रूपसिंह चंदेल की कहानी
सड़क की ओर खुलता मकान
सब कुछ बहुत रहस्यमय था - किसी प्रेत लोक की
भाँति... कल्पनातीत। कल्पना में उस मकान में डॉ. यतीश मिश्र का परिवार था। कुछ माह
पहले तक उन्हीं के परिवार से सामना हुआ था। वह पुराने बाशिन्दा थे कॉलोनी के।
उन्होंने तब मकान बनवा लिया था जब वहाँ इक्का-दुक्का मकान ही थे। कुछ खतरे थे वहाँ
रहने के जिस कारण उन्होंने मकान को इतना सुरक्षित बनवाया कि परिन्दा भी अंदर तभी
झाँक सके जब डॉ. मिश्र का परिवार चाहे। सौ स्क्वायर गज में चौकोर बना उनका मकान
केवल एक ओर ही खुलता था... सड़क की ओर। बीच में आँगन - आंगन के तीन ओर कमरे - किचन
और बाथरूम। छत पर आंगन को ढकता घना लोहे का जाल। आसमान में चमकते सूर्य की रौशनी
जाल को भेदती हल्की ही आंगन में उतर पाती। मेन गेट पर लोहे का बड़ा गेट था अवश्य
लेकिन वह ऊपर तक घनी चादर का बना हुआ था, अत: बाहर से भी नहीं के बराबर रोशनी अंदर दाखिल
हो पाती।
चैत-बैसाख के तेज घाम वाले दिनों मे भी वह घर
नीम अँधेरे में डूबा रहता।
डॉ. मिश्र एक राष्ट्रीय अखबार के दफ्तर में
वरिष्ठ उप-सम्पादक थे। उनके एक ही बेटा था, जिसे वह शिमला के किसी बोर्डिगं स्कूल में पढ़ा
रहे थे और उनका प्रयत्न रहता कि बेटा उस घर से - उस बस्ती से दूर रहे। बस्ती में
अधिकांश अर्धशिक्षित या अशिक्षित लोगों का आधिक्य था। डॉ. मिश्र और उनके कुछ मित्र, जिनकी संख्या
पंद्रह के लगभग थी और उनमें अधिकांश पत्रकार थे, किसी गलतफ़हमी के कारण वहाँ आ बसे थे। वहाँ आ
बसने के बाद उन सभी पर वहाँ की समस्याओं के रहस्य खुलने प्रारंभ हुए थे। उन्हें
बाद में बुजुर्गों की कही बात याद आयी थी कि जिन्दगी में दो निर्णय बहुत
सोच-विचारकर करना चाहिए। एक, शादी और दूसरा मकान। बिना सोचे किए गए दोनों
कामों के परिणाम प्राय: दुखदायी होते हैं। डॉ. मिश्र ने शादी सोच-विचार के बाद ही
की थी, लेकिन मकान के मामले में उन्होंने गहराई से नहीं सोचा था। किसी मित्र के सुझाव
पर जमीन लेकर झटपट मकान बना लिया था।
लेकिन वह इस बात को खारिज कर देते रहे कि
उन्होंने सोचा नहीं था। सोचा अवश्य था लेकिन मध्यवर्ग व्यक्ति के पास इतने सीमित
विकल्प होते हैं कि वह सोच भले ही ले करना उसे वही होता है जिसके लिए उसकी जेब
अनुमति देती है। जब जमीन खरीदी और मकान बनवाया तब वह उप-सम्पादक थे... डेस्क पर
काम करने वाले उप-सम्पादक। रिपोर्टर होते तब शायद वह स्थिति न होती। सूखी
तनख्वाह... घर भी पैसे भेजने होते। उस पर मकान मालिक का सिर पर बजता डंडॉ. हर साल
बढ़ता किराया - उन्हें उससे मुक्ति चाहिए थी। मकान मालिक के चेहरे से ही वह भय
खाते थे। भले ही वह सीधा-सरल मकान मालिक ही क्यों न रहा हो। उन स्थितियों ने
उन्हें अधिक सोचने का अवसर नहीं दिया। पत्नी की जेवर बेच जमीन खरीदी और दफ्तर से
लोन लेकर लस्टम-पस्टम मकान बनवाया। धीरे-धीरे वह उसे इतना सुरक्षात्मक बनाते गए कि
यही भूल गए कि आंगन में धूप और हवा भी चाहिए होती है। डॉ. मिश्र ने अपने अनेक
मित्रों को वहाँ के खुले - प्रदूषण रहित वातावरण का ऐसा खाका खींचा कि कई मित्र
वहाँ दौड़े चले आए थे।
वह भी उनमें से एक थे।
डॉ. मिश्र के ठीक सामने उन्होंने प्लॉट लिया।
दोनों के प्लॉट के बीच बीस फीट चौड़ी सड़क थी। प्लॉट का घेरा करवाया और उसे छोड़
दिया। सरकारी कर्मचारी थे और आर.के.पुरम के सरकारी मकान की सुविधा भोग रहे थे।
दोनों बच्चे वहाँ डी.पी.एस. में पढ़ रहे थे। दफ्तर भी आर.के.पुरम में... जिसकी
दूरी उस बस्ती से तीस किलोमीटर थी। उन्होंने वहाँ शिफ्ट न करने का निर्णय किया, लेकिन मकान
मालिक बनने का स्वप्न वह अवश्य देखने लगे। जब भी किसी कार्यक्रम में उस बस्ती का
कोई परिचित मिलता, ‘कब आ रहे हैं विशाल जी?’ की टेर छेड़ता और वह बच्चों की पढ़ाई का वास्ता
दे बच निकलते। लेकिन एक दिन मकान मालिक बनने के उत्साह ने ऐसा उफान मारा कि फण्ड
खाली कर दिया और मकान बनाने का ठेका दे दिया।
छ: महीनों में पहला हिस्सा बनकर तैयार हो गया।
बच्चों सहित वह दो दिन आकर रहे। डॉ. मिश्र के घर से लंबा तार डालकर बिजली उधार ली, जिससे एक बल्व
और एक पंखा चलाया। लेकिन मच्छरों ने रात भर नादिरशाही आक्रमण जारी रखा और दो रातें
काटनी कठिन कर दीं। उन्होंने शेष बचे पोर्शन को न बनवाने का निर्णय किया, लेकिन निर्णय का
निर्वाह नहीं कर पाए, क्योंकि डॉ. मिश्र की भाँति वह भी सामान्य पदधारी थे और उनका पद इस सभ्य देश
की असभ्य परम्परा से अछूता था। अछूता न भी होता तब भी अतिरिक्त कमाई उनके वश में न
थी। अस्तु शेष मकान भी बना और रिटायर्ड भी हो गए। बच्चे उनके रिटायर होने से पहले
मुम्बई और बंगलौर जा चुके थे।
पूरा मकान उन्होंने बनवा अवश्य लिया था लेकिन
वहाँ रहने आने के लिए वह रिटायरमेण्ट की प्रतीक्षा करते रहे थे। चार-छ: महीनों में
किसी अवकाश के दिन वह मकान देखने आ जाते। दिन भर रहते और उसका आधा समय वह डॉ.
मिश्र के साथ बिताते... या कभी किसी अन्य मित्र के यहाँ चले जाते। डॉ. मिश्र का
बेटा भी एम.बी.ए. करने के बाद किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में सिंगापुर में नौकरी
करने लगा था।
जब वह आखिरी बार डॉ. मिश्र से मिले, उन्हें कुछ उलझन
में पाया था। कारण पूछने पर वह बोले थे, ‘अब बस्ती का माहौल बदल गया है विशाल जी... आबादी
बढ़ गयी है। एक समय था जब हमारे लोगों की इज्जत थी... जो यहाँ के पुराने बाशिन्दे
थे... इज्जत करते थे, लेकिन अब... यहाँ जमीन सस्ती होने के कारण कितने ही चोर-उचक्के... उठाईगीर
किस्म के लोगों ने मकान बना लिए हैं। हर गली में दो-चार प्रापर्टी डीलर बैठे दिख
जाएँगे... सड़कों पर मंडराते आवारा लड़के... चेन स्नैचिंग की बढ़ती घटनाएं...
बिल्कुल बदल गयी है यह बस्ती।’
‘अपने काम से काम रखें डॉ. मिश्र।’ मन के अंदर
घबड़ाहट अनुभव करते हुए उन्होंने उन्हें दिलासा दिया था।
रिटायर हाने के छह महीने बाद उन्होंने शिफ्ट
किया। इस दौरान बस्ती और अधिक बदल गयी थी। उन्हें धक्का लगा था, लेकिन इससे बड़ा
धक्का उन्हें इस बात से लगा कि डॉ. यतीश मिश्र वहाँ से जा चुके थे। घर के बाहर
उनके नाम के बोर्ड के स्थान पर लिखा था ‘आलोक निवास’।
आश्चर्य था, जिस घर में आलोक के चिह्न टार्च लगाकर खोजने
होते उसका नाम ‘आलोक निवास’। लेकिन उससे भी बड़ा आश्चर्य यह देख हुआ उन्हें कि उस आलोक निवास के नीम
अँधेरे आंगन में काले कच्छों में कई छायाएं डोलती दिखतीं।
‘क्या यहाँ अब भूत रह रहे हैं?’ छज्जे पर खड़े
हो उन नंग-धड़ंग छायाओं को देखते हुए उन्होंने एक दिन सोचा। वे चार थे और चारों के
बदन में केवल कच्छे थे... काले रंग के... वह भी इतने छोटे कि मामूली लापरवाही में
उनके आदिम मानव में परिवर्तित होने में बिल्कुल समय नहीं लगता।
चारों एक कमरे से दूसरे में आ-जा रहे थे। कभी
कोई आंगन में बने वॉशबेसिन में झुका नजर आता। उनके चेहरों पर उदबिलाव जैसी आँखें
थीं, जो कभी-कभी उनकी ओर उठ जातीं। कुछ देर बाद एक कमरे से एक ब्लाउज-पेटीकोट
नमूदार हुआ। वह पाँच फीट-तीन इंच के लगभग भारी डील-डौल वाली (जिसे देखकर हिडंबा की
कल्पना सहज ही उनके मस्तिष्क में उभर आयी थी) पचपन पार थी। उन्होंने कुछ और
गंभीरता से नजरें गड़ाकर देखा। उसने पेटीकोट पर तौलिया लपेट रखा था।
कुछ देर बाद एक थाली में कुछ छोटे बर्तन सजा उसे
छत पर जाते उन्होंने देखा। जीना चढ़ते हुए उसने भी उनकी ओर देखा। अब वह निपट उजाले
में थी। उसका मुँह चौड़ा, नाक मोटी, भौंहे घनी, शरीर का मांस साँवला-पथराया हुआ और हिप भारी थे।
छत पर उसने दो-तीन स्थानों पर छोटे बर्तनों से पानी गिराया। कुछ देर कुछ बुदबुदाती
रही, फिर सूर्य की ओर हाथ जोड़ कंक्रीट को छूकर पलट पड़ी। अब वह उनके सामने थी।
उसने एक बार फिर उन पर नजरें डालीं। वह भैंगी थी। देख उन्हें रही थी, लेकिन उन्हें लग
रहा था कि वह दूसरी छत की ओर देख रही थी।
‘बेचारी, आलोक निवास में शायद आलोक पहुँचने की प्रार्थना
करने गयी थी।’ उन्होंने सोचा।
उस महिला के आंगन में पहुँचते ही चारों कच्छे
उसके इर्द-गिर्द एकत्र हो गए। तीन युवा थे और एक उस महिला की उम्र का था।
‘उसका पति होगा।’ उन्होंने सोचा।
पाँच मिनट भी नहीं बीते कि चारों कच्छे एक-दूसरे
पर चीखने लगे थे। बीच-बीच में उस महिला की आवाज भी सुनाई दे रही थी। वह छज्जे से
कमरे की ओर खिसक गए। पत्नी भी आ गई, ‘कौन-किससे लड़ रहा है?’
‘सामने वाले मकान में कच्छे लड़ रहे हैं।’
‘कच्छे?’ पत्नी चौंकी।
‘वे चारों केवल कच्छों में हैं...’
पत्नी छज्जे पर चली गईं, लेकिन तुरंत पलट
पड़ी, ‘बेशर्म हैं।’ वह बुदबुदाई, ‘गलत आ गए, लेकिन ये डॉ. मिश्र कहाँ गए? ‘
‘मकान बेचकर बेटे के पास चले गए।’
‘कैसे लोग हैं!’ पत्नी एक बार पुन: छज्जे पर जा खड़ी हुई,’ एक रुपए को लेकर
लड़ रहे हैं। बुड्ढा किसी बेटे से एक रुपया माँग रहा है। वह दूसरे और दूसरा तीसरे
की ओर बात धकेल दे रहा है।’
‘एक रुपया?’
‘वही मैं समझ पा रही हूँ।’
‘तुम वहाँ मत रुको। उनका आपसी मामला है। टोक
देंगे तब बुरा लगेगा।’
‘तुम भी कमरे का दरवाजा बंद करो। ये आवाजें बुरी
लग रही हैं।’ पत्नी कमरे में आ गयी और उन्हें अवसर न दे स्वयं ही दरवाजा बंद कर दिया।
प्रतिदिन सुबह छ: बजे के बाद वे कच्छाधारी भूतों
की भाँति कमरों से आंगन में टहलते या एक कमरे से दूसरे में आते-जाते दिखाई देते।
औरत नियम के साथ छत पर साढ़े छ: बजे के लगभग पूजा करने जाती। उस समय वह ब्लाउज और
पेटीकोट में होती और पेटीकोट पर मोटा तौलिया लपेटे होती। जब वह नीचे आती कच्छाघारी
एक-दो रुपयों के लिए लड़ रहे होते। कभी-कभी वह भी लड़ाई में शामिल हो जाती। शोर
सड़क पर बह आता। आते-जाते लोगों के पैर ठिठक जाते, लेकिन अंदर का दृश्य कोई देख नहीं पाता। वह अपने
छज्जे से उस घर के मेन गेट के ऊपर लगे जंगले से आधा-अधूरा देख लेते।
आध घण्टा बाद अंदर का युद्ध थम जाता। औरत भदेश
साड़ी में लिपटी आधा मेन गेट खोल सड़क पर उतरती। उसके कंधे से चमड़े का एक बैग झूल
रहा होता। उस समय वह प्राइमरी की अध्यापिका नजर आती। थी भी शायद। गठिया पीड़ित
महिलाओं की भाँति वह असंतुलित कदमों से ऑटो या बस पकड़ने के लिए जाती, लेकिन सड़क पर
नीचे उतरने से पहले कच्छाधारी पति को ताकीद करती, ‘गेट ठीक से बंद कर लो जी।’
‘जी मैडम।’ पत्नी सीढ़ियां उतर रही होती और उस अधखुले मेन
गेट पर उसका पति उसे विदा करता, ‘ओ.के. डियर... टा-टा... बॉय-बॉय... देख के...
सँभल के... सीढ़ियों से लुढ़क न जाना।’
पत्नी बिजली के खंभे के निकट पहुँच ठिठकती, पीछे मुड़कर
देखती और वहीं से चीखकर कहती, ‘गेट ठीक से बंद कर लो जी।’
औरत के जाने के एक घण्टे के अंदर उसके तीनों
बेटे एक-एक कर निकलते और सड़क पर तेजी से लपक जाते। उस समय यह सोचना कठिन होता कि
कुछ समय पहले वे नंग-धड़ंग कच्छाधारी जीव थे।
घर में बचता पति, जो दस बजे तक उसी परिधान में रहता। कभी वह वाइपर
से आंगन साफ करता दिखता तो कभी कपड़े धोने की आवाज आती। सभी के जाने के एक घण्टा
बाद वह छत में कपड़े फैला रहा होता... लेकिन होता तब भी कच्छे में और नंगे बदन।
छ: बजे के लगभग कुर्ता-पायजामा में वह घर में
ताला बंद करता दिखाई देता।
‘कहीं काम पर जा रहा होगा।’ उन्होंने उस दिन
सोचा था। लेकिन उनका भ्रम टूट गया था। घण्टा-डेढ़ घण्टा बाद वह किसी के साथ किसी
प्रापर्टी के खरीद फरोख्त और अपने कमीशन को लेकर बहस करता घर लौट आया था। उस समय
उसकी आवाज ऊँची थी... एक प्रकार से वह उस व्यक्ति से लड़ रहा था।
कुछ दिन ही बीते थे कि एक दिन उस मकान पर उन्हें
एक बोर्ड लटका दिखा। लिखा था ‘भगीरथी प्रापर्टीज’।
उस दिन वह छज्जे पर खड़े अखबार वाले के आने की
प्रतीक्षा कर रहे थे। सामने वाले घर की औरत सीढ़ियां उतर रही थी और कच्छाधारी उसका
पति उसे विदा कर रहा था कि तभी उसकी उन पर नजर पड़ी।
‘नमस्ते भाई साहब।’ गेट की ओट में अपना कच्छा छुपाता वह बोला।
‘नमस्कार।’ बेमन वह बोले और पलटने लगे, ‘इस आदमी से
संवाद नहीं करना’ सोचते हुए।
‘आप नए आए हैं।’ वह परिचय कर लेने पर तुला हुआ था।
‘जी।’
‘मुझे वर्मा कहते हैं... कंचन कुमार वर्मा।’
‘जी, शुक्रिया।’
‘भगीरथी प्रापर्टीज’... में बैठता हूँ।
मेरा ही ऑफिस है। इसी गली में आखीर में... कभी पधारें...’
‘जी...’ वह फिर पलटने लगे कि वह बोला, ‘कभी कोई सेवा
हो... कोई प्रापर्टी खरीदनी-फरोख्त करनी... आप बेझिझक कहेंगे... दूसरों की अपेक्षा
कम कमीशन लूँगा।’
‘...’
‘मिश्रा जी आपकी बहुत तारीफ करते थे। ‘वह कमरे की ओर
हटे ही थे कि बातचीत का सूत्र न छोड़ते हुए उसने जोड़ा था।
लेकिन बिना उत्तर दिए वह कमरे में आ गए थे।
बड़ा कच्छा अब मोहल्ले में घुलने मिलने लगा था।
महीना भी नहीं बीता कि एक रात घण्टी बजी। वह
प्रथम तल पर रहते थे और भूतल खाली था। खाली इसलिए था क्योंकि उन्हें प्रथम तल में
रहना पसंद था। भूतल की अपेक्षा वहाँ उन्हें खुलापन मिलता, जिसके वह आदी
थे।
उन्होंने छज्जे पर से झाँक कर देखा। वर्मा गेट
से सटा हुआ खड़ा था।
‘यस प्लीज!’ उन्होंने ऊपर से हाँक दी।
‘भाई साहब... एक मिनट...’ वर्मा अपनी औकात
में, केवल कच्छे में... काले रंग के कच्छे में...। ऊपर की ओर मुँह उठाए उन्हें नीचे
बुला रहा था। उन्हें उबकाई आई। बुदबुदाए, ‘शर्म नहीं आती... अपना घर समझा है... जैसा घर मे
रहता है... अड़ोस-पड़ोस में भी वैसा ही घूमता है।’ बुदबुदाते हुए वह सीढ़ियां उतरे।
गेट खोल वह बाहर निकलने लगे, लेकिन वर्मा ने
उन्हें बाहर निकलने का अवसर नहीं दिया। उनके गेट खोलते ही वह बराम्दे में धंस आया।
निपट नंगे बदन वह उनके सामने था। एक बार फिर
उन्हें उबकाई उठी, लेकिन उन्होंने उसे दबा दिया।
‘भाई साहब, आप बुरा नहीं मानेंगे।’ कच्छा हाथ मलता
बराम्दे के अँधेरे में अपने को छुपाने का प्रयत्न कर रहा था। उनका मन हुआ कि वह
मेन गेट पूरी तरह खोल दें और बरामदे की लाइट जला दें जिससे सड़क पर गुजरते लोग
उसकी औकात देख लें।
‘लेकिन अब यह कोई रहस्य नहीं रहा। परिवार ‘कच्छाघर’ के नाम से बस्ती
में विख्यात है। बल्कि जब भी बस्ती का कोई उनसे उनके मकान का भूगोल जानना चाहता और
वह उसे गली, उपगली समझाने लगते, वह व्यक्ति तपाक से बोल पड़ता, ‘तो आप कच्छाघर
वाली गली में रहते हैं?’
उस घर से डॉ. यतीश मिश्र का नाम पूरी तरह
धुल-पुंछ गया था।
‘आप बुरा तो नहीं मानेगें... भाई साहब।’ उनके चुप्पी पर
वह पुन: मिनमिनाया।
‘यह तो आपकी बात पर निर्भर होगा।’
‘सोलह आना पते की बात कही आपने।’ वह हिनहिनाया, ‘बात कुछ ऐसी ही
है... आप बुरा मान सकते हैं... पड़ोसियों को मैं नाराज नहीं देख सकता, लेकिन जो
जानकारी मिली उसे दरियाफ्त करना भी पड़ोसी धर्म मानता हूँ...। आखिर आप मेरे सबसे
निकट पड़ोसी जो हैं।’
‘बात क्या है?’
उनके स्वर मे उससे जल्दी मुक्ति पा लेने का भाव
था।
‘बात... बात... हिं... हिं...। मैं नहीं कह रहा
भाई साहब... मेरे एक परिचित ने कहा... सो पूछने की गुस्ताखी कर रहा हूँ। मेरे मन
में आप और मैंडम के प्रति बहुत आदर है, क्योंकि डॉ. यतीश मिश्र ने...’
‘आप मूल मुद्दे पर आएं मि। वर्मा... बात क्या है?’ उन्होंने स्वयं
अपने स्वर में रूखापन अनुभव किया।
‘कोई कह रहा था कि आप अपना मकान बेच रहे हैं।’
‘किसने कहा?’ उनका स्वर उत्तेजित था।
‘हैं एक मित्र...’
‘कौन है वह... किस आधार पर कहा उसने?’
‘आधर तो पता नहीं... कल ही उसने कहा।’
वह क्षणभर तक अँधेरे में उनकी ओर ताकता रहा।
उन्होंने गेट से बाहर झाँककर देखा। उसका गेट आधा खुला हुआ था और उसके आंगन में तीन
कच्छे टहल रहे थे। उसकी पत्नी पेटीकोट में गेट पर उनके घर की ओर कान लगाए खड़ी थी।
‘उसने आपको गलत सूचना दी...। मैंने बेचने के लिए
मकान नहीं बनवाया जनाब।’
‘वह तो मैं भी जानता हूँ भाई साहब, लेकिन कभी-कभी
ऐसा होता है।’
‘आपका मतलब?’
‘यही कि आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ है।’ उसके स्वर में
ढिठाई स्पष्ट थी, ‘अब डॉ. मिश्र ने भी नहीं सोचा था, लेकिन...’
‘आप कहना क्या चाहते हैं?’ उनका स्वर उग्र
था। वह उसे धक्का देकर गेट से बाहर निकालने के विषय में सोचने लगे, लेकिन कुछ सोचकर
रुक गए।
‘यही कि कुछ महीनों से मैं प्रापर्टी डीलिंग कर
रहा हूँ... आप जब भी कभी वैसा मन बनाएं... मुझे न भूलें। सही ग्राहक और दाम
दिलवाऊंगा और...’
‘आपकी बात खत्म हो गयी?’ उसकी बात बीच
में काट वह ऊंचे स्वर, लगभग चीखते-से बोले।
‘जी भाई साहब...’ उनके भाव समझ कच्छा गेट से बाहर जाने लगा। उसकी
पत्नी अपने गेट पर यथावत खड़ी थी।
‘लगता है आप सच ही बुरा मान गए?’ सड़क पर उतरकर
वह बोला।
उन्होंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। धड़ाम की
आवाज के साथ गेट बंद किया और पैर पटकते बुदबुताते हुए प्रथम तल की सीढ़ियां चढ़ने
लगे।
‘कौन था?’ ऊपर पहुचने पर पत्नी ने अलस भाव से पूछा।
‘तुम सोयी नहीं?’
‘कोशिश कर रही थी... तभी तुम्हारी ऊँची आवाज
सुनाई दी... नीचे आने ही वाली थी... कौन था?’
‘बच्चों से बात हुई?’ उन्होंने बात
टालने की दृष्टि से पूछा।
‘नेटवर्क प्राब्लम है। दोनों के मोबाइल नंबर नहीं
मिल रहे।’
‘मैं कोशिश करके देख लूँगा। तुम सो रहो। ‘
और मोबाइल लेकर वह दरवाजा खोल छत पर चले गए वहाँ
टहलते हुए अपने को प्रकृतिस्थ करने के लिए।
कुछ महीनों में ही वर्मा के पास सुबह सात बजे के
बाद लोगों का आवागमन प्रारंभ हो गया था। बस्ती का तेजी से विस्तार हो रहा था। नए
लोग आ रहे थे, कुछ पुराने जा रहे थे या जिन्होंने कमाई की दृष्टि से अधिक जमीनें ले रखी
थीं... उन्होंने बेचना प्रारंभ कर दिया था।
जब भी वह एक प्लॉट का सौदा करवा देता, कई दिनों तक
उससे मिले कमीशन की चर्चा करता अपने दूसरे ग्राहकों से। पत्नी और बेटों के जाने के
बाद काम करते हुए अब वह ऊँची आवाज में भद्दे फिल्मी गाने गाने लगा था। ग्राहकों के
आने पर भी सुबह दस बजे से पहले तक वह नंगे बदन केवल कच्छे में रहता। ग्राहक उसके
साथ खड़ा-बैठा-टहलता बातें करता रहता और वह अपने कामों में व्यस्त रहता। उसकी ऊँची
आवाज आंगन के जाल और गेट की जीलियों के रास्ते सड़क पारकर उन तक पहुँचती रहतीं।
उस दिन के बाद वह जब भी सामने पड़ता हुलसकर
नमस्ते करता, ‘भाई साहब राम-राम। कैसे हो?’
वह बुदबुदाकर रह जाते। मन नहीं होता उस व्यक्ति
के नमस्ते का उत्तर देने का।
उसे प्रापर्टी डीलिंग के काम में अधिक समय नहीं
बीता था कि एक दिन वह हादसा हो गुजरा था। उन्हें पता भी नहीं चलता यदि लोगों का
शोर उसके दरवाजे न होता। बढ़ती भीड़ देख वह भी अपने को नीचे जाने से रोक नहीं सके।
‘वर्मा जी जल्दी में थे...’ भीड़ में एक
बोला।
‘जल्दी में? ...कहीं जा रहे थ... किसी से टकरा गए थे?’ दूसरा पहले वाले
से पूछ रहा था।
‘जल्दी यानी जल्दी...।’ पहले वाला कुछ
झुंझला उठा। शायद वह ठीक से बात कह नहीं पर रहा था।
‘मतलब ?’
‘अरे यार, करोड़पति बनने की जल्दी में थे। जिस-तिस के घर
का दरवाजा खटखटा देते और मकान मालिक के आने पर बड़े भोलेपन से पूछते कि किसी ने
उन्हे बताया है कि वह अपना मकान बेच रहे हैं।’
‘ओह।’
‘कमीशन का चस्का... लेकिन सभी एक जैसे नहीं होते।
सभी हाथ जोड़कर उन्हें विदा कर देते रहे। एक दिन मेरे घर भी आ पहुँचे थे। मैंने भी
हाथ जोड़ दिए... लेकिन...’ सुनने वाले की उत्सुकता तीव्र हो उठी थी।
‘लेकिन क्या...?’
‘आज शाम को जा पहुँचे चौधरी दिलावर के घर। वह
पीकर टुन्न था। उससे भी वही प्रश्न। अब बताओ... इसे इतनी अकल नहीं कि ये चौधरी
यहाँ के पुराने बाशिन्दा हैं...। ये अपनी जान से अधिक अपनी डयोढ़ी को प्यार करते
हैं।’ सुनने वाला साँस रोके सुन रहा था। भीड़ में से कुछ और लोग भी उसके इर्द-गिर्द
आ इकट्ठा हुए।
‘फिर...?’ बात बीच में ठहरी जान सुनने वाले ने उत्सुकता
प्रकट की।
‘फिर क्या, इसके मुँह से मकान बेचने की बात निकली ही थी कि
चौधरी दिलावर का मजबूत हाथ इसके जबड़े पर पड़ा। सामने के कई दांत टूट गए। मुँह से
खून निकलने लगा, लेकिन दिलावर को रहम नहीं था। इसने उसकी डयोढ़ी के सौदे की बात की थी...
डयोढ़ी यानी उसकी मां। यह इसका दुर्भाग्य था कि न उस समय दिलावर के घर कोई था और न
सड़क पर कोई प्रकट हुआ। उसके एक-एक हाथ पर यह धराशायी होता रहा। वह इसे उठाता -
खड़ा करता फिर ऐसी चोट करता कि यह बिलबिलाकर पसर जाता। यह चीख रहा था, लेकिन वहाँ इसकी
आवाज सुनने वाला कोई नहीं था। थक जाने तक या यूं कहें कि नशा दूर हो जाने तक
दिलावर इसे पीटता रहा। पिटते हुए यह बेहोश हो गया। दिलावर ने इसे कंधे पर लादा और
दो गली छोड़कर कूड़े के ढेर के पास अँधेरे में पटक दिया।’
‘फिर?’ कई अधीर स्वर एक साथ उभरे।
‘किसी परिचित की नजर पड़ी... उसने इसके घर सूचना
दी। इसके बेटे कच्छों में, जैसे कि घर में रहते हैं और पत्नी पेटीकोट में
दौड़े गए। चारपाई पर डालकर उठा लाए।’
तभी भीड़े में हड़बड़ाहट हुई। शोर उठा, ‘पुलिस आ गई...
पुलिस...’ भीड़ इधर -उधर खिसकने लगी। पुलिस की गाड़ी हार्न बजाती कच्छाघर की ओर दौड़ती
हुई आ रही थी।
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