नेउर
आकाश में चांदी के पहाड़ भाग रहे थे, टकरा रहे थे गले मिल
रहें थे, जैसे सूर्य मेघ
संग्राम छिड़ा हुआ हो। कभी छाया हो जाती थी कभी तेज धूप चमक उठती थी। बरसात के दिन
थे। उमस हो रही थी । हवा बदं हो गयी थी।
गावं के बाहर कई मजूर एक खेत की मेड़
बांध रहे, थे।
नंगे बदन पसीने में तर कछनी कसे हुए, सब के सब फावड़े से
मिटटी खोदकर मेड़ पर रखते जाते थे। पानी से
मिट्टी नरम हो गयी थी।
गोबर ने अपनी कानी आंख मटकाकर कहां-अब तो हाथ नहीं चलता भाई गोल भी छूट गया
होगा, चबेना कर ले।
नेउर ने हंसकर कहा-यह मेड़ तो पूरी कर
लो फिर चबेना कर लेना मै तो तुमसे पहले आया।
दोनो ने सिर पर झौवा उठाते हुए कहा-तुमने अपनी जवानी में जितनी घी खाया होगा नेउर दादा उतना
तो अब हमें पानी
भी नहीं मिलता। नेउर छोटे डील का गठीला काला, फुर्तीला आदमी,था। उम्र पचास से ऊपर थी, मगर अच्छे अच्छे नौजवान उसके बराबर
मेहनत न कर सकते थे अभी दो तीन साल
पहले तक कुश्ती लड़ना छोड दिया
था।
गोबर–तुमने तमखू पिये बिना कैसे रहा जाता है
नेउर दादा? यहां
तो चाहे रोटी ने मिले लेकिन तमाखू के बिना नहीं रहा जाता। दीना–तो यहां से आकर रोटी बनाओगे दादा? बुछिया कुछ नहीं करती? हमसे
तो दादा ऐसी मेहरिय से एक दिन न पटे।
नेउर के पिचक खिचड़ी
मूंछो से ढके मुख परहास्य की स्मित-रेखा
चमक उठी जिसने उसकी कुरुपता को भी सुन्दर बनार दिया। बोला-जवानी तो उसी के साथ
कटी है बेटा, अब उससे कोई काम नही होता। तो क्या करुं।
गोबर–तुमने
उसे सिर चढा रखा है, नहीं
तो काम क्यो न करती? मजे
से खाट पर बैठी चिलम पीती रहती है और
सारे गांव से लड़ा करती है तूम बूढे
हो गये, लेकिन
वह तो अब भी जवान बनी है।
दीना–जवान
औरत उसकी क्या बराबरी करेगी? सेंदुर,
टिकुली, काजल, मेहदी में तो उसका मन बसाता है। बिना
किनारदार रंगीन धोती के उसे कभी उदेखा ही नहीं
उस पर गहानों से भी जी नहीं भरता।
तुम गऊ हो इससे निबाह हो जाता है, नहीं
तो अब तक गली गली ठोकरें खाती होती।
गोबर – मुझे
तो उसके बनाव सिंगार पर गुस्सा आताहै ।
कात कुछन करेगी; पर
खाने पहनने को अच्छा ही चाहिए।
नेउर-तुम क्या जानो बेटा जब वह आयी थी
तो मेरे घर सात हल की खेती होती थी। रानी बनी बैठी रहती
थी। जमाना बदल गया, तो
क्या हुआ। उसका मन तो वही है। घड़ी भर
चूल्हे के सामने बैठ जाती है तो क्या हुआ! उसका मन तो वही है। घड़ी भर चूल्हे के
सामने बैठ जाती है तो आंखे लाल हो जाती है और मूड़ थामकर पड़ जाती है। मझसे तो यह
नही देखा जाता। इसी दिन रात के लिए
तो आदमी शादी ब्याह करता है और इसमे क्या रखा है। यहां से जाकर रोटी बनाउंगा पानी,
लाऊगां, तब दो कौर खायेगी। नहीं तो मुझे क्या था
तुम्हारी तरह चार फंकी मारकर एक लोटा पानी पी लेता। जब से बिटिया मर गयी। तब से तो वह और भी लस्त
हो गयी। यह बड़ा भारी धक्का लगा। मां की ममता हम–तुम क्या समझेगें बेटा! पहले
तो कभी कभी डांट भी देता था। अबकिस
मुंह से डांटूं?
दीना-तुम कल पेड़ काहे को चढे थे, अभी गूलर कौन पकी है?
नेउर-उस बकरी के लिए थोड़ी पत्ती तोड़
रहा था। बिटिया को दूध पिलाने को बकरी ली
थी। अब बुढिया हो गयी है। लेकिन थोड़ा दूध दे देती है। उसी का दूध और रोटी बुढिया
का आधार है।
घर पहुंचकर नेउर ने लोटा और डोर उठाया
और नहाने चला कि स्त्री ने खाट पर लेटे–लेटे कहा- इतनी देर क्यों कर दिया करते
हो? आदमी काम के पीछे परान थोड़े ही देता है? जब मजूरी सब के बराबर मिलती है तो क्यो
काम काम केपीछे मरते हो?
नेउर का अन्त:करण एक माधुर्य से सराबोर हो गया। उसके
आत्मसमर्पण से भरे हुए प्रेम में मैं की गन्ध भी तो नहीं थी। कितनी स्नेह! और किसे उसके आराम की, उसके
मरने जीने की चिन्ता है? फिर यह क्यों न अपनी बुढिया के लिए मरे? बोला–तू उन
जनम में कोई देवी रही होगी बुढिया,सच।
‘‘अच्छा रहने दो यह
चापलूसी । हमारे आगे अब कौन बैठा हुआ है,
जिसके लिए इतनी हाय–हाय करते हो?’’
नेउर गज भर की छाती किये स्नान करने चला
गया। लौटकर उसने मोटी मोटी रोटियां बनायी। आलू चूल्हे में डाल दिये। उनका
भुरता बनाया, फिर
बुढिया और वह दोनो साथ खाने बैठे।
बुढिया–मेरी जात से तुम्हे कोई सुख न मिला।
पड़े-पड़े खाती हूं और तुम्हे तंग करती हूं और
इससे तो कहीं अच्छा था कि भगवान
मुझे उठा
लेते।’
‘भगवान आयेंगे तो मै कहूंगा पहले मुझे ले
चलों। तब इस सूनी झोपड़ी में कौन रहेगा।’
‘तुम न रहोगे, तो मेरी क्या दशा होगी। यह सोचकर
मेरी आंखो में अंधेरा आ जाता है। मैने कोई बड़ा पुन किया था। कि तुम्हें पाया था। किसी और के
साथ मेरा भला क्या निबाह होता?’
ऐसे मीठे संन्तोष
के लिए नेउर क्या नहीं कर डालना चाहता था।
आलसिन लोभिन, स्वार्थिन बुढियांअपनी जीभ पर केवल
मिठास रखकर नेउर को नचाती थी जैसे कोई
शिकारी कंटिये में चारा लगाकर मछली को खिलाता है।
पहले कौन मरे, इस विषय पर आज यह पहली ही बार बातचीत न हुई थी। इसके पहले भी
कितनी ही बार यह प्रश्न उठा था और या ही छोड़ दिया गया था;!
लेकिन
न जाने क्यों नेउर ने अपनी
डिग्री कर ली थी और उसे निश्चय था
कि पहले मैं जाऊंगा। उसके पीछे भी बुढिया
जब तक रह आराम से रहे, किसी के सामने हाथ न फैलाये, इसीलिए वह मरता रहता था, जिसमे हाथ में चार पैसे जमाहो जाये।‘
कठिन से कठिन काम जिसे कोई न कर सके
नेउर करता दिन भर फावड़े कुदाल का
काम करने के बाद रात को वह ऊख के दिनों में किसी की ऊख पेरता या खेतों की रखवाली
करता, लेकिन
दिन निकलते जाते थे और जो कुछ कमाता था वह भी निकला जाता था। बुढिया के बगैर वह
जीवन....नहीं, इसकी वह कल्पना ही न कर सकता था।
लेकिन आज की बाते
ने नेउर को सशंक कर
दिया। जल में एक बूंद रंग की भाति
यह शका उसके मन मे समा कर अतिरजितं होने लगी।
२
गांव में नेउर को काम
की कमी न थी, पर
मजूरी तो वही मिलती थी, जो
अब तक मिलती आयी थी; इस
मन्दी में वह मजूरी भी नही रह गयी थी। एकाएक गांव में एक साधु कहीं से घूमते–फिरते आ निकले और नेउर के घर के सामने
ही पीपल की छांह मे उनकी धुनी जल गई गांव वालो ने अपना धन्य भाग्य समझा। बाबाजी का सेवा स्त्कार करने के लिए सभी जमा हो गये। कहीं
से लकड़ी आ गयी से कहीं से बिछाने को
कम्बल कहीं से आटा–दाल।
नेउर के पास क्या था।? बाबाजी के लिए भेजन बनाने की सेवा उसने ली।
चरस आ गयी , दम लगने लगा।
दो तीन दिन
में ही बाबाजी की कीर्ति फैलने
लगी। वह आत्मदर्शी है भूत भविष्य ब
बात देते है। लोभ तो छू नहीं गया। पैसा
हाथ से नहीं छूते और भोजन भी क्या करते है। आठ पहर में एक दो बाटियां खा ली; लेकिन
मुख दीपक की तरह दमक रहा है। कितनी मीठी बानी है।! सरल हृदय नेउर बाबाजी का
सबसे बड़ा भक्त था। उस पर कहीं बाबाजी की दया
हो गयी। तो पारस ही हो जायगा।
सारा दुख दलिद्दर मिट जायगा।
भक्तजन एक-एक
करके चले गये थे। खूब
कड़ाके की ठंड़ पड़ रही थी केवल नेउर बैठा बाबाजी के पांव दबा रहा था।
बाबा जी ने कहा- बच्चा! संसार माया है इसमें
क्यों फंसे हो?
नेउर ने नत मस्तक होकर कहा-अज्ञानी हुं महाराज, क्या करूं?
स्त्री है उसे किस पर छोडूं!
‘तू समझता है तू स्त्री का पालन
करता है?’
‘और कौन
सहारा है उसे बाबाजी?’
‘ईश्वर कुद नही है तू
ही सब कुछ है?’
नेउर
के मन में जैसे ज्ञान-उदय हो गया। तु इतना अभिमानी हो गया है। तेरा इतना दिमाग! मजदूरी करते करते जान
जाती है और तू समझता है मै ही
बुढिया का सब कुछ हूं। प्रभु जो संसार का
पालन करते है, तु उनके काम में दखल देने का दावा करता है। उसके
सरल करते है। आस्था की ध्वनि सी
उठकर उसे धिक्कारने लगी बोला–अज्ञानी हूं महाराज!
इससे ज्यादा वह और कुछ न कह सका। आखों
से दीन विषाद के आंसु गिरने लगे।
बाबाजी ने तेजस्विता से कहा –‘देखना चाहता है ईश्वर का चमत्कार! वह चाहे तो क्षण भर मे तुझे लखपति कर दे। क्षण भर में तेरी सारी चिन्ताएं। हर ले! मै उसका एक तुच्छ भक्त हूं काकविष्टा; लेकिन मुझेमें भी इतनी शक्ति है कि तुझे पारस बना
दूँ। तू साफ दिल का, सच्चा ईमानदार आदमी है। मूझे तुझपर दया आती है। मैने इस गांव में सबको ध्यान से
देखा। किसी में शक्ति नहीं विश्वास नहीं । तुझमे मैने भक्त का हृदय पाया तेरे
पास कुछ चांदी है?’’
नेउर को जान पड रहा था कि सामने स्वर्ग
का द्वार है।
‘दस पॉँच रुपये होगे महाराज?’
‘कुछ चांदी के टूटे फूटे गहने नहीं है?’
‘घरवाली
के पास कुछ गहने है।’
‘कल रात को जितनी चांद मिल सके यहां ला और ईश्वर की प्रभुता देख। तेरे सामने मै चांदी की हांड़ी में रखकर इसी धुनी में
रख दूंगा प्रात:काल आकर हांडी
निकला लेना; मगर
इतना याद रखना कि उन अशर्फियो को अगर शराब पीने में जुआ खेलने
में या किसी दूसरे बुरे काम में खर्च किया तो कोढी हो जाएगा। अब जा सो रह। हां इतना और सुन ले इसकी चर्चा
किसी से मत करना घरवालों से भी नहीं।’
नेउर घर चला, तो
ऐसा प्रसन्न था मानो ईश्वर का हाथ उसके
सिर पर है। रात-भर उसे नींद नही आयी।
सबेरे उसने कई आदमियों से दो-दो चार चार रुपये उधार लेकर पचास रुपये जोडे! लोग उसका विश्वास करते थे। कभी किसी
का पैसा भी न दबाता था। वादे का
पक्का नीयत का साफ। रुपये मिलने
में दिक्कत न हुई। पचीस रुपये उसके पास
थे। बुढिया से गहने कैसे ले। चाल चली।
तेरे गहने बहुत मैले हो गये है। खटाई से
साफ कर ले । रात भर खटाई में रहने से नए हो जायेगे। बुढिया चकमे में आ गयी। हांड़ी
में खटाई डालकर गहने भिगो दिए और जब रात को वह सो गयी तो नेउर ने रुपये भी उसी हांडी मे डाला
दिए और बाबाजी के पास पहुंचा। बाबाजी ने
कुछ मन्त्र पढ़ा। हांड़ी को छूनी की राख में रखा और नेउर को आशीर्वाद देकर
विदा किया।
रात भर
करबटें बदलने के बाद नेउर
मुंह अंधेरे बाबा के दर्शन करने गया। मगर बाबाजी का वहां पता न था। अधीर होकर
उसने धूनी की जलती हुई राख टटोली । हांड़ी
गायब थी। छाती धक-धक करने लगी।
बदहवास होकर बाबा को खोजने लगा। हाट की
तरफ गया। तालाब की ओर पहुंचा। दस मिनट,
बीस मिनट, आधा घंटा! बाबा का कहीं निशान नहीं।
भक्त आने लगे। बाबा कहां गए? कम्बल भी नही बरतन भी नहीं!
भक्त ने कहा–रमते साधुओं का क्या ठिकाना! आज यहां कल
वहां, एक जगह रहे तो साधु कैसे? लोगो
से हेल-मेल हो जाए, बन्धन
में पड़ जायें।
‘सिद्ध थे।’
‘लोभ तो छू नहीं गया था।’
नेउर कहा है? उस पर बड़ी दया करते थे। उससे कह गये
होगे।’
नेउर की तलाश होने लगी, कहीं
पता नहीं। इतने में बुढिया नेउर को पुकारती हुई घर में से निकली। फिर कोलाहल
मच गया। बुढिया रोती थी और नेउर को
गालियां देती थी।
नेउर खेतो की मेड़ो से बेतहाशा भागता
चला जाता था। मानो उस पापी संसार इस निकल
जाएगा।
एक आदमी ने कहा- नेउर ने कल मुझसे पांच रुपये लिये थे। आज सांझ को देने को कहा
था।
दूसरा–हमसे भी दो रूपये
आज ही के वादे
पर लिये थे।
बुढ़िया रोयी–दाढीजार मेरे सारे गहने
लेगया। पचीस रुपये रखे थे
वह भी उठा ले
गया।
लोग समझ गये, बाबा कोई धूर्त था। नेउर को साझा दे
गया। ऐसे-ऐसे ठग
पड़े है संसार में। नेउर के बारे
में बारे में किसी को
ऐसा संदेह नहीं थी। बेचारा सीधा आदमी आ गया पट्टी में। मारे लाज
के कहीं छिपा बैठा होगा
तीन महीने गुजर गये।
झांसी जिले में धसान नदी
के किनारे एक छोटा सा गांव है-
काशीपुर नदी के किनारे
एक पहाड़ी टीला है। उसी पर कई
दिन से एक साधु ने अपना आसन जमाया है।
नाटे कद का आदमी है, काले
तवे का-सा रंग देह गठी हुई। यह
नेउर है जो साधु बेश में दुनिया को धोखा
दे रहा है। वही सरल निष्कपट नेउर है
जिसने कभी पराये माल की ओर आंख
नहीं उठायो जो पसीना की रोटी
खाकर मग्न था। घर की गावं की और
बुढिया की याद एक क्षण
भी उसे नहीं भूलती इस जीवन में फिर
कोई दिन
आयेगा। कि वह अपने घर पहुंचेगा और फिर उस संसार मे
हंसता- खेलता अपनी छोटी–छोटी चिन्ताओ और छोटी–छोटी आशाओ के बीच
आनन्द से रहेगा। वह जीवन कितना
सुखमय था। जितने
थे। सब अपने थे सभी आदर करते थे।
सहानुभूति रखते थे। दिन भर की
मजूरी, थोड़ा-सा
अनाज या थोड़े से पैसे लेकार घर आता था, तो बुधिया कितने
मीठे स्नेह से उसका स्वागत करती थी। वह सारी मेहनत, सारी थकावट जैसे उसे मिठास में सनकर और मीठी
हो जाती थी। हाय वे दिन फिर कब आयेगे? न जाने
बुधिया कैसे रहती होगी। कौन उसे पान की तरह फेरेगा? कौन उसे पकाकर खिलायेगा? घर
में पैसा भी तो नहीं छोड़ा गहने
तक ड़बा दिये। तब उसे क्रोध
आता। कि उस बाबा को पा जाय, तो कच्च हीखा जाए। हाय लोभ! लोभ!
उनके
अनन्य भक्तो में एक सुन्दरी युवती
भी थी जिसके पति ने उसे त्याग दिया था।
उसका बाप फौजी-पेंशनर था, एक
पढे लिखे आदमी से लड़की
का विवाह किया: लेकिन लड़का मॉँ के कहने
में था और युवती की अपनी
सांस से न पटती। वह चा हती थी
शौहर के
साथ सास से अलग रहे
शौहर अपनी मां से अलग होने पर न राजी हुआ।
वह रुठकर मैके चली
आयी। तब से तीन साल हो गये थे और
ससुराल से एक बार भी बुलावा न आया न
पतिदेव ही आये। युवती किसी
तरह पति को अपने वश में कर लेना चाहती थी। महात्माओं के लिए
तरह पति को अपने वश में कर
लेना चाहती थी महात्माओ के
लिए किसी का दिल फेर देना ऐसा क्या
मुशिकल है! हां, उनकी
दया चाहिए।
एक
दिन उसने एकान्त में बाबाजी से अपनी विपति कह सुनायी। नेउर को
जिस शिकार की टोह थी वह आज मिलता हूआ जान पड़ा गंभीर भाव से बोला-बेटी मै न सिद्ध हूं न महात्मा न मै संसार के झमेलो में पड़ता हूं पर तेरी सरधा और परेम देखकर तुझ पर दया आती हौ। भगवान ने चाहा
तो तेरा मनोरध पूरा हो जायेगा।
‘आप समर्थ है और मुझे
आपके ऊपर विश्वास है।’
‘भगवान की जो इच्छा होगी वही होगा।’
‘इस अभागिनी की डोगी आप वही होगा।’
‘मेरे भगवान आप ही हो।’
नेउर ने मानो धर्म-सकटं में पड़कर कहा-लेकिन बेटी, उस काम में बड़ा अनुष्ठान करना
पडेगा। और अनुष्ठान में सैकड़ो हजारों का खर्च है। उस पर
भी तेरा काज सिद्ध होगा या नही,
यह
मै नहीं कह सकता। हां मुझसे जो कुछ हो सकेगा, वह मै कर दूंगा। पर सब कुछ भगवान
के हाथ में है। मै माया को हाथ से
नहीं छूता; लेकिन तेरा दुख नही देखा जाता।
उसी रात को युवती ने अपने सोने के
गहनों की पेटारी लाकर बाबाजी
के चरणों पर रख दी बाबाजी ने
कांपते हुए हाथों से पेटारी खोली
और चन्द्रमा के उज्जवल
प्रकाश में आभूषणो को देखा । उनकी
बाधे झपक गयीं यह सारी माया उनकी है
वह उनके सामने हाथ बाधे खड़ी कह रही है
मुझे अंगीकार कीजिए कुछ भी तो करना नही है
केवल पेटारी लेकर अपने सिरहाने रख लेना है और युवती को आशीर्वाद देकर विदा
कर देना है। प्रात काल वह आयेगी उस वक्त वह उतना दूर होगें जहां
उनकी टागे ले जायेगी। ऐसा आशातीत
सौभाग्य! जब वह रुपये से भरी
थैलियां लिए गांव में
पहुंचेगे और बुधिया के सामने रख देगे! ओह!
इससे बडे आनन्द की तो वह कल्पना भी
नहीं कर सकते।
लेकिन न जाने क्यों इतना जरा सा काम भी उससे नहीं हो सकता था। वह पेटारी को उठाकर अपने सिरहाने
कंबल के नीचे दबाकर
नहीं रख सकता। है। कुछ नहीं; पर उसके लिए असूझ है, असाध्य है वह उस पेटारी
की ओर हाथ भी नही बढा सकता है इतना
कहने मे कौन सी दुनिया उलटी जाती है। कि बेटी इसे उठाकर इस कम्बल के नीचे
रख दे। जबान कट तो न जायगी,
;मगर अब
उसे मालूम होता कि जबान
पर भी उसका काबू नही है। आंखो के इशारे से भी
यह काम हो सकता है। लेकिन इस समय
आंखे भीड़ बगावत कर रही है। मन का राजा इतने मत्रियों और सामन्तो के होते
हुए भी अशक्त है निरीह है लाख रुपये
की थैली सामने रखी
हो नंगी तलवार हाथ में हो गाय मजबूत रस्सी के सामने
बंधी हो, क्या
उस गाय की गरदन पर उसके हाथ उठेगें। कभी
नहीं कोई उसकी गरदन
भले ही काट ले। वह गऊ की हत्या नही
कर सकता। वह परित्याक्ता उसे उसी गउ
की हत्या नही कर सकता
वह पपित्याक्ता उसे
उसी गऊ की तरह लगर ही थी। जिस
अवसर को वह तीन महीने खोज रहा है
उसे पाकर आज उसकी आत्मा कांप रही है।
तृष्णा किसी वन्य जन्तु की भांति
अपने संस्कारे से आखेटप्रिय है लेकिन जंजीरो से बधे–बधे
उसके नख गिर गये है और दातं
कमजोर हो गये हैं।
उसने रोते हुंए कहा–बेटी पेटारी उठा ले जाओ। मै तुम्हारी
परीक्षा कर रहा था। मनोरथ पूरा हो जायेगा।
चॉँद नदी के पार वृक्षो
की गोद में विश्राम कर चुका
था। नेउर धीरे से उठा और धसान मे स्नान करके
एक ओर चल दिया। भभूत और तिलक से उसे घृणा
हो रही थी उसे आश्चर्य हो रहा
था कि वह घर से निकला
ही कैसे? थोड़े
उपहास के भय से! उसे अपने अन्दर
एक विचित्र उल्लास का अनुभव हो रहा था मानो वह बेड़ियो से मुक्त हो गया हो कोई बहुत बड़ी चिजय प्राप्त की हो।
आठवे दिन नेउर गांव
पहुंच गया। लड़को ने दौठकर उछल कुछकर, उसकी
लकड़ी उसके हाथ उसका स्वागत किया।
एक लड़के ने कहा काकी तो मरगयी दादा।
नेउर के पांव जैसे बंध गये मुंह के दोनो कोने
नीचे झुके गये। दीनविषाद आखों में
चमक उठा कुछ बोला नहीं, कुछ
पूछा भी नहीं। पल्भर जैसे निस्संज्ञ खड़ा रहा फिर बडी तेजी से अपनी झोपड़ी की ओर चला। बालकवृनद भी उसके
पीछे दौडे मगर उनकी शरारत और
चंचलता भागचली थी। झोपड़ी खुली पड़ी थी बुधिया की चारपाई जहा की तहां थी।
उसकी चिलम और नारियल ज्यो के ज्यो धरे
हुए थे। एक कोने में दो चार मिटटी
और पीतल के बरतन
पडे हुंए थे लडेक बाहर
ही खडे रह गये झेपडी के अन्दर कैसे
जाय वहां बुधिया बैठी है।
गांव मे भगदड मच गयी। नेउर दादा आ गये। झोपड़ी
के द्वार पर भीड़ लग गयी प्रशनो
कातांता बध गया।–तूम
इतने दिनोकहां थे। दादा? तुम्हारे जाने के बाद तीसरे ही दिन काकी चल बसीं रात दिन तुम्हें
गालियां देती थी। मरते मरते तुम्हे गरियाती
ही रही। तीसरे दिन आये तो मेरी पड़ी
क्थी। तुम इतने दिन कहा रहे?
नेउर ने कोई जवाब न दिया।
केवल शुन्य निराश करुण आहत नेत्रो से लोगो की ओर देखता रहा मानो
उसकी वाणी हर लीगयी है। उस दिन से किसी ने उसे बोलते या रोते-हंसते नहीं देखा।
गांव से आध मील पर
पक्की सड़क है। अच्छी आमदरफत है।
नेउर बेड सबेरे जाकर सड़क
के किनारे एक पेड के नीचे बैठ जाता है। किसी से कुछ मांगता नही पर राहगीर कूछ न कुछ दे ही देते है।– चेबना अनाज पैसे। सध्यां सयम वह अपनी झोपड़ी मे आ जाता है, चिराग
जलाता है भोजन बनाता है, खाना
है और उसी खाट पर पड़ा रहता है। उसके जीवन, मै जो एक संचालक शक्ति थी,वह लुप्त हो गयी है ै वह
अब केवल जीवधारी है। कितनी गहरी
मनोव्यधा है। गांव में प्लेग आया। लोग घर छोड़ छोड़कर भागने लगे
नेउर को अब किसी की
परवाह न थी। न किसी को उससे भय था न प्रेम। सारा गांव भाग गया। नेउर अपनी झोपड़ी से
न निकला और आज भी वह
उसी पेउ़ के नीचे सड़क
के किनारे उसी तरह मौन बैठा हुआ
नजर आता है- निश्चेष्ट, निर्जीव।‘
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