शिक्षा
मुख्य राजमार्ग
से कटती एक संकरी सड़क आठ किलोमीटर के बाद नहर पर समाप्त हो जाती है। नहर पार जाने
के लिए कच्चा पुल एकमात्र साधन है। जब नहर में अधिक पानी छोड़ा जाता है, तब पुल टूट जाता है और नाव से नहर पार जाया
जाता है। यह अस्थायी पुल जिसे नहर पार के गाँववाले खुद बनाते हैं, बरसात के महीनों में भी अधिक पानी के आ जाने पर
टूट जाता है। सरकार ने कभी पुल को पक्का करने की नहीं सोची। नहर के पार गाँवों में
गरीब परिवारों की संख्या अधिक है। आधे छोटे खेतों में फसल बो कर गुज़ारा करनेवाले
हैं और आधे दूध बेचने का काम करते हैं। गाय, भैंसें पाल रखी हैं, जिनका दूध वे मुख्य राजमार्ग पर बसे शहर में बेचने जाते
हैं।
शिक्षा से गाँव
वालों का दूर-दूर तक को वास्ता नहीं है। ऐसा लगता था, कि नहर पार आधुनिक सभ्यता ने अपने पैर अभी तक नहीं रखे हैं।
नहर से पहले गाँव में एक स्कूल है, जहाँ नहर पार
गाँव के बच्चे इसलिए पढने जाते हैं, क्योंकि सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा और दोपहर का खाना मिलता है। इसके
अतिरिक्त गाँव वाले अपने बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते, जब को बच्चा फेल हो जाता है तो स्कूल से निकाल
लिया जाता है।
इस सबके बावजूद
कुछ बच्चों पर सरस्वती मेहरबान होती है, प्रकृति चाहती है, कि वे पढ़ लिख कर
सभ्यता में अज्ञानता को दूर कर ज्ञान का प्रकाश चारों तरफ़ फैलाएँ। ऐसे ही बच्चों
में रवीन्द्र प्रमुख था। गरीब परिवार का रवीन्द्र, खुद अपने बलबूते पर पढ़ता चला गया। जिस स्कूल का रिज़ल्ट
कभी दस प्रतिशत से अधिक नहीं आया, रवीन्द्र दसवीं
कक्षा की बोर्ड परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम आया। स्कूल के प्रधानाचार्य ने
रवीन्द्र की प्रतिभा का अवलोकन छोटी उम्र में ही कर लिया था, वह स्कूल की हर परीक्षा में प्रथम रहता था।
जिले में प्रथम आने पर रवीन्द्र का उत्साह दुगना हो गया और अधिक लगन से पढ़ने लगा।
प्रिंसिपल ने रवीन्द्र के लिए छात्रवृति के लिए आवेदन किया और दौड़भाग कर दो वर्ष
के लिए छात्रवृति भी करवा दी। होनहार रवीन्द्र जोश, लगन और प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ता रहा और पढ़ाई के अंतिम
शिखर पर पहुँचकर उसने अपना ध्यान आई ए एस की परीक्षा पास कर एक अधिकारी बनने पर
केन्द्रित किया।
मुख्य राजमार्ग
पर बसे गाँवो का अधिकरण सरकार करने लगी और एक औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना हुई।
छोटे उद्योगों के साथ एक विदेशी कंपनी ने कार बनाने के लिए ज़मीन ख़रीदी। कार
बनाने के कारखाने का निर्माण शुरू हो गया। यह एक बड़ी परियोजना थी। गाँव के गरीब
परिवारों को मज़दूरी मिल गई। दो साल बाद कारखाना तैयार हो गया और गाँव के सभी
नौजवानों की भरती कार बनाने के कारखाने में हो गई।
बारहवी कक्षा की
बोर्ड परीक्षा समाप्त हो गई और रिज़ल्ट आने में दो महीने का समय था। कारखाने में
भरती पूरे जोश में थी। गाँव के दूसरे नौजवान कारखाने में भरती हो रहे थे, लेकिन रवीन्द्र ने अपना लक्ष्य आईएएस रख लिया
था, वह नौकरी के लिए तैयार
नहीं था। घर में खाली बैठे पुत्र को कोई बरदाश्त नहीं करता है। उसे घर देख माँ ने
पिता से कहा, ''अजी सुनते हो,
गाँव के सारे लड़के कारखाने में भरती हो रहे
हैं। अपना रबी घर पड़ा है, कुछ बात करो
उससे। अपना रबी तो प्रथम आता है, फेल लड़के सारे
भरती हो गए हैं, सुना है
पाँच-पाँच हज़ार रुपये महीना तनखाह मिल रही है, इसको तो अधिक तनखाह मिलेगी।
''तुम ठीक कहती हो,
माँ, कल सरपंच भी कह रहा था, जल्दी भरती बंद
हो जाएगी, ऐसे घर बैठे इतनी बढ़िया
नौकरी के मौके कभी-कभी मिलते हैं।'' कह कर आवाज़ लगाई, ''रबी।''
रवीन्द्र पढने
में मस्त था, शायद उसे अहसास
था कि पिता कारखाने में नौकरी की बात करेंगे। इसलिए पिता की आवाज़ अनसुनी कर दी।
रवीन्द्र को पढ़ता देख माँ बाप दोनों बाहर आ गए।
''रबी परीक्षा
समाप्त हो गई हैं, अब नौकरी कर ले,
कारखाने में सब लड़के भरती हो गए है, यह सुनहरा अवसर है, इसको गँवाना नहीं है।''
''माँ मैं अभी
पढ़ना चाहता हूँ, मुझे नौकरी नहीं
करनी है।''
''तो क्या करेगा,
रमाशंकर की आवाज़ तेज़ और कड़क हो गई।''
''मैं आईएएस
अधिकारी बनना चाहता हूँ। उसके लिए अभी और पढ़ना है।''
''देख रबी, हम कोई अमीर नहीं हैं। हम पढ़ाई का खर्च नहीं
उठा सकते हैं।''
''आप खर्च की
चिन्ता मत करें। प्रिंसिपल साहिब ने कहा है कि वे मेरी छात्रवृति की बात करेंगे।''
''देख रबी, तुझे घर के हालात तो मालूम है, तेरी दो बड़ी बहनों और भाई की शादी में कर्ज़
लिया था, जो आज तक चुका नहीं पाया,
आधा खेत साहूकार पहले ही अपने नाम करवा चुका
है। बाकी आधे खेत से बहुत मुश्किल से घर का गुज़ारा होता है। साल दो बाद छोटी बहन
भी शादी लायक हो जाएगी। आखिर कैसे रकम का जुगाड़ करूँगा। घर बैठे बिठाए इतनी अच्छी
नौकरी मिल रही है, तू अभी जा और
भरती हो जा।''
रवीन्द्र ने लाख
समझाने की कोशिश की लेकिन सब बेकार, आखिर थक कर उसने कारखाने में नौकरी कर ली। रवीन्द्र को स्टोर में ड्यूटी दी गई,
छ: हज़ार रूपये का वेतन पा कर घर वाले तो खुश
हो गए, लेकिन रवीन्द्र का मन
दु:खी था। कंपनी में दो हज़ार लोगों को रोज़गार मिला। रवीन्द्र स्टोर में बैठा
वर्करों की वर्दी के कपड़ों के लिए थान में से नाप के अनुसार कपड़ा फाड़ के बाँटा
करता था, इस काम से वह दु:खी था,
लेकिन कुछ कर नहीं सकता था। दो महीने जैसे तैसे
काटे। बारहवी कक्षा की बोर्ड परीक्षा का रिज़ल्ट घोषित हुआ। दसवी कक्षा में
रवीन्द्र जिले में प्रथम आया था, इस बार वह पूरे
राज्य में प्रथम रहा। राज्य सरकार ने आगे पढ़ने के लिए छात्रवृति की छोषणा की,
जिससे उत्साहित होकर रवीन्द्र ने कॉलिज मे
दाखिला लिया और नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ने की ख़बर मिलते ही रवीन्द्र के माता
पिता दोनों बहुत नाराज़ हुए और प्रिंसिपल को कोसने लगे।
''आग लगे नाशपीटे
प्रिंसिपल को, रबी की बुद्धी
ख़राब कर दी है, कहता है, नौकरी नहीं करेगा।'' माँ ने क्रुद्ध हो कर कहा तो जवाब में रमाशंकर खूँखार शेर
की तरह दहाड़ने लगा, ''अभी जा कर
हरामज़ादे प्रिंसिपल की ख़बर लेता हूँ। अपने को क्या समझता है।'' कह कर रमाशंकर तमतमाता हुआ घर से निकला और अपने
साथ दो तीन पड़ोसियों को भी साथ ले लिया। प्रधानाचार्य को स्कूल परिसर में ही दो
कमरों का क्वार्टर मिला हुआ था, जहाँ वह सपरिवार
रहता था। वहाँ पहुँचते ही गालियों की बौछार के साथ प्रिंसिपल को खूब बुरा-भला कहा।
प्रिंसिपल ने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन को प्रभाव पड़ा। थक हार कर प्रिंसिपल
ने कहा कि आपका लड़का है, जो आप उचित समझे,
वही करें।
घर पहुँच कर
रमाशंकर ने रवीन्द्र को हिदायत दी कि आगे पढ़ने की को ज़रूरत नहीं है, नौकरी दुबारा शुरू कर दे। रवीन्द्र को कुछ भी
नहीं सूझ रहा था। वह प्रिंसिपल से मिला कि उसे क्या करना चाहिए, यदि वह नौकरी करता है, तब पढ़ाई को अलविदा कहना होगा। घर की आर्थिक स्थिति को
देखते हुए परिवार के साथ रह कर आगे की पढ़ाई नहीं कर सकता है। घर से दूर रह कर
अपना जीवन निर्वाह कैसे करेगा। प्रिंसिपल ने समझाया कि उसकी छात्रवृत्ति पढ़ाई का
खर्च सहन कर लेगी, यदि वह अपने
परिवार को समझा सके तो उसके भविष्य के लिए उत्तम रहेगा। लेकिन रवीन्द्र का परिवार
अपने फ़ैसले पर अड़िग रहा।
''रबी कान खोल कर
सुन ले। आगे पढ़ाई की कोई ज़रूरत नहीं है। नौकरी करेगा तो पैसे कमाएगा। पढ़ाई
करेगा तो पैसे खर्च होंगे। जितने साल पढ़ने में लगाएगा, तब तक कम से कम दो लाख रूपये बचा लेगा। तू अब पढ़ लिख गया
है, अपने आप हिसाब लगा ले।
रोटी घर से निकल आएगी। पूरा वेतन बचाएगा।''
''लेकिन मैं आगे
नहीं बढ़ पाऊँगा। कारखाने की नौकरी में पूरी ज़िन्दगी क्लर्क बन कर रह जाऊँगा।''
''तो क्या लाटसाब
बनेगा।'' रमाशंकर बिगड़ कर बोला।
''मैं आईएएस अफ़सर
बनना चाहता हूँ।''
''उस पागल
प्रिंसिपल की बातों में आ कर तू भी पागल बन गया है। लगता है, अपने पैरों पर कुल्हारी मारने का शौक हो रहा है,
लेकिन कान खोल कर सुन ले रबी। इस घर में रहना
है तो पढ़ने का भूत उतारना होगा।'' रमाशंकर ने धमकी
दी।
लेकिन रवीन्द्र
को पढ़ने की धुन थी, उसने कॉलिज में
दाखिला ले लिया। यह सुनते ही रमाशंकर आगबबूला हो गया और रवीन्द्र को फिर धमकाया,
''आखिरी बार बोलता हूँ, घर में रहना है तो नौकरी कर ले वरना घर से बाहर हो जा।''
''मैं आगे पढूँगा।''
यह सुन कर
रमाशंकर ने रवीन्द्र का हाथ पकड़ कर घर से बाहर कर दिया। माँ ने दरवाज़ा बंद कर
दिया। रवीन्द्र अब क्या करे, कुछ समझ नहीं आ
रहा था, वह प्रिंसिपल के पास गया।
स्कूल परिसर मंं दो कमरों का क्वार्टर रहने को मिला हुआ था। रवीन्द्र को
प्रधानाचार्य ने अपने घर पनाह दी, यह सोचकर कि हो
सकता है, दो चार दिन बाद रवीन्द्र
के माता पिता का गुस्सा शान्त हो जाए, लेकिन उसके विपरीत उन्होनें गाँव वालो के संग प्रिंसिपल के घर धावा बोल दिया
और खुले शब्दों में चेतावनी दे दी कि वह गाँव के बच्चों को भड़काना बंद कर दे वरना
उसे स्कूल में रहने नहीं देंगे। वह रवीन्द्र को अपने घर में नहीं रख सकता है।
मजबूर हो कर प्रिंसिपल के घर से रवीन्द्र को जाना पड़ा लेकिन वह घर नहीं गया। सीधे
शहर के लिए रवाना हो गया। लेकिन समस्या रहने की थी, जाए तो कहाँ। कॉलिज के पास एक मंदिर था। वह वहाँ कुछ देर
बैठा रहा। रात को मंदिर बंद हो गया। सारी रात मंदिर परिसर में गुज़ार दी। उसकी जेब
में फूटी कोडी नहीं थी। बस एक पैंट कमीज़ में घर से निकला था। सुबह मंदिर की
घंटियों की आवाज़ से उसकी नींद खुली। पानी पी कर गुज़ारा कर लिया। भक्तों का तांता
लगा और कुछ भक्तों ने दिए प्रसाद से पेट की भूख शांत की। कॉलिज खुलने में अभी एक
सप्ताह था। वह क्या करे, उसको कुछ समझ
नहीं आ रहा था। दूसरी रात भी मंदिर में काटी। अगली सुबह मंदिर के पुजारी ने उसे
देखा, कि वह सो रहा है। लात मार
कर उसे उठाया।
''उठ कौन है तू,
लाटसाब की तरह सो रहा है। बाप का घर समझ रखा
है।''
घबड़ा कर
रवीन्द्र उठा और अपनी राम कहानी सुना दी।
''मैं कैसे मानू कि
तू सच बोल रहा है।'' पुजारी ने अपनी
शंका जताई।
रवीन्द्र ने
कॉलिज में दाखिले और छात्रवृति के काग़ज़ दिखाए तब पुजारी को यकीन हुआ कि रवीन्द्र
सच बोल रहा है। पुजारी मंदिर परिसर में ठीक मंदिर के पीछे क्वार्टर में रहता था।
उसने रवीन्द्र को मंदिर मे ठहरने की इज़ाज़त दे दी, लेकिन इसमें उसका अपना स्वार्थ था। पुजारी ने शर्त रख दी कि
उसके दोनों बच्चों को पढ़ाना होगा और मंदिर की सफाई और छोटे मोटे सभी कार्य करने
होगें। रवीन्द्र को सिर छुपाने की जगह मिल गई और उसने पुजारी की शर्ते मान ली।
बेघर रवीन्द्र को घर मिला। सुबह चार बजे उठ कर मंदिर की सफाई करने, कॉलिज में पढ़ाई करने और शाम को पुजारी के
बच्चों को पढ़ाने के बाद रवीन्द्र थक कर चूर हो जाता था और मंदिर के एक कोने में
सो जाता था। उसे मंदिर के धार्मिक कार्यक्रमों में भी काम करना पढ़ता था, लेकिन उसकी आईएएस की लगन में को बाधा नहीं आई।
प्रिंसिपल प्रधानाचार्य उसका मार्ग दर्शन करते रहे, हौसला बढ़ाते रहे। कॉलिज में वह सिर्फ़ पढ़ाई में ध्यान
लगाता, जब कोई क्लास नहीं होती
तो लाइब्रेरी में रहता था। सारे कॉलिज में मिस्टर पढ़ाकू के नाम से मशहूर हो गया।
उसका कोई दोस्त नहीं बना।
जहाँ कॉलिज के
लडके रोज़ नए फैशन के कपड़ों में नज़र आते और चमकती कारों, बाइकों में घूमते, वहीं दो जोड़ी पुराने कपड़ों में उसका दरिद्र्य झलकता था, पैदल आया जाया करता था, जिसके कारण को उसे अपने पास नहीं आने देता था। लेक्चरर और
प्रोफ़ेसर ही उसके साथी थे। तमाम मुश्किलों के बीच प्रिंसिपल प्रधानाचार्य उसे
लक्ष्य बताते रहे और कठिन डगर पर चलाते रहे। जिसका परिणाम पहले वर्ष ही नजरर आ
गया। पूरे कॉलिज में प्रथम रहा और उसके जितने अंक कॉलिज के इतिहास में किसी के
नहीं आए थे। इसके बाद पढ़ने वाले छात्र उसके नज़दीक आने लगे और दोस्ती करने लगे।
पुजारी के नालायक बच्चे भी अच्छे नंबरो से पास हुए। रवीन्द्र जिस कार्य को करता,
पूरी लगन से करता, चाहे खुद पढ़ने का हो या पुजारी के बच्चों को पढ़ाने का हो।
सुबह पूरे मंदिर की सफ़ाई कर चमका देता था, जिस कारण मंदिर की रौनक दुबारा लौट आई थी। भक्तों की संख्या
बढ़ गई थी और पुजारी की आय। पढ़ने की लगन से वह पूरी यूनीवर्सिटी में प्रथम रहा और
आईएएस की परीक्षा पहली कोशिश में मेरिट के साथ पास की।
''रवीन्द्र आज
तुमने अपने नाम को सार्थक कर दिया। जैसे सूरज सारे जगत को प्रकाश देता है, वैसे रवि तुमने पढ़ने में लेकिन रवीन्द्र को
पढ़ने की धुन थी, उसने कॉलिज में
दाखिला ले लिया। यह सुनते ही रमाशंकर आगबबूला हो गया और रवीन्द्र को फिर धमकाया,
''आखिरी बार बोलता हूँ, घर में रहना है तो नौकरी कर ले वरना घर से बाहर हो जा।''
''मैं आगे पढूँगा।''
यह सुन कर
रमाशंकर ने रवीन्द्र का हाथ पकड़ कर घर से बाहर कर दिया। माँ ने दरवाज़ा बंद कर
दिया। रवीन्द्र अब क्या करे, कुछ समझ नहीं आ
रहा था, वह प्रिंसिपल के पास गया।
स्कूल परिसर मंे दो कमरों का क्वार्टर रहने को मिला हुआ था। रवीन्द्र को प्रधानाचार्य
ने अपने घर पनाह दी, यह सोचकर कि हो
सकता है, दो चार दिन बाद रवीन्द्र
के माता पिता का गुस्सा शान्त हो जाए, लेकिन उसके विपरीत उन्होनें गाँव वालो के संग प्रिंसिपल के घर धावा बोल दिया
और खुले शब्दों में चेतावनी दे दी कि वह गाँव के बच्चों को भड़काना बंद कर दे वरना
उसे स्कूल में रहने नहीं देंगे। वह रवीन्द्र को अपने घर में नहीं रख सकता है।
मजबूर हो कर प्रिंसिपल के घर से रवीन्द्र को जाना पड़ा लेकिन वह घर नहीं गया। सीधे
शहर के लिए रवाना हो गया। लेकिन समस्या रहने की थी, जाए तो कहाँ। कॉलिज के पास एक मंदिर था। वह वहाँ कुछ देर
बैठा रहा। रात को मंदिर बंद हो गया। सारी रात मंदिर परिसर में गुज़ार दी। उसकी जेब
में फूटी कोडी नहीं थी। बस एक पैंट कमीज़ में घर से निकला था। सुबह मंदिर की
घंटियों की आवाज़ से उसकी नींद खुली। पानी पी कर गुज़ारा कर लिया। भक्तों का तांता
लगा और कुछ भक्तों ने दिए प्रसाद से पेट की भूख शांत की। कॉलिज खुलने में अभी एक
सप्ताह था। वह क्या करे, उसको कुछ समझ
नहीं आ रहा था। दूसरी रात भी मंदिर में काटी। अगली सुबह मंदिर के पुजारी ने उसे
देखा, कि वह सो रहा है। लात मार
कर उसे उठाया।
''उठ कौन है तू,
लाटसाब की तरह सो रहा है। बाप का घर समझ रखा
है।''
घबड़ा कर
रवीन्द्र उठा और अपनी राम कहानी सुना दी।
''मैं कैसे मानू कि
तू सच बोल रहा है।'' पुजारी ने अपनी
शंका जताई।
जहाँ कॉलिज के
लडके रोज़ नए फैशन के कपड़ों में नज़र आते और चमकती कारों, बाइकों में घूमते, वहीं दो जोड़ी पुराने कपड़ों में उसका दरिद्र्य झलकता था, पैदल आया जाया करता था, जिसके कारण को उसे अपने पास नहीं आने देता था। लेक्चरर और
प्रोफ़ेसर ही उसके साथी थे। तमाम मुश्किलों के बीच प्रिंसिपल प्रधानाचार्य उसे
लक्ष्य बताते रहे और कठिन डगर पर चलाते रहे। जिसका परिणाम पहले वर्ष ही नजर् आ
गया। पूरे कॉलिज में प्रथम रहा और उसके जितने अंक कॉलिज के इतिहास में किसी के
नहीं आए थे। इसके बाद पढ़ने वाले छात्र उसके नज़दीक आने लगे और दोस्ती करने लगे।
पुजारी के नालायक बच्चे भी अच्छे नंबरो से पास हुए। रवीन्द्र जिस कार्य को करता,
पूरी लगन से करता, चाहे खुद पढ़ने का हो या पुजारी के बच्चों को पढ़ाने का हो।
सुबह पूरे मंदिर की सफ़ाई कर चमका देता था, जिस कारण मंदिर की रौनक दुबारा लौट आई थी। भक्तों की संख्या
बढ़ गई थी और पुजारी की आय। पढ़ने की लगन से वह पूरी यूनीवर्सिटी में प्रथम रहा और
आईएएस की परीक्षा पहली कोशिश में मेरिट के साथ पास की।
''रवीन्द्र आज
तुमने अपने नाम को सार्थक कर दिया। जैसे सूरज सारे जगत को प्रकाश देता है, वैसे रवि तुमने पढ़ने में नाम रौशन किया है। इस
राह पर हमेशा चलते रहो, यही मैं चाहता
हूँ।'' कह कर प्रधानाचार्य ने
रवीन्द्र को गले लगा लिया। ''हमेशा सत्य की
राह पर चलो, किसी रुकावट से
मत डरना, यही मेरी शिक्षा है और
तुम्हें आशीर्वाद है।''
कुछ रुक कर
प्रधानाचार्य ने रवीन्द्र से फिर पूछा, ''क्या अपने माता पिता से नाराज़ हो।''
''नहीं, प्रिंसिपल जी, लेकिन मैं वहाँ ट्रेनिंग के बाद जाऊँगा, मैं चाहता हूँ कि मेरे पास होने की ख़बर आप
उन्हें दें।''
ट्रेनिंग के बाद
जहाँ बाकी आईएएस अफ़सरों ने विकसित शहरों में अपनी पोस्टिंग चाही, रवीन्द्र ने अपना पिछड़ा जिला चुना। पहला काम
उसने नहर पर पुल बनवाने का किया।
रवीन्द्र के माता
पिता खुशी से फूले नहीं समाए, लेकिन इस चिन्ता
में डूब गए कि उनका रबी मिलने क्यों नहीं आया, क्या वह नाराज़ है।
''आज तुम्हारा बेटा
जिले का कलक्टर बन गया है, अगर तुम्हारी बात
मान कर कारखाने की नौकरी करता तो अभी तक क्लर्की ही कर रहा होता। आज वह पूरे जिले
का मालिक बन गया है।''
इससे पहले कि
प्रधानाचार्य और अधिक कुछ कहते, पिता ने बात काट
दी। ''हम तो मूर्ख थे, तभी तो आपकी बात नहीं समझ सके प्रिंसिपल साहब।
हमने आपके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, हमें माफ़ करदो।''
''तुम गाँव निवासी
अज्ञानता का पर्दा उतार दो, पढ़ाई की महिमा
को समझो, यही मेरा सपना है। यही
मेरी माफी है।''
नहर पर पुल का
काम तेज़ी से चल रहा था और गाँव वालों को अपने रबी से मिलने की बेताबी थी। आखिर वो
घड़ी आ ही गई। पुल का उद्घाटन राज्य के मुख्यमंत्री ने किया। आज पाँच साल बाद
रवीन्द्र अपने गाँव जा रहा था। जीप धीरे-धीरे पुल से गुज़र रही थी, रवीन्द्र की आँखे नम होती जा रही थी। पूरा गाँव
रवीन्द्र के स्वागत में खड़ा था। प्रधानाचार्य सबकी अगुवाई कर रहे थे। उन्होंने
आगे बढ़ कर रवीन्द्र को गले लगाया। उसके बाद माता पिता ने अपने बेटे को गले लगाया।
कोई कुछ नहीं कह सका। तीनों की आँखे नम थी। माँ रोती रोती बस इतना ही बुदबुदा सकीं
''मेरा रबी।''
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