मिठाईवाला
बहुत ही मीठे
स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता - "बच्चों को बहलानेवाला,
खिलौनेवाला।"
इस अधूरे वाक्य
को वह ऐसे विचित्र किन्तु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर
हो उठते। उनके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ उपयुक्त गान सुनकर निकट के मकानों
में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर
छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अन्तर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में
खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर
खिलौने की पेटी खोल देता।
बच्चे खिलौने
देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोल-भाव करने लगते। पूछते -
"इछका दाम क्या है, औल इछका? औल इछका?" खिलौनेवाला बच्चों को देखता, और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता, और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे
देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब फिर खिलौनेवाला उसी प्रकार
गाकर कहता - "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।" सागर की हिलोर की भाँति उसका यह मादक गान गली भर के मकानों
में इस ओर से उस ओर तक, लहराता हुआ पहुँचता,
और खिलौनेवाला आगे बढ़ जाता।
राय विजयबहादुर
के बच्चे भी एक दिन खिलौने लेकर घर आए! वे दो बच्चे थे - चुन्नू और मुन्नू! चुन्नू
जब खिलौने ले आया, तो बोला -
"मेला घोला कैछा छुन्दल ऐ?"
मुन्नू बोला -
"औल देखो, मेला कैछा छुन्दल
ऐ?"
दोनों अपने
हाथी-घोड़े लेकर घर भर में उछलने लगे। इन बच्चों की माँ रोहिणी कुछ देर तक
खड़े-खड़े उनका खेल निरखती रही। अन्त में दोनों बच्चों को बुलाकर उसने पूछा -
"अरे ओ चुन्नू - मुन्नू, ये खिलौने तुमने
कितने में लिए है?"
मुन्नू बोला -
"दो पैछे में! खिलौनेवाला दे गया ऐ।"
रोहिणी सोचने लगी
- इतने सस्ते कैसे दे गया है? कैसे दे गया है,
यह तो वही जाने। लेकिन दे तो गया ही है,
इतना तो निश्चय है!
एक जरा-सी बात
ठहरी। रोहिणी अपने काम में लग गई। फिर कभी उसे इस पर विचार की आवश्यकता भी भला
क्यों पड़ती।
छह महीने बाद।
नगर भर में
दो-चार दिनों से एक मुरलीवाले के आने का समाचार फैल गया। लोग कहने लगे - "भाई
वाह! मुरली बजाने में वह एक ही उस्ताद है। मुरली बजाकर, गाना सुनाकर वह मुरली बेचता भी है सो भी दो-दो पैसे भला,
इसमें उसे क्या मिलता होगा। मेहनत भी तो न आती
होगी!"
एक व्यक्ति ने
पूछ लिया - "कैसा है वह मुरलीवाला, मैंने तो उसे नही देखा!"
उत्तर मिला -
"उम्र तो उसकी अभी अधिक न होगी, यही तीस-बत्तीस का होगा। दुबला-पतला गोरा युवक है, बीकानेरी रंगीन साफा बाँधता है।"
"वही तो नहीं,
जो पहले खिलौने बेचा करता था?"
"क्या वह पहले
खिलौने भी बेचा करता था?'
"हाँ, जो आकार-प्रकार तुमने बतलाया, उसी प्रकार का वह भी था।"
"तो वही होगा। पर
भई, है वह एक उस्ताद।"
प्रतिदिन इसी
प्रकार उस मुरलीवाले की चर्चा होती। प्रतिदिन नगर की प्रत्येक गली में उसका मादक,
मृदुल स्वर सुनाई पड़ता - "बच्चों को
बहलानेवाला, मुरलियावाला।"
रोहिणी ने भी
मुरलीवाले का यह स्वर सुना। तुरन्त ही उसे खिलौनेवाले का स्मरण हो आया। उसने मन ही
मन कहा - "खिलौनेवाला भी इसी तरह गा-गाकर खिलौने बेचा करता था।"
रोहिणी उठकर अपने
पति विजय बाबू के पास गई - "जरा उस मुरलीवाले को बुलाओ तो, चुन्नू-मुन्नू के लिए ले लूँ। क्या पता यह फिर
इधर आए, न आए। वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए है।"
विजय बाबू एक
समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उसी तरह उसे लिए हुए वे दरवाजे पर आकर मुरलीवाले से बोले
- "क्यों भई, किस तरह देते हो
मुरली?"
किसी की टोपी गली
में गिर पड़ी। किसी का जूता पार्क में ही छूट गया, और किसी की सोथनी (पाजामा) ही ढीली होकर लटक आई है। इस तरह
दौड़ते-हाँफते हुए बच्चों का झुण्ड आ पहुँचा। एक स्वर से सब बोल उठे - "अम बी
लेंदे मुल्ली, और अम बी लेंदे
मुल्ली।"
मुरलीवाला
हर्ष-गद्गद हो उठा। बोला - "देंगे भैया! लेकिन जरा रुको, ठहरो, एक-एक को देने दो। अभी इतनी जल्दी हम कहीं लौट थोड़े ही जाएँगे। बेचने तो आए
ही हैं, और हैं भी इस समय मेरे
पास एक-दो नहीं, पूरी सत्तावन।...
हाँ, बाबूजी, क्या पूछा था आपने कितने में दीं!... दी तो
वैसे तीन-तीन पैसे के हिसाब से है, पर आपको दो-दो
पैसे में ही दे दूँगा।"
विजय बाबू
भीतर-बाहर दोनों रूपों में मुस्करा दिए। मन ही मन कहने लगे - कैसा है। देता तो
सबको इसी भाव से है, पर मुझ पर उलटा
एहसान लाद रहा है। फिर बोले - "तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत होती है। देते
होगे सभी को दो-दो पैसे में, पर एहसान का बोझा
मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।"
मुरलीवाला एकदम
अप्रतिभ हो उठा। बोला - "आपको क्या पता बाबू जी कि इनकी असली लागत क्या है।
यह तो ग्राहकों का दस्तूर होता है कि दुकानदार चाहे हानि उठाकर चीज क्यों न बेचे,
पर ग्राहक यही समझते हैं - दुकानदार मुझे लूट
रहा है। आप भला काहे को विश्वास करेंगे? लेकिन सच पूछिए तो बाबूजी, असली दाम दो ही
पैसा है। आप कहीं से दो पैसे में ये मुरलियाँ नहीं पा सकते। मैंने तो पूरी एक हजार
बनवाई थीं, तब मुझे इस भाव पड़ी
हैं।"
विजय बाबू बोले -
"अच्छा, मुझे ज्यादा वक्त
नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल
दो।"
दो मुरलियाँ लेकर
विजय बाबू फिर मकान के भीतर पहुँच गए। मुरलीवाला देर तक उन बच्चों के झुण्ड में
मुरलियाँ बेचता रहा। उसके पास कई रंग की मुरलियाँ थीं। बच्चे जो रंग पसन्द करते,
मुरलीवाला उसी रंग की मुरली निकाल देता।
"यह बड़ी अच्छी
मुरली है। तुम यही ले लो बाबू, राजा बाबू
तुम्हारे लायक तो बस यह है। हाँ भैए, तुमको वही देंगे। ये लो।... तुमको वैसी न चाहिए, यह नारंगी रंग की, अच्छा वही लो।.... ले आए पैसे? अच्छा, ये लो तुम्हारे लिए मैंने पहले ही निकाल रखी
थी...! तुमको पैसे नहीं मिले। तुमने अम्मा से ठीक तरह माँगे न होंगे। धोती पकड़कर
पैरों में लिपटकर, अम्मा से पैसे
माँगे जाते हैं बाबू! हाँ, फिर जाओ। अबकी
बार मिल जाएँगे...। दुअन्नी है? तो क्या हुआ,
ये लो पैसे वापस लो। ठीक हो गया न हिसाब?....मिल गए पैसे? देखो, मैंने तरकीब
बताई! अच्छा अब तो किसी को नहीं लेना है? सब ले चुके? तुम्हारी माँ के
पैसे नहीं हैं? अच्छा, तुम भी यह लो। अच्छा, तो अब मैं चलता हूँ।"
इस तरह मुरलीवाला
फिर आगे बढ़ गया।
आज अपने मकान में
बैठी हुई रोहिणी मुरलीवाले की सारी बातें सुनती रही। आज भी उसने अनुभव किया,
बच्चों के साथ इतने प्यार से बातें करनेवाला फेरीवाला
पहले कभी नहीं आया। फिर यह सौदा भी कैसा सस्ता बेचता है! भला आदमी जान पड़ता है।
समय की बात है, जो बेचारा इस तरह
मारा-मारा फिरता है। पेट जो न कराए, सो थोड़ा!
इसी समय
मुरलीवाले का क्षीण स्वर दूसरी निकट की गली से सुनाई पड़ा - "बच्चों को
बहलानेवाला, मुरलियावाला!"
रोहिणी इसे सुनकर
मन ही मन कहने लगी - और स्वर कैसा मीठा है इसका!
बहुत दिनों तक
रोहिणी को मुरलीवाले का वह मीठा स्वर और उसकी बच्चों के प्रति वे स्नेहसिक्त बातें
याद आती रहीं। महीने के महीने आए और चले गए। फिर मुरलीवाला न आया। धीरे-धीरे उसकी
स्मृति भी क्षीण हो गई।
आठ मास बाद -
सर्दी के दिन थे।
रोहिणी स्नान करके मकान की छत पर चढ़कर आजानुलंबित केश-राशि सुखा रही थी। इसी समय
नीचे की गली में सुनाई पड़ा - "बच्चों को बहलानेवाला, मिठाईवाला।"
मिठाईवाले का
स्वर उसके लिए परिचित था, झट से रोहिणी
नीचे उतर आई। उस समय उसके पति मकान में नहीं थे। हाँ, उनकी वृद्धा दादी थीं। रोहिणी उनके निकट आकर बोली -
"दादी, चुन्नू-मुन्नू के
लिए मिठाई लेनी है। जरा कमरे में चलकर ठहराओ। मैं उधर कैसे जाऊँ, कोई आता न हो। जरा हटकर मैं भी चिक की ओट में
बैठी रहूँगी।"
दादी उठकर कमरे में
आकर बोलीं - "ए मिठाईवाले, इधर आना।"
मिठाईवाला निकट आ
गया। बोला - "कितनी मिठाई दूँ, माँ? ये नए तरह की मिठाइयाँ
हैं - रंग-बिरंगी, कुछ-कुछ खट्टी,
कुछ-कुछ मीठी, जायकेदार, बड़ी देर तक मुँह
में टिकती हैं। जल्दी नहीं घुलतीं। बच्चे बड़े चाव से चूसते हैं। इन गुणों के सिवा
ये खाँसी भी दूर करती हैं! कितनी दूँ? चपटी, गोल, पहलदार गोलियाँ हैं। पैसे की सोलह देता
हूँ।"
दादी बोलीं -
"सोलह तो बहुत कम होती हैं, भला पचीस तो
देते।"
मिठाईवाला -
"नहीं दादी, अधिक नहीं दे
सकता। इतना भी देता हूँ, यह अब मैं
तुम्हें क्या... खैर, मैं अधिक न दे
सकूँगा।"
रोहिणी दादी के
पास ही थी। बोली - "दादी, फिर भी काफी
सस्ता दे रहा है। चार पैसे की ले लो। यह पैसे रहे।
मिठाईवाला
मिठाइयाँ गिनने लगा।
"तो चार की दे दो।
अच्छा, पच्चीस नहीं सही, बीस ही दो। अरे हाँ, मैं बूढ़ी हुई मोल-भाव अब मुझे ज्यादा करना आता भी
नहीं।"
कहते हुए दादी के
पोपले मुँह से जरा-सी मुस्कराहरट फूट निकली।
रोहिणी ने दादी
से कहा - "दादी, इससे पूछो,
तुम इस शहर में और भी कभी आए थे या पहली बार आए
हो? यहाँ के निवासी तो तुम हो
नहीं।"
दादी ने इस कथन
को दोहराने की चेष्टा की ही थी कि मिठाईवाले ने उत्तर दिया - "पहली बार नहीं,
और भी कई बार आ चुका है।"
रोहिणी चिक की
आड़ ही से बोली - "पहले यही मिठाई बेचते हुए आए थे, या और कोई चीज लेकर?"
मिठाईवाला हर्ष,
संशय और विस्मयादि भावों मे डूबकर बोला -
"इससे पहले मुरली लेकर आया था, और उससे भी पहले खिलौने लेकर।"
रोहिणी का अनुमान
ठीक निकला। अब तो वह उससे और भी कुछ बातें पूछने के लिए अस्थिर हो उठी। वह बोली -
"इन व्यवसायों में भला तुम्हें क्या मिलता होगा?"
वह बोला -
"मिलता भला क्या है! यही खाने भर को मिल जाता है। कभी नहीं भी मिलता है। पर
हाँ; सन्तोष, धीरज और कभी-कभी असीम सुख जरूर मिलता है और यही
मैं चाहता भी हूँ।"
"सो कैसे? वह भी बताओ।"
"अब व्यर्थ उन
बातों की क्यों चर्चा करुँ? उन्हें आप जाने
ही दें। उन बातों को सुनकर आप को दु:ख ही होगा।"
"जब इतना बताया है,
तब और भी बता दो। मैं बहुत उत्सुक हूँ। तुम्हारा
हर्जा न होगा। मिठाई मैं और भी कुछ ले लूँगी।"
अतिशय गम्भीरता
के साथ मिठाईवाले ने कहा - "मैं भी अपने नगर का एक प्रतिष्ठित आदमी था।
मकान-व्यवसाय, गाड़ी-घोड़े,
नौकर-चाकर सभी कुछ था। स्त्री थी, छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे। मेरा वह सोने का
संसार था। बाहर संपत्ति का वैभव था, भीतर सांसारिक सुख था। स्त्री सुन्दरी थी, मेरी प्राण थी। बच्चे ऐसे सुन्दर थे, जैसे सोने के सजीव खिलौने। उनकी अठखेलियों के मारे घर में
कोलाहल मचा रहता था। समय की गति! विधाता की लीला। अब कोई नहीं है। दादी, प्राण निकाले नहीं निकले। इसलिए अपने उन बच्चों
की खोज में निकला हूँ। वे सब अन्त में होंगे, तो यहीं कहीं। आखिर, कहीं न जन्मे ही होंगे। उस तरह रहता, घुल-घुल कर मरता। इस तरह सुख-संतोष के साथ मरूँगा। इस तरह
के जीवन में कभी-कभी अपने उन बच्चों की एक झलक-सी मिल जाता है। ऐसा जान पड़ता है,
जैसे वे इन्हीं में उछल-उछलकर हँस-खेल रहे हैं।
पैसों की कमी थोड़े ही है, आपकी दया से पैसे
तो काफी हैं। जो नहीं है, इस तरह उसी को पा
जाता हूँ।"
रोहिणी ने अब
मिठाईवाले की ओर देखा - उसकी आँखें आँसुओं से तर हैं।
इसी समय
चुन्नू-मुन्नू आ गए। रोहिणी से लिपटकर, उसका आँचल पकड़कर बोले - "अम्माँ, मिठाई!"
"मुझसे लो।"
यह कहकर, तत्काल कागज की दो
पुड़ियाँ, मिठाइयों से भरी, मिठाईवाले ने चुन्नू-मुन्नू को दे दीं!
रोहिणी ने भीतर
से पैसे फेंक दिए।
मिठाईवाले ने
पेटी उठाई, और कहा - "अब इस बार
ये पैसे न लूँगा।"
दादी बोली -
"अरे-अरे, न न, अपने पैसे लिए जा भाई!"
तब तक आगे फिर
सुनाई पड़ा उसी प्रकार मादक-मृदुल स्वर में - "बच्चों को बहलानेवाला
मिठाईवाला।"
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