Friday, September 30, 2016

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बिगड़े हुए दिमाग ..भैरव प्रसाद गुप्त की कहानी



बिगड़े हुए दिमाग

 चार मोटी-मोटी रोटियाँ और भुने हुए आलू के कतरे पोटली में बाँध, चूल्हे के पास रख बतकी झोंपड़ी के दरवाजे के पास आ खड़ी हुई। बाहर घटाटोप अन्धकार छाया था। कुछ भी सुझाई न देता था। बस एक्का-दुक्का बड़ी बूँदों के टप-टप पडऩे की आवाज भर सुनाई देती थी। तनिक और आगे बढ़, एक पैर चौखट पर रख, सिर दरवाजे के बाहर कर, चौकन्नी आँखों से उसने इधर-उधर देखने का प्रयत्न किया। उस समय उसके कान भी बूँदों के टप-टप के सिवा और किसी आवाज को, अगर कोई और आवाज हो तो, सुनने के लिए पूरे सतर्क थे। उसे जब कुछ भी सुनाई या दिखाई न दिया, तो सहसा ही व्यस्त-सी हो अन्दर को मुड़ी। कोने में पड़े खाली बोरे को उठा, सकी-'घोघी' बना सिर पर रख लिया, और पोटली उठा, बगल में दबा, दीये को फूँक मार झोंपड़ी के बाहर हो गयी। बाहर खड़ी हो एक बार फिर उसने बड़ी सतर्कता से इधर-उधर भाँपा, फिर अत्यधिक शीघ्रता से कुण्डी चढ़ा, चोरों की तरह बेआवाज कदम रखती, वह गली को पार करने लगी। उस वक्त भी दोनों ओर से बोरे के किनारों से ढँकी उसकी चौकन्नी आँखों की पुतलियाँ जुगनुओं-सी कभी-कभी चमक उठती थीं। गली पार कर लेने पर उसकी चाल तेज हो गयी, और थोड़ी ही देर बाद वह उस गहरे अन्धकार में, तेजी से आगे बढ़ता हुआ एक काला धब्बा बनकर रह गयी।

शिक्षा..मनमोहन भाटिया की कहानी



शिक्षा

मुख्य राजमार्ग से कटती एक संकरी सड़क आठ किलोमीटर के बाद नहर पर समाप्त हो जाती है। नहर पार जाने के लिए कच्चा पुल एकमात्र साधन है। जब नहर में अधिक पानी छोड़ा जाता है, तब पुल टूट जाता है और नाव से नहर पार जाया जाता है। यह अस्थायी पुल जिसे नहर पार के गाँववाले खुद बनाते हैं, बरसात के महीनों में भी अधिक पानी के आ जाने पर टूट जाता है। सरकार ने कभी पुल को पक्का करने की नहीं सोची। नहर के पार गाँवों में गरीब परिवारों की संख्या अधिक है। आधे छोटे खेतों में फसल बो कर गुज़ारा करनेवाले हैं और आधे दूध बेचने का काम करते हैं। गाय, भैंसें पाल रखी हैं, जिनका दूध वे मुख्य राजमार्ग पर बसे शहर में बेचने जाते हैं।

प्रेम-सूत्र..मुंशी प्रेमचन्द की कहानी



प्रेम-सूत्र 
संसार में कुछ ऐसे मनुष्य भी होते हैं जिन्हें दूसरों के मुख से अपनी स्त्री की सौंदर्य-प्रशंसा सुनकर उतना ही आनन्द होता है जितनी अपनी कीर्ति की चर्चा सुनकर। पश्चिमी सभ्यता के प्रसार के साथ ऐसे प्राणियों की संख्या बढ़ती जा रही है। पशुपतिनाथ वर्मा इन्हीं लोगों में थ। जब लोग उनकी परम सुन्दरी स्त्री की तारीफ करते हुए कहतेओहो! कितनी अनुपम रूप-राशि है, कितनी अलौकिक सौन्दर्य है, तब वर्माजी मारे खुशी और गर्व के फूल उठते थे।

Wednesday, September 28, 2016

जज साहब..उदय प्रकाश की कहानी



जज साहब

नौ साल हो गए, उत्तरी दिल्ली के रोहिणी इलाके में तेरह साल तक रहने के बाद, अपना घर छोड़ कर, वैशाली की इस जज कॉलोनी में आए हुए। यह वैशाली का 'पॉश' इलाका माना जाता है। उत्तर प्रदेश की सरकार ने न्यायाधीशों के लिए यहाँ प्लाट आवंटित किए थे। ऐसे ही एक प्लॉट पर बने एक घर में मैं रहता हूँ।

नाम में क्या रखा है..हरि भटनागर की कहानी



नाम में क्या रखा है

घर के बड़े हॉल में हम लोग इकट्‌ठा हो गए थे और खिड़कियों की संधों से हालात का जायज़ा ले रहे थे।
वे बहुत बुरे दिन थे। मंदिर-मस्जिाद झगड़े को लेकर दंगे की ख़बरें थीं। दूसरे शहरों में मार-काट-आगजनी की ख़बरें इक्का -दुक्काक, किसी तरह आए अख़बारों से मिल जातीं। इससे इतनी दहशत न होती जितनी रह-रह के शहर में हो रहे हल्लों-धुओं और पटाखों की तरह चलती गोलियों की आवाज़ों से होती। हम लोग सहम जाते, चेहरों का रंग सफ़ेद काग़ज़-सा हो जाता।

नैराश्य..मुंशी प्रेमचन्द की कहानी



नैराश्य

बाज आदमी अपनी स्त्री से इसलिए नाराज रहते हैं कि उसके लड़कियां ही क्यों होती हैं, लड़के क्यों नहीं होते। जानते हैं कि इनमें स्त्री को दोष नहीं है, या है तो उतना ही जितना मेरा, फिर भी जब देखिए स्त्री से रूठे रहते हैं, उसे अभागिनी कहते हैं और सदैव उसका दिल दुखाया करते हैं। निरुपमा उन्ही अभागिनी स्त्रियों में थी और घमंडीलाल त्रिपाठी उन्हीं अत्याचारी पुरुषों में। निरुपमा के तीन बेटियां लगातार हुई थीं और वह सारे घर की निगाहों से गिर गयी थी। सास-ससुर की अप्रसन्नता की तो उसे विशेष चिंता न थी, वह पुराने जमाने के लोग थे, जब लड़कियां गरदन का बोझ और पूर्वजन्मों का पाप समझी जाती थीं। हां, उसे दु:ख अपने पतिदेव की अप्रसन्नता का था जो पढ़े-लिखे आदमी होकर भी उसे जली-कटी सुनाते रहते थे। प्यार करना तो दूर रहा, निरुपमा से सीधे मुंह बात न करते, कई-कई दिनों तक घर ही में न आते और आते तो कुछ इस तरह खिंचे-तने हुए रहते कि निरुपमा थर-थर कांपती रहती थी, कहीं गरज न उठें। घर में धन का अभाव न था; पर निरुपमा को कभी यह साहस न होता था कि किसी सामान्य वस्तु की इच्छा भी प्रकट कर सके। वह समझती थी, में यथार्थ में अभागिनी हूं, नहीं तो भगवान् मेरी कोख में लड़कियां ही रचते। पति की एक मृदु मुस्कान के लिए, एक मीठी बात के लिए उसका हृदय तड़प कर रह जाता था। यहां तक कि वह अपनी लड़कियों को प्यार करते हुए सकुचाती थी कि लोग कहेंगे, पीतल की नथ पर इतना गुमान करती है। जब त्रिपाठी जी के घर में आने का समय होता तो किसी-न-किसी बहाने से वह लड़कियों को उनकी आंखों से दूर कर देती थी। सबसे बड़ी विपत्ति यह थी कि त्रिपाठी जी ने धमकी दी थी कि अब की कन्या हुई तो घर छोड़कर निकल जाऊंगा, इस नरक में क्षण-भर न ठहरूंगा। निरुपमा को यह चिंता और भी खाये जाती थी।

बड़े दिन की पूर्व साँझ..ममता कालिया की कहानी



बड़े दिन की पूर्व साँझ

 मुझे नृत्य नहीं आता था। रुचि भी नहीं थी। मैंने ऐसा ही कहा था।

वह बोला - आता मुझे भी नहीं है।

मैंने सोचा बात खत्म है।

उसने हाथ में पकड़ी मोमबत्ती की तरफ देखा और हकबकाया सा हँस दिया - यह मैंने ले ली थी। मुझे पता नहीं था इसका मतलब यहाँ यह होता है।

Tuesday, September 27, 2016

कालिन्दी..मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी



कालिन्दी

रिक्शों के हुजूम में मेरा रिक्शा भी बहुत धीरे ही सही मगर आगे बढता जा रहा है। भीड़ इतनी है कि पैदल चलो तो कंधे छिलें। रिक्शे भी आपस में उलझ रहे हैं। अब तो यहाँ भीड़ और बढ ग़ई है। मैं फिर लौट रहा हूँ वहाँ। उस एक गली में, जिसकी पहचान उसमें रहने वाली उन कुछ औरतों से थी और शायद अब भी है। जिनके सर्वसुलभ जिस्मों की महक हवाओं में सूंघ कर न जाने कहाँ - कहाँ से लोग आते थे। सामान लाद कर मुम्बई आए ट्रक ड्राईवर, सुदूर प्रदेशों से रोजी की तलाश में परिवारों को पीछे छोड़  आए मजदूर - कामगार, निचले तबके के लोग। कुछ मध्यमवर्ग के भी, अपनी औरतों से उकताए लोग। यह गली हमेशा अनजाने चेहरों के हूजूम से घिरी रहती थी। ये चेहरे तरह - तरह का शोर मचाया करते थे। समय कोई भी तय नहीं था। हर वक्त एक भूख में बिलबिलाते चेहरे।

सबसे सुन्दर लड़की ..विष्णु प्रभाकर

सबसे सुन्दर लड़की
                         
 समुद्र के किनारे एक गाँव था । उसमें एक कलाकार रहता था । वह दिन भर समुद्र की लहरों से खेलता रहता, जाल डालता और सीपियाँ बटोरता ।  रंग-बिरंगी कौड़ियां, नाना रूप के सुन्दर-सुन्दर शंख चित्र-विचित्र पत्थर, न जाने क्या-क्या समुद्र जाल में भर देता ।  उनसे वह तरह-तरह के खिलौने, तरह-तरह की मालाएँ तैयार करता और पास के बड़े नगर में बेच आता ।
उसका एक बेटा था, नाम था उसका हर्ष।  उम्र अभी ग्यारह की भी नहीं थी, पर समुद्र की लहरों में ऐसे घुस जाता, जैसे तालाब में बत्तख ।

दो गौरैया ( बाल कहानी )..भीष्म साहनी की कहानी



दो गौरैया.. बाल कहानी 


घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं-माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं।

आँगन में आम का पेड़ है। तरह-तरह के पक्षी उस पर डेरा डाले रहते हैं। जो भी पक्षी पहाड़ियों-घाटियों पर से उड़ता हुआ दिल्ली पहुँचता है, पिताजी कहते हैं वही सीधा हमारे घर पहुँच जाता है, जैसे हमारे घर का पता लिखवाकर लाया हो। यहाँ कभी तोते पहुँच जाते हैं, तो कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैयाँ। वह शोर मचता है कि कानों के पर्दे फट जाएँ, पर लोग कहते हैं कि पक्षी गा रहे हैं!

मंदिर और मस्जिद..मुंशी प्रेमचन्द की कहानी



मंदिर और मस्जिद

चौधरी इतरतअली कड़ेके बड़े जागीरदार थे। उनके बुजुर्गो ने शाही जमाने में अंग्रेजी सरकार की बड़ी-बड़ी खिदमत की थीं। उनके बदले में यह जागीर मिली थी। अपने सुप्रबन्धन से उन्होंने अपनी मिल्कियत और भी बढ़ा ली थी और अब इस इलाके में उनसे ज्यादा धनी-मानी कोई आदमी न था। अंग्रेज हुक्काम जब इलाके में दौरा करने जाते तो चौधरी साहब की मिजाजपुर्सी के लिए जरूर आते थे। मगर चौधरी साहब खुद किसी हाकिम को सलाम करने न जाते, चाहे वह कमिश्नर ही क्यों न हो। उन्होंने कचहरियों में न जाने का व्रत-सा कर लिया था। किसी इजलास-दरबार में भी न जाते थे। किसी हाकिम के सामने हाथ बांधकर खड़ा होना और उसकी हर एक बात पर जी हुजूरकरना अपनी शान के खिलाफ समझते थे। वह यथासाध्य किसी मामले-मुक़दमे में न पड़ते थे, चाहे अपना नुकसान ही क्यों न होता हो। यह काम सोलहों आने मुख्तारों के हाथ में था, वे एक के सौ करें या सौ के एक।

Monday, September 26, 2016

बस पाँच मिनट .. अनिल प्रभा कुमार की कहानी




 बस पाँच मिनट 

वह नाच रही थी। देह जैसे तूलिका। मंच के कैनवास पर कलाकृति उकेरती हुई। देह-यष्टि की भंगिमाएँ, हाथों की मुद्राएँ और आँखों के भाव, सब रंग भर रहे थे कल्पना के इस सुंदर चित्र में। थिरकती जा रही थी वह। पाँव जैसे रंगों के कटोरों को हल्का सा टोहका लगाकर वातावरण में जादुई-सा इंद्र-धनुष रचते। दर्शकों को वह देख नहीं पाती। उन पर अँधेरा और उस पर छेड़खानी करता उजाले का गोला। वह आत्मलीन-सी नाचती रही। देह-आत्मा सब एक। दर्शक भी बँधे थे। मंत्र-बिद्ध या नृत्य-बिद्ध। शायद सौंदर्य-बिद्ध। समय कहीं बहक गया। होश आया तब, जब दोनों हाथ जोड़ वह अभिवादन के लिए झुकी। तालियों की गड़गड़ाहट। वह भीगती रही उस पल में जो उसका था।

मौसी .. भुवनेश्वर की कहानी



मौसी
मानव-जीवन के विकास में एक स्थल ऐसा आता है, जब वह परिवर्तन पर भी विजय पा लेता है। जब हमारे जीवन का उत्थान या पतन, न हमारे लिए कुछ विशेषता रखता है, न दूसरों के लिए कुछ कुतूहल। जब हम केवल जीवित के लिए ही जीवित रहते हैं और वह मौत आती है; पर नहीं आती।

बिब्बो जीवन की उसी मंजिल में थी। मुहल्लेवाले उसे सदैव वृद्धा ही जानते, मानो वह अनन्त के गर्भ में वृद्धा ही उत्पन्न होकर एक अनन्त अचिन्त्य काल के लिए अमर हो गयी थी। उसकी 'हाथी के बेटों की बात', नई-नवेलियाँ उसका हृदय न दुखाने के लिए मान लेती थीं। उसका कभी इस विस्तृत संसार में कोई भी था, यह कल्पना का विषय था। अधिकांश के विश्वास-कोष में वह जगन्नियन्ता के समान ही एकाकी थी; पर वह कभी युवती भी थी, उसके भी नेत्रों में अमृत और विष था। झंझा की दया पर खड़ा हआ रूखा वृक्ष भी कभी धरती का हृदय फाड़कर निकला था, वसन्त में लहलहा उठता था और हेमन्त में अपना विरही जीवनयापन करता था, पर यह सब वह स्वयं भूल गयी थी। जब हम अपनी असंख्य दुखद स्मृतियाँ नष्ट करते हैं, तो स्मृति-पट से कई सुख के अवसर भी मिट जाते हैं। हाँ, जिसे वह न भूली थी उसका भतीजा, बहन का पुत्र - वसन्त था। आज भी जब वह अपनी गौओं को सानी कर, कच्चे आँगन के कोने में लौकी-कुम्हड़े की बेलों को सँवारकर प्रकाश या अन्धकार में बैठती, उसकी मूर्ति उसके सम्मुख आ जाती।

दूसरी शादी .. मुंशी प्रेमचन्द की कहानी



दूसरी शादी

 जब मैं अपने चार साल के लड़के रामसरूप को गौर से देखता हूं तो ऐसा मालूम हेाता हे कि उसमें वह भोलापन और आकर्षण नहीं रहा जो कि दो साल पहले था। वह मुझे अपने सुर्ख और रंजीदा आंखों से घूरता हुआ नजर आता है। उसकी इस हालत को देखकर मेरा कलेजा कांप उठता है और मुंझे वह वादा याद आता है जो मैंने दो साल हुए उसकी मां के साथ, जबकि वह मृत्यु-शय्या पर थी, किया था। आदमी इतना स्वार्थी और अपनी इन्द्रियों का इतना गुलाम है कि अपना फर्ज किसी-किसी वक्त ही महसूस करता है। उस दिन जबकि डाक्टर नाउम्मीद हो चुके थे, उसने रोते हुए मुझसे पूछा था, क्या तुम दूसरी शादी कर लोगे? जरूर कर लेना। फिर चौंककर कहा, मेरे राम का क्या बनेगा? उसका ख्याल रखना, अगर हो सके।

Sunday, September 25, 2016

दोपहर का भोजन .. अमरकांत की कहानी



दोपहर का भोजन 


 सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रख कर शायद पैर की उँगलियाँ या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।

अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी ले कर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कह कर वहीं जमीन पर लेट गई।

कंचन .. रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ



कंचन

मैं विदेश लौटकर छोटा नागपुर के एक चन्द्रवंशीय राजा के दरबार में नौकरी करने लगा। उन्हीं दिनों मेरी देशव्यापी कीर्ति की पटल पर अचानक एक छोटी-सी कहानी खिल उठी। उन दिनों गगन टेसू की रक्तिमाभा से विभोर था। शाल वृक्ष की टहनियों पर मंजरियां झूल रही थीं। मधुमक्खियों के समूह मंडराते फिर रहे थे। व्यापारी लोगों का लाख संग्रह का समय आ गया था। बेर और शहतूत के पत्तों से रेशम के कीड़े इकट्ठे किए जा रहे थे। संथाल जाति महुए बीनती हुई फिर रही थी। नूपुर की झंकार के समान गूंजती हुई नदी वहीं पर बही जा रही थी। मैंने स्नेह से उस नदी का नाम रखा था- 'तनिका'

सौत .. मुंशी प्रेमचन्द की कहानी



सौत

 जब रजिया के दो-तीन बच्चे होकर मर गये और उम्र ढल चली, तो रामू का प्रेम उससे कुछ कम होने लगा और दूसरे व्याह की धुन सवार हुई। आये दिन रजिया से बकझक होने लगी। रामू एक-न-एक  बहाना खोजकर रजिया पर बिगड़ता और उसे मारता। और अन्त को वह नई स्त्री ले ही आया। इसका नाम था दासी। चम्पई रंग था, बड़ी-बडी आंखें, जवानी की उम्र। पीली, कुंशागी रजिया भला इस नवयौवना के सामने क्या जांचती! फिर भी वह जाते हुए स्वामित्व को, जितने दिन हो सके अपने अधिकार में रखना चाहती थी। तिगरते हुए छप्पर को थूनियों से सम्हालने की चेष्टा कर रही थी। इस घर को उसने मर-मरकर बनाया है। उसे सहज ही में नहीं छोड़ सकती। वह इतनी बेसमझ नहीं है कि घर छोड़कर ची जाय और दासी राज करे।

चोर सिपाही .. मो. आरिफ की कहानी



चोर सिपाही

 पहले डायरी के बारे में दो शब्द मेरी ओर से, फिर तारीख-ब-तारीख डायरी। सलीम से जो डायरी मुझे मिली थी उसे मैंने ज्यों की त्यों नहीं छपवाया। सलीम की ऐसी कोई शर्त भी नहीं थी। पहले तो वह इसे मेरे हवाले ही नहीं करना चाहता था, क्योंकि उसका मानना था कि यह डायरी, और देखा जाए तो कोई भी डायरी, व्यक्तिगत और गोपनीय दस्तावेज होती है। लेकिन पूरी डायरी देखने के बाद मुझे लगा था कि इस लड़के की डायरी में ऐसे विवरण हैं... सारे नहीं, कुछेक... जो व्यक्तिगत और गोपनीय का बड़ी आसानी से अतिक्रमण करते हैं। उन्हें पब्लिक डोमेन में लाना ही मेरी मंशा थी। मैंने उसे समझाया तो वह मान गया। दरअसल वह पूरी तरह समझा नहीं, बस मान गया। अपना लिखा हुआ छप रहा है... इस उत्कंठा में उसने डायरी मुझे सौंप दी, यह कहते हुए कि आप लेखक हैं... डायरी में जो अच्छा लगे छपवा दें, यानी जो हिस्से लोगों के सामने लाने हैं उन्हें अपनी शैली में, अर्थात एक लेखक की शैली में, एक लेखक की भाषा में, परिवर्तित करके प्रकाशित कर दें। बाकी के हिस्से में तो बस रोजमर्रा की जिंदगी है, उसके अहमदाबाद प्रवास की दिनचर्या है। वह भी उन सात आठ दिनों की दिनचर्या जब उसके मामू के मुहल्ले में कर्फ्यू जैसे हालात थे और वह एक दिन एक घंटे एक पल के लिए भी घर से बाहर नहीं निकल पाया। घर में पड़े पड़े कोई क्या करेगा। सलीम की डायरी ऐसे माहौल और मानसिकता में रोज-ब-रोज लिखी गई थी जिसमें बहुत सारे ब्योरे थे। इन इंदिराजों को पूरा का पूरा लोगों के सामने परोसने का कोई अर्थ नहीं था। मेरी रुचि तो कुछ विशेष प्रसंगों और संदर्भों में ही थी।

Saturday, September 24, 2016

कड़ियाँ .. अज्ञेय की कहानी



कड़ियाँ
प्रभात तो नित्य ही होता है, किन्तु ऐसा प्रभात! सत्य को जान पड़ रहा है, उसने वर्षों बाद ऐसा प्रभात देखा है - शायद अपने जीवन में पहली बार देखा है। उसमें कोई नूतनता नहीं है, कोई विशेषता नहीं है, और वह चिर-नूतन है, अत्यन्त विशिष्ट है...

आज उसे दिल्ली से मेरठ ले जाएँगे, वहाँ से उसकी कल रिहाई होनी है। सत्य तीन वर्ष से दिल्ली जेल में पड़ा है। उसे कांग्रेस-आन्दोलन के सम्बन्ध में सज़ा हुई थी - एक सभा का प्रधानत्व ग्रहण करने के लिए। उस दिन से वह वहाँ बैठा अपने दिन गिन रहा था-और अपनी मशक़्कत कर रहा था। उसके लिए प्रभात में कोई विशेषता नहीं होती थी। जेल में प्रभात क्या है? मशक़्कत करने का एक और दिन।

बाल गुरु .. मृदुला गर्ग की कहानी



बाल गुरु

 लड़का तब चौथी कक्षा में पढ़ता था। इतिहास की क्लास चल रही थी। टीचर बोल रही थी कि बस बोल रही थी। ज्ञानवर्द्धक अच्छी-अच्छी बातें। कम अज कम कयास तो यही लगाया जाता है। सहसा उस पर नजर पड़ी कि झपट ली, "अकबर के पिता का नाम बतलाओ।"

"मुझे नहीं मालूम," उसने कहा।

"क्यों नहीं मालूम? जो मैं कह रही थी, सुन नहीं रहे थे?"

"नहीं।"

कवच .. मुंशी प्रेमचन्द की कहानी



कवच
 
बहुत दिनों की बात है, मैं एक बड़ी रियासत का एक विश्वस्त अधिकारी था। जैसी मेरी आदत है, मैं रियासत की घड़ेबन्दियों से पृथक रहता न इधर, अपने काम से काम रखता। काजी की तरह शहर के अंदेशे से दुबला न होता था। महल में आये दिन नये-नये शिगूफे खिलते रहते थे, नये-नये तमाशे होते रहते थे, नये-नये षड़यंत्रों की रचना होती रहती थी, पर मुझे किसी पक्ष से सरोकार न था। किसी की बात में दखल न देता था, न किसी की शिकायत करता, न किसी की तारीफ। शायद इसीलिए राजा साहब की मुझ पर कृपा-दृष्टि रहती थी। राजा साहब शीलवान्, दयालु, निर्भीक, उदार ओर कुछ स्वेच्छाचारी थे। रेजीडेण्ट की खुशामद करना उन्हं पसन्द न था। जिन समाचार पत्रों से दूसरी रियासतें भयभीत रहती थीं और और अपने इलाके में उन्हें आने न देती थीं, वे सब हमारी रियासत में बेरोक-टोक आते थे। एक-दो बार रेजीडेण्ट ने इस बारे में कुछ इशारा भी किया था, लेकिन राजा साहब ने इसकी बिल्कुल परवाह न की। अपने आंतरिक शासन में वह किसी प्रकार का हस्ताक्षेप न चाहते थे, इसीलिए रेजीडेण्ट भी उनसे मन ही मन द्वेष करता था।

आदमी और लड़की .. निर्मल वर्मा की कहानी



आदमी और लड़की

उसने दुकान का दरवाजा खोला तो घंटी की आवाज हुई - टन। जब वह भीतर आया और दरवाजा मुड़ कर देहरी से दोबारा सट गया; तो घंटी दोबारा बजी, इस दफा दो बार-टन, टन।

यह दूसरी आवाज काफी देर तक गूँजती रही। यह चेतावनी थी कि कोई भीतर आया है।

दुकान में कोई नहीं था। उसे हमेशा लगता था कि यदि वह शेल्फ से दो-चार किताबें उठा कर भाग जाए, तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। यह उसका भ्रम था। घंटी बजते ही काउंटर के पीछे दो आँखें उसे अनजाने में ही पकड़ लेती थीं - आँखें, जो नीली थीं और गीली भी। ऐनक के पीछे दो डबडबाए धब्बे उसे निहार रहे थे।

डिबिया .. उदय प्रकाश की कहानी



डिबिया

डिबिया अभी तक मेरे पास है। कई वर्षों से मैंने उसे खोल कर भी नहीं देखा। लेकिन उसे खोलने का निर्णय पूरी तरह मुझ पर निर्भर करता है। समाज या कोई और, कोई दोस्त भी, मुझ पर यह दबाव नहीं डाल सकता कि मैं उसका ढक्कन सिर्फ इसलिए खोल दूँ कि इससे मेरी बातों के प्रति उसका विश्वास पैदा हो जाएगा। नहीं तो, मैं कभी भी, जीवन भर, विश्वसनीयता नहीं हासिल कर सकूँगा।

Friday, September 23, 2016

लोहे की दीवार .. भैरव प्रसाद गुप्त की कहानी



लोहे की दीवार

नीचे सरदारजी के यहाँ दीवार-घड़ी ने आठ बजाये। बाबूजी बाल्टी और गमछा सँभाल नीचे आँगन में हथबम्बे पर नहाने उतर गये।

बाबूजी की पत्नी गंगादेवी ने आटा गूँधकर एक ओर रखा। अँगीठी के कोयले बराबर कर उन्होंने हाथ धोया। फिर सिल गिराकर उसे धोया और चटनी बनाने का सामान लेने बरसाती में जाने लगीं कि अचानक उन्हें याद आया, बाबूजी तो रात कुछ लाये ही नहीं थे। वे घबरा उठीं, अब क्या होगा? कैसी भुलक्कड़ हूँ, सोचा था, सुबह लडक़े को भेजकर मँगा लूँगी। बिल्कुल ही भूल गयी। अब क्या करूँ? बाबूजी नहाने गये हैं, आकर खाने पर बैठेंगे, कैसे खाएँगे वे!

भोलाराम का जीव .. हरिशंकर परसाई की कहानी



भोलाराम का जीव

ऐसा कभी नहीं हुआ था। धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नरक में निवास-स्थान अलॉट' करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था। सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड़ में ही नहीं आ रही थी। आखिर उन्होंने खीझ कर रजिस्टर इतने जोर से बन्द किया कि मक्खी चपेट में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोले - "महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा।"