर रो रहा था। शीला की
आँसू-भरी आँखें योगेश के मुस्कराते चेहरे पर हसरतों की वर्षा कर रही थीं। सहसा
उसकी बरसती आँखों में उसका पिछली रात का सपना उतर आया। उसकी आँखों में लपटें जल
उठीं। उन लपटों में अनिल और शीला घिर गये। मास्टरजी उनको अपनी बग़लों में दबाये
लपटों से निकाल लाये। बाहर आकर मास्टरजी ...
शीला ने एक ठण्डी
आह ले आँखें आकाश की ओर उठायीं। आँसू की धारें उसके गालों पर बहने लगीं। उस समय
सूर्य संसार से विदा ले रहा था।
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