विवेक से बढ़ कर
आँधी तीन दिन से
बन्द नहीं हुई थी। उस मरुस्थल से तीन दिन से पवन कभी क्रुद्ध साँप की तरह फुफकारता
हुआ, कभी किसी प्रोषितपतिका की
तरह साँय-साँय रोता हुआ बहा जा रहा था। उस मरु में उसका प्रवाह ऐसा अनवरुद्ध था कि
तीन दिनों से लगातार पड़ रही बर्फ का एक टुकड़ा भी उसके आगे नहीं टिक पाया था।
केवल उस लम्बी-सी नीची इमारत के कोने में, जहाँ पवन की चोट नहीं पहुँच पाती थी, बर्फ के मैले ढेर जम गये थे, और उनसे मैला
पानी बहा जा रहा था...
काली-सी मरुभूमि,
काला-सा आकाश, और बीच में उड़ती हुई बर्फ की चादर में लिपटी हुई वह
काली-सी इमारत... भूमि और आकाश को देखकर उस स्थान की निर्जनता का अनुभव पूरी तरह
नहीं हो सकता था, किन्तु उसके मध्य
में, उस इमारत के भीतर से
आनेवाले क्षीण प्रकाश को देखकर एका-एक असीम सूनेपन की संज्ञा जाग्रत हो उठती थी।
वह इमारत थी रूस
की साइबेरियन सीमा का एक पुलिस थाना। उस समय उसके अन्दर भी एक विचित्र तूफ़ान मचा
हुआ था किन्तु उसकी भयंकरता को वही समझ सकता है, जिसने महीनों आधे-पेट भोजन पर बिताये हैं, जिसने भूख, प्यास और सर्दी से अपने प्रियजनों को मरते देखा है जिसने
धनिकों की अनाचारिता देखी है, जिसने राजशक्ति
की कोपदृष्टि सही है, और जिसने यह
सब-कुछ देख-सुन और सहकर भी अपने पीड़ित बन्धुओं के लिए लड़ मरने का अपना निश्चय
नहीं छोड़ा... थाने के एक सिरे पर एक कोठरी के अन्दर एक युवक बन्द था। उसने चमड़े
का एक कोट पहना हुआ था, और मोटे-मोटे बूट,
किन्तु उसके दाहिने पैर में एक लोहे की जंजीर
पड़ी हुई थी जिसका दूसरा छोर दरवाज़े के सीखचों से बँधा हुआ था। वह कोठरी के एक
कोने में भूमि पर ही बैठा हुआ था और विमनस्क-सा होकर बाहर गरजते हुए तूफ़ान की ओर
देख रहा था। कभी-कभी बर्फ़ के छोटे-छोटे टुकड़े अन्दर आ जाते और कभी-कभी पवन झोंके
से छत से टँगे हुए चरबी के लैम्प की शिखा काँप जाती थी।
उसके सामने एक
पुलिस का अफ़सर बैठा था। वह कुछ सोच रहा था, किन्तु फिर भी कभी-कभी चौंककर बाहर की ओर देख लेता, और कभी-कभी अपने बन्दी के मुख की ओर...
एका-एक वह बोला,
“देखो एण्टन, मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बतलाता हूँ। तुम ज़रा आगे सरक
आओ।”
बन्दी ने उपेक्षा
से उत्तर दिया, “रहस्य की बात यही
होगी न कि मैं बयान दे दूँ तो मुझे छोड़ दोगे?”
पुलिस-अफसर ने
धैर्य से कहा, “नहीं। तुम अभी
युवा हो, इसलिए प्रत्येक सरकारी
नौकर को देश-द्रोही ही समझते हो। तुम्हारा विचार ग़लत है।” यह कहकर वह स्वयं आगे सरक आया और बोला, “एण्टन, तुम प्योत्र वासिलीव को जानते हो?”
एण्टन ने कुछ
मुस्कुराकर कहा, “इतना कच्चा नहीं
हूँ!”
“तुम्हें ऐसे
विश्वास नहीं होगा। सुनो, मैं तुम्हारी
बहुत-सी बातें जानता हूँ। तुम प्योत्र वासिलीव के दल में थे, और तुम्हारे साथ ही मैक्सिम और लियोन भी जाते
हुए पकड़े गये। ठीक है न?”
फिर भी कोई उत्तर
नहीं मिला।
“तुम समझते होंगे,
ये बातें शायद मैक्सिम या लियोन ने मुझे बता दी
हों। सुनो, एक बात और कहता हूँ। यह
उन दोनों को नहीं मालूम है। वासिलीव ने एक बार पहले भी तुम्हें इधर भेजा था,
और तुम क्रुप्स्कोव नाम से गये थे। क्यों?”
“तुम तीन आदमी
पकड़े गये हो। मैं जानता हूँ कि उस हत्या में तुम तीनों का हाथ था। लेकिन
फिल्किंस्क के थाने में जो रिपोर्ट है, उसमें दो ही आक्रमणकारियों के देखे जाने की बात लिखी है।”
“तो फिर?”
पुलिस अफ़सर ने
एक भेद-भरी दृष्टि से बन्दी की ओर देखते हुए फिर कहा, “तुम लोग तीन हो।”
बन्दी क्षण-भर
उसकी ओर देखता रहा। शायद पुलिस-अफ़सर का आशय कुछ-कुछ उसकी समझ में आ गया। उसने
व्यग्रता दिखाते हुए पूछा, “तो क्या किया जा
सकता है?”
“मैं तुमसे
सहानुभूति रखता हूँ। अगर मेरा वश होता, तो मैं तुम तीनों को छोड़ देता। लेकिन वैसा करने से मैं स्वयं पकड़ा जाऊँगा और
तुम भी कहीं नहीं जा सकोगे। ठीक है न?”
“हाँ।”
“अपने आदर्श की
पूर्ति के लिए जो बात सबसे लाभप्रद हो, वही हमें करनी चाहिए। तुम तीनों को नहीं छोड़ सकूँगा। इसीलिए पूछता हूँ,
तुममें से किसका मूल्य सबसे अधिक है?”
एण्टन ने हँसकर
कहा, “हम तीनों ही पाँच-पाँच
हज़ार रूबल के हैं!”
पुलिस-अफ़सर भी
कुछ हँसा। फिर बोला, “वह बात नहीं।
किसका छूट जाना सबसे अधिक लाभप्रद होगा, यही जानना चाहता हूँ।”
“जानकर क्या होगा?”
“उससे आगे जो कुछ
करना होगा, वह मेरे वश में है। तुम
केवल इतना बता दो, किसे निर्दोष लिख
दूँ?”
एण्टन चुपचाप
बाहर आँधी की ओर देखता रहा। कई क्षण बीत गये। पुलिस-अफ़सर ने कहा, ‘मैं उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।”
एण्टन मानो
चौंका। फिर बोला, “मुझे सोच लेने
दो-यह काम बहुत कठिन है।”
पुलिस-अफसर ने
कहा, “अच्छा। मैं आधी रात बीते
फिर आऊँगा। तब तक-यह कहकर वह घूमा, और किवाड़ के पास
जाकर बोला, “सिपाही!”
दूर सिपाही के
आने का ठप्! ठप्! स्वर सुन पड़ा। ताला खड़का, फिर दरवाज़ा कुछ खुल गया।
एण्टन ने अफ़सर
से पूछा, “आपका नाम क्या है,
बताने की कृपा करेंगे?”
“हाँ-हाँ! मेरा
नाम आन्द्रेइ मार्टिनोव है।” कहकर वह बाहर चला
गया। ताला बन्द हो गया।
इस कोठरी में और
एण्टन की कोठरी में कोई विशेष भेद नहीं था। अगर कोई भेद था तो इतना ही कि इस कोठरी
का मुख पवन की वेग से बचा हुआ था। एक युवक उसमें धीरे-धीरे टहल रहा था। जब वह चलता
तो उसके पैरों में पड़ी हुई ज़ंजीर झनझना उठती थी, पर वह फिर भी ऐसे टहलता जाता था, मानो उसे ध्यान ही न हो।
एका-एक उसने
रुककर, अपने सामने खड़े हुए
पुलिस अफ़सर की ओर देखकर पूछा, “पर मार्टिनोव
साहब, आपका विश्वास कैसे किया
जा सकता है?”
मार्टिनोव ने कहा,
“मैं यह जानता ही था कि मैं आसानी से विश्वास
नहीं दिला सकूँगा। लेकिन शायद मेरे पास इसका भी एक साधन है। तुम वासिलीव की
हस्तलिपि पहचानते हो?”
“कहिए?”
“अगर मैं अपने नाम
लिखा हुआ वासिलीव का पत्र तुम्हें दिखाऊँ, तो विश्वास करोगे?”
“अगर-मगर की बात
क्या करते हैं? जो दिखाना है
दिखाइए, फिर बात होगी।”
मार्टिनोव हँसा।
फिर बोला, “क्रान्तिकारी स्वभावत ही
टेढ़े होते हैं, सीधा जवाब क्यों
देने लगे? खैर, यह देखो।” कहकर उसने जेब में से एक पत्र निकाला। उसमें दो ही तीन
सतरें लिखी हुई थीं।
मैक्सिम ने पत्र
अपने हाथ में ले लिया और पढ़ा। “बन्धु मार्टिनोव,
हमारे एक मित्र क्रुप्स्कोव आपके प्रान्त में
से होकर फिलिस्क जा रहे हैं। आशा है आप उनसे मिल पायेंगे। अगर न भी मिल सकें,
तो ऐसा प्रबन्ध कर दीजिएगा कि उन्हें यात्रा
में कष्ट न होने पाए। कृतज्ञ हूँगा।”
मैक्सिम ने पत्र
पढ़कर जिज्ञासा-भरी दृष्टि से मार्टिनोव की ओर देखा। मार्टिनोव बोला, “नीचे का नाम मैंने काट दिया था। लेकिन लिपि तो
पहचानते हो न?”
मैक्सिम ने धीरे
से कहा, “हाँ।”
थोड़ी देर दोनों
चुप रहे। फिर मार्टिनोव बोला, “तो अब मुझे बता सकोगे?”
“आपने और दोनों से
भी पूछा है?”
“तुम्हें अपना मत
व्यक्त करने में उनकी राय से नहीं बाध्य होना चाहिए, इसलिए यह मत पूछो! तुम किसे सबसे मूल्यवान समझते हो यही बता
दो।”
मैक्सिम चुप रहा।
मार्टिनोव मानो अपने आपसे ही बोला, “और फिर सबको विश्वास दिलाना भी तो असम्भव है!”
मैक्सिम ने कहा,
“हाँ, यह बात तो है। अच्छा।”
“तुम्हें शायद
सोचने का समय चाहिए? मुझे कोई जल्दी
नहीं है।”
“हाँ। कब तक समय
दे सकते हैं?”
“आधी रात तक-अभी
तीन घंटे हैं।” कहकर मार्टिनोव
बाहर चला गया। मैक्सिम ने टहलना बन्द कर दिया और धीरे-धीरे भूमि पर बैठ गया। बहुत
देर तक उस कोठरी में कोई शब्द नहीं हुआ, केवल किसी अशान्त, चिरदुखित प्रेत
के सिसकने की तरह पवन का वह सांय-सांय ही बार-बार गूँजता और कुछ शान्त होकर फिर
गूँज उठता...
एण्टन की कोठरी
में अँधेरा था, चर्बी का लैम्प
बहुत धीमा जल रहा था। वह कोठरी में खड़ा हुआ दीख नहीं पड़ता था, इसलिए सिपाही दरवाज़े के पास ही खड़ा था,
इधर-उधर घूमता नहीं था। कभी-कभी वह दरवाज़े पर
आकर पुकारता, “क़ैदी, सब ठीक है न?” और फिर बिना उत्तर पाए ही कुछ परे हटकर खड़ा हो जाता था।
उसकी शिक्षा यहीं तक थी कि क़ैदी को पुकारते रहना चाहिए, यह बात नहीं कि उनसे कोई उत्तर भी प्राप्त करना चाहिए।
कभी-कभी जब बिजली
चमकती, तो सारा आकाश जल उठता और
उस मरु की निर्जनता आँखों के आगे उभर-सी आती।
उसके प्रकाश में
दीख पड़ता था, एण्टन अपनी कोठरी
के सीखचें दोनों हाथों से पकड़े, उन्हीं से मुँह बाहर
निकाले खड़ा था। विक्षिप्त की भाँति वह एक पैर की एड़ी बार-बार उठाकर पटकता था,
जिससे पैर की ज़ंजीर झनझना उठती थी। कभी-कभी वह
बिलकुल ही निश्चल हो जाता, किन्तु फिर अधिक
उद्वेग से एड़ी पटकने लगता था और ज़ंजीर की झनझन पवन की सांय-सांय को डुबो देती
थी...
एण्टन का बाह्य
रूप देखकर यह भी नहीं जान पड़ता थ कि वह क्या सोच रहा है। उसकी वह स्थिर दृष्टि,
दबे हुए ओठ, और शरीर के उत्क्षेप यही कहते थे कि उसकी आत्मा किसी
विचित्र भाव के फेर में पड़कर, उद्भ्रान्त होकर
बहुत दूर चली गयी और कठोर, अभेद्य बन्धनों
में पड़कर छटपटा रहा है...किन्तु वह भाव क्या था, और वे बन्धन क्या थे, यह कहने का शायद उसके पास कोई साधन ही नहीं था।
क्रान्तिकारी विचार-स्वातन्त्र्य और अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य के लिए लड़ते हैं,
किन्तु इसमें ही उन्हें न-जाने कितने विचारों
का दमन करना पड़ता है, कितनी अभिव्यक्ति-चेष्टाओं
को नष्ट कर देना होता है!
वे भाव... एण्टन
के विशाल हृदय में उठते और दोनों में किसी एक चट्टान से टकराकर नष्ट हो जाते...
मैक्सिम और लियोन...
वे भाव एण्टन के
व्यक्तित्व के इतने अन्तरतम अंश थे कि शायद एण्टन स्वयं उन्हें न समझ सकता। उसने
इतनी बातें, ऐसी बातें,
पहले कभी नहीं सोची थीं किन्तु उससे पहले कभी
ऐसा अवसर भी तो नहीं आया था - मैक्सिम और लियोन की तुलना करने का उसने कभी प्रयत्न
नहीं किया था...
यदि एण्टन उन
भावों को लिखकर, उन्हें सामने
रखकर, अपने मन को समझने की
चेष्टा करता -
बहुत दिनों की बात
थी। बसन्त के आगमन से उस गाँव के आसपास के बाग़ों से सेब के पेड़ फूलों से लद गये
थे, यद्यपि उनमें पत्ते नहीं
थे। इन्हीं पेड़ों की छाया में, झरने के किनारे
थोड़ी-सी घास से हरी भूमि पर दो लड़के बैठे हुए थे-एण्टन और मैक्सिम...
मैक्सिम एक
छोटी-सी किताब हाथ में लिए पढ़ रहा था। एण्टन उसकी ओर देखता और घास की पत्ती
दाँतों से कुतरता चुपचाप बैठा था।
मैक्सिम ने पढ़ना
स्थगित करके कहा, “एण्टन!”
“क्या है?”
“इस किताब में दो
सिपाहियों की जो कहानी है, वह तुमने पढ़ी है?”
“हाँ। पिछले साल
पढ़ी थी।’
“मैं भी सिपाही
बनूँगा। और फिर बहुत बड़ी फौज लेकर लड़ाई में जाऊँगा। तुम भी चलोगे न?”
“मैं बहुत फ़ौज
लेकर नहीं लड़ूँगा। अकेला ही ज़ार के पास जाऊँगा, और उससे काम मागूँगा।”
“जैसे इस किताब
में सिपाहियों ने किया था?”
“हाँ। लेकिन किताब
में दो सिपाही थे।”
मैक्सिम ने कुछ
सोचकर कहा, “तो मैं भी
चलूँगा। लेकिन कहानी की तरह अगर कभी लड़ाई में मुझे चोट लग गयी तो?”
“तो मैं अकेला ही
शत्रु को मार दूँगा और तुम्हें उठाकर पीट्रोगेड में ले आऊँगा।”
“और अगर तुम भी
घयाल हो गये तो?”
“तो क्या? तुम्हें भी उठाकर बचा ही लाऊँगा चाहे फिर मर ही
क्यों न जाना पड़े।”
मैक्सिम मानो
सन्तुष्ट हो गया। वह फिर अपनी किताब पढ़ने लग गया...
कॉलेज में अभी
छुट्टी हुई थी। लड़के निकलकर अपने-अपने घरों की ओर जा रहे थे।
एण्टन और मैक्सिम
एक साथ चले जा रहे थे। एण्टन कह रहा था, “आज ही चित्र शुरू कर दूँगा। एक महीने में तैयार हो जाएगा।”
मैक्सिम बोला,
“तो क्या एक महीने तक मुझे रोज़ आकर बैठना
पड़ेगा?”
“नहीं तो! तीन-चार
दिन तो देर-देर तक बैठना पड़ेगा, इतनी देर में मैं
छोटी ड्राइंग बना लूँगा। उसके बाद तैलचित्र बनाता रहूँगा, तुम्हें कभी-कभी आकर बैठ जाना होगा - थोड़ी-थोड़ी देर के लिए,
ताकि मैं भूल न जाऊँ।”
“अच्छा। तो आज तो
आरम्भ कर दोगे न?”
“हाँ, तुम्हारा चित्र बनाने के लिए अगर कॉलेज से
ग़ैरहाज़िर भी रहना पड़े तो रहूँगा। लेकिन मैक्सिम, तुम भी वह कला क्यों नहीं सीखते?”
इस समय पीछे से
किसी ने पुकारा, “मैक्सिम!”
मैक्सिम रुककर
घूम गया और बोला, “लियोन, तुम कहाँ रह गये थे?”
तीनों साथ चलने
लगे। लियोन बोला, “मैक्सिम, आज थियेटर देखने चलोगे न? एक बड़ा राजनैतिक खेल आया है, शायद दो-तीन दिन में सरकार उसे बन्द ही कर दे।
मैंने दो टिकट ले रखे हैं।”
“अच्छा, चलूँगा। एण्टन चित्र फिर सही।”
एण्टन अप्रतिभ
होकर बोला, “जैसी तुम्हारी
मर्ज़ी।”
थोड़ी दूर तीनों
चुपचाप चले। फिर एण्टन बोला, ‘अच्छा, मैं जाता हूँ।”
“कहाँ?”
“एक जगह चित्र
बनाने जाना है, पचास रूबल तय हुए
थे। अगर मिल जाएँ, तो माँ के लिए
कुछ सुभीता हो सकेगा।”
मैक्सिम ने कुछ
नहीं कहा। लियोन ने कहा, “एण्टन, तुमने वह किताब पढ़ ली जो मैंने तुम्हें दी थी?”
“हाँ, लेकिन उसके बारे में फिर बात होगी।” कहकर सिर झुकाए हुए एण्टन लम्बे-लम्बे क़दम
रखता हुआ एक ओर चला गया।
मैक्सिम, एण्टन और लियोन को क्रान्तिकारी सभा में
सम्मिलित हुई कई महीने हो गये थे। कई कारणों से लियोन को घर छोड़कर छिपकर रहना
पड़ता था, क्योंकि उसके वारंट जारी
हो चुके थे। वह कॉलेज तो छोड़ ही चुका था, अब नगर छोड़कर जाने को बाध्य हुआ था।
तीनों मित्र एक
छोटे बगीचे में बैठे हुए थे। लियोन ने अपने जाने की बात सुनाकर पूछा, “मैक्सिम, तुम अब क्या करोगे?”
‘मैं तो तुम्हारे
साथ जाऊँगा।’
“नहीं, तुम यहीं रहो। एण्टन की सहायता करते रहना। उसे
तुम्हारी मदद की बहुत जरूरत रहेगी। और तुम अभी तक सुरक्षित हो, क्यों मेरे साथ जाओगे? जब तक सुरक्षित रहकर काम कर सको, करो; व्यर्थ अपनी
शक्ति कम कर देने से क्या लाभ? हाँ, अगर तुम्हारे वारंट निकले होते, तब दूसरी बात थी। क्यों, एण्टन! तुम इसे अपने साथ रखोगे?”
एण्टन ने दूसरी
ओर देखते हुए कहा, “जो काम मैक्सिम
मेरे साथ करता है, उसे मैं दूने
उत्साह से करता हूँ।”
मैक्सिम फिर
लियोन की ओर उन्मुख होकर बोला, “एक और बात भी है।
घर पर मेरा रहना असम्भव हो रहा है।”
एण्टन ने आग्रह
से कहा, “तो फिर मेरे पास आ जाना।
मेरे स्टूडियों में बड़े आराम से रह सकोगे।”
मैक्सिम ने उत्तर
नहीं दिया। किन्तु उसका मौन स्वीकृति-सूचक नहीं था।
एण्टन ने फिर कहा,
“अब पहले की-सी हालत नहीं है। मैं अपनी चीज़ों
से काफी कुछ कमा लेता हूँ। और मेरी माँ भी प्रसन्न होगी। अगर हमारी हालत खराब भी
होती, तो भी... मैक्सिम तुम आ
जाओगे न?”
मैक्सिम ने कुछ
हठ के साथ कहा, “मैं तो लियोन के
साथ जाऊँगा। नहीं तो वह भी यहीं रह जाए।”
एण्टन चुप हो
गया। लियोन ने कुछ हँसकर कहा, “मैक्स, तुम बड़े जिद्दी हो।”
मैक्सिम ने समझ
लिया कि लियोन उसे साथ ले जाएगा। उसके मुख पर प्रसन्नता झलक गयी।
सन्ध्या के बुझते
हुए प्रकाश में वोल्गा-तटस्थ जारेव नगर के आसपास की दल-दल के प्रदेश में कीच से
लथपथ दो युवक भागे जा रहे थे... उन दोनों के हाथ में बन्दूके थीं, किन्तु उनके मुख पर शिकारी का हिंसा-भाव नहीं
था बल्कि शिकार का त्रस्त, वेदना-पूर्ण
भाव...
उनके पीछे कुछ
दूर पर मशालें लिये हुए अनेक सैनिक आ रहे थे, बीच-बीच में कोई रुककर बन्दूक के फ़ायर करता और फिर आगे
बढ़ा चला आता...
एकाएक भागते हुए
दो व्यक्तियों में से एक लड़ाखड़ाकर गिरा। गिरते हुए बोला, “एण्टन! तुम निकल जाओ! मैं तो...”
दूसरा व्यक्ति
रुका और बोला, “मैक्सिम!”
कोई उत्तर नहीं
मिला। एण्टन ने हाथ से बँदूक फेंक दी और पीठ पर मैक्सिम को उठाकर दौड़ने लगा। एक
बार अस्पष्ट स्वर में बोला, “मैक्सिम, तुम्हें छोड़कर कैसे...” और फिर उन्मत्त, बेरोक, मशीन की तरह दौड़ता गया।
उसके शरीर में मानो कोई दैवी शक्ति आ गयी थी, उसकी आँखों में दैवी तेज़ धधक रहा था, और शायद उसके अतंस्तल में...
दलदल धीरे-धीरे
पक्की धरती का रूप धारण कर रही थी... थोड़ी देर में एण्टन बिलकुल सूखी ज़मीन पर
पहुँच गया। उसने घूमकर देखा, सैनिकों की
मशालें कहीं नहीं दीख पड़ती थीं। वह फिर आगे बढ़ने लगा, और थोड़ी देर में एक छोटे-से हरियाली-भरे और सुरक्षित स्थान
में पहुँच गया। यहाँ उसने मैक्सिम को भूमि पर लिटा दिया और और धीरे-धीरे उसका शरीर
टटोलने लगा। गोली मैक्सिम की टाँग में लगी थी। एण्टन ने अपना कोट उतारा, फिर कमीज़, और उसके चिथड़े करके पट्टियाँ बनायीं इनसे उसने घाव को बाँध
दिया। फिर कोट की जेब से उसने एक छोटा-सा फ्लास्क निकाला और मैक्सिम का मुख खोलकर
उससे लगा दिया।
मैक्सिम को इतना
भी होश नहीं था कि फ्लास्क से ब्रांडी की एक घूँट भर ले। किन्तु ब्रांडी धीरे-धीरे
उसके गले के नीचे उतर गयी। उसका शरीर कुछ काँपा, फिर उसने बहुत क्षीण स्वर में पुकारा, “लियोन!”
एण्टन बड़ी
व्यग्रता से उसके मुख की ओर देख रहा था। मैक्सिम की पुकार सुनकर उसने एक लम्बी
साँस ली; और चुप हो रहा।
मैक्सिम ने फिर
पुकारा, “लियोन कहाँ हो?”
एण्टन ने धीरे से
कहा, “मैक्सिम, यह मैं हूँ एण्टन।”
मैक्सिम ने आँखों
खोलीं। बोला, “लियोन कहाँ गया?”
“लियोन पहले ही
बचकर निकल गया था, अब तक तो जारेव
पहुँच गया होगा। तुम्हारी चोट कैसी है?”
मैक्सिम कुछ नहीं
बोला। बहुत देर तक दोनों चुप रहे। फिर एण्टन ही बोला, “मैक्सिम!”
“क्या है?”
“लियोन तो बच गया
है, तुम उदास क्यों हो?”
“लियोन निकल गया
होगा, मुझे इसी की खुशी है। अब
तुम क्या करोगे, एण्टन?”
एण्टन ने सहसा
उत्तर नहीं दिया। फिर बोला, “मैक्सिम, तुम्हारी चोट कैसी है?”
“इतनी बुरी नहीं
है। पर चल नहीं सकता।”
“तो कोई चिंता
नहीं है।’ मैं तुम्हें उठाकर
चलूँगा।”
“कहाँ?”
“बहिन हिल्डा के
गाँव।”
“बीस मील-मुझे
उठाकर!”
एण्टन ने कुछ
मुस्कराकर कहा, “चार मील तो अभी
उठाकर लाया हूँ - दल-दल में। और फिर अब तो बन्दूकों का बोझ भी नहीं है।”
“क्यों, वे क्या हुर्ईं?”
“तुम्हें उठाना था,
इसलिए मैंने वहीं फेंक दीं। साथ ले तो आता,
लेकिन तुम्हें उठाये निशाना तो लगा नहीं सकता
था। इसलिए व्यर्थ था। लेकिन अभी रिवाल्वर तो है ही, कोई चिंता नहीं है।”
मैक्सिम थोड़ी
दूर चुप रहा। फिर बोला, “एण्टन, अगर तुमको सैनिक पकड़ लेते तो?”
एण्टन बोला,
“तो क्यों तुम्हें पकड़वा देता और खुद भाग
निकलता? मैक्स, तुम अभी बहुत-सी बातें नहीं जानते हो...”
कहकर उसने मुँह फेर लिया।
बहुत देर तक फिर
कोई नहीं बोला। फिर मैक्सिम ने मानो डरते-डरते कहा,
“एण्टन, मुझे तुम्हारे प्रति कितना कृतज्ञ होना
चाहिए...” कहते-कहते वह एण्टन के
शरीर में एक कम्पन का अनुभव करके एका-एक रुक गया।
एण्टन ने
व्यथा-विकृत, भर्रायी हुई,
आवाज़ में कहा, “मैक्स!, मैक्स!” फिर बहुत धीमी आवाज़ में, जिसे मैक्स ने नहीं सुना, “होना चाहिए-बस, इतनी ही!”
एण्टन ने बदलते
हुए स्वर में कहा, “मैक्स, उठो, अब चलें। नहीं तो मेरा शरीर अकड़ जाएगा।”
उसने मैक्स को
फिर कन्धे पर उठाया और चल पड़ा।
किन्तु अब उसकी
चाल में दैवी उग्रता नहीं थी।
एण्टन ने
धीरे-धीरे कोठरी के सीखचों से सिर हटाया और क्षितिज पर के क्षीण आलोक को देखने
लगा। धीरे-धीरे बोला, “लियोन, तुम हमारे नेता हो, मुझसे अधिक समझदार, अधिक अनुभवी और तुम्हारे पास साधन भी बहुत हैं। लेकिन मैक्सिम भी बहुत काम कर
सकता है-”
फिर एका-एक सिसकर,
“मैक्स-मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ!”
एण्टन दरवाज़े से
हटकर टहलने लगा। जंजीर फिर मुखरित हो उठी। “लियोन, मैं स्वार्थी
नहीं हूँ! तुम क्या समझोगे? और वासिलीव?
अगर तुम फाँसी लग गये, तो भी वासिलीव क्या समझेगा - कि मैं स्वार्थी था? पर मैक्स, तुम्हें कितनी खुशी होगी - लेकिन मेरे प्रति न जाने
क्या...तुम क्या कहोगे कि मैं अपने प्रति भी सच्चा नहीं हो सका?”
थोड़ी दूर तक
जंज़ीर के स्वर के अतिरिक्त शान्ति रही। फिर एण्टन कोठरी के बीच में खड़ा होकर
बोला, “मैक्सिम, तुम ग़लत समझोगे... मैक्स!” और फिर वहीं भूमि पर बैठ गया।
मैक्सिम आप ही आप
बोला, “लियोन, अगर तुम बच जाओगे तो कितना अच्छा होगा!”
वह उस समय से उसी
प्रकार कोठरी के मध्य में भूमि पर बैठा हुआ था। किन्तु जो तूफान एण्टन के अन्दर
झकझोर कर रहा था, उसकी शायद
मैक्सिम को कल्पना भी नहीं हो सकती थी। उसके युवा हृदय में विकल्प के लिए इतना
स्थान नहीं था। उसके आगे यह समस्या नहीं थी कि कौन-सा प्रेम बड़ा होता है, और कौन-सा छोड़ा जा सकता है। उसे यह नहीं देखना
था कि आदर्श की रक्षा के लिए प्रिय की हत्या करनी होगी, या प्रिय की रक्षा करके स्वार्थी कहलाना पड़ेगा। एण्टन की
स्थिति असम्भव थी। अगर वह मैक्सिम की रक्षा करता, तो लियोन क्या समझता? यही कि एण्टन ने औचित्य पर विचार नहीं किया, केवल अपने प्रेम पर ही? और वासिलीव... किन्तु मैक्सिम को छोड़ देना-जो कि काम में
लियोन से कम नहीं था, और अतिरिक्त...
मैक्सिम ने इतनी
दूर विचार नहीं किया था। उसके मन में बार-बार यही भावना उठती-एण्टन की अपेक्षा
लियोन ने अधिक काम किया है। भविष्य में भी शायद लियोन ही अधिक काम करेगा। एण्टन
बहुत लगन से काम करता था, पर एण्टन का
परिचय उतना नहीं था जितना लियोन का। और वासिलीव भी एण्टन की सहायता नहीं कर
सकता-वह देश छोड़कर स्विटज़लैण्ड जा रहा था-रूस में उसका रहना असम्भव हो गया था।
इसके अतिरिक्त।
किन्तु वह बात जब भी मैक्सिम के आगे जाती, तो वह अपना ध्यान उस पर से हटाने की चेष्टा करता था। कभी-कभी वह बोल उठता,
“नहीं, लियोन, इसलिए नहीं। केवल
तुम्हारी ज़रूरत देखकर ही मैं सोचता हूँ। तुम्हारे प्रति मेरे जो भाव हैं, उन्हें निर्णय कार्य में नहीं आने दूँगा।”
पर फिर भी, बार-बार उसका मन कहता, “लियोन तुम्हारा प्रिय है, उसको बचा लो!”
“एण्टन मुझे बहुत
चाहता है। पर मैं क्या कर सकता हूँ? कृतज्ञता को क्या करूँ - आदर्श को कैसे भुलाऊँ?”
एक अव्यक्त
कौतूहल मैक्सिम के हृदय में उमड़ रहा था। ‘मार्टिनोव ने एण्टन से पूछा है? लियोन से पूछा है? वह किसका नाम
बतायेगा? नहीं! मेरा?...! और एण्टन? वह शायद मेरा ही नाम बताये...’
“मेरे लिए सोचना
इतना कठिन नहीं है! लियोन!’
वह अव्यक्त
कौतूहल मैक्सिम के मन में घूम रहा था, किन्तु वह उद्विग्न नहीं हो रहा था। वह कोठरी में लेट गया, और थोड़ी ही देर में सो गया।
थाने के अन्दर
कहीं घंटा बजा। एण्टन चौंका, और गिनने लगा-एक,
दो, तीन, चार, ग्यारह, बारह! वह उठा और टहलने लगा। उसके हाथ में जो कागज़-पेन्सिल
थे, वे उसने अपने कोट की जेब
में डाल दिये।
दरवाज़ा खुला।
मार्टिनोव अन्दर आया और बोला,”कहो, एण्टन!”
एण्टन चुपचाप
उसकी ओर देखता रहा। मार्टिनोव फिर बोला, “एण्टन, निर्णय कर लिया?”
“हाँ।”
“क्या?”
“आप लियोन को छोड़
दें।” कहकर एण्टन ने मुँह दीवार
की ओर फेर लिया।
मार्टिनोव ने
पूछा, “एण्टन तुमने यह निर्णय
किस आधार पर किया, यह पूछ सकता हूँ?”
एण्टन ने कोई
उत्तर नहीं दिया। मार्टिनोव थोड़ी देर उसकी ओर देखता रहा, फिर बोला, ‘यह जेब में क्या
है?”
एण्टन फिर भी कुछ
नहीं बोला। मार्टिनोव ने धीरे से कागज़ उसकी जेब से निकाल लिया और लैम्प के पास
जाकर देखने लगा।
वह मैक्सिम का एक
छोटा-सा चित्र था।
मार्टिनोव ने
कोमल स्वर में कहा, “एण्टन, मालूम होता है, तुमने यह निश्चय सहज ही नहीं किया।”
एण्टन ने धीरे से
कहा, “शायद! पर यह अनिवार्य था।”
“यह चित्र-इसे मैं
ले जाऊँ? यह एक चिह्न रह
जाएगा-तुम्हारा और मैक्सिम का।”
एण्टन ने भर्रायी
हुई आवाज़ में कहा, “अच्छा।”
मार्टिनोव ने
विस्मित किन्तु कोमल स्वर में कहा, “एण्टन! यह तुम्हें शोभा नहीं देता! अच्छा, मैं जाता हूँ। ईश्वर तुम्हें शान्ति दे!” वह फिर धीरे-धीरे बाहर चला गया।
जब दरवाज़ा बन्द
हो गया, तब एण्टन अपने स्थान से
हिला। उसने लैम्प बुझा दिया और फिर चुपचाप नीचे लेट गया। उसके बाद उसके मन में
कितने तूफान उठकर बैठ गये - यह पता नहीं...
“मैक्सिम!
मैक्सिम! उठो!”
मैक्सिम उठ बैठा।
मार्टिनोव ने पूछा, “मैक्सिम, क्या सोचा?”
“मैंने सोच लिया
है। लियोन को छोड़ दो।”
मार्टिनोव ने
पूछा, “तुमने एण्टन और लियोन की
तुलना किस आधार पर की, यह बताओगे!”
“क्यों?”
“ऐसे ही। मैं
पुलिस-अफ़सर हूँ न, मनोविज्ञान का
अध्ययन करता रहता हूँ, इसके अतिरिक्त
सहानुभूति होने के कारण-”
“लियोन ज्यादा काम
का आदमी है।”
मार्टिनोव ने
स्थिर दृष्टि से मैक्सिम की ओर देखते हुए कहा, ‘तुम जानते हो, एण्टन का क्या मत है?”
मैक्सिम ने
औत्सुक्य दिखाते हुए पूछा, “क्या?”
“उसने भी यही कहा
था।”
मैक्सिम ने
चौंककर कहा, “क्या?”
“उसने भी यही कहा
था।”
मैक्सिम की आकृति
बदल गयीं। वह बहुत देर तक चुप रहा। फिर अपने आपसे ही बोला, “सच...”
मार्टिनोव ने
पूछा, “मैक्सिम, क्या सोचने लग गये?”
“कुछ नहीं...”
“एण्टन ने
तुम्हारा एक चित्र बनाया है - यह देखो।” कहकर मार्टिनोव ने मैक्सिम की ओर बढ़ा दिया। मैक्सिम उसकी ओर देखता रहा,
किन्तु उसे लेने के लिए उसने हाथ आगे नहीं
बढ़ाया। कुछ देखकर उसने एक लम्बी साँस ली और बोला, “झूठा! एण्टन, तुमने बहुत झूठ बोला था!”
मार्टिनोव ने
चित्र हटा लिया और बोला, “क्या है, मैक्सिम?”
“कुछ नहीं। इस
वक्त आप चले जाएँ। मैं सोचना चाहता हूँ!”
मार्टिनोव
धीरे-धीरे बाहर चला गया। उसे जाते देख मैक्सिम ने पुकार कर कहा, “सुनो, मार्टिनोव, एक बात पूछता
हूँ।”
मार्टिनोव लौटा
और बोला, “क्या?”
“लियोन से भी पूछा
था?”
“क्यों?”
“उसने क्या राय दी
थी?”
“तुम दोनों की राय
मिलती है, इसलिए लियोन की राय का
महत्त्व नहीं है। इसके अतिरिक्त... पूछकर क्या करोगे?”
“मैं... जानना
चाहता था... अच्छा, शायद जानने से
दुख ही हो-जाने दो...” कहकर मैक्सिम ने
मुँह फेर लिया।
मार्टिनोव एक
लम्बी साँस लेकर बाहर चला गया।
पौ फट रही थी। पर
बर्फ का गिरना भी बन्द नहीं हुआ था...
एण्टन रात-भर सो
नहीं सका था। वह अब दरवाज़े के पास बैठा था। इसी समय मार्टिनोव भीतर आया और बहुत
देर तक करुणा-भरी दृष्टि से एण्टन की ओर देखता रहा। एण्टन ने पूछा, “क्या है?”
मार्टिनोव ने
दुखित स्वर में कहा, “एण्टन, तुम ईश्वर में विश्वास करते हो?”
एण्टन ने विस्मित
होकर पूछा, “क्यों?”
“कुछ नहीं। शायद
तुम्हें प्रार्थन करनी हो!” कहकर मार्टिनोव
ने एक तार एण्टन के आगे रख लिया। एण्टन ने तार उठाकर पढ़ा और बोला, “अच्छा!”
तार में लिखा था
- “कोर्ट मार्शल की आज्ञा है
- अभियुक्तों को फ़ौरन गोली से उड़ा दो। जनरल ब्रुसिलोव।”
एण्टन ने शान्त
स्वर में पूछा, “फिर?”
मार्टिनोव कुछ
बोल नहीं सका। एण्टन ने फिर पूछा, “कितने बजे होगा?”...”
“सात बजे...सिपाही
तैयार हो रहे हैं!” फिर कुछ रुककर “एण्टन, मेरे वश के बाहर की बात है... लियोन को ही बचा सका हूँ...”
“कुछ नहीं,
चिन्ता नहीं है। मालूम होता है, मैक्सिम ने भी लियोन का नाम बताया होगा?”
“हाँ।”
“मैं पहले ही से
जानता था।”
मार्टिनोव ने
ध्यान से एण्टन की ओर देखकर चाहा, उसके भाव पहचान
ले। किन्तु एण्टन के चेहरे पर निरीह शान्ति का जो परदा था, उसे मार्टिनोव नहीं भेद सका।
फिर उसने पूछा,
“एण्टन, तुमने मैक्सिम का नाम क्यों नहीं लिया?”
एण्टन ने
अन्यमनस्क-सा होकर उत्तर दिया, “किसी के मन में
यह भाव उत्पन्न होने से कि रूस का एक भी क्रान्तिवादी स्वार्थी है, यही अच्छा है कि हम अपने अभिन्नतम मित्र का
बलिदान कर दें।”
मार्टिनोव ने कहा,
“मैं नहीं समझा!”
‘विवेक से बढ़कर
भी कोई प्रेरणा होती है।”
एण्टन ने इससे
अधिक समझाकर कहने की जरूरत नहीं समझी। मार्टिनोव चला गया। एण्टन धीरे से बोला,
“मैक्सिम, तुमसे क्या आशा करूँ...”
सूर्योदय हो रहा
था। वायु बन्द हो गयी थी, किन्तु थोड़े
बादल छाये थे, और धुनी हुई रुई
की तरह कोमल बर्फ गिर रही थी।
थाने के पीछे,
एक पर्णहीन वृक्ष के नीचे तख्तों से बँधे हुए
दो व्यक्ति खड़े थे-एण्टन और मैक्सिम। उनसे बीस कदम की दूरी पर आठ सिपाही बन्दूकें
लिए खड़े थे और उनसे कुछ दूरी पर एक सार्जेण्ट। मार्टिनोव वहाँ नहीं था। वह एक बार
आकर, करुणा-भरी दृष्टि से
दोनों की ओर देखकर चला गया था।
सिपाहियों ने
बन्दूकें तानी हुई थीं। मैक्सिम उन बन्दूकों की ओर देख रहा था। उसका मुख देखने से
मालूम होता था कि उसने बड़े यत्न से आँखों को उधर फेर रखा है, मानो वह और किसी ओर से देखने से डर रहा हो...
एण्टन मैक्सिम की
ओर देख रहा था। उसकी दृष्टि में न जाने क्या-क्या भाव छिपे हुए थे -स्नेह, व्यथा, आशा, प्रेरणा... निराशा...
उसने पुकारा,
“मैक्सिम, बोलते क्यों नहीं?”
मैक्सिम ने उत्तर
नहीं दिया। एण्टन ने फिर जल्दी-जल्दी भर्राये हुए स्वर में कहा, “मैक्सिम, मैक्सिम, तुम अन्याय कर
रहे हो! मैं अधिक नहीं कह सकता हूँ - मैंने यही देखा है कि जो चीज़ अधिक प्रिय
होती है, उसकी आहुति देने से उतना
कष्ट नहीं होता जितना...”
मैक्सिम के मुख
पर विद्रूप भाव देखकर एण्टन चुप हो गया। फिर एक विषाद-पूर्ण हँसी हँसकर धीरे-धीरे
बोला, “तुम-कोई भी-ठीक समझेगा,
ऐसी मैंने आशा भी नहीं की थी।”
सिपाहियों में
कुछ जाग्रति आयी। मैक्सिम और एण्टन ने प्रतीक्षा-पूर्ण नेत्रों से उनकी ओर देखा,
फिर एक साथ ही बोल उठे, “रूस! क्रान्ति चिरंजीवी हो!”
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