देवेन्द्र इस्सर की कहानी
नंगी
तसवीरें
बाहर भी अँधेरा
था और भीतर भी, अन्धकार अपने काले पंख फैलाये चारों ओर मंडरा रहा था। अपरिमित जन-समूह
का अनन्त प्रवाह हाथों में मशालें लिये अँधेरी रात की छाती को चीरता
हुआ, उसके दरवाजे को थपथपाकर आगे बढ़ गया।
अन्धकार में
प्रकाश की किरणें जगमगा उठीं। अँधेरे में उजाला हो गया।
किन्तु उसका
कमरा अभी तक साँस रहित सुनसान-सा और अन्धकारमय था। कमरे में मोमबत्ती जल रही थी, जिसकी धुँधली रोशनी कमरे के निराशामय
वातावरण को और भी गहरा कर रही थी। वह सो रहा था, और
प्यारे-प्यारे सपनों की गोद में खेल रहा था, राजकुमार बना
परियों की महफिल में घूम रहा थापरियाँ जो रात को बिजली के कृत्रिम आलोक में
इन्द्रलोक का वातावरण प्रस्तुत करती थीं, और दिन चढ़ते ही
काली बदसूरत चुड़ैलों की तरह मुँह चिढ़ाने लगती थीं!
किसी ने धीरे से
दरवांजा थपथपाया । मालूम होता था जैसे नवागन्तुक के हाथों की शक्ति छीन ली गयी हो।
''क्या मैं भीतर आ सकता हूँ ?'' किसी ने मरियल आवांज
में पूछा, जैसे उसमें जीवन का स्पन्दन समाप्त हो चुका हैया
जैसे कोई दूर सौ परदों के पीछे बोल रहाहै।
वह एकाएक चौंक
पड़ा। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी, परन्तु अन्धकार के अतिरिक्त उसे कुछ दिखाई न दिया।
''क्या मैं भीतर आ सकता हूँ ?'' दर्दभरी आवांज फिर आयी,
जिसमें निराशा और असफलता की भावनाएँ मिश्रित थीं।
''तुम कौन हो?'' उसने मीठे-मीठे सपनों के टूट जाने पर
झल्लाते हुए कहा।
''मैं बंगाल का भूखा किसान हँ। मुझे भीतर आने दो।'' नवागन्तुक
ने उसी स्वर में कहा।
''नहीं-नहीं, तेरे लिए इस कमरे में कोई जगह नहीं।''
उसने घबराकर कहा, जैसे मृत्यु उसका दरवांजा
खटखटा रही हो।
''मुझे भीतर आने दो। मैं तुमसे भीख नहीं माँगूँगा।'' मुझे
अपनी कहानी सुनाने दो। फिर मैं शान्तिपूर्वक मर सकूँगा। मेरी कहानी सुन लो,
मुझे भीतर आने दो। अपनी कहानी सुनाने के बाद मैं तुम्हारे दरवांजे
पर दम तोड़ दूँगा, परन्तु तुम्हारे सामने हाथ नहीं फैलाऊँगा।''
नवागन्तुक ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
''नहीं-नहीं, तुम भीतर नहीं आ सकते, तुम्हारी दुनिया इस कमरे से बाहर है। जाओ, लौट जाओ,
अपने खेतों की ओर, अपने गाँव की ओर लौट जाओ ,
यहाँ से चले जाओ।''
उसकी आवाज तेज
होती गयी और वह पागलों की भाँति चिल्लाने लगा।
''मेरे खेत बिक गये हैं। मेरे गाँव में कालाजार फैल गया है। मुझे भीतर आने
दो मुझे भीतर आने दो।''
नवागन्तुक ने
फिर जोर से दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया लेकिन लोहे और लकड़ी का बना हुआ दरवाजा न
टूट सका, उसकी मुट्ठियाँ घायल हो
गयीं और वह उसकी चौखट से सिर टकरा-टकराकर मर गया। खिड़की की लोहे की छड़ों से एक
छाया भीतर आकर कमरे की दीवारों पर हरकत करने लगी। मोमबत्ती की काँपती हुई रोशनी
में छाया कभी दीवार पर फैल जाती और कभी सिमट जाती। दो आभाहीन नेत्र उसकी ओर चुभती
हुई दृष्टि से घूर रहे थे।
''मैं मर नहीं सकता। मैं जिन्दा हँ। तुम्हें मेरी कहानी सुननी ही पड़ेगी। मैं
वह मनुष्य हँ, जिसे तुम्हारी ऐनक के मोटे काँच देखने में
असमर्थ हैं। मैं बंगाल का भूखा किसान हँ। तुमने मेरे लिए अपने दरवाजे बन्द कर रखे
हैंधरती के बेटे के लिएइनसान के अन्नदाता के लिए। तुम मुझसे छिपकर नहीं बैठ सकते।
मैं तुम्हें स्वप्न में भी चैन नहीं लेने दूँगा।''
छाया दीवार पर
फैलती गयी और फिर धीरे-धीरे उसके शरीर ने सिमटते-सिमटते एक बिन्दु का आकार ले
लिया।
इस दृश्य से
घबराकर उसने तकिये में मुँह छिपा लिया।
''दरवाजा खोल दो, दरवाजा खोल दो।''
दरवांजे पर
जोर-जोर से घूँसों की वर्षा होने लगी। किवाड़ टूटने का खतरा महसूस करते हुए
उसने पूछा, ''तुम कौन हो?''
उसके मस्तिष्क
में अभी पिछले दृश्य की स्मृति तांजा थी।
मारो, पकड़ो, मारो, हिन्दू है, मुसलमान है, अल्लाहो-अकबर
और हर-हर महादेव के मिले-जुले शोर में नवागन्तुक की ध्वनि स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी।
''मुझे बचाओ, मैं हिन्दू नहीं, मैं
मुसलमान नहीं। मुझे अन्दर आने दो!'' नवागन्तुक भयभीत होकर
चिल्ला रहा था।
''नहीं-नहीं, तुम भीतर नहीं आ सकते। जाओ, जाओ, तुम वापस लौट जाओ। हिन्दू हो तो हिन्दुस्तान
में चले जाओ, और मुसलमान हो तो पाकिस्तान में हिजरत कर जाओ।
यह मेरा कमरा है, भिखमंगों का शरणागार नहीं।'' उसने कठोरतापूर्वक उत्तर दिया।
''मेरी कहानी सुन लो। फिर बेशक मुझे धक्के देकर बाहर निकाल देना। लेकिन एक
बार दरवाजा खोल दो।''
''खोल दो, मार दो, खोल दो''
का शोर क्षण भर के लिए वातावरण में गूँजता रहा। फिर गोली के चलने के
साथ ही भयानक चीख से कमरा गूँज उठा, दीवारें काँपने लगीं और
सीढ़ियों पर से किसी के गिरने की आवांज सुनाई दी। मोमबत्ती का प्रकाश टिमटिमाने लगा,
कभी अन्धकार और कभी धुँधली रोशनी फैलने और सिमटने लगी।
खिड़की की लोहे
की छड़ों से एक छाया भीतर आकर मोमबत्ती के प्रकाश में दीवार पर लरजने लगी। छाया के
शरीर से खून की बूँदें इस तरह टपक रही थीं जैसे खून की वर्षा में भीगकर आ रहा हो।
''मैं मर नहीं सकता। तुमने मेरे लिए अपने दरवाजे बन्द कर रखे है। तुम गुंडों
के छुरों से मेरी रक्षा नहीं कर सकते। तुम कभी भी चैन और शान्ति से नहीं रह सकते।''
बहुत देर तक
छाया दीवार पर फिरती रही और उसने भयभीत होकर आँखें मूँद लीं। बाहर का शोर धीमा
पड़ते-पड़ते खत्म हो गया, किन्तु उसकी आँखें अभी तक बन्द थीं ताकि उसे काँपती हुई छायाएँ दिखाई न
पड़ें। मोमबत्ती की रोशनी कितनी ही धुँधली क्यों न हो, जब तक
वह जलती रहेगी, यह छायाएँ दिखाई पड़ती रहेंगी।
छाया
सिमटते-सिमटते एक बिन्दु बन गयी, दीवार पर केवल दो स्थिर बिन्दु थे, कमरे में
मोमबत्ती की धुँधली रोशनी के अतिरिक्त पूर्ण अन्धकार था। उसका सिर चकराने लगा। वह
कुछ सोच नहीं सकता था। वह कुछ अनुभव नहीं कर सकता था। उसकी विचार-शक्ति को जैसे
साँप सूँघ गया था।
अपना मन बहलाने
के लिए उसने तकिये के नीचे से नंगी तस्वीरों का अलबम निकाला। वह जब भी उदास होता
था, इन तसवीरों को देखकर
शान्ति पाता था।
नंगी तस्वीर की
मांसल भुजाओं और सुडौल पिंडलियों पर से फिसलती हुई उसकी दृष्टि उभरी हुई छातियों
पर फिरने लगी और वह नई-नई उपमाएँ सोचने लगा। दूसरे ही क्षण में उसकी आँखों के
सामने दोनों बिन्दु घूमने लगे। उसने डरते-डरते दीवार की ओर देखा। दोनों बिन्दु
हरकत कर रहे थे।
घबराकर उसने फिर
तस्वीर की ओर देखना आरम्भ किया। वह नंगी स्त्री की सुन्दर आँखें देख रहा था। वह
सोचने लगा कितना रस है इन आँखों में, आदमी संसार को भूलकर इनमें डूब सकता है।
दीवार पर चलते
हुए दोनों बिन्दु आँखों की पुतलियाँ बन गये और नंगी औरत की तस्वीर जैसे बोल उठी, ''मेरी नंगी तस्वीर देखकर तुम अपना मनोरंजन
करते हो। अपनी सुनसान रातों को आबाद करना चाहते हो। मैं औरत हूँ परन्तु आज मैं
तुम्हारे समीप अपने रेशमी वस्त्र तार-तार करके नग्न खड़ी हँ, इसलिए
कि इस नग्नता के लिए मुझे एक पायली चावल मिला है! मैं दंगों में घायल कराहती हुई
मनुष्य की आत्मा हूँ।''
नंगी तस्वीर की
आँखें अन्दर को धँसने लगीं। उसके गाल पिचक गये। उसके शरीर का मांस सूख गया। पेट
पीठ के साथ लग गया और वह हड्डियों का ढाँचा बनकर उसके सामने मृत्यु का भयानक नृत्य
करने लगी।
दूसरे ही क्षण
उसकी नंगी छातियों से खून बहने लगा। उसके शरीर के प्रत्येक अंग से रक्त बह रहा था।
दीवार पर दोनों बिन्दु खून के धब्बे बन गये।
सामने मोमबत्ती
अभी तक जल रही थी। पिघली हुई मोम उस पर आँसुओं की भाँति जम गयी थी...
जिन दृश्यों से
भागकर वह अँधेरे कमरे में नंगी तस्वीर के सौन्दर्य में अपने आपको तल्लीन कर देना
चाहता था, वही दृश्य उसका मुँह
चिढ़ाने लगे। उसने घबराकर तस्वीर को फेंक दिया। तस्वीर मोमबत्ती से टकराकर राख हो
गयी। मोमबत्ती मेज से लुढ़ककर फर्श पर गिरकर बुझ गयी।
कमरे में घोर
अँधेरा फैल गया।
बाहर भी अँधेरा
था और भीतर भी। अन्धकार अपने काले पंख फैलाये चारों ओर मँडरा रहा था।
अपरिमित जन-समूह
का अनन्त प्रवाह, हाथों में मशालें लिए,
अँधेरी रात की छाती को चीरता हुआ, उसके
दरवांजे को थपथपाकर आगे बढ़ गया।
No comments:
Post a Comment