मेजर चौधरी की
वापसी
किसी की टाँग टूट
जाती है, तो साधारणतया उसे बधाई का
पात्र नहीं माना जाता। लेकिन मेजर चौधरी जब छह सप्ताह अस्पताल में काटकर बैसाखियों
के सहारे लडख़ड़ाते हुए बाहर निकले, तो बाहर निकलकर उन्होंने मिजाजपुर्सी के लिए आये हुये अफसरों को बताया कि उनकी
चार सप्ताह की ‘वारलीव’ के साथ उन्हें छह सप्ताह की ‘कम्पेशनेट लीव’ भी मिली है, और उसके बाद ही
शायद कुछ और छुट्टी के अनन्तर उन्हें सैनिक नौकरी से छुटकारा मिल जाएगा, तब सुननेवालों के मन में अवश्य ही ईष्र्या की
लहर दौड़ गयी थी। क्योंकि मोकोक्चङ् यों सब-डिवीजन का केन्द्र क्यों न हो, वैसे वह नगा पार्वत्य जंगलों का ही एक हिस्सा
था, और जोंक, दलदल, मच्छर, चूती छतें, कीचड़ फर्श, पीने को उबाला जाने पर भी गँदला पानी और खाने को पानी में
भिगोकर ताजा किये गये सूखे आलू-प्याज-ये सब चीज़ें ऐसी नहीं हैं कि दूसरों के
सुख-दु:ख के प्रति सहज औदार्य की भावना को जागृत करें!
मैं स्वयं
मोकोक्चङ् में नहीं, वहाँ से तीस मील
नीचे मरियानी में रहता था, जो कि रेल की
पक्की सडक़ द्वारा सेवित छावनी थी। मोकोक्चङ् अपनी सामग्री और उपकरणों के लिए
मरियानी पर निर्भर था इसलिए मैं जब-तब एक दिन के लिए मोकोक्चङ् जाकर वहाँ की
अवस्था देख आया करता था। नाकाचारी चार-आली से आगे रास्ता बहुत ही खराब है और गाड़ी
कीच-काँदों में फँस-फँस जाती है, किन्तु उस प्रदेश
की आव नगा जाति के हँसमुख चेहरों और साहाय्य-तत्पर व्यवहार के कारण वह जोखम बुरी
नहीं लगती।
मुझे तो मरियानी
लौटना था ही, मेजर चौधरी भी
मेरे साथ ही चले-मरियानी से रेल-द्वारा वह गौहाटी होते हुए कलकत्ते जाएँगे और वहाँ
से अपने घर पश्चिम को...
स्टेशन-वैगन
चलाते-चलाते मैंने पूछा, ‘‘मेजर साहब,
घर लौटते हुए कैसा लगता है?’’ और फिर इस डर से कि कहीं मेरा प्रश्न उन्हें
कष्ट ही न दे, ‘‘आपके इस-इस
एक्सिडेंट से अवश्य ही इस प्रत्यागमन पर एक छाया पड़ गयी है, पर फिर भी घर तो घर है-’’
अस्पताल के छह
हफ्ते मनुष्य के मन में गहरा परिवर्तन कर देते हैं, यह अचानक तब जाना जब मेजर चौधरी ने कुछ सोचते-से उत्तर दिया,
‘‘हाँ, घर तो घर ही है। पर जो एक बार घर से जाता है, वह लौटकर भी घर लौटता ही है, इसका क्या ठिकाना?’’
मैंने तीखी
दृष्टि से उनकी ओर देखा। कौन-सा गोपन दु:ख उन्हें खा रहा है- ‘घर’ की स्मृति को लेकर कौन-सा वेदन ठूँठ इनकी विचारधारा में अवरोध पैदा कर रहा है?
पर मैंने कुछ कहा नहीं, प्रतीक्षा में रहा कि कुछ और कहेंगे।
देर तक मौन रहा,
गाड़ी नाकाचारी की लीक में उचकती-धचकती चलती
रही।
थोड़ी देर बाद
मेजर चौधरी फिर धीरे-धीरे कहने लगे, ‘‘देखो, प्रधान, फौज में जो भरती होते हैं, न जाने क्या-क्या सोचकर, किस-किस आशा से। कोई-कोई अभागा आशा से नहीं निराशा से भी
भरती होता है, और लौटने की
कल्पना नहीं करता। लेकिन जो लौटने की बात सोचते हैं-और प्राय: सभी सोचते हैं-वे
मेरी तरह लौटने की बात नहीं सोचते।’’
उनका स्वर मुझे
चुभ गया। मैंने सान्त्वना के स्वर में कहा, ‘‘नहीं मेजर चौधरी, इतने हतधैर्य आपको नहीं।’’
‘‘मुझे कह लेने दो,
प्रधान!’’
मैं रुक गया।
‘‘मेरी जाँघ और
कूल्हे में चोट लगी थी, अब मैं सेना के
काम का न रहा पर आजीवन लँगड़ा रहकर भी वैसे चलने-फिरने लगूँगा, यह तुमने अस्पताल में सुना है। सिविल जीवन में
कई पेशे हैं जो मैं कर सकता हूँ। इसलिए घबराने की कोई बात नहीं। ठीक है न? पर-’’ मेजर चौधरी फिर रुक गये और मैंने लक्ष्य किया कि आगे की बात कहने में उन्हें
कष्ट हो रहा है; ‘‘पर चोटें ऐसी भी
होती हैं-जिनका इलाज-नहीं होता...’’
मैं चुपचाप सुनता
रहा।
‘‘भरती होने से
साल-भर पहले मेरी शादी हुई थी। तीन साल हो गये। हम लोग साथ लगभग नहीं रहे-वैसी
सुविधाएँ नहीं हुईं। हमारी कोई सन्तान नहीं है।’’
फिर मौन। क्या
मेरी ओर से कुछ अपेक्षित है? किन्तु किसी
आन्तरिक व्यथा की बात अगर वह कहना चाहते हैं, तो मौन ही सहायक हो सकता है, वही प्रोत्साहन है।
‘‘सोचता हूँ,
दाम्पत्य-जीवन में शुरू में-इतनी-कोमलता न बरती
होगी! कहते हैं कि स्त्री-पुरुष में पहले सख्य आना चाहिए-मानसिक अनुकूलता-’’
मैंने कनखियों ने उनकी तरफ़ देखा। सीधे देखने
से स्वीकारी अन्तरात्मा की खुलती सीपी खट् से बन्द हो जाया करती है। उन्हें कहने
दूँ।
पर उन्होंने जो
कहा उसके लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं था और अगर उनके कहने के ढंग में ही इतनी गहरी
वेदना न होती तो जो शब्द कहे गये थे उनसे पूरा व्यंजनार्थ भी मैं न पा सकता...
‘‘हमारी कोई सन्तान
नहीं है। और अब-जिससे आगे कुछ नहीं है वह सख्य भी कैसे हो सकता है? उसे-एक सन्तान का ही सहारा होता है... कुछ
नहीं! प्रधान, यह ‘कम्पैशनेट लीव’ अच्छा मजाक है-कम्पैशन भगवान को छोडक़र और कौन दे सकता है
और मृत्यु के अलावा होता कहाँ है? अब इति से आरम्भ
है! घर!’’ कुछ रुककर, ‘‘वापसी! घर!’’
मैं सन्न रह गया!
कुछ बोल न सका। थोड़ी देर बाद चौंककर देखा कि गाड़ी की चाल अपने-आप बहुत धीमी हो
गयी है, इतनी कि तीसरे गीयर पर वह
झटके दे रही है। मैंने कुछ सँभलकर गीयर बदला, और फिर गाड़ी तेज़ करके एकाग्र होकर चलाने लगा-नहीं,
एकाग्र होकर नहीं, एकाग्र दीखता हुआ।
तब मेजर चौधरी एक
बार अपना सिर झटके से हिलाकर मानो उस विचार-शृंखला को तोड़ते हुए सीधे होकर बैठ
गये। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, ‘‘क्षमा करना, प्रधान, मैं शायद अनकहनी कह गया। तुम्हारे प्रश्नों के
लिए तैयार नहीं था-’’
मैंने
रुकते-रुकते कहा, ‘‘मेजर, मेरे पास शब्द नहीं हैं कि कुछ कहूँ-’’
‘‘कहोगे क्या,
प्रधान? कुछ बातें शब्द से परे होती हैं-शायद कल्पना से भी परे होती
हैं। क्या मैं भी जानता हूँ कि-कि घर लौटकर मैं क्या अनुभव करूँगा? छोड़ो इसे। तुम्हें याद है, पिछले साल मैं कुछ महीने मिलिटरी पुलिस में चला
गया था?’’ मैंने जाना कि मेजर विषय
बदलना चाह रहे हैं। पूरी दिलचस्पी के साथ बोला, ‘‘हाँ-हाँ। वह अनुभव भी अजीब रहा होगा।’’
‘‘हाँ। तभी की एक
बात अचानक याद आयी है। मैं शिलङ् में प्रोवोस्ट मार्शल1 के दफ्तर में था। तब-वें डिवीजन की कुछ गोरी पलटनें वहाँ
विश्राम और नये सामान के लिए बर्मा से लौटकर आयी थीं।’’
‘‘हाँ, मुझे याद है। उन लोगों ने कुछ उपद्रव भी वहाँ
खड़ा किया था।’’
‘‘काफ़ी! एक रात
मैं जीप लिये गश्त पर जा रहा था। हैपी वैली की छावनी से जो सडक़ शिलङ् बस्ती को
आती है वह बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी और उतार-चढ़ाव की है और चीड़ के झुरमुटों से छायी हुई,
यह तो तुम जानते हो। मैं एक मोड़ से निकला ही
था कि मुझे लगा, कुछ चीज़ रास्ते
से उछलकर एक ओर को दुबक गयी है। गीदड़-लोमड़ी उधर बहुत हैं, पर उनकी फलाँग ऐसी अनाड़ी नहीं होती, इसलिए मैं रुक गया। झुरमुटों के किनारे खोजते हुए मैंने
देखा; एक गोरा फौजी छिपना चाह
रहा है। छिपना चाहता है तो अवश्य अपराधी है, यह सोचकर मैंने उसे जरा धमकाया और नाम, नम्बर, पलटन आदि का पता लिख लिया। वह बिना पास के रात को बाहर तो था ही, पूछने पर उसने बताया कि वह एक मील और नीचे
नाङ्मिथ्-माई की बस्ती को जा रहा था। इससे आगे का प्रश्न मैंने नहीं पूछा, उन प्रश्नों का उत्तर जानते ही हो और पूछकर फिर
कड़ा दंड देना पड़ता है जो कि अधिकारी नहीं चाहते-जब तक कि खुल्लमखुल्ला कोई बड़ा
स्कैंडल न हो।’’
‘‘हूँ। मैंने तो
सुना है कि यथासम्भव अनदेखी की जाती है ऐसी बातों की। बल्कि कोई वेश्यालय में
पकड़ा जाए और उसकी पेशी हो तो असली अपराध के लिए नहीं होती, वरदी ठीक न पहनने या अफ़सर की अवज्ञा या ऐसे ही किसी जुर्म
के लिए होती है।’’
‘‘ठीक ही सुना है
तुमने। असली अपराध के लिए ही हुआ करे तो अव्वल तो चालान इतने हों कि सेना बदनाम हो
जाए; इससे इसका असर फौजियों पर
भी तो उलटा पड़े- उनका दिमाग हर वक्त उधर ही जाया करे। खैर उस दिन तो मैंने उसे
डाँट-डपटकर छोड़ दिया। पर दो दिन बाद फिर एक अजीब परिस्थिति में उसका सामना हुआ।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘उस दिन मैं अधिक
देर करके जा रहा था। आधी रात होगी, गश्त पर जाते हुए
उसी जगह के आसपास मैंने एक चीख सुनी। गाड़ी रोककर मैंने बत्ती बुझा दी और टार्च
लेकर एक पुलिया की ओर गया जिधर से आवाज आयी थी। मेरा अनुमान ठीक ही था; पुलिया के नीचे एक पहाड़ी औरत गुस्से से भरी
खड़ी थी, और कुछ दूर पर एक
अस्त-व्यस्त गोरा फौजी, जिसकी टोपी और
पेटी जमीन पर पड़ी थी और बुश्शर्ट हाथ में। मैंने नीचे उतरकर डाँटकर पूछा,
‘यह क्या है?’ पर तभी मैंने उस फौजी की आँखों में देखकर पहचाना कि एक तो
वह परसोंवाला व्यक्ति है, दूसरे वह काफ़ी
नशे में है। मैंने और भी कड़े स्वर में पूछा, ‘तुम्हें शरम नहीं आती? क्या कर रहे थे तुम’?’’
वह बोला,
‘‘यह मेरी है?’’
मैंने कहा,
‘‘बको मत!’’ और उस औरत से कहा कि वह चली जाए। पर वह ठिठकी रही। मैंने
उससे पूछा, ‘‘जाती क्यों नहीं?’’
तब वह कुछ सहमी-सी बोली, ‘‘मेरे रुपये ले दो।’’
‘‘काफ़ी बेशर्म रही
होगी वह भी!’’
‘‘हाँ मामला अजीब ही
था। दोनों को डाँटने पर दोनों ने जो टूटे-फूटे वाक्य कहे उससे यह समझ में आया कि
दो-तीन घंटे पहले वह गोरा एक बार उस औरत के पास हो गया था और फिर आगे गाँव की तरफ़
चला गया था। लौटकर फिर उसे वह रास्ते में मिली तो गोरे ने उसे पकड़ लिया था। झगड़ा
इसी बात का था कि गोरे का कहना था, वह रात के पैसे
दे चुका है, और औरत का दावा
था कि पिछला हिसाब चुकता था, और अब फौजी उसका
देनदार है। मैंने उसे धमकाकर चलता किया। पहले तो वह गालियाँ देने लगी पर जब उसने
देखा कि गोरा भी गिरफ्तार हो गया है तो बड़बड़ाती चली गयी।’’
‘‘फिर गोरे का क्या
हुआ? उसे तो कड़ी सजा मिलनी
चाहिए थी?’’
मेजर चौधरी थोड़ी
देर तक चुप रहे। फिर बोले, ‘‘नहीं प्रधान,
उसे सजा नहीं मिली। मालूम नहीं वह मेरी भूल थी
या नहीं, पर जीप में ले आने के
घंटा भर बाद मैंने उसे छोड़ दिया।’’ मैंने अचानक कहा, ‘‘वाह, क्यों?’’ फिर यह सोचकर कि यह प्रश्न कुछ अशिष्ट-सा हो गया है,
मैंने फिर कहा, ‘‘कुछ विशेष कारण रहा होगा-’’
‘‘कारण? हाँ, कारण... था शायद। यह तो इस पर है कि कारण कहते किसे हैं। मैंने जैसे छोड़ा वह
बताता हूँ।’’ मैं प्रतीक्षा
करता रहा। मेजर कहने लगे, ‘‘उसे मैं जीप में
ले आया। थोड़ी देर टार्च का प्रकाश उसके चेहरे पर डालकर घुमाता रहा कि वह और जरा
सहम जाए। तब मैंने कडक़कर पूछा, ‘‘तुम्हें शरम नहीं
आयी अपनी फौज का और ब्रिटेन का नाम कलंकित करते? अभी परसों मैंने तुम्हें पकड़ा था और माफ कर दिया था।’’
मेरे स्वर का उसके नशे पर कुछ असर हुआ। जरा
सँभलकर बोला, ‘‘सर, मैं कुछ बुरा नहीं करना चाहता था।’’ मैंने फिर डाँटा, ‘‘सडक़ पर एक औरत को पकड़ते हो और कहते हो कि बुरा करना नहीं
चाहते थे?’’ वह बगलें झाँकने
लगा, पर फिर भी सफाई देता
हुआ-सा बोला, ‘‘सर, वह अच्छी औरत नहीं है। वह रुपया लेती है-मैं
तीन दिन से रोज उसके पास आता हूँ।’’ मैंने सोचा, बेहयाई इतना हो
तो कोई क्या करे? पर इस टामी जन्तु
में जन्तु का-सा सीधापन भी है जो ऐसी बात कर रहा है। मैंने कहा, ‘‘और तुम तो अपने को बड़ा अच्छा आदमी समझते होगे
न, एकदम स्वर्ग से झरा हुआ
फरिश्ता?’’ वह वैसे ही बोला,
‘‘नहीं सर, लेकिन-लेकिन...’’
‘‘मैंने कहा,
‘‘लेकिन क्या? तुमने अपनी पलटन का और अपना मुँह काला किया है, और कुछ नहीं।’’ तभी मुझे उस औरत की बात याद आयी कि वह कुछ घंटे पहले उसके
पास हो गया था, और मेरा गुस्सा
फिर भडक़ उठा। मैंने उससे कहा, ‘‘थोड़ी देर पहले
तुम एक बार बचकर चले भी गये थे, उससे तुम्हें
सन्तोष नहीं हुआ? आगे गाँव में
कहाँ गये थे? एक बार काफ़ी
नहीं था!’’
‘‘अब तक वह कुछ और
सँभल गया था। बोला, सर, गलती मैंने की है। लेकिन-लेकिन मैं अपने
साथियों से बराबर होना चाहता हूँ।’’
मैंने चौंककर कहा,
‘‘क्या मतलब?’’
वह बोला,
‘‘हमारा डिवीजन छह हफ्ते हुए यहाँ आ गया था,
आप जानते हैं। डेढ़ साल से हम लोग फ्रंट पर थे
जहाँ औरत का नाम नहीं, खाली मच्छर और
कीचड़ और पेचिश होती है। वहाँ से मेरी पलटन छह हफ्ते पहले लौटी थी, पर मैं एक ब्रेकडाउन टुकड़ी के साथ पीछे रह गया
था।’’
‘‘तो फिर?’’
मैंने पूछा।
बोला, ‘‘डिवीजन में मेरी पलटन सबसे पहली यहाँ आयी थी,
बाकी पलटनें पीछे आयीं। छह हफ्ते से वे लोग
यहाँ हैं, और मैं कुल परसों आया हूँ
और दस दिन में हम लोग वापस चले जाएँगे।’’
मैंने डाँटा,
‘‘तुम्हारा मतलब क्या है?’’ उसने फिर धीरे-धीरे जैसे मुझे समझाते हुए कहा,
‘‘सारे शिलङ् के गाँवों की, नेटिव बस्तियों की छाँट उन्होंने की है। मैं
केवल परसों आया हूँ, किसी से पीछे मैं
नहीं रहना चाहता।’’
मेजर चौधरी चुप
हो गये। मैं भी कुछ देर चुप रहा। फिर मैंने कहा, ‘‘क्या दलील है! ऐसा विकृत तर्क वह कैसे कर सका-नशे का ही असर
रहा होगा। फिर आपने क्या किया?’’
‘‘मैं मानता हूँ कि
तर्क विकृत है। पर इसे पेश कर सकने में मनुष्य से नीचे के निरे मानव-जन्तु का साहस
है, बल्कि साहस भी नहीं,
निरी जन्तु-बुद्धि हैं, और इसलिए उस पर विचार भी उसी तल पर होना चाहिए ऐसा मुझे
लगा। समझ लो जन्तु ने जन्तु को माफ कर दिया। बल्कि यह कहना चाहिए कि जन्तु ने
जन्तु को अपराधी ही नहीं पाया।’’ कुछ रुककर वह
कहते गये, ‘‘यह भी मुझे लगा
कि व्यक्ति में ऐसी भावना पैदा करनेवाली सामूहिक मन:स्थिति ही हो सकती है, और यदि ऐसा है तो समूह को ही दायी मानना चाहिए।’’
स्टेशन-वैगन
हचकोले खाता हुआ बढ़ता रहा। मैं कुछ बोला नहीं। मेजर चौधरी ने कहा, ‘‘तुमने कुछ कहा नहीं। शायद तुम समझते हो कि
मैंने भूल की, इसीलिए चुप हो।
पर वैसा कह भी दो तो मैं बुरा न मानूँ- मेरा बिलकुल दावा नहीं है कि मैंने ठीक
किया।’’
मैंने कहा,
‘‘नहीं, इतना आसान तो नहीं है कुछ कह देना।’’ और चुप लगा गया। अपने अनुभव की भी जो एक घटना मुझे याद आयी, उसे मैं मन-ही-मन दोहराता रहा। फिर मैंने कहा,
‘‘एक ऐसी ही घटना मुझे भी याद आती है-’’
‘‘क्या?’’
‘‘उसमें ऐसा तीखापन
तो नहीं है, पर जन्तु-तर्क की
बात वहाँ भी लागू होती। एक दिन जोरहाट में क्लब में एक भारतीय नृत्य-मंडली आयी
थी-हम लोग सब देखने गये थे। उस मंडली को और आगे लीडो रोड की तरफ़ जाना था, इसलिए उसे एक ट्रक में बिठाकर मरियानी स्टेशन
भेजने की व्यवस्था हुई। मुझे उस ट्रक को स्टेशन तक सुरिक्षत पहुँचा देने का काम
सौंपा गया।’’
‘‘ट्रक में मंडली
की छहों लड़कियाँ और साजिन्दे वगैरह बैठ गये, तो मैंने ड्राइवर को चलने को कहा। गाड़ी से उड़ी हुई धूल को
बैठ जाने के लिए कुछ समय देकर मैं भी जीप में क्लब से बाहर निकला। कुछ दूर तो बजरी
की सडक़ थी, उसके बाद जब
पक्की तारकोल की सडक़ आयी और धूल बन्द हो गयी तो मैंने तेज बढक़र ट्रक को पकड़
लेने की सोची। कुछ देर बार सामने ट्रक की पीठ दीखी, पर उसकी ओर देखते ही मैं चौंक गया।’’
‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’
‘‘मैंने देखा,
ट्रक की छत तक बाँहें फैलाए और पीठ की तख्ती के
ऊपरी सिरे को दाँतों से पकड़े हुए एक आदमी लटक रहा था। तनिक और पास आकर देखा,
एक बाबर्दी गोरा था। उसके पैर किसी चीज़ पर
टिके नहीं थे, बूट यों ही झूल
रहे थे। क्षण-भर तो मैं चकित सोचता ही रहा कि क्या दाँतों और नाखूनों की पकड़ इतनी
मजबूत हो सकती है! फिर मैंने लपककर जीप उस ट्रक के बराबर करके ड्राइवर को रुक जाने
को कहा।’’
‘‘फिर?’’
‘‘ट्रक रुका तो
हमने उस आदमी को नीचे उतारा। उसके हाथों की पकड़ इतनी सख्त थी कि हमने उसे उतार
लिया तब भी उसकी उँगलियाँ सीधी नहीं हुईं-वे जकड़ी-जकड़ी ही ऐंठ गयी थीं! और गोरा
नीचे उतरते ही जमीन पर ही ढेर हो गया।’’
‘‘जरूर पिये हुए
होगा...’’
‘‘हाँ-एकदम धुत्!
आँखों की पुतलियाँ बिलकुल विस्फारित हो रही थीं, वह भौंचक्का-सा बैठा था। मैंने डपटकर उठाया तो लडख़ड़ाकर
खड़ा हो गया। मैंने पूछा, ‘‘तुम ट्रक के पीछे
क्यों लटके हुए थे?’’ तो बोला,
‘‘सर, मैं लिफ्ट चाहता हूँ।’’ मैंने कहा,
‘‘लिफ्ट का वह कोई ढंग है? चलो, मेरी जीप में चलो,
मैं पहुँचा दूँगा। कहाँ जाना है तुम्हें?’’
इसका उसने कोई उत्तर नहीं दिया। हम लोग जीप में
घुसे, वह लडख़ड़ाता हुआ चढ़ा और
पीछे सीटों के बीच में फर्श पर धप् से बैठ गया।
‘‘हम चल पड़े।
हठात् उसने पूछा, ‘‘सर, आप स्कॉच हैं?’’ मैंने लक्ष्य किया, नशे में वह यह नहीं पहचान सकता कि मैं भारतीय हूँ या अँग्रेज, पर इतना पहचानता है कि मैं अफसर हूँ और ‘सर’ कहना चाहिए। फौजी ट्रेनिंग भी बड़ी चीज़ है जो नशे की तह को भी भेद जाती है!
खैर! मैंने कहा, ‘‘नहीं, मैं स्कॉच नहीं हूँ।’’
‘‘वह जैसे अपने से
ही बोला, ‘‘डैम फाइन ह्विस्की।’’
और जबान चटखारने लगा। मैं पहले तो समझा नहीं,
फिर अनुमान किया कि स्कॉच शब्द से उसका मदसिक्त
मन केवल ह्विस्की का ही सम्बोधन जोड़ सकता है... तब मैंने कहा, ‘‘हाँ। लेकिन तुम जाओगे कहाँ?’’
बोला, ‘‘मुझे यही कहीं उतार दीजिए-जहाँ कहीं कोई नेटिव
गाँव पास हो।’’ मैंने डपटकर कहा,
‘‘क्यों, क्या मंशा है तुम्हारी?’’ तब उसका स्वर
अचानक रहस्य-भरा हो आया, और वह बोला,
‘‘सच बताऊँ सर, मुझे औरत चाहिए।’’ मैंने कहा, ‘‘यहाँ कहाँ है औरत?’’
तो वह बोला, ‘‘सर, मैं ढूँढ़ लूँगा,
आप कहीं गाँव-वाँव के पास उतार दीजिए।’’
‘‘फिर तुमने क्या
किया?’’
‘‘मेरे जी में तो
आया कि दो थप्पड़ लगाऊँ। पर सच कहूँ तो उसके ‘मुझे औरत चाहिए’ के निव्र्याज कथन ने ही मुझे निरस्त्र कर दिया-मुझे भी लगा कि इस जन्तुत्व के
स्तर पर मानव ताडऩीय नहीं, दयनीय है। मैंने तीन-चार
मील आगे सडक़ पर उसे उतार दिया- जहाँ आस-पास कहीं गाँव का नाम-निशान न हो और लौट
जाना भी जरा मेहनत का काम हो। अब तक कई बार सोचता हूँ कि मैंने उचित किया कि नहीं-’’
‘‘ठीक ही किया-और
क्या कर सकते थे? दंड देना कोई
इलाज न होता। मैं तो मानता हूँ कि जन्तु के साथ जन्तुतर्क ही मानवता है, क्योंकि वही करुणा है; और न्याय, अनुशासन, ये सब अन्याय हैं जो उस जन्तुत्व को पाशविकता
ही बना देंगे।’’
हम लोग फिर बहुत
देर तक चुप रहे। नाकाचारी चार-आली पार करके हमने मरियानी की सडक़ पकड़ ली थी;
कच्ची यह भी थी पर उतनी खराब नहीं, और हम पीछे धूल के बादल उड़ाते हुए जरा तेज चल
रहे थे। अचानक मेजर चौधरी मानो स्वगत कहने लगे, ‘‘और मैं मनुष्य हूँ। मैं नहीं सोच सकता कि ‘यह मेरी है’ या कि ‘मुझे औरत चाहिए!’
मैं छुट्टी पर जा रहा हँ-कम्पैशनेटर छुट्टी पर।
कम्पैशन यानी रहम-मुझ पर रहम किया गया है, क्योंकि मैं उस गोरे की तरह हिर्स नहीं कर सकता कि मैं किसी के बराबर होना
चाहता हूँ। नहीं, हिर्स तो कर सकता
हूँ, पर मनुष्य हूँ और मैं
वापस जा रहा हूँ घर। घर!’’
मैं चुपचाप आँखें
सामने गड़ाये स्टेशन-वैगन चलाता रहा और मानता रहा कि मेजर का वह अजीब स्वर में उच्चारित
शब्द ‘घर!’ गाड़ी की घर्र-घर्र में लीन हो जाए; उसे सुनने, सुनकर स्वीकारने की बाध्यता न हो।
उन्होंने फिर कहा,
‘‘एक बार मैं ट्रेन से आ रहा था तो उसी
कम्पार्टमेंट में छुट्टी से लौटता हुए एक पंजाबी सूबेदार-मेजर अपने एक साथी को
अपनी छुट्टी का अनुभव सुना रहा था। मैं ध्यान तो नहीं दे रहा था, पर अचानक एक बात मेरी चेतना पर अँक गयी और उसकी
स्मृति बनी रह गयी। सूबेदार मेजर कह रहा था, ‘छुट्टी मिलती नहीं थी, कुल दस दिन की मंजूर हुई तो घरवाली को तारीखें लिखीं,
पर उसका तार आया कि छुट्टी और पन्द्रह दिन बाद
लेना। मुझे पहले तो सदमा पहुँचा पर उसने चिट्ठी में लिखा था कि दस दिन की छुट्टी
में तीन तो आने-जाने के, बाकी छह दिन में
से मैं नहीं चाहती कि तीन यों ही जाया हो जाएँ।’ और इस पर उसके साथी ने दबी ईष्र्या के साथ कहा था,
‘‘तकदीरवाले हो भाई...’’
मैंने कहा,
‘‘युद्ध में इन्सान का गुण-दोष सब चरम रूप लेकर
प्रकट होता है। मुश्किल यही है कि गुण प्रकट होते हैं तो मृत्यु के मुख में ले
जाते हैं, दोष सुरक्षित लौटा लाते
हैं। युद्ध के खिलाफ यह कदम बड़ी दलील नहीं है-प्रत्येक युद्ध के बाद इनसान
चारित्रिक दृष्टि से और गरीब होकर लौटता है।’’
‘‘यद्यपि कहते हैं
कि तीखा अनुभव चरित्र को पुष्ट करता है।’’
‘‘हाँ, लेकिन जो पुष्ट होते हैं वे लौटते कहाँ हैं?’’
कहते-कहते मैंने जीभ काट ली, पर बात मुँह से निकल गयी थी।
मेजर चौधरी की
पलकें एक बार सकुचकर फैल गयीं, जैसे नश्तर के
नीचे कोई अंग होने पर। उन्होंने सम्भलकर बैठते हुए कहा, ‘‘थैंक यू, कैप्टन प्रधान!
हम लोग मरियानी के पास आ गये-मुझे स्टेशन उतारते जाना, तुम्हारे डिपो जाकर क्या करूँगा-’’
तिराहे से गाड़ी
मैंने स्टेशन की ओर मोड़ दी।
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