Thursday, September 1, 2016

काँसे का गिलास ...सुधा अरोड़ा की कहानी



सुधा अरोड़ा की कहानी 

काँसे का गिलास

बड़ा खूबसूरत गिलास था वह। रंगबिरंगे डिजाइन वाला प्लास्टिक का पारदर्शी गिलास - जिसकी दो तहों के बीच कैद नीले पानी में सुनहरे हरे फूल पत्ते और तैरती मछलियाँ थीं। गिलास गिरने से तड़क गया था और उसके भीतर की सारी खूबसूरती जमीन पर बड़ी बेरहमी से बिखरी पड़ी थी ।
      पूरे रसोई घर में फैली चमकीली पन्नियाँ और रंगीन पानी में तैरती प्लास्टिक की रंगबिरंगी मछलियाँ साफ की जा चुकी थीं पर वह थी कि बुक्का फाड़ कर रोए जा रही थी। वह यानी चिल्की। छह साल की चिल्की। मेरी पोती।
       - बस्स! अब चुप्प! बहुत हो गया! काफी देर प्यार से समझा चुकने के बाद मैंने अपने स्वर में आए डाँट डपट के भाव को बेरोकटोक उस तक पहुँचने दिया।
       - पहले शोभाताई को डाँटो, उसने मेरा गिलास क्यों तोड़ा! रसोई में काम करती शोभा तक ले चलने के लिए वह मेरा हाथ पकड़ कर खींचने लगी।
       - पहले तेरे पापा को न डाँटूँ जिसने इतना महँगा गिलास तुझे ला कर दिया? मैंने उसके पापा और अपने बेटे निखिल के प्रति अपनी नाराजगी जताई।
      उसकी रुलाई एकाएक और तेज हो कर कानों को अखरने लगी।
       - उफ! अब क्या हो गया। मेरा धीरज जवाब दे रहा था।
       - पापा ने नहीं, वह सुबकने लगी। सुबकती रही। फिर धीरे से बोली, यह ममा ने ला कर दिया था।
       ममा यानी नेहा। मेरी बहू। मैं सकते में आ गई। वह जिसके नाम से हम सब अपना पल्ला बचा कर चलते थे,  जैसे वह अछूत हो,  इसी तरह जब-तब हमारे ठहरे हुए संसार को तहस नहस करने चली आती थी।
       नेहा को इस घर से गए एक साल होने को आया था पर चिल्की उसे भूलती नहीं थी। कभी लाल हेअर क्लिप,  कभी जयपुरी जूतियाँ, कभी टपरवेअर का टिफिन बॉक्स, कभी डोनल्ड डक की मूठ वाली छतरी, कभी बालों पर टँगा सनग्लास - चिल्की के सामने किसी न किसी बहाने से उसकी प्यारी ममाआ कर ठहर जातीं और हमारे हुश हुशकरने के बावजूद ओझल होने का नाम नहीं लेती।
       अब चिल्की पर नाराज होना संभव नहीं था। उसका ध्यान गिलास से हटाना अब दूसरे नंबर पर चला गया था। सुबकती हुई चिल्की को मैंने अपनी बाँहों की ओट में ले लिया। चिल्की मेरे करीब सिमट आई और बड़ों की तरह रुलाई रोकने की कोशिश में उसकी हिचकियाँ तेज हो गईं।
       - सुन बेटा! एक कहानी सुनाÅऊँ तुझे? सुनेगी? चिल्की को बहलाने का अमोघ अस्त्र था यह!
       - पहले मेरा वो... सुंदरवाला ब्ल्यू गिलास... चिल्की गिलास से हटने को तैयार नहीं थी।
       एकाएक वह गिलास दुबारा टूटा और उसकी जगह एक चमकते हुए काँसे के गिलास ने ले ली सँकरी पेंदी और चौड़े मुँहवाला एक लंबासा काँसे का गिलास... गिलास न हो, फूलदान हो जैसे।
       - अरे बेटा, गिलास की ही कहानी तो सुना रही हूँ तुझे। सुनेगी नहीं, रानी बेटी?
       - बोलो, उसने जैसे मुझ पर एहसान कियासिर हिला कर हामी भर दी।
       - तब मैं तेरी ही तरह छह साल की थी। इत्ती छोटी। चिल्की जैसी।
       - हुँह, झूठ! वह सिसकी तोड़ती बोली, आप इत्ते छोटे कैसे हो सकते हो?
       - तो क्या मैं पचास साल की ही पैदा हुई थी - इत्ती बड़ी? अच्छा चल, मैं छह की नहीं, सोलह साल की थी, ठीक? मैं ठहाका मार कर हँस दी।
      मैं अपने बचपन में पहुँच गई जहाँ निवाड़वाली मंजियों (खटिया) के बीच खड़िया से आँगन में इक्का-दुक्का आँक कर मैं शटापू टप्पे वाला खेल खेलती थी। मुझे हँसी आ गई।
       वह मेरी पीठ पर धपाधप धौल जमाने लगी, हँसो मत! कहानी सुनाओ।
वह होंठों को एक कोने पर जरा-सा खींच कर मुस्कुराई। बिल्कुल अपनी माँ की तरह। उसके चेहरे पर नेहा दिखाई देने लगी।
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हाँ, तो मैं छोटी थी, चिल्की जितनी छोटी नहीं, उससे थोड़ी सी बड़ी। घर में मैं थी, मेरे ढेर सारे बड़े भाई-बहन थे, माँ और बाबूजी थे। बाबूजी की माँ भी थीं। यानी मेरी दादी। बहुत बहुत बूढ़ी थीं वो, पता है कितने साल की?
       - कितने...?
       - नब्बे से ऊपर।
       - नब्बे से ऊपर मतलब?
       - मतलब अबव नाइंटी। बहुत ही गोरी-चिट्टी। छोटी-सी, नाटी-सी। पर बड़ी सेहतमंद। ...गोरी इतनी कि उँगली गाल पे रखो तो लाली दब के फैल जाए.....पर थीं बिल्कुल सींक सलाई। चलती थीं तो ऐसे जैसे हवा में सूखा पत्ता उड़ता है। चलती क्या थीं, दौड़ती थीं जैसे पैरों में किसी ने स्प्रिंग फिट कर दिए हों...
       - ये तो आप मेरी बात कर रहे हो!... नहीं सुननी मुझे कहानी...। चिल्की बिसूरने लगी।
-      लो, मेरी तो याददाश्त ही कमजोर होती जा रही है। हाँ, साल भर की चिल्की ने भी जब चलना सीखा तो चलती नहीं, दौड़ती थी... हम उसे बताते थे कि चिल्की, तेरे पैरों में किसी ने स्प्रिंग फिट कर दिए हैं।
       - हाँ, तो बुढ़ापे में आदमी बच्चों जैसी हरकतें करने लगता है। हम उन्हें कहते, दादी, सोटी लाठी ले कर चलो नहीं तो गिर जाओगी पर वो कहाँ सुननेवाली। कुढ़ कर कहतीं - सोटी ले कर चले तेरी साससोटी ले कर चलें मेरे दुश्मन,  मुझे सोटी की लोड़ (जरूरत) नईं... उन्हें सोटी ले कर चलने में शरम आती थी। छोटा सा कद था और पीठ झुकी हुई नहीं थी। सीधी चलती थीं। चलती क्या थीं, उड़ती थीं। किसी की बात नहीं सुनती थीं। फिर क्या होना था...
       - हाँ... गिर गईं?  चिल्की की आँखों में कौतूहल था।
       - हाँ, गिरना ही था न! बच्चे भी बात नहीं मानते तो चोट तो लगती है ना?
       चिल्की ने सिर हिलाया - मैंने भी ममा की बात नहीं मानी थी तो ये देखो...
       चिल्की के जेहन में अब भी जख्म ताजा थे। उसने अपनी बाईं आँख बंद कर पलक पर उँगली गड़ा दी। आँख के ऊपर भौंह से लगे हुए छह टाँकों के निशान उभर आए थे। उस दिन निखिल के ऑफिस से घर में नया फर्नीचर आया था। फर्नीचर, जो उसके ऑफिस के लिए पुराना हो चुका था और वहाँ के कर्मचारियों को औने पौने भाव में बेचा जा रहा था। निखिल ने सोफा, दीवान और बीच की मेज खरीद ली थी। बर्मा टीक की बड़ी खूबसूरत मेज थी। चिल्की ने ज्यों ही नया सोफा देखा, लगी उस पर कूदने। नेहा चिल्लाती रही कि मेज के कोने नुकीले हैं, उन्हें गोल करवाना है, कूद मत नहीं तो लगेगा आँख पे। उसने तीन बार टोका और तीनों बार चिल्की और जोर से सोफे के डनलप पर कूदी। बस, पैर जरा सा मुड़ा और सीधे जा गिरी मेज के कोने पर। चिल्की की बाईं आँख लहूलुहान। कमरे में खून ही खून। नेहा ने देखा और लगी चीखने। कहा था न, सुनती तो है ही नहीं। उसको उठा कर दौड़े अस्पताल। सबकी जान साँसत में। चोट गहरी थी पर आँख बच गई थी। छह टाँके लगे। वह मेज उठा कर परछत्ती पर रखवा दिया। जब तक यह बड़ी नहीं हो जाती, यह मेज अब वहीं रहेगा, निखिल बड़बड़ाता रहा और नेहा उसे कोसती रही - अपने दफ्तर का यह कूड़ा-कचरा उठा कर घर लाने की जरूरत क्या थी! जमीन पर गद्दे और गावतकिए थे तो सोफे के बगैर भी घर कितना खुला खुला लगता था। अब कमरे में चलना मुहाल हो गया है। कहीं कुछ सस्ता देखा नहीं कि उठा कर घर में डाल दो। घर न हुआ, स्टोररूम हो गया।
       चिल्की तो उस दिन के बाद से कुछ सँभल कर चलने लगी। फिर कभी उसे टाँके नहीं लगे। पर दादी तो एक बार गिरीं तो फिर नहीं उठीं। कूल्हे की हड्डी चटक गई थी। डेढ़ महीने टाँग पर वजन बँधा रहा। हड्डी की तरेड़ तो ठीक हो गई पर जब तक हड्डी जुड़ती, टाँगें बिस्तर पर पड़े पड़े सूख गईं। अब टाँगों ने उनका वजन उठाने से इनकार कर दिया था।
       - फिर?
       - फिर क्या! बड़ी मुसीबत! हमेशा उड़ती-फिरती दादी बिस्तर से जा लगीं। ऊपर से उनकी जिद कि अब तो वजन उतर गया है, अब बिस्तर पर उनको पॉट नहीं चाहिए। उनके लिए शहर से दो कुर्सियाँ मँगवाई गईं। एक पॉटवाली, एक पहिएवाली जिस पर बिठा कर उन्हें दिन में एक बार अमरूद और सीताफल के पेड़ के पास ले जाना पड़ता - किस अमरूद को थैली लगानी है, कौन सा सीताफल पक गया है, कौन-सा अमरूद बंदर आधा खा गया है, सब की खोज-खबर रखती थीं वो ... कौन-सी चाची कितने दिनों से हालचाल पूछने नहीं आयी... कौन आके बार बार उनसे उनकी उमर पूछता है...
       - कितने साल की थीं वो?
       - उन्हें अपनी ठीक ठीक उम्र कहाँ मालूम थी ...वो तो ऐसे बताती थीं, जनरल डायर ने गोलियाँ चलवाई थीं तो उन्होंने नाड़े वाली सलवार पहनना शुरू कर दिया था... गांधी जी का भाषण सुनके घर पहुँची तो तेरे दादाजी की नई नौकरी लगने की चिट्ठी आई थी ... उनकी हर याद किसी न किसी बड़ी घटना से जुड़ी थी... कोई उनसे कहता कि झाई जी, आप तो नब्बे टाप गए हो तो उन्हें बड़ा बुरा लगता, कहतीं - नहींअभी तीन महीने बाकी है। मैं नब्बे की हुई नहीं और मुझे सब नब्बे की बताते हैं। और हो भी गई तो क्या, नब्बे से ऊपर आदमी जीना बंद कर देता है क्या? कोई उम्र पूछ लेता तो चिढ़ जातीं। एक बार तो एक रिश्तेदार से भिड़ गईं। उन्होंने उम्र पूछी तो बहुत धीरे से उनसे बोलीं - पहले तू बता, तू कितने साल का है। उसे सुनाई नहीं दिया। उसने कहा - क्या पूछा आपने? तो कहती है - अब तू मुझसे इतनी आहिस्ते पूछ। मैं तुझसे ज्यादा अच्छा सुन लेती हूँ,  मैं बिना चश्मा लगाए जपुजी साहिब का पाठ कर लेती हूँ फिर तू सत्तर का हुआ तो क्या और मैं नब्बे की दहलीज पे पहुँची तो क्या। लोग जब खुद ऊँचा सुनने लगते हैं तो सारी दुनिया उन्हें बहरी दिखाई देती है।
       चिल्की ने खिलखिल हँसना शुरु किया - आपकी दादी बहुत जोक मारती थीं। हैं न?
       - हाँ, बड़ी जिंदादिल थीं वो। अपनी सेहत का बड़ा ख्याल रखती थीं! शाम की चाय के साथ कुछ नमकीन खातीं जैसे चिवड़ा या निमकी या आगरे का दालमोठ - दालमोठ उनको बहुत पसंद था तो क्या करतीं - हथेलियों पे जो चिकनाई लगी रह जाती, उसको सबकी नजरें बचा कर हाथों और पैरों में रगड़ लेतीं। एक बार हम बच्चों ने उन्हें ऐसा  करते देख लिया। - छिः छिः छिः छिः, हमने कहा, दादी ये मिर्च मसालेवाला तेल रगड़ते हो, गंदा नहीं लगता?  जलन नहीं होती? उन्होंने हम बच्चों को पास बिठाया, बोलीं - अब कौन उठ के हाथ धोए। इस तरह एक पंथ दो काज होते हैं। - वो कैसे, झाई जी? हम पूछते तो कहतीं - देखो, ये... ये जो हमारे हाथों पैरों में रोएँ हैं न , ये छोटे छोटे रोएँ, ये हमारे शरीर के दीए हैं, दीपक हैं। जैसे दीयों को जलने के लिए तेल की जरुरत होती है न, वैसे ही इन्हें जलाए रखना है तो इनमें तेल डालना पड़ेगा। तभी तो ये गरम रहते हैं, खुश हो जाते हैं। देखो, ये चहक गए ना! जब ये दीये बुझ जाते हैं तो शरीर ठंडा हो जाता है और बंदा सफर पे निकल जाता है। सफर पे... यानी उनका मतलब था मर जाता है... हमने कहा, पर ये नमकीन तेल क्यों लगाते हो, नहाते समय तेल की मालिश किया करो तो कहती थीं, वो तो मैं तेरी माँ से छुपा के करती हूँ, कड़वे तेल की शीशी रख छोड़ी है गुसलखाने में। माँ मना करतीं हैं क्या? हम पूछते, तो कहतीं - नहीं , मजाल उसकी कि मुझे मना करे पर तेरी माँ ने देख लिया तो सोचेगी नहीं, बुड्ढी के पैर कबर में लटके हैं और शरीर के मल्हार हो रहे हैं... कह कर अपनी ही बात पर खिलखिला कर हँसतीं।
       - ममा भी मुझे हर संडे को तेल की मालिश करके नहलाती थीं। ममा को तो मसाजवाली आंटी आके मसाज करती थीं। ममा तो पूरी नंगू हो जाती थी... चिल्की फिर हँसने लगी।
       मैंने लंबी साँस भरी । इस लड़की ने कैसी याददाश्त पाई है, नहीं तो बच्चे कहाँ इतना याद रखते हैं चार-पाँच साल की उम्र होती क्या है। माँ की कितनी कितनी तस्वीरें इसके जेहन में दर्ज हैं।
       एकाएक चिल्की का चेहरा बुझ गया - ममा अब कभी मिलने नहीं आएगी, दादी? चिल्की का स्वर रुआँसा हो गया। चिल्की को इतनी देर तक कहानी सुना सुना कर फुसलाना बेकार गया था।
       - आएगी क्यों नहीं! आएगी न!
            - कब? चिल्की की आँखों की नमी पर आँखें टिका पाना मुश्किल था - अब तो फोन भी नहीं करती।
            पहले कर लिया करती थी दस-पंद्रह दिन में एक बार। उस दिन निखिल ने ही डाँट दिया - क्यों फोन करती हो बार-बार? उसे इस तरह परेशान करने से फायदा! अगर बेटी के लिए तुम्हारे मन में जरा भी माया-ममता बची रह गई है तो वह तुम्हें भूल सके, इसमें हमारी मदद करो। सात समंदर पार से अपनी आवाज सुना-सुना कर उसे हलकान मत करो। निखिल की आवाज में कड़वाहट थी और नेहा को कड़वाहट पसंद नहीं थी। उसने फोन पटक दिया और उसके बाद फिर कभी ब्लैंक कॉल तक नहीं आया। समय के साथ साथ रिश्ते धुँधलाने की कोशिश में थे।
       - अच्छा, वो गिलास की बात तो रह ही गई, चिल्कू?
       - अरे हाँ, चिल्की मेरे झाँसे में आ कर वापस चहक उठी, वो गिलास की कहानी तो आपने सुनाई ही नहीं...
       - वो गिलास तो दादी का था न बेटा, इसलिए तुझे पहले दादी की बात तो सुनानी थी न!
       - नहीं नहीं, अब आप गिलास की कहानी सुनाओ।
       - हाँ, तो दादी के पास एक गिलास था। काँसे का गिलास।
       - काँसा क्या होता है, दादी?
       मैंने आसपास नजर दौड़ाई। कोने में एक फूलदान था - काँसे का। देख, ऐसा होता है काँसा। इसके गिलास भी बनते हैं।
       - वो गिर जाए तो टूटता नहीं? चिल्की की आँखों में लुभा लेनेवाली मासूमियत थी।
       - काँसा बहुत नाजुक होता है। उसे फूल भी कहते हैं। जोर से गिरे तो टूट भी जाता है पर दादी का गिलास बड़ा मजबूत था। खास तरह की बनावट थी उसकी, गिरे तो भी टूटता नहीं था।
      - रिश्तों को इस तरह मत तोड़ो नेहा! कैरियर बनाने के बहुत सारे मौके आएँगे। निखिल नहीं चाहता तो मत जाओ। साम-दाम-दंड-भेद हर तरह से उसे समझाने की कोशिश की थी मैंने। कम से कम चिल्की के बारे में सोचो, वह माँ के बगैर रह पाएगी?
       - क्यों, बाप के बगैर नहीं रहती क्या जब निखिल शिप पर चले जाते हैं छह-छह महीने नहीं लौटते! - नेहा भड़क गई थी - इस तरह के मौके बार-बार नहीं आते लेकिन आप लोग हैं कि मेरा साथ देना ही नहीं चाहते! बीसेक दिन बेहद तनाव में गुजरे... बाद में निखिल ने हमें बीच में बोलने से टोक दिया। पता चला, कैरियर और जॉब का तो बहाना था, इसकी तह में नेहा और निखिल की आपसी अनबन थी। जिस दिन नेहा को जाना था, वह चिल्की से मिलने आई थी। एक बार उसे भीगी आँखों से प्यार किया, फिर चिल्की को गोद से उतार कर ऐसे एहतियात से रखा जैसे कोई हैंडल विद केअरसामान जमीन पर रखता है। बच्चों की छठी इंद्रिय बहुत तेज होती है। गोद से उतरते ही चिल्की ने सिसकियाँ ले ले कर रोना शुरू कर दिया था और नेहा ने उसे दुबारा भींच लिया था। माँ के आलिंगन की गर्माहट से चिल्की पिघल गई थी। कभी गलती से भी नेहा के नाम के साथ निखिल कोई विशेषण जड़ देता तो चिल्की फौरन टोक देती - मेरी ममा को ऐसे मत बोलो। ममा अच्छी है।अच्छीको वह जोर दे कर बोलती।
       सहसा चिल्की मुझे जमीन पर लौटा लाई - दादी, ये तो हमारे घर से आया है ना?
       - क्या? क्या आया है तेरे घर से?
       - ये। ये। ये। वह दौड़ कर फूलदान के पास जा कर खड़ी हो गई - ये दादी, ये तो हमारे घर में था ना।
       मैं भीतर तक हिल गई। कितनी जल्दी दुनियावी चीजें बच्चों को भी अपनी चपेट में ले लेती हैं।
      मैंने अपने को फौरन समेटा - पर ये घर भी तो तेरा है न। नहीं है
       - ये तो पापा का घर है, चिल्की ने फतवा दिया।
       - अच्छा बाबा, ठीक है। ये पापा का, वो तेरा। मेरा कोई घर नहीं। मैंने रोनी सूरत बना ली।
       - नहीं नहीं, अच्छी दादी, ये तो आपका घर है। पापा का भी और ... उसने मेरे गले में बाँहें डाल दीं - और मेरा भी। चिल्की अचानक अपनी उम्र से बड़ी हो गई थी और चहक कर अब मुझे झाँसा दे रही थी। मैं उसकी समझदारी पर हतप्रभ थी। यह बच्चों की नई पीढ़ी है। हमारे समय से कितनी अलग - व्यावहारिक और डिप्लोमेट।
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नेहा के जाने के बाद तीन चार महीने घर वहीं बना रहा था। चिल्की को वही घर अच्छा लगता था क्योंकि वहाँ से उसका स्कूल नजदीक था और जब तब उसकी सहेलियाँ खेलने आ जाती थीं। पर मेरे लिए दो घरों को चलाना बहुत मुश्किल था और जिस तरह नेहा छोड़ कर गई थी, उसके हृदय परिवर्तन की गुंजाइश बहुत कम थी। देर सबेर उस घर को समेटना ही था, निखिल को फिर लंबे दौरे पर जाना था इसलिए हमने उस घर को समेटने का फैसला लिया। चिल्की को उस घर से आने के लिए राजी करना टेढ़ा काम था। उसका कमरा हमने वैसा का वैसा वहाँ से शिफ्ट कर इस घर में हूबहू तैयार कर दिया था पर चिल्की थी कि न अपना घर भूलती थी, न कमरा और न उसे जिसने कमरा बड़े मन से बनाया था। 
       - पर दादी का भी एक घर था। ठीक? मैंने कहानी के छूटते जाते सिरे को थामा।
       - हाँ, और उनका वो गिलास ... चिल्की कहानी सुनने की मुद्रा में फिर बैठ गई।
- तो दादी उस गिलास में ही सुबह पानी पीती थीं, फिर उसमें चाय, फिर नाश्ते के साथ गिलास भर दूध, फिर खाने के साथ पानी, फिर शाम की चाय, फिर...
- क्यों, उनके घर में और गिलास नहीं था? चिल्की ने यह सवाल बिल्कुल चिल्की की तरह ही किया।
- नहीं, गिलास तो बहुत थे बेटा पर उनको वही गिलास पसंद था। हम सब बच्चे उसको पटियाला गिलास कहते थे। साइज में इत्ता...आ बड़ा था न इसलिए। गिलास का खूब मजाक भी उड़ाते थे। कहते थे - दादी, आप गिलास को ले कर ऊपर कैसे जाओगे?
- ही ही ही ही... चिलकी खिलखिला कर हँस दी, फिर क्या बोला आपकी दादी ने?
- कहने लगीं - हट पागल, गिलास वाले तो ऊपर ही हैं, वहाँ गिलास क्या करना है ले जा कर।
इसे तो यहाँ वालों के लिए छोड़ जाना है जैसे वो मेरे लिए छोड़ गए थे। हम बच्चे उनसे मजाक करते, पूछते - झाईजी आप मरोगे कब? वो हँसतीं - तेरे घर पोता होगा तब! उन्हें क्या पता था, मेरे घर पोता नहीं, पोती होगी - चिल्की जैसी... मैंने चिल्की के गाल पर हल्की सी चपत लगाई।
- आपके दादाजी नहीं थे?
- दादाजी थे न ऊँचे लंबे पठान जैसे। बड़े रोबदार। लेकिन वह पहले ही सफर पर निकल गए थे - दादी को अकेला छोड़ कर। वैसे तो दादा और दादी की आपस में कभी पटरी नहीं बैठती थी, दोनों में छत्तीस का आंकड़ा था - एक पूरब जाए तो दूसरा पच्छिम। दोनों एक दूसरे की टाँग खींचते रहते थे पर एक दूसरे के बगैर रह भी नहीं सकते थे इसलिए जब दादाजी मर गए तो सबको लगा कि अब तो दादी भी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेंगी पर हुआ उल्टा... दादा के जाने के बाद तो दादी का नक्शा ही बदल गया। हमेशा चुप रहने वाली गिट्ठी सी दादी खूब पटर पटर बोलने लगीं, हर शनीचर-इतवार हवन सत्संग में हाजरी लगाने लगीं, कलफ लगी कड़क साड़ियाँ पहनने लगीं। दादी पोते पोतियों के साथ खूब मसखरी करतीं, खूब कहानियाँ सुनातीं... जैसे मैं चिल्की को सुना रही हूँ।
चिल्की बड़ी बूढ़ियों की तरह दोनों गालों पर मुट्ठियाँ टिकाए बैठी रही।
-लेकिन अपने मरने की पूरी तैयारी उन्होंने कर रखी थी। कहतीं - मेरी ये सोने की चूड़ियाँ मेरी बिट्टो को देना, बिट्टो मेरी बुआ का नाम था। ये कान के बुंदे मेरी पोती को, ये सोने की चेन दूसरी पोती को, ये करधन .... ये भी बिट्टो को और ये मेरी आखिरी निशानी ये गिलास... ये भी बिट्टो को... माँ और बाबू जी हँसते - सबकुछ तो आपने भैनजी को दे दिया, हमारे लिए तो कुछ भी नहीं रखा... तो कहतीं - अच्छा, जो चीज उसे पसंद न आए वो तू रख लेना।
- आपकी बुआ को बहुत प्यार करती थीं वो?
- सब माँएँ करतीं हैं - मेरी जबान पर आया पर मैंने बात पलट दी - हाँ , बुआ तो उनकी लाड़ली थीं ही। अच्छा, तो वो हम बच्चों को पास बिठा कर कहतीं तुम लोग भगवान जी को बोलो - अब हमारा दादी से जी भर गया है, अब उसे अपने पास बुला लो, वो अपना बोरिया बिस्तरा बाँध के बैठी है, तुम्हारा रस्ता देख रही है। पर दादी, आप मरना क्यों चाहते हो? हम बच्चे उनसे पूछते। वो कहतीं - मेरी दादी कहा करती थीं...
- माय गॉड, उनकी एक और दादी थीं?
- एक और मतलब? दादी की दादी नहीं हो सकतीं? ... जा, मैं नहीं सुनाती कहानी।
- अच्छा, सॉरी सॉरी, क्या कहती थीं उनकी दादी?
- उनकी दादी कहा करती थीं...  टुरदा फिरदा लोया, बै गया ते गोया, लम्मा पया ते मोया।
- इसका क्या मतलब होता है दादी?
- हाँ, फिर वो मतलब समझातीं - चलता फिरता आदमी लोहे जैसा मजबूत होता है, जो वो बैठ गया तो गोबर गणेश और लेट गया तो मरे बराबर। कहतीं - मैं तो अब लेट गई, अब उठने की उम्मीद भी नहीं, तो मरे बराबर होने से मरना बेहतर। है न? उनको और कोई तकलीफ तो थी नहीं। बस, टाँगें सूख गई तो चलने फिरने से रह गईं। बाकी उनका हाजमा एकदम दुरुस्त, बदन पे झुर्रियाँ नहीं, याददाश्त ऐसी कि पचास साल पहले किसके घर क्या खाया, वो उनको याद और खाना बिल्कुल टाइम से खाना - बिना घड़ी देखे बोलती थीं - अब चाय का टेम हो गया, अब खाना लगा दो। आँगन में धूप की ढलती परछाईं से समय का अंदाजा लगा लेती थीं। उनकी निवाड़ की मंजी जरा ढीली होने लगती तो कहतीं - कस दो। कोई आता, झट उकड़ूँ हो कर कुहनी के बल आधी उठ जातीं। उन्हें मना करते, झाईजी, आप बैठे रहो, क्यों खटाक से उठ जाते हो। कहतीं - लेटे लेटे मेरी पीठ को बड़ी गरमी लगती है। मेरी पीठ हवा माँगती है।
- पीठ की कोई जबान होती है फिर पीठ माँगती कैसे है? चिल्की हँसने लगी फिर बोली - पर दादी, आप गिलास को क्यों भूल जाते हो बार बार?
ओफ! चिल्की गिलास की कहानी के बगैर मुझे छोड़ने नहीं वाली थी! मैं उसे बार बार भुलावे में डालने की कोशिश करती थीं पर वह मेरी उँगली पकड़ कर मुझे फिर गिलास तक ले आती थी।
- हाँ तो वे उसी गिलास में सुबह से रात तक की हर पीने वाली चीज पीती थीं। पानी, चाय, दूध, लस्सी, शरबत, अटरम शटरम सब कुछ उसी काँसे के गिलास में।
- फिर?
- फिर एक बार क्या हुआ कि गिलास गुम गया। सुबह उठे तो गिलास मिला ही नहीं। मेरी माँ ने उनको स्टील के गिलास में चाय दे दी। वो अपना नियम से उठीं, माँ ने चिलमची में कुल्ला वुल्ला करवाया। जाप वाप करके वो चाय पीने बैठीं। हाथ में गिलास लिया। देखा तो दूसरा गिलास, बोलीं - मैं नहीं पीती, ये लश्कारे वाले गिलास में, मुझे तो मेरा वाला गिलास दो।
- ही ही, जैसे चिल्की का मेरा वाला गिलास... दादी कोई बच्चा थीं?  चिल्की को मजा आ रहा था।
- हाँ, बूढ़े बच्चे तो एक ही जैसे होते हैं। अब उन्होंने जैसे जिद ठान ली - चाय पीनी है तो उसी गिलास में। चाय पड़ी पड़ी ठंडी हो गई। पूरा घर छान मारा। कहीं गिलास का अता पता नहीं। ऐसे अलादीन के जिन की तरह गायब हो गया।
- तो बोलना था, चिल्की ने हाथ लंबा घुमा कर अभिनय के साथ कहा - खुल जा सिमसिम... पर दादी, वो गिलास टूटता तो नहीं था न।
- टूटता तो नहीं था पर गुम तो हो जाता था न बच्चे। तो हम सब बच्चे लग गए उस गिलास को ढूँढ़ने में। ऊपर नीचे सारा घर खँगाल मारा। चारपाइयों के नीचे, आँगन में, छत की मुंडेर पर, कुएँ की जगत पर, अमरूद सीताफल के पेड़ के पास। पर गिलास तो ऐसा गायब हुआ कि बस।
उनको खाना दिया। मेरी माँ ने मिन्नतें कीं कि झाई जी, आप खाना शुरु तो करो, पानी पीने तक गिलास मिल जाएगा। खाना तो गिलास में नहीं खाते न! पर उनकी तो एक ही रट। मेरा गिलास, मेरा गिलास। बाबू जी ने उनको कस कर डाँट लगाई कि क्या तमाशा है, एक गिलास के लिए सारा घर आसमान पे उठा रखा है, गिलास न हुआ कोई कारुँ का खजाना हो गया। अब तो वो लगीं रोने। पहली बार हमने उन्हें रोते देखा। बोलींतुम लोगों के लिए वो एक पतरे का गिलास है। मेरे लिए तो वो मेरा लाहौर है, मेरा वेड़ा है, मेरा मायका है, ... मैं बोलते बोलते अटकी - मेरा सबकुछ है।
- वो गिलास मिला फिर? चिल्की ने आँखें गोल करके पूछा।
- नहीं। खाना भी वैसे ही ढँका पड़ा रहा। उन्होंने हाथ नहीं लगाया। शाम तक गिलास मिला नहीं सो शाम की चाय भी नहीं पी। बेहोश सी होने को आईं। आँखें बंद होने लगीं। हम अंदर बाहर ढूँढ़ते रहे। घर के सारे बच्चे बड़े गिलास ढूँढ़ने में लगे थे। आखिर गिलास मिला। पानी रखने की पीतल की कुंडी के तले में पड़ा था। किसी बच्चे के हाथ से गिर गया होगा। किसी को ख्याल ही नहीं आया कि वहाँ भी हो सकता है। जैसे ही गिलास मुझे मिला, मैं चिल्लाई - झाई जी, आपका गिलास... वो एकदम कुहनी के बल उठ गई। फिर उनकी आँखों में ऐसी चमक आई कि पूछो मत। बोलीं - जल्दी खाना लगाओ। बड़ी भूख लगी है। उनको खाना दिया तो उन्होंने बड़े तृप्त हो कर खाया। रात को एक ही रोटी खाती थीं। उस दिन तीन रोटियाँ खाई। चटखारे ले ले कर सब्जियाँ खाई। होठों से गिलास चूम कर उसमें मटके का ठंडा ठंडा पानी पीया। हम सब खुश। दादी का गिलास जो मिल गया था।
- बस, कहानी खतम? चिल्की ने पूछा, फिर क्या हुआ ?
- सुबह हम बच्चे उठे तो देखा - दादी एक हाथ में गिलास छाती से लगाए सो रही हैं और मुस्कुरा रही हैं। हम सब उनके चारों ओर इकट्ठे हो गए - देखो, देखो, दादी नींद में हँस रही है। माँ ने कहा - आज इतनी देर तक कैसे सो रही हैं! सबने कहा - रात को खाना पेट भर कर खाया है न, इसलिए मजे की नींद ले रही हैं। तड़के मुँह अँधेरे सबसे पहले उठने वाली दादी अभी तक सो रही थीं। बाबू जी ने आ कर उन्हें हिलाया तो काँसे का गिलास नीचे गिर गया। दादी मर गई थीं।
हॉ...चिल्की का मुँह खुला का खुला रह गया - मर गईं?’
हाँ।
सो सैड, है न दादी? चिल्की की आँखें भीगी थीं - उनको गिलास नहीं देते तो नहीं मरतीं ना !
शायद...’  मैंने अपनी दादी की वह मुस्कान याद करते हुए कहा। पर मैं कहना चाहती थी - मरतीं तो वो तब भी पर तब उनके चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं होती।
वो गिलास अब कहाँ है, दादी?’
दादी ने कहा था, मेरी बिट्टो को दे देना। सो मेरी माँ ने दे दिया था वो गिलास बुआ को।
तो उनके पास है?’
होना तो चाहिए।
मुझे दिखाओगे दादी?’
अच्छा, मिल गया तो तुझे दिखाऊँगी।
वो गिलास कहाँ मिलने वाला था अब।
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चिल्की को पूरी कहानी सुनाते हुए एक बात मैने छिपा ली थी कि दरअसल वह काँसे का एंटीक गिलास दादा जी का नहीं था, दादी की माँ का था। अपनी माँ के मरने के बाद यही एक चीज उन्हें विरासत में मिली थी। उसमें उन्हें अपनी माँ, अपना मायका, अपना लाहौर दिखता था। चिल्की को मैंने बहला दिया था पर मुझे पता था कि बुआ अपनी बेटियों के पास अमेरिका गईं तो पुराने बर्तन भाँडे यहीं छोड़ गईं। पुराने पीतल के बर्तनों के साथ वह काँसे का गिलास भी कोई कबाड़ी आ कर ले गया होगा, क्या पता।
चिल्की ने ठीक कहा था - काँसे का गिलास टूटता नहीं था पर ...
पर वो गिलास खो गया था, इसमें शक नहीं ।       

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