खतरा
बंबे (नहर) के
पुल से उतरते ही पगडंडी पर आ गया। परिचित टेढ़ी-मेढ़ी, केंचुल चढ़ी सर्पिणी-सी, रज्जू पासी के बाग और राजाराम,गुलाब सिंह के खेतों की मेड़ों से गुजरती वह पगडंडी गड़हा
नाला पार कर हिरनगाँव स्टेशन तक जाती थी। स्टेशन बंबे से बमुश्किल एक मील था।
पगडंडी पर उतरने
से पहले कुछ देर पुल पर खड़ा सोचता रहा था, ‘पगडंडी से जाना ठीक होगा या सड़क के रास्ते।’ खतरा दोनो ही ओर हो सकता था। ‘वह’ कब कहाँ टकरा जाए, कहना कठिन था।
पुल के नीचे बंबा जहाँ विराम लेता था, तीन आदमी फावड़ों से कुचिला मिट्टी इकट्ठा कर रहे थे। पगडंडी से कुछ हटकर
बैलगाड़ी खड़ी थी। नहर में पानी नहीं था और सड़ी मछलियों और कूड़े की गंध से नथुने
फटने लगे थे। सोचा, उन लोगों से पूछ
लेना चाहिए... कोई गया तो नहीं पगडंडी के रास्ते, लेकिन मैं अपने को कमजोर नहीं दिखाना चाहता था। चुप रहा।
रज्जू के बाग के
पास पतली नाली थी, जिससे बहकर बंबे
का पानी पांडु नदी में जाता था। नाली के दोनों ओर शीशम के पेड़ थे। पेड़ों के तनों
से सटी झाड़ियों के झुरमुट थे। बाग के बीच खिरनी का बूढ़ा पेड़ था। बचपन में उसकी
पीली खिरनियाँ चोरी करते कितनी ही बार हमने रज्जू से डाँट खाई थी। मौसम होने पर भी
पेड़ खाली फल रहित किसी पादरी की भाँति खड़ा था। अभी सुबह के नौ ही बजे थे,
किन्तु गर्मी की तपिश महसूस होने लगी थी। खिरनी
के पेड़ के पास रुककर पसीना पोंछा। चारों ओर नजर दौड़ाई। कोई आता-जाता नहीं दिखा।
दूर-दूर तक नंगे खेत खड़े थे। सड़क के किनारे एक खेत में कुछ जानवर ठूठियाँ
चिंचोड़ते दिखे। मेरी दृष्टि शीशम के पेड़ों के पास झाड़ियों की झुरमुट पर फँस गई।
सिर को झटका – ‘कितने पुराने हैं
ये शीशम के पेड़... तपस्वियों की भाँति मौन-निर्द्वंद्व खड़े।’ मन को भयमुक्त करने के लिए ध्यान को शीशम के
दरख्तों पर केन्द्रित करना चाहा, किन्तु रह-रहकर
आँखें झाड़ियों के अंदर कुछ टटोलने लगतीं। पैर आगे बढ़ने से इनकार करने लगे। लगा
खतरा मात्र दस कदम दूरी पर है। एक बार फिर इधर-उधर देखा, इस आशा से कि शायद कोई राहगीर दिखाई दे जाए, लेकिन सर्वत्र सन्नाटा। लगा, सभी ने पहले से ही खतरे को पहचान लिया था। अपने
पर कोफ्त हुई। ‘मुझे क्या पड़ी
थी खेत देखने आने की और वह भी जून की प्रचंड तपिश में... जब खेत खाली थे।’ लेकिन, शहर से चलते समय ही मन में एक योजना थी... आने वाली बरसात में गड़हा नाले के
साथ के खेतों को समतल करवाकर मेड़ें बँधवाने की। अभी देखकर काम और खर्च का आकलन
आवश्यक था। बटाईदार की सूचना पर भरोसा नहीं था। गाँव से उखड़कर शहर में जा टिकने
वाले मुझ जैसे लोगों की यह विवशता होती है... जब अवसर पाया गाँव आए और एक-दो दिन
टिककर खेत-खलिहान का हिसाब निबटाया, बटाईदार को काम सौंपा और फिर चार-छह महीनों के लिए गायब। न गाँव का मोह त्याग
पाते हैं और न शहर की जिंदगी। त्रिशंकु की भाँति बँटी जिंदगी जीते लोग... गाँव आते
ही कम समय में अधिक काम निबटा लेने की चिंता से ग्रस्त।
क्षण मात्र के
लिए झाड़ी से हटा दिमाग उसमें हो रही हलचल से फिर वहीं स्थिर हो गया। लगा ‘वह’ मुझे ही निशाना बनाकर पोजीशन ले रहा है। हो सकता है, बीच का जामुन का पेड़ उसके लिए व्यवधान बन रहा हो। मुझे इस
बात का लाभ उठाना चाहिए। खिरनी के पेड़ की ओट में जाकर नाक की सीध में गंगुआ तेली
के बगीचे की ओर से सड़क की ओर भाग लेना चाहिए। सड़क पर तो लोग आ-जा रहे ही होंगे।
सब मेरी तरह मूर्ख थोड़े ही हैं। अब यही एक उपाय था कि मैं उसके संभावित हमले से
अपने को बचा सकता था। झाड़ी में अभी भी खुरखुराहट जारी थी और मेरा मस्तिष्क तीव्र
गति से निर्णय के लिए सक्रिय हो उठा था, लेकिन तभी एक चित्तकबरा कुत्ता झाड़ी से सिर उचकाता दिखाई दिया। दिमाग ठहर गया,लेकिन मन आश्वस्त नहीं हुआ।
‘उसकी कोई चाल हो
सकती है।’
मेरे बटाईदार
गणपत ने गाँव में घुसते ही उसके विषय में जो कुछ बताया था, वह थर्रा देने वाला था।
‘अपने शिकार पर’,
गणपत ने कहा था, ‘जिस पर वार करता है उसे ‘वह’ शिकार ही कहता
है... और अपने शिकार पर वह इस खूबसूरती से झपटता है, जैसे तेंदुआ... बचाव के लिए समय तक नहीं देता। आदमी सोच भी
नहीं सकता कि दुबला-पतला, मरियल-सा दिखने
वाला ‘वह’ इतना खतरनाक हो सकता है।’
‘पेशेवर है?’
‘न भइया... भले घर
का भला लड़का... लेकिन...’
‘लेकिन क्यों ?’
गणपत चुप रहा तो
मैंने टोका, ‘चुप क्यों हो गए!’
मेरी ओर देखता
हुआ वह बोला, ‘वही हर गाँव की
एक ही कहानी... फूलत-फलत घर अउर पढ़त-लिखत लड़का गाँव के खुड़पेंची लोगन की आँखन
मा चुभे लागत है। उई चाहत हैं कि सबै उनकी तरह गँवार-पिछड़े रहैं... बस, यही बात ओहके साथै भई। ऊ लड़का गाँव-वालेन के
षड्यंत्र का शिकार हुआ अउर अब... ओह उनके खातिर खतरनाक होइ गवा है। हिरनगाँव के
पाँच लोगन को निशाना बना चुका है।’
मैं सोचने लगा था
गाँवों के बदलते चरित्र के विषय में। चालीस-पैंतालीस वर्ष पहले का गाँव आँखों के
समक्ष उभरने लगा था। वीरभद्र तिवारी का बड़ा बेटा हरीश जब आठवीं की बोर्ड परीक्षा
में जिले में तीसरा स्थान पाकर उत्तीर्ण हुआ तो सारे गाँव ने उसे सिर माथे पर
बैठाया था। हरीश आठवीं से आगे पढ़ने वाला गाँव का पहला लड़का था। तिवारी गरीब
ब्राह्मण थे... कथा-पत्रा बाँच गुजारा करने वाले। बेटे को भी अपनी भाँति ही बनाना
चाहते थे, किंतु गाँव वालों ने
उन्हें वैसा नहीं करने दिया था। जगत सिंह ने हरीश का बारहवीं तक का खर्च ओढ़ लिया
था। गाँव पंचायत ने भी खर्च उठाने का जिम्मा ले लिया था। दो वर्ष तक हरीश ने
सहायता ली, उसके बाद उसने टयूशन कर
ली थी। हरीश पढ़कर इनकमटैक्स अधिकारी बना तो, गाँव के हर घर को लगा था कि उनके घर का ही कोई लड़का अफसर
बना है। उस दौरान हरीश से प्रेरण ले कई लड़के आगे आए थे और शहर जाकर अच्छी
नौकरियों से जुड़े थे, लेकिन कुछ वर्षों
तक ही चला था यह सिलसिला।
‘अब तो ‘वह’ हर उस आदमी पर झपटने लगा है, जेहके पास कुछ
होय की उम्मीद होती है।’ गणपत बोला तो मैं
अचकचाकर उसकी ओर देखने लगा। ‘आप आए हौ तो खेतन
की तरफ जरूर जइहौ।’
मैंने स्वीकृति
में सिर हिलाया।
‘सँभल के जायो
भइया...’
‘क्यों मुझे उससे
क्या खतरा! वह तो मुझे जानता भी नहीं... फिर ?’
‘बतावा न...’
कुछ रुका गणपत, ‘अब सही-गलत की समझ नहीं रही ओहका। अउर लरिका ही तो ठहरा।
उमिर ही का है ओहकी... अठारह-उन्नीस। शुरू मा अपने गाँव के उन लोगन को ही निशाना
बनाया उसने, जिनके कारण ओहका
यो राह पकड़ै का पड़ी। पर ऊ सब ठहरे काइयाँ... कई सरकि गए इधर-उधर। कुछ ते उसने
मोटी रकमें उगाही... पर अब... अब रुपिया की कीमत अउर मौज-मस्ती की आदत... कुछ दिन
ते उसने कई अपरिचितन पर भी हमला बोला... मझगाँव के ओहकी उमिर के तीन लरिका अब ओहके
साथ मिलि गए हैं। ऊ तो पहले ते ही बदमाश रहैं... अब ओहके साथ उनकी नफरी अधिकौ बन
रही है। लेकिन, दिन मा ‘वो’ रहत अकेले ही है अउर वारदात भी अकेले ही करत हैं...’
कुत्ता झाड़ी से
निकलकर पगडंडी पर स्टेशन की ओर चल पड़ा था। मुझे ऐसा लगा, जैसे कोई बड़ा हादसा होते-होते टल गया है। दिल की धड़कन
धीमी होने लगी थी। शीशम के पेड़ के नीचे की झाड़ियाँ शांत दिखीं-स्थितप्रज्ञ। बंबे
के पुल पर उन तीनों आदमियों का शोर सुनाई पड़ा। कुचिला मिट्टी से भरी बैलगाड़ी पुल
पर चढ़ नहीं पा रही थी। दो आदमी पीछे से गाड़ी को धकिया रहे थे और तीसरा बैलों को
औगी से हाँक रहा था और बैल कंधे झुकाए पूरी ताकत लगाकर एक कदम आगे बढ़ाते तो दो
कदम पीछे खिसक जाते।
सामने ठुँठियाये
खेतों पर नजर डाली। दूर-दूर तक खाली मैदान दिखा। गर्मी का प्रभाव बढ़ गया था और
खेतों पर लहलहाती धूप आँखों में चुभ रही थी। हवा सनाका साधे हुए थी।
पगडंडी पर
निर्द्वंद्व बढ़ता कुत्ता आँखों से ओझल होता जा रहा था। पास के आम के पेड़ पर कोयल
कूक रही थी और मैं खेतों पर जाने-न-जाने के उहापोह में अभी भी फँसा हुआ था।
‘उसका’ भय मन में घर कर चुका था। खतरा टला नहीं था।
हिरनगाँव के जिस
घर का था ‘वह’, गणपत के बताते ही उस घर के सदस्यों के चेहरे
मेरी आँखों के सामने तैरने लगे थे। तीन भाइयों का परिवार था वह। शीतल, शिवमंगल और शिशुपाल पांडे। हिरनगाँव में ही
नहीं आस-पास के दस गाँवों में वह ‘पांडे परिवार’
के नाम से जाना जाता था। उनके खेत स्टेशन से
लगे हुए थे और उनमें अच्छी पैदावार होती थी। शीतल पांडे बजाजी करते थे और सप्ताह
में दो बार पुरवामीर की बाजार में दुकान लगाते थे। मेरे घर के कपड़े उन्हीं की
दुकान से आते थे और इसी कारण मैं उनके परिवार के विषय में जानता था। शीतल ने छोटे
स्तर पर बजाजी शुरू की थी। साइकिल पर कपड़े लादकर बाजार आने वाले पांडे ने
व्यावसायिक कुशलता और व्यहवार के कारण कुछ ही वर्षों में ताँगा खरीद लिया था।
व्यापार चल निकला था, लेकिन शीतल
नि:संतान थे। इसका उन्हें दु:ख भी नहीं था, क्योंकि उनके दूसरे भाई शिवमंगल के दो लड़कियाँ थीं।
शिशुपाल के भी लंबे समय तक कोई संतान नहीं हुई थी। शिवमंगल की लड़कियाँ सभी की
संतानें थीं।
शिवमंगल पांडे
दुधाई करते अैर शिशुपाल खेती। शिवमंगल सुबह फतेहपुर-कानपुर शटल से दूध लेकर कानपुर
जाते और शाम आगरा-इलाहाबाद पैसेंजर से लौट आते। कुछ देर शिशुपाल के साथ खेतों में
काम करवाते और दोनों भाई शाम ढलते घर लौटते। विवाह के लगभग पंद्रह वर्ष पश्चात
शिशुपाल के पुत्र हुआ। घर मे इकलौता बेटा। सभी की नजरें उसी पर। एकमात्र वंशबेल।
कोई कमी न रहे पालन-पोषण से लेकर शिक्षा तक और संजय ने भी उन्हें निराश नहीं किया।
इसी वर्ष इंटरमीडिएट में उसने जो सफलता प्राप्त की, वह आशा से कहीं अधिक थी और गाँव के कुछ लोगों को उसकी यही
सफलता चुभने लगी। उन्होंने उसके जीवन में जहर घोल दिया।
वैसे तो पांडे
परिवार की संपन्नता ही गाँव के कुछ लोगों की आँखों की किरकिरी बनी हुई थी। गाँव
में सफल और संपन्न जीवन जीने के लिए जो बातें आवश्यक हो गई हैं,पांडे लोग उनसे कोसों दूर थे। वे सीधी-सादी
जिंदगी जी रहे थे। वह नहीं भाँप पाए लाला अमरनाथ श्रीवास्तव के मनोभावों को। लाला
कुछ वर्षों से राजनीति में सक्रिय थे। ग्राम प्रधान का चुनाव हुआ तो लाला भी
प्रत्याशी थे। समर्थन के लिए पांडे के दरवाजे गए थे हाथ जोड़कर। चार लठैत साथ थे।
लाला जानते थे कि जिसको पांडे का समर्थन मिलेगा, वहीं जीतेगा, क्योंकि पांडे परिवार की गाँव में पुरानी प्रतिष्ठा शेष थी और आज भी लोग उनकी
बात मानते थे।
लाला अमरनाथ के
पिता हिरनगाँव के जीमंदार अयोध्या सिह के कारिंदा थे। जमींदार कानपुर में रहता था
और गाँव में एक प्रकार से लाला के पिता की ही जमींदारी चलती थी। उनकी नीतियों के
कारण गाँव वालों के मन में वह कभी नहीं चढ़े। जमींदारी खत्म हुई तो वह महाजन बन
गए। सूद पर रुपया देकर मनमाना वसूलने लगे। लाला बड़े हुए तो पिता के व्यवसाय को
आगे बढ़ाया। गरीब किसानों को लूटकर धन कमाया तो दुर्व्यसनों के शिकार होना
स्वाभाविक था। सूद का व्यवसाय एक दिन बंद हुआ तो लाला अमरनाथ ने आटा चक्की लगा ली।
खुलकर खर्च करने वाले लाला सीमित आय में फड़फड़ाने लगे। उनकी नजर ग्राम प्रधानी पर
जा टिकी, जिसका दोहन वह कर सकते
थे। लेकिन उसके विरोध में कल्लू चमार प्रत्याशी बन गया। गाँव में हरिजनों के आधे
से अधिक वोट थे।
‘मंडल’ के बाद हरिजनों में जो चेतना आई थी, उससे वे अपने अधिकार पहचानने लगे थे। कल्लू को
पांडे परिवार का मौन समर्थन है, यह खबर लाला
अमरनाथ को थी। अनेक बार मिलने पर भी लाला को जब पांडे परिवार से समर्थन का स्पष्ट
आश्वासन नहीं मिला, तब एक दिन मन के
असंतोष को शब्द देते हुए वह बोला था, ‘पंडित जी, इस बात को याद
रखूँगा।’
चुनाव में कल्लू
चमार जीता। पांडे के प्रति मन में गाँठ पड़ गई थी लाला के। लेकिन पांडे परिवार
लाला की मन की गाँठ को भाँप नहीं पाया। वे सहज थे - निश्चिंत-निर्द्वंद्व। तभी वह
घटना घटी थी। संजय एक शाम लाला की चक्की पर गेहूँ पिसवाने गया। हिंगवा बौरिया भी
ज्वार पिसवाने आया था। लाला उसे दो किलो आटा कम तोल रहा था। हिंगवा को दी पर्ची
में लाला ने दो किलो कम लिखा था। हिंगवा अड़ गया। लाला ने उसके पिसान की बोरी सड़क
पर फेंक दी और उस पर पिल पड़ा।
संजय से बर्दाश्त
नहीं हुआ। उसने लाला को पीछे से दबोच लिया और हिंगवा को उससे मुक्त किया। संजय की
मजबूत पकड़ से लाला तिलमिलाकर रह गया था। संजय पर आग्नेय दृष्टि डाल लाला चीखा था,
‘पांडे पुत्र तुमने मुझे पकड़कर अच्छा नहीं
किया...’
‘चाचा गरीब पर हाथ
चलाना मर्दानगी नहीं?’
‘कल का छोकरा मुझे
बताएगा कि मर्दानगी क्या होती है... तू मूझे बताएगा।’ लाला का चेहरा क्रोध से विकृत हो उठा था। लाला चीख ही रहा
था कि दिन भर उसकी चक्की पर पत्ते खेलने और ठर्रा पीने वाले पाँच लोग लाठी थामे आ
धमके थे।
‘का हुआ लाला...
काहे चीख रहे हो?’ सभी ने एक स्वर
में कहा।
‘होना क्या है...
यो पांडे पुत्र ने अच्छे नंबरों से इंटर क्या पास कर लिया, अभी से अपने को कलक्टर समझने लगा है... जानता नहीं कि लाला
एक दिन में कलक्टरी पीछे के रास्ते निकाल देता है।’
‘अरे मुँह तो
हिलाओ लाला... कहो तो अबहीं...।
‘नहीं... हम खुद
ही देख लेंगे।’ लाला साथियों का
बल पा अहंकार भरे स्वर में बोला।
संजय चुप रहा और
अपना पिसान हिंगवा को देकर घर चला गया था।
और संजय ने जो
नहीं सोचा था, वह हुआ था। किसी
काम से वह नरवल जा रहा था साइकिल से कि बीच रास्ते में पुलिस ने उसे रोका था।
इंस्पेक्टर के साथ तीन सिपाही थे। संजय ने उस इंस्पेक्टर को कई बार लाला अमरनाथ की
चक्की पर देखा था। उसे थाने ले जाकर ‘लॉकअप’ में डाल दिया गया था। केस
बनाया गया था उसके पासे से स्मैक बदामद होने का। खबर मिलने पर सिर पीट लिया था
पांडे परिवार ने। तीनों भाइयों के लिए यह हिला देने वाली खबर थी। ‘क्या उनका संजय ऐसा कर सकता है ?’ वे नहीं सोच पा रहे थे। उन्हें गत दिनों लाला
के साथ संजय के विवाद की भनक भी न थी। संजय ने लाला की धमकी को गंभीरता से नहीं
लिया था। वह भी इसलिए कि एक सप्ताह बाद वह पढ़ने के लिए शहर जाने वाला था। उसने
सोचा था कि लाला का गुस्सा उसके गाँव से जाते ही ठंडा हो जाएगा, लेकिन...
कल्लू चमार के
साथ तीनों पांडे थाने गए थे। पाँच हजार देने के बाद संजय छूट पाया था। संजय का
इतनी जल्दी छूट जाना लाला अमरनाथ के लिए चुनौती थी। उसे थानेदार को दिए अपने दो
हजार रुपए व्यर्थ होते दिख रहे थे। वह दौड़ा गया था थाने और दोबारा मुट्ठी गरमा
आया था थानेदार की। पुलिस आ धमकी थी गाँव में तीसरे दिन ही। इस बार संजय पर केस
बना था रिवाल्वर रखने और पड़ोसी गाँव में रात पड़ी डकैती में शामिल होने का। संजय
तीन दिन बंद रहा थाने में। यातना भी दी गई थी उसे लगातार। इस बार दस हजार डकार गया
था थानेदार। संजय को छोड़ते समय उसने शर्त लगाई थी कि वह एक महीने तक गाँव छोड़कर
कहीं नहीं जाएगा और सप्ताह में दो बार थाने में हाजिरी देगा।
‘हुजूर उसकी साल
भर की पढ़ाई...’ तीनों पांडे
गिड़गिड़ाए थे
‘मैंने जो कहा...
अगर आपने नहीं सुना तो बताइए...! ‘खूँखार हो उठा था
थानेदार।
संजय को चुप ले
आए थे पांडे।
उसी रात लाला की
चक्की पर गाँव के कुछ लोग इकट्ठा हुए थे। मुर्गे कटे थे और बोतलें खुली थीं।
‘अच्छा सबक दिया
स्साले को तुमने लाला... बड़ा बनता था।’ ठहाकों के साथ जाम टकराए थे और जुबानें लड़खड़ाई थीं।
और उसी रात संजय
ने अपना पहला निशाना साधा था लाला अमरनाथ के भतीजे पर। रिवाल्वर खाली कर दी थी।
आँखों के समक्ष पसरे अँधेरे भविष्य ने उसे विचलित कर दिया था। वह जान चुका था कि
गाँव में पुलिस अब उसे चैन से न बैठने देगी। और अपनी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार
लोगों के लिए वह रात के अँधेरे में घर से निकल पड़ा था।
संजय लाला की
चक्की तक पहुँचता इससे पहले ही भतीजे की खबर मुर्गा चीथते-बोतलें खाली करते लोगों
तक पहुँच गई थी। हड़कंप मच गया था। लोग भाग निकले थे, लेकिन तब भी दो को निशाना बना ही लिया था उसने। उन्हें घायल
छोड़ वह लाला को ढूँढ़ता रहा था। लाला पुआल के नीचे छुप गया था।
उसके बाद लाला
अमरनाथ और उसके साथियों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था संजय। पुलिस ने पांडे
परिवार को संजय की ओट में जमकर लूटा, किंतु उसे संजय हाथ नहीं आया। पता चलने पर पुलिस संजय को स्टेशन की ओर खोजने
जाती, जबकि संजय गाँव में लाला
के किसी साथी पर निशाना साध रहा होता। पुलिस लौटती तब तक संजय गायब हो चुका होता।
गणपत ने कहा था,
‘दो महीने से लुका-छुपी का खेल चल रहा है भइया।
गाँव की राजनीति ने पांडे को तो तबाह ही कीन्हेसि अउरो घर बर्बाद हुई गए। अउर...’
लंबी साँस खींची थी उसने, ‘बदले की आग मा संजय ने जो किया सो तो समझ मा
आवत है भइया... पर राह चलत लेगन को लूटि लेहिसि... यो ठीक न करी...’ गणपत का स्वर विचलित था।
‘जब आदमी गलत काम
करने लगता है... वह धीरे-धीरे विवेक खोता चला जाता है। संजय के साथ भी ऐसा ही हुआ
है।’
गणपत मेरी ओर
देखता रहा था।
रज्जू पासी के
बाग से कुछ कदम आगे बढ़ा। दिमाग में विचार तीव्र गति से दौड़ रहे थे और उतनी ही
तीव्र गति से नजरें खेतों में कुछ खोज रही थीं। रह-रहकर पीछे मुड़कर देख लेता था।
एक पक्षी सामने से तेजी से उड़कर निकला तो अचकचा गया। पैर मेड़ से फिसल गया। गिरते
बचा। सँभला, पसीना पोंछा और
धीरे-धीरे कदम घसीटने लगा। तभी देखा वह चितकबरा कुत्ता वापस लौटा आ रहा था।
‘अवश्य आगे कुछ
खतरा है। कुत्ता उस संजय को देख वापस लौट पड़ा है। जानवर खतरा भाँप लेते हैं।’
कुछ देर खड़े
सोचता रहा। आगे बढ़ना कठिन लगा। तभी पीछे शीशम के नीचे झाड़ियों में खुरखुराहट
हुई। क्षण भर सोचा, फिर गाँव की ओर
मुड़कर कुछ देर सधे पैरों चला। रज्जू पासी का बाग पार हेते ही दौड़ पड़ा। घर
पहुँचकर ही राहत मिली।
दोपहर बाद गणपत
ने आकर बताया, ‘भइया दोपहर पुलिस
के साथ मुठभेड़ मा संजय मारा गया। स्टेशन के पास खेतन मा हुई मुठभेड़... भइया बड़ा
बुरा हुआ पांडेन के साथ।’ गणपत दुखी था।
गणपत की बात का
उत्तर न देकर मैं सोचने लगा था कि अब खेतों की ओर जाना निरापद रहेगा।
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