Wednesday, September 28, 2016

जज साहब..उदय प्रकाश की कहानी



जज साहब

नौ साल हो गए, उत्तरी दिल्ली के रोहिणी इलाके में तेरह साल तक रहने के बाद, अपना घर छोड़ कर, वैशाली की इस जज कॉलोनी में आए हुए। यह वैशाली का 'पॉश' इलाका माना जाता है। उत्तर प्रदेश की सरकार ने न्यायाधीशों के लिए यहाँ प्लाट आवंटित किए थे। ऐसे ही एक प्लॉट पर बने एक घर में मैं रहता हूँ।


जिस सड़क पर यह अपार्टमेंट बना है, उसका नाम है - 'न्याय मार्ग'। हालाँकि इस सड़क में जगह-जगह गड्ढे हैं, हर तीन कदम पर यह सड़क उखड़ी-पुखड़ी है और कई जगह से 'वन वे' हो गई है, क्योंकि बिल्डर्स ने सड़क के ऊपर ही रेत, ईंटें, रोड़ी-गिट्टी, सरिया-पाइप के ढेर लगा रखे हैं। नतीजा यह कि हर रोज यहाँ 'वन वे' की वजह से एक्सीडेंट होते रहते हैं और कोई कार्रवाई इसलिए नहीं होती कि बिल्डर्स और ठेकेदारों के पास बहुत रुपया और ऊपर तक पहुँच है।

इसी कॉलोनी में रहनेवाले एक रिटायर्ड न्यायाधीश का पोता इसी 'वन वे' पर एक डंपर के नीचे आ गया था और तीन महीने तक अस्पताल में रहने के बाद उसकी मौत हो गई थी।

लेकिन वे बिल्डिंगें अभी भी बन रही हैं। डंपर और ट्रक अभी भी चल रहे हैं। वैशाली का 'न्याय मार्ग' अभी भी गड्ढों-हादसों से भरा हुआ 'वन वे' है।

वी.आई.पी. जज कॉलोनी बहुत तेजी से 'डेवलप' होती कॉलोनी है। नौ साल पहले जब मैं यहाँ आया था तो दो किलोमीटर की दूरी तक सिर्फ दो शॉपिंग माल थे। अब इक्कीस बड़े-बड़े बहुमंजिला माल, दो इंटरनेशनल फाइव स्टार होटल और शेवरले से लेकर ह्युंडेई और सुजुकी कार कंपनियों के जगमगाते शो रूम हैं, हल्दीराम, मक्डॉनल्ड्स, डोमिनोज पिज्जा, कैंटुकी फ्राइड चिकन, बीकानेर वाला जैसी सैकड़ों खाने-पीने की जगहें हैं। रेस्टोरेंट और बार तो हर कदम पर हैं।

अपने साठ साल के जीवन में मैंने इतना पीने-खाने वाला समय पहले कभी नहीं देखा।

नौ साल पहले जब मैं यहाँ आया था, तब यहाँ जंगल और खेत हुआ करते थे। सरसों और गेहूँ-बासमती के खेत। कभी यह सरसों के पीले फूलों के रंग और बासमती धान की खुशबू से भरा इलाका था। मोहल्लों में रहनेवाले रुई धुनकनेवाले धुनकिए, गोबर के उपले पाथती औरतें, लोहे की कड़ाहियाँ, चिमटे, खुरपी बनानेवाले लोहार और उनकी कोयले की आग से सुलगती धौंकनियाँ, सबेरे-सबेरे सुअर का शिकार करनेवाले लोगों के जत्थे, खुले में दिशा-फराकत करती हुई गरीब औरतें चारों ओर थीं। सुबह मैं जल्दी अपनी बालकनी में इसलिए नहीं निकलता था क्योंकि सामने के खाली पड़े मैदान में औरतें और पुरुष, सुअरों के साथ उसी मैदान में नित्यक्रिया करते आँखों के सामने आते थे। पास में ही, नहर के किनारे-किनारे उगी झाड़ियों से लगी सुनसान जगहें यहाँ 'एनकाउंटर ग्राउंड' हुआ करती थीं, जहाँ 'अपराधियों' को पकड़ कर रात में पुलिस गोली मारती थी और अगली सुबह अखबार में डाकुओं या आतंकवादियों के साथ हुई पुलिस की साहसिक मुठभेड़ की खबरें छपा करतीं थीं।

लेकिन अब तो इन बीते नौ वर्षों में सब कुछ बदल गया है। जैसे किसी लंबी फिल्म का कोई बिल्कुल दूसरा शॉट परदे पर अचानक आ गया हो।

इस कॉलोनी में बहुत से न्यायाधीश रहते हैं। कुछ रिटायर्ड और कुछ अभी भी अलग-अलग अदालतों में न्याय देने की अपनी-अपनी नौकरियाँ करते हुए।

बगल में ही एक पार्क है। सुंदर-सा। सुबह-सुबह जब कभी वहाँ घूमने जाता हूँ, तो हर सुबह कई जजों से मुलाकात होती है। इनमें से जो बूढ़े हो चुके हैं, वे अधिक देर और दूर तक चल नहीं पाते या फिर धीरे-धीरे छड़ी के सहारे चलते हैं। एक-दो के साथ उनका कोई सहायक भी होता है, उन्हें गिरने से बचाने के लिए या अचानक दिल का दौरा पड़ने या साँस रुक जाने पर तुरंत उन्हें अस्पताल पहुँचाने के लिए। ये जज अब अपनी कोठियों में अकेले रहते हैं। कुछ अपनी पत्नियों के साथ और कुछ बिल्कुल अकेले। उनके बच्चे बड़े होकर दूसरे शहरों या देशों में चले गए हैं, जो साल-दो साल में कभी-कभार कुछ दिनों की छुट्टियों में यहाँ आगरा, शिमला, नैनीताल, दार्जीलिंग वगैरह घूमने आते हैं। एक अकेले रह गए बूढ़े जज का कहना है कि पता नहीं उनकी अमेरिकी बहू और उनके बेटे को इंडियन चिड़ियों का इतना क्रेज क्यों है कि जब भी दो-चार साल में वे आते हैं तो दो-चार दिन उनके साथ रह कर भरतपुर और राजस्थान की बर्ड्स सैंक्चुअरी देखने निकल जाते हैं। वे धीरे से कहते हैं, 'पता नहीं क्या ऐसा है इन चिड़ियों में कि मैं अपनी जिंदगी, नौकरी, न्याय और अदालत से ऊब गया, लेकिन वे लोग चिड़ियों से नहीं ऊबे।' इसके बाद एक लंबी उदास साँस भर कर वे कहते हैं, 'मुझे अच्छी तरह से पता है कि मेरा बेटा और उसकी फैमिली मुझे नहीं, इंडिया में चिड़िया और पुरानी इमारतें देखने आती है।'

इन बूढ़े जजों का इस तरह चलना देख कर लगता है जैसे उनका पूरा शरीर अतीत की असंख्य स्मृतियों के वजन से लदा हुआ है और यह उनका बुढ़ापा नहीं, स्मृतियों का भार ही है, जिसे वे सँभाल नहीं पा रहे हैं और किसी कदर ढो रहे हैं। मैंने देखा है, अक्सर वे बहुत जल्दी थककर पार्क में बनी किसी बेंच पर बैठ जाते हैं। वहाँ भी उनका माथा किसी बोझ से नीचे की ओर गिरता हुआ दिखता है।

बहुत भार होगा जरूर गहरी लकीरों से भरे उनके बहुत पुराने माथे के ऊपर। उनके भीतर की 'हार्डडिस्क' भर चुकी होगी।

क्या वे अपने पिछले दिनों में किए गए किसी फैसले के बारे में इस समय दुबारा सोच रहे होते हैं? पछतावे से भरे हुए।

कई बार उनकी मिचमिचाती बूढ़ी हो चुकी आँखों से आँसू की कुछ बूँदें लकीर बनाती हुई उनका चेहरा भिगा देती हैं। वे जेब में रखा हुआ कोई बहुत पुराना, मटमैला हो चुका रूमाल निकाल कर झुर्रियों से भरा अपना चेहरा और चश्मा धीरे-धीरे पोंछते हैं।

लेकिन जो न्यायाधीश अभी भी उतने जर्जर और बूढ़े नहीं हुए हैं, वे पार्क में अपने जॉगिंग सूट और स्पोर्ट्स शू के साथ तेज कदमों से टहलते हैं। वे किसी न किसी जल्दबाजी में हैं। उन्हें शायद कोई फैसला सुनाना है। कोई न कोई मामला उनकी अदालत में विचाराधीन है और उसकी गुत्थियाँ वे अपने टहलने की बेचैन रफ्तार में सुलझा रहे होते हैं।

इन सभी जजों के पास बहुत से किस्से हैं। सैकड़ों-हजारों। अनंत। सच और झूठ के उलझे हुए ऐसे मामले, जिनके बारे में अपने दिए गए फैसलों को लेकर उन्हें अभी भी असमंजस है। अगर मैं आपको उन सारे किस्सों को अलग-अलग सुनाना शुरू करूँ तो एक तो कोई ऐसा उपन्यास बन जाएगा, जिसे पढ़ने के बाद आपका विश्वास सच, झूठ, न्याय, अन्याय सबसे उठ जाएगा।

मेरा तो उठ चुका है इसीलिए दरगाहों, जंगलों, बच्चों और मंदिरों में ज्यादा समय बिताता हूँ। न्यायाधीश मुझे असहाय और न्यायालय एक खास तरह का रोजगार और वेतन देनेवाले किसी बहुत पुराने माल या स्मारक जैसे लगते हैं।

ओह! लेकिन मैं किस्सा तो जज सा'ब का सुनाने जा रहा था, जिनका हमारी जज कॉलोनी में तो अपार्टमेंट ही नहीं था। वे कहीं दूसरी जगह, किसी दूसरे सेक्टर में रहते थे, लेकिन नौ साल पहले जब मैं यहाँ आया था, तब से उनसे मुलाकात होती रहती थी। उनका असली, औपचारिक नाम जो भी रहा हो, सब लोग उन्हें 'जज सा'' ही कहते हैं।

उनसे मेरी मुलाकात हमेशा सुनील यादव की पान की दुकान पर होती थी। पान और खैनी, ये दो ऐसी चीजें थी जिनकी लत हमें एक-दूसरे से जोड़ती थी।

इसके अलावा एक एडिक्शन या लत और थी। (उसके बारे में मैं कहानी के बिल्कुल अंत में बताऊँगा। ...और यह कहानी, जिसका 'डिस्क्लेमर' मैं यहीं रख देना जरूरी समझता हूँ कि इसका संबंध किसी वास्तविक व्यक्ति, स्थान या समय से नहीं है। अगर ऐसा पाया जाता है, तो वह फकत संयोग है और इस पर कोई मुकदमा उन्हीं 'जज सा'' की अदालत में चलेगा, जहाँ वे उस समय नियुक्त होंगे।)

तो, अब असली किस्से पर आएँ। यह बहुत छोटा-सा और कुछ-कुछ सेंसेशनल जैसा है।

हर सुबह ठीक नौ बजे, जज सा'ब सुनील की पान की दुकान पर मिलते थे। हमेशा ताजगी से भरे और मुस्कुराते हुए। पचास के कुछ पार रही होगी उनकी उम्र, लेकिन चश्मा नहीं लगाते थे।

'नमस्कार ! कैसे हैं सर जी ?' यह उनका पहला वाक्य होता था। 'मैं ठीक हूँ, जज सा'ब। आप कैसे हैं ?' यह हमेशा मेरा पहला जवाब होता था। 'मैं वैसा ही हूँ, राइटर जी, जैसा कल था।' यह भी उनका हर बार का उत्तर था।

'हम सब भी वैसे ही हैं, जैसे कल थे !' मेरे यह कहने पर जज सा'ब ही नहीं, सुनील की दुकान पर खड़े सारे लोग हँसने लगते थे। यह भी हर बार का उत्तर था और सब का हँसना भी हर बार का हँसना था।

यह सच था। चारों ओर सब कुछ तेजी से बदल रहा था, लेकिन हम सब, कल या परसों या और उसके पहले के दिनों जैसे ही थे। लगभग ज्यों के त्यों।

सुनील पानवाले की दुकान में हम सब के हर रोज इकट्ठा होने की वजह भी यही थी कि सुनील भी हर रोज पिछले रोज की तरह ही होता था। उसकी पत्नी को क्रोनिक दमा था और एलोपैथी, आयुर्वेद से लेकर जादू-टोना और जड़ी-बूटियों तक का सहारा वह ले रहा था। पाँच बच्चे थे जिनमें से तीन स्कूल जाते थे। दो लड़कियाँ, तीन लड़के। हर रोज वह स्कूल को गालियाँ देता था जो किताब-कापियों के अलावा, जूते, मोजे, बस्ता-वर्दी किसी खास तरह की, किसी खास ब्रांड और क्वालिटी की माँग करता था और अगर वह अपने बच्चों को यह सब जल्दी, किसी एक खास नियत तारीख तक खरीद कर नहीं दे पाता था, तो बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। इस डर से क्योंकि वहाँ की मैडम उन्हें क्लास से भगा देती थी। वह उस बस को भी गालियाँ देता था जो उसके बच्चों को स्कूल ले जाती थी और हर दूसरे-तीसरे महीने उसका किराया बढ़ जाता था। वह सरकार और पेट्रोल कंपनियों को गालियाँ देता था जिनकी वजह से हर महीने पेट्रोल के दाम बढ़ जाते थे, जिससे उसकी पुरानी मोटर साइकिल का खर्च बढ़ जाता था। वह अपने बच्चों और पत्नी को गालियाँ देता था जिनकी वजह से वह दिन-रात खटता रहता था और कभी अपने पहनने के लिए ठीक कपड़ा और पीने के लिए दारू का पउआ नहीं खरीद पाता था। वह पुलिस और म्युनिसपैलिटी को गालियाँ देता था, जो उसके पान के खोखे को हफ्ता-वसूली के बाद भी, महीने-दो महीने में हटा देते थे और फिर उसे अदालत में जाकर जुर्माना भरना पड़ता था।

लेकिन उसने अपने साठ साल के पिता की बीमारी में सत्तर हजार खर्च कर के और उनकी दिन-रात सेवा करके, उनके स्पाइनल के रोग को ठीक करा डाला था और वे फिर से चलने फिरने लगे थे। लेकिन अब वह अपने पिता जी को भी माँ-बहन की गालियाँ देता था क्योंकि उन्होंने गाँव में जो जमीन बेची थी, उसमें उसको एक पैसा नहीं दिया था और सारी जायदाद उसके निकम्मे, गँजेड़ी भाई के नाम कर दी थी, जो बड़ी चालू चीज था।

सुनील यादव पानवाले की भाषा में इतनी अधिक गालियाँ थीं कि मैं अचंभे में आ जाता था। लेकिन अफसोस यह होता था कि ऐसी भाषा में राजभाषा 'हिंदी' का कोई साहित्य नहीं रचा जा सकता था। 'हिंदी' के शब्दकोशों और शब्द-सागरों में सुनील पनवाड़ी की भाषा के शब्द नहीं थे।

उसकी गालियाँ सुन कर हम सब हँसते थे क्योंकि हम सब अपनी-अपनी गालियों को अपनी-अपनी हँसी में हुनर के साथ छुपाते थे।

जज सा'ब तो सबसे ज्यादा हँसते थे। ठहाका लगा कर। कई बार, जब उनका मुँह पान से भरा रहता था और सुनील गालियाँ देने लगता था, जिसे सुन कर सब हँसते थे और जज सा'ब ठहाका मारते थे, तो पान की पीक उनके कपड़ों पर गिर जाती थी और तब वे भी बहुत गाली देते थे और फिर सुनील से चूना माँग कर पान की पीक के ऊपर रगड़ते थे क्योंकि इससे दाग छूट जाता था।

ऐसा ही कोई दिन था, जब वे अपनी सफेद शर्ट के ऊपर पड़ी पान की पीक के दाग के ऊपर चूना रगड़ रहे थे, और तब पहली बार मैंने अचानक पाया कि पिछले दस महीने से हर रोज, हर सुबह वे हमेशा वही एक सूट पहन कर वहाँ आते थे। शायद उनके पास कोई दूसरा सूट या कोट पैंट नहीं था।

सुबह वे इस तरह तैयार हो कर आते थे जैसे किसी कोर्ट में जानेवाले हों और अभी कुछ ही देर में कोई चार्टर्ड बस आएगी और उसमें बैठ कर वे चले जाएँगे।

लेकिन जज सा'ब हमेशा पैदल ही लौट जाते थे। सुनील ने बताया कि वे अभी इंतजार कर रहे हैं। पिछली बार जब वे जज थे तो उनकी मियाद बढ़ाई नहीं गई। जिस मंत्री की सिफारिश पर वे किसी अदालत में जज बने थे, वह मंत्री किसी बलात्कार के केस में जेल जा चुका है और अभी तक वे कोई नया कांटेक्ट नहीं बना पाए हैं, जो उन्हें दुबारा जज बना दे।

उस दिन के बाद से मुझे उनसे सहानुभूति होने लगी थी और कई बार मैं उन्हें पास के ही पंडिज्जी के ढाबे में चाय पिलाने लगा था।

एक दिन वे सुबह नहीं, शाम तीन बजे सुनील की दुकान पर बहुत परेशानी की हालत में मिले। उन्होंने बताया कि उनका बेटा घर से भाग गया है और कहीं मिल नहीं रहा है। दो दिन से वे उसे खोज रहे हैं। थाने में भी उन्होंने गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाई है लेकिन ऐसा लगता है कि पुलिसवाले उनके सात साल के बेटे को जिंदा खोजने के बजाय कहीं उसकी लाश की इत्तिला पाने के इंतजार में हैं। यही अक्सर होता था। गुमशुदा बच्चे मुश्किल से ही दुबारा कभी मिलते थे। अक्सर उनकी लाश ही मिला करती थी।

गनीमत थी कि उस समय तक गैस आ चुकी थी और मेरी कार सीएनजी से चलने लगी थी। मैं भी चिंतित हुआ और जज सा'ब के बेटे को खोजने के लिए, उनके साथ वैशाली के सारे इलाकों में, उसकी जानी-अनजानी सड़कों, गलियों, मोहल्लों-बस्तियों में निकल पड़ा।

जज सा'ब कृतज्ञ थे और बार-बार उनकी आँखों में आँसू छलक आते थे। वे भावुकता में कभी मेरा हाथ थाम लेते थे, कभी कंधों पर झूल जाते थे। उन्होंने बताया कि पार्थिव को उन्होंने डाँटा था क्योंकि वह पढ़ने के बजाय क्रिकेट का ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच देख रहा था, जबकि सुबह उसका इम्तहान था। उन्होंने टीवी बंद कर दिया था, ठीक उस समय, जब डेल्ही डेयर डेविल्स को राजस्थान रॉयल्स से जीतने के लिए आखिरी चार ओवरों में पैंतीस रन बनाने थे और सुरेश रैना चौके छक्के लगा रहा था।

सुबह पार्थिव स्कूल के लिए निकला था और तब से लौट कर नहीं आया था। स्कूल से पता चला कि वह इम्तहान में भी नहीं बैठा था।

तो वह कहाँ गया ?

हम तीन घंटे से उसे हर जगह खोज रहे थे। कोई कोना नहीं छोड़ रहे थे। तकरीबन छह बज चुके थे और डर था कि अगर अँधेरा हो गया तो आज का एक दिन और व्यर्थ चला जाएगा। दूसरी बात यह थी कि जज सा'ब अपने घर में अपने बेटे के साथ अकेले ही इन दिनों रह रहे थे क्योंकि उनकी पत्नी उनके घर, झाँसी जा चुकी थी। वे दो वजहों से यहाँ रुके हुए थे। एक तो बेटे पार्थिव की पढ़ाई और परीक्षा और दूसरे, उन्हें पिछले दस महीने से हर रोज, हर सुबह, यह उम्मीद लगी रहती थी कि शायद आज उनका काम कहीं बन जाए और वे दुबारा किसी जगह, लेबर कोर्ट ही सही, जज बन जाएँ। हर सुबह वे अखबार में राशिफल देख कर निकलते थे। मंत्रों का जाप करते थे।

शनिदेव के मंदिर में तेल और सिक्के चढ़ाते थे। लेकिन हर रोज हर रोज जैसा ही होता था।

अब तक कार से और पैदल चलकर हमने सारी समझ में आ सकने वाली जगहें खोज डाली थीं। हर जगह निराशा। वैशाली के चप्पे-चप्पे से हारी हुई चार खाली सूनी आँखें। अनगिनत लोगों से पार्थिव का हुलिया, उम्र, नाक-नक्श बता कर पूछे गए सवालों के जवाबों से हताशा।

और तब, जब लगने लगा कि अँधेरा अब बढ़ जाएगा और रात उतर आएगी, तब मुझे एक डरावना खयाल आया। नहर के किनारे-किनारे उगी झाड़ियों में पार्थिव की खोज। जीवित न सही, जीवन के बाद का शरीर।

लेकिन समस्या यह थी कि मैं यह जज सा'ब से कहता कैसे? इसलिए, बिना उन्हें बताए मैं कार नहर की ओर ले गया। यह हमारी आज की आखिरी कोशिश थी।

और वहाँ, जहाँ सरकारी जमीनों पर तमाम देवी देवताओं के मंदिर अनधिकृत ढंग से बने हुए थे, जिस जगह पर वैशाली की हरित पट्टी घोषित थी और जो अब 'मंदिर मार्ग' में बदल चुकी थी और जहाँ पहले पुलिस का 'एनकाउंटर ग्राउंड' हुआ करता था, वहीं नहर के किनारे की एक छोटी-सी खाली जगह में कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे।

जज सा'ब अचानक चीख पड़े, 'राइटर जी, वो रहा पार्थिव!'

मैंने कार में ब्रेक लगाया। उसे सड़क के किनारे खड़ा किया और तेजी से भागते हुए जज सा'ब के साथ दौड़ पड़ा।

जज सा'ब अपने सात साल के बेटे पार्थिव के सामने खड़े थे, उसे अपनी ओर खींच रहे थे, उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे लेकिन पार्थिव उनकी पकड़ से छूटने के लिए छटपटा रहा था।

उसके साथ खेलनेवाले सारे बच्चे सहमे हुए चुपचाप जज सा'ब और पार्थिव की पकड़ा-धकड़ी देख रहे थे। मैं पाँच कदम दूर खड़ा देख रहा था। तभी अचानक सारे बच्चों ने चिल्लाना शुरू कर दिया।

बच्चे डर गए थे। उन्हें लगा था कि पार्थिव का अपहरण हो रहा है। वे चीख रहे थे और कुछ ने जज सा'ब को ढेले मारना शुरू कर दिया था। एक लगभग नौ साल का बच्चा दौड़ता हुआ आया और उसने क्रिकेट के बैट से जज सा'ब को मारा। निशाना सिर का था, उधर जिधर दिमाग हुआ करता है लेकिन ठीक उसी पल जज सा'ब झुके और बैट उनकी पीठ पर लगा।

शोर सुन कर आसपास लोग इकट्ठा होने लगे थे। मंदिर के कुछ पुजारी और साधु-भिखारी भी आ गए थे।

पार्थिव चिल्ला रहा था, 'मुझे इस आदमी से बचाओ! प्लीज ...प्लीज ...हेल्प मी!'

शायद किसी ने फोन किया होगा क्योंकि हमेशा देर से पहुँचने के लिए बदनाम पुलिस की पी.सी.आर. वैन सायरन बजाती हुई वहाँ उस रोज ठीक वक्त पर पहुँच गई।

पार्थिव बार-बार कह रहा था। 'मैं इन अंकल को नहीं जानता' और जज सा'ब रोते हुए, उसे अपनी ओर खींचते हुए बार-बार लोगों की भीड़ और पुलिस को समझाते हुए कह रहे थे कि 'ये पार्थिव है। मेरा बेटा।'

पुलिस के साथ, मैं और जज सा'ब थाने गए और फिर वहाँ से पार्थिव को घर ले जाया गया।

मैं भीतर से हिल गया था।

इसके बाद, अगली सुबह से जज सा'ब मुझे सुनील पानवाले की दुकान पर नहीं दिखे। आज तक वे नहीं दिख रहे हैं।

अब वे कभी नहीं दिखेंगे।

सोचता हूँ काश यह इस किस्से का अंत होता। इसी असमंजस जगह पर आकर कहानी खत्म हो गई होती।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जज सा'ब की कहानी अभी बाकी है, जिसके बारे में पहले ही यह डिस्क्लेमर लगा हुआ है कि इसका किसी जिंदा या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। यह पूरी तरह काल्पनिक जगहों और पात्रों पर आधारित कथा है। और इसे पढ़ने से कोई कर्क रोग नहीं हो सकता।

यह संयोग ही था कि तीन दिन बाद मुझे विदेश जाना पड़ गया। पूरे तीन महीने के लिए और जब मैं वहाँ से लौट कर आया तो सुनील की दुकान उस जगह पर नहीं थी। उसके खोखे को वहाँ से म्युनिसपैलिटी वालों ने हटा दिया था। उस जगह एल.पी.जी. का पाइप डालने के लिए गड्ढे खोद दिए गए थे और बाहर कँटीले तारों की फेंसिंग तान दी गई थी। सड़क के पार जो एक लंबा-चौड़ा प्लाट खाली पड़ा था, और जहाँ कॉलोनी का कूड़ा-कचरा फेंका जाता था, जहाँ लावारिस गायें, सड़क के कुत्ते, सुअर और कौओं की भीड़ जुटी रहती थी, वहाँ 'शुभ-स्वागतम बैंक्वेट हाल' का बड़ा-सा बैनर लग गया था।

जज सा'ब के बारे में मेरी स्मृति कुछ धुँधली होने लगी थी। इतने दिनों तक दूसरे देश के दूसरे शहरों की यात्राएँ और बिल्कुल दूसरी तरह की जिंदगी। फिर यह भी एक संयोग ही था कि मुश्किल से पाँच दिनों के बाद मुझे अपने गाँव जाना पड़ गया।

तीन महीने बाद मैं वापस लौटा और लौटने के एक हफ्ते बाद फिर से मुझे सुनील पानवाले की याद आई। याद आने की दो वजहें थीं, एक तो मेरे भीतर यह जानने की उत्सुकता थी कि उसकी पत्नी की तबीयत कैसी है और बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है। दूसरी वजह ज्यादा महत्वपूर्ण और निर्णायक थी। वह यह कि मुझे किसी दूसरे पनवाड़ी के हाथ का लगाया पान खाने में वह स्वाद ही नहीं मिल रहा था जो सुनील यादव के हाथ के पान का था।

पान खिलाने के पहले सुनील दुकान के नीचे रखी बोतल से पहले पानी पिलाता था। 'ल्यौ, पहले कुल्ला करके बिरादरी का पानी पियो फिर पान खाओ' और फिर शुरू होती थीं उसकी धुआँधार गालियाँ।

वह भाषा मुझे सम्मोहित करती थी और मैं हमेशा सोचता रहता था कि कैसे इन गालियों को राष्ट्र-राज नव-संस्कृत भाषा 'हिंदी' के शब्दकोश और उसके साहित्य में सम्मिलित करूँ। यह एक विकट-गजब की बेचैनी थी, जिससे मैं पिछले तीन दशकों से गुजर रहा था। जब भी कभी मैं ऐसी कोई कोशिश करता और अपनी किसी कहानी या कविता में, सतह के ऊपर के वाक्यों में या उनके भीतर के तहखानों में छुपे अर्थों में किसी गाली का प्रयोग करता, मुझ पर हमले शुरू हो जाते। हाथ आए काम छीन लिए जाते। अफवाहें फैला दी जातीं और मैं फिर सही समय का इंतजार करने लगता।

उस समय और उस मौके का इंतजार जब मैं खुल कर इन गालियों को अपनी रचनाओं में, एड़ी से चोटी तक बेतहाशा इस्तेमाल कर सकूँ।

यही वह कारण था कि मैंने फिर से सुनील का नया ठिकाना खोज निकाला और उसके पास जा पहुँचा। वह अब सेक्टर तेरह में जा चुका था और म्युनिसपैलिटी तथा पुलिसवालों को कुछ घूस-घास देकर उसने पटरी पर इस नई जगह का जुगाड़ कर लिया था।

मुझे इतने समय के बाद देख कर वह बहुत खुश हुआ। मैंने उसकी बोतल का पानी पीकर कुल्ला किया। उसके हाथ का लगाया हुआ पान खाया। हमारा मजमा फिर जुड़ा। सब पहले की तरह ही थे। कुछ भी नहीं बदला था। सुनील की पत्नी को अब भी दमा था। उसे ठीक करने के लिए सुनील अब भी एलोपैथी, आयुर्वेद, जड़ी-बूटी, झाड़-फूँक, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र का सहारा ले रहा था। उसके बच्चे अब भी स्कूल जा रहे थे। वह अब भी उसी तरह स्कूल, बस, पेट्रोल कंपनियों, सरकार, पुलिस सबको गालियाँ दे रहा था। इसी बीच कोई चुनाव हुआ था, जिसमें उसने अपनी जात के एक उम्मीदवार को वोट दिया था लेकिन अब उसे भी गालियाँ दे रहा था कि दुकान के लिए जब पटरी के 'लाइसेंस' की सिफारिश के लिए वह गया तो उस नेता के पीए ने उससे बीस हजार की घूस माँगी। वह गालियाँ देते हुए कसम खा रहा था कि अब आइंदा वह अपने किसी जात-बिरादरी के नेता को वोट नहीं देगा। सब साले चुनाव जीत कर चोट्टे हो जाते हैं।

उसकी गालियों पर हम सब अपने-अपने भीतर की गालियाँ, अपने-अपने हुनर से छुपा कर हँसते थे।

और तभी एक सुबह, जब सब हँस रहे थे मुझे जज सा'ब की अचानक याद आई। उनकी याद आने की वजह थी सुनील की गालियाँ सुन कर उनके ठहाके के साथ उनकी शर्ट पर पड़ने वाली पीक के लाल धब्बे और उस पर उनका चूना रगड़ना।

फिर मुझे उस रोज उनके गुमशुदा बेटे पार्थिव और उसे खोज निकालने की घटना की याद आई। और तब मैंने सुनील से जज सा'ब के बारे में पूछा।

सुनील ने जो बताया, वही इस किस्से का आखिरी हिस्सा है।

मेरे विदेश चले जाने के बाद, यानी पार्थिव की बरामदगी के लगभग छह-सात दिनों के बाद, एक सुबह जज सा'ब सुनील के पास अपना वही पुराना सूट पहन कर आए थे और उन्होंने उससे कहा था कि अब उनकी जजवाली नौकरी फिर बहाल होने वाली है, जिसके लिए उन्हें कुछ रुपयों का इंतजाम करने झाँसी जाना है। वे बहुत खुश थे और उन्होंने कहा था कि दस-पंद्रह दिनों में वे झाँसी से रुपयों का इंतजाम करके लौट आएँगे।

उन्होंने सुनील पानवाले से छह हजार रुपये उधार माँगे थे।

सुनील के पास रुपये नहीं थे तो उसने कहीं किसी कमेटी से उठा कर, महीने भर के ब्याज की शर्त पर रुपये लेकर उन्हें छह हजार रुपये दिए थे।

जज सा'ब पंद्रह दिन तो क्या ढाई महीने तक नहीं लौटे थे। कमेटी वाला हर रोज ब्याज बढ़ाता जा रहा था और अब सुनील की गालियाँ जज सा'ब के लिए निकलने लगी थीं। जज सा'ब उसे अपना मोबाइल नंबर और झाँसी के घर का पता लिख कर दे गए थे। लेकिन सुनील जब-जब उस मोबाइल नंबर पर फोन करता, उसका 'स्विच ऑफ' मिलता।

जज सा'ब भी चोट्टा था, साला। पनवाड़ी को ही चूना लगा गया। वह कहता, तो सारे लोग उसी तरह हँसते। अपने-अपने हुनर के भीतर अपनी-अपनी गालियों को छुपाते हुए।

फिर ब्याज पर ब्याज की राशि जब ज्यादा बढ़ गई और कमेटीवाले ने थाने में शिकायत कर दी और पुलिसवाले आकर उसका खोखा उठा कर थाने ले गए तो जज सा'ब की खोज में सुनील झाँसी गया।

झाँसी में जज सा'ब का घर खोजने में सुनील को आठ घंटे लग गए। बीच-बीच में उसे लोगों ने भी बताया कि यह पता शायद नकली है, जिसे सुन कर सुनील एकाध बार झाँसी जैसे अनजान शहर में, जहाँ वह पहली बार ही गया था, रोया भी था और वहाँ भी उसने अकेले में भरपूर गालियाँ आँसुओं के साथ दी थीं।

झाँसी में वैशाली का मजमा नहीं था, जो हँसता।

आखिरकार शहर से सात किलोमीटर दूर वह मोहल्ला मिला और वह घर, जिसका नंबर जज सा'ब ने सुनील को अपने पुराने लेटरहेड पर लिख कर दिया था। वह लेटरहेड पुराना था। उस समय का, जब वे जज हुआ करते थे। उस पर तीन मुँहवाले शेर का छापा ऊपर लगा था।

लेकिन उस घर में ताला लटका हुआ था। सीलबंद, सरकारी ताला।

सुनील के होश उड़ गए।

बहुत मुश्किल से एक पड़ोसी ने जो बताया, वह कुछ बहुत ही मामूली से वाक्यों के भीतर था। उसे बताते हुए पड़ोसी का चेहरा लकड़ी जैसा सपाट था। जैसे वह किसी कठपुतले का चेहरा हो।

'यहाँ रहनेवाले ने फेमिली के साथ सुसाइड कर लिया। दो महीने पहले। पुलिस ताला लगा गई है। अभी तक यहाँ उसका कोई रिश्तेदार नहीं आया।'

सुनील पहले तो स्तब्ध हुआ, फिर रोया और फिर उसने खूब गालियाँ बकीं, जिन्हें सुन कर उस सपाट चेहरेवाले कठपुतले को भी खूब हँसी आई, जिसे उसने अपने किसी हुनर के भीतर नहीं छुपाया।

सुनील ने अपने गाँव जा कर अपने पिता जी, जिनके स्पाइनल के इलाज में उसने सत्तर हजार खर्च किए थे और जिनकी उसने आठ महीने दिन रात सेवा की थी, उनसे ड्योढ़े ब्याज की दर पर दस हजार का कर्ज, रोटरी के स्टैंपवाले कागज पर हलफनामा लिख कर उठाया। उसमें से उसने साढ़े सात हजार कमेटीवाले को और दो हजार पुलिस और म्युनिसपैलिटीवाले को दे कर अपना खोखा फिर से पटरी पर लगाया।

यह बात बता कर सुनील ने फिर से अपनी गालियाँ शुरू कीं, जिन्हें सुन कर मैं हँसा और हमारे मजमे के सारे लोग हँसे लेकिन इस बार पान की पीक मेरी शर्ट पर गिरी और मैं सुनील से माँग कर वहाँ चूना रगड़ने लगा, जिससे वहाँ पीक के धब्बे न रहें।

अचानक मैंने देखा कि मेरी शर्ट भी, जिसे मैंने पहन रखा है, वह लगभग अट्ठाइस साल पुरानी है।

आपको याद होगा कि मैंने अपने और जज सा'ब की दो एडिक्शंस या लतों के बारे में बताया था, जिसकी वजह से हम एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। एक पान और दूसरी खैनी। और तब मैंने कहा था कि अपनी और उनकी तीसरी लत के बारे में मैं कहानी के बिल्कुल अंत में बताऊँगा।

तो वह तीसरी लत या एडिक्शन थी जिंदगी।

हर हाल में जिंदा रहे आने की लत।

सुनील, वहाँ इकट्ठे होते लोग, सारा मजमा इसी 'एडिक्शन' का शिकार था, लेकिन जिस लत के कारण कोई कर्क रोग नहीं होता। यह खैनी-सिगरेट-गुटके की तरह जानलेवा नहीं है।   

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