डिबिया
डिबिया अभी तक
मेरे पास है। कई वर्षों से मैंने उसे खोल कर भी नहीं देखा। लेकिन उसे खोलने का
निर्णय पूरी तरह मुझ पर निर्भर करता है। समाज या कोई और, कोई दोस्त भी, मुझ पर यह दबाव नहीं डाल सकता कि मैं उसका ढक्कन सिर्फ इसलिए खोल दूँ कि इससे मेरी
बातों के प्रति उसका विश्वास पैदा हो जाएगा। नहीं तो, मैं कभी भी, जीवन भर, विश्वसनीयता नहीं हासिल कर सकूँगा।
यानी, अगर मुझे अपने अनुभव की सत्यता को प्रमाणित
करना है तो मैं उन लोगों के सामने अपनी उस डिबिया का ढक्कन हटा दूँ, जो वर्ना मुझ पर विश्वास नहीं करते। मेरे अनुभव
जिन्हें, वर्ना अविश्वनीय लगते
हैं।
लेकिन समस्या यह
है कि यह कैसे पता चले कि उन लोगों का विश्वास हासिल करना, मेरे लिए इस डिबिया को खोलने से जोखिम और दाँव से ज्यादा
मूल्यवान है? यह भी तो हो सकता
है कि उन सबको मेरी बात के प्रमाणित हो जाने पर सिर्फ मेरे एक इस अनुभव पर विश्वास
हो जाए, लेकिन दूसरे बाकी अनुभवों
को वे फिर भी अविश्सनीय मानते रहें।
ऐसे में तो अपनी
बातों को उन तमाम लोगों के सामने प्रमाणित करते-करते ही मैं बूढ़ा हो जाउँगा। मर
भी जाऊँगा। और तब भी मेरे बहुत-से अनुभव अप्रमाणित ही रहे आएँगे। यानी अंततः मैं
उन लोगों के लिए अविश्सनीय ही बना रहूँगा।
फिर एक सबसे बड़ी
समस्या तो यह है कि अपने दूसरे बाकी अनुभवों का प्रमाण देने के लिए मेरे पास दूसरी
डिबिया भी नहीं हैं। मैं किस तरह से अपने जीवन की सत्यता को इतने सारे लोगों के
लिए प्रमाणित करता रहूँ? यही कारण है कि
मैं उस डिब्बी का ढक्कन नहीं हटाता। अकेले में भी, दूसरों के सामने भी। क्योंकि संदेह मुझे कभी-कभी अपने ऊपर
भी होता है। इतने वर्षों बाद मैं भी तो, उस एक अनुभव के लिए, एक दूसरा आदमी बन
चुका हूँ।
वह डिब्बी बचपन
से मेरे पास है। उसकी कहानी बहुत छोटी-सी है, ऐसी भी नहीं कि वह अरुचिकर हो।
तो, था यह कि उस समय मेरी उम्र आठ साल की रही होगी।
सातवें साल से दूधिया दाँत टूटने लगते हैं। लेकिन तब तक दाढ़ में वे दाँत नहीं उग
पाते, जिनसे अक्ल पैदा होती है।
हमारा घर गाँव
में है। पहले मिट्टी का घर था। छप्पर खपड़ैल की होती थी। अभी भी खपड़ैल की ही होती
है। गाँव से लगा हुआ जंगल था। जंगल में लंगूर बहुत होते थे। बल्कि लंगूर शब्द
मैंने काफी बाद में सीखा, किताबों से। हम
उन्हें काले मुँह का बंदर कहते थे। और कौए बहुत होते थे। हमारी दादी खाना खाने के
बाद दोपहर आँगन में कौओं को बुलाती थीं, खाना देने के लिए, तो वे पूरे आँगन
में भर जाते थे।
लंगूर और कौए,
दोनों हमारे घर की छप्पर के दुश्मन थे। लंगूर
छप्पर पर दौड़ते तो खपड़े फूट जाते। कौए भी जगह-जगह से खपड़ैलों को हटा देते थे।
जहाँ-जहाँ खपड़ैलें फूट गई होती थीं, वहाँ बरसात का पानी घर के अंदर टपकने लगता था। हम वहाँ खाली बाल्टी रख देते
थे।
लेकिन जब बारिश न
होती तो उन छेदों से धूप कमरे के भीतर फर्श पर गिरती थी। फर्श पर धूप के वे गोल
टुकड़े बहुत रहस्यपूर्ण आकर्षण और कुछ-कुछ जीवित लगते थे। वे टुकड़े सूर्य के
साथ-साथ सरकते थे और उनका आकार भी बदलता जाता था। जिस टुकड़े को सुबह मैं किसी
मछली के रूप में देख जाता था, दोपहर वह हाथी के
रूप में होता। या मुँह फाड़े हुए राक्षस की तरह। कभी-कभी किरणों का कोण या सूर्य
की स्थिति बदलने से कोई टुकड़ा अदृश्य भी हो जाता। देखते-देखते वह छोटा होता जाता
और फिर अंतर्धान हो जाता। अगले दिन ठीक उसी समय पर प्रकट होने के लिए। कभी-कभी
कमरे में कई ऐसे टुकड़े दिखने लगते। फिर धीरे-धीरे छोटेवाले टुकड़े सब गायब हो
जाते और जो सबसे बड़ा होता, वह सबसे देर तक
टिकता।
इन टुकड़ों के
साथ एक बात और भी थी। कमरे के अँधेरे में, जिस जगह वह गिरते, वहाँ अपने चमकदार
अस्तित्व के चारों ओर, वृत्ताकार रोशनी
का एक मद्धिम दायरा और बनाते थे। उस दायरे में आकाश का धुँधला प्रतिबिंब होता था।
उल्टा आकाश और हल्के नीले रंग का। चिड़ियाँ कभी अगर ऊपर से जातीं तो कमरे के अंदर
उनकी उड़ती हुई परछाईं गुजर जाती। रेंगते हुए बादल दिखते। कभी-कभी ये बादल उस
टुकड़े को ही ढाँक लेते। तब ऐसे में कुछ भी न बचता। न प्रतिबिंब, न टुकड़ा। वे टुकड़े मुझे बहुत जीवित और जादुई
लगते थे। मैं उन्हें अपने साथ वहाँ से दूसरी किसी जगह ले जाने के फेर में रहता।
इतना तो निश्चित था कि इनमें जीवन था और उनके साथ मैं सिर्फ किसी पराए दर्शक जैसा
संबंध नहीं रखना चाहता था। मैं उनके साथ इस पूरे दिन भर के खेल में शामिल होना
चाहता था।
मैं बहुत कोशिश
करता लेकिन वे अपनी जगह से कहीं नहीं जाते थे। जिस चीज को मैं उनके नीचे रखता,
वे उसके ऊपर आ तो जाते लेकिन उसे खींचते ही वे
वहीं रह जाते। हथेली में वे रहते लेकिन मुट्ठियाँ बाँधते ही वे उँगलियों के ऊपर आ
जाते और मेरा हाथ खाली ही लौट आता। कई बार हार कर गुस्से में मैं उन्हें जोरों से
पीटता। लात मारता। लोहे से जमीन खोद डालता। लेकिन वे बिल्कुल अप्रभावित रहते थे।
मेरे प्रति उनकी यह तटस्थता मेरे बर्दाश्त के बाहर थी। फिर उस दिन ऐसा हुआ। मैं
अकेला था। यह रसोई थी। एक बड़ा-सा, सुंदर-सा टुकड़ा
वहाँ गिरा हुआ खेल रहा था। माँ खाना बना कर कहीं चली गई थीं। मैंने उस टुकड़े को
खूब प्यार करने की कोशिश की। उसे चूमा फिर मैंने भात और दाल निकाल कर उसे दिया।
रसोई में बेना रखा हुआ था। चूल्हे की आग को हवा करने के लिए उसी का इस्तेमाल होता
है। मैंने बेने के ऊपर उस टुकड़े को रखा और उसे खींचा।
मैंने देख लिया
कि वह बेने के साथ-साथ सरक रहा है। वह आ रहा था। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी सफलता
थी। वह अब छप्पर से मुक्त हो चुका था। सूर्य से भी। मेरे साथ उसका संबंध बन चुका
था और उसने अपने बाकी सारे संबंध तोड़ दिए थे। वह मेरा था। सिर्फ मेरा। मैं उसे
रसोईघर के दूसरे कोने तक ले गया। फिर मैंने उससे प्यार से कहा - 'मेरा इंतजार करना, मैं अभी आया।' और मैं भागा। टिन की यह डिबिया, जिसमें पहले माँ का काजल था, उसे ले कर मैं
लौटा। वह मेरा इंतजार कर रहा था, बेने के ऊपर।
धीरे-धीरे काँपता हुआ। मैंने तभी से उसे इस डिबिया में बंद कर रखा है। मैं जानता
हूँ कि वह वहीं हैं, वह हमेशा वहीं है,
वह हमेशा वहीं रहेगा। और यह बात सच है।
क्या इस डिबिया
का ढक्कन हटा कर उसे खो देने का इतना बड़ा खतरा मैं सिर्फ इसलिए मोल लूँ, कि इससे उन लोगों को मेरे इस अनुभव पर विश्वास
हो जाएगा। वर्ना मैं उनका विश्वास कभी हासिल नहीं कर सकूँगा। लेकिन जो नहीं है,
उसके लिए, जो है, उसे दाँव पर
लगाना क्या कोई समझदारी है!
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