बड़े भाई साहब
मेरे भाई साहब मुझसे पॉँच साल बडे थे, लेकिन तीन दरजे आगे। उन्होटने भी उसी
उम्र में पढना शुरू किया था जब मैने शुरू किया; लेकिन तालीम जैसे महत्वन के मामले में
वह जल्दी बाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भवन कि बुनियाद खूब मजबूत डालना
चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी
तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता
न हो, तो
मकान कैसे पाएदार बने।
मैं छोटा था, वह
बडे थे। मेरी उम्र नौ साल कि,वह
चौदह साल के थे। उन्हेंट मेरी तम्बी ह और
निगरानी का पूरा जन्मएसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्मब
को कानून समझूँ।
वह स्वाभाव से बडे अघ्युयनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते
और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिडियों,
कुत्तोंक, बल्लियो की तस्वी रें बनाया करते थें।
कभी-कभी एक ही नाम या शब्दय या वाक्यत दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को
बार-बार सुन्दीर अक्षर से नकल करते। कभी ऐसी शब्दक-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य ! मसलन एक बार उनकी कापी
पर मैने यह इबारत देखी-स्पेतशल, अमीना,
भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राघेश्याम, श्रीयुत राघेश्या,म, एक घंटे तक—इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था।
मैंने चेष्टाय की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ; लेकिन असफल रहा और उसने पूछने का साहस न हुआ। वह नवी जमात
में थे, मैं पाँचवी में। उनकि
रचनाओ को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बडी बात थी।
मेरा जी पढने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका
पाते ही होस्ट ल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियां उछालता, कभी कागज कि तितलियाँ उडाता, और कहीं कोई साथी मिल गया तो पूछना ही
क्या कभी चारदीवारी पर चढकर नीचे कूद रहे
है, कभी फाटक पर वार,
उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद
उठा रहे है। लेकिन कमरे में आते ही भाई
साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता-‘कहां थें?‘ हमेशा यही सवाल, इसी घ्विनि में पूछा जाता था और इसका
जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुंह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह
देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीजकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज
न था कि रोष से मिले हुए शब्दोंऔ में मेरा सत्कार करें।
‘इस तरह अंग्रेजी पढोगे, तो जिन्द गी-भर पढते रहोगे और एक हर्फ न
आएगा। अँगरेजी पढना कोई हंसी-खेल नही है
कि जो चाहे पढ ले, नही,
ऐरा-गैरा नत्थू -खैरा सभी अंगरेजी कि
विद्धान हो जाते। यहां रात-दिन आंखे फोडनी पडती है और खून जलाना पडता है, जब कही यह विधा आती है। और आती
क्या है, हां, कहने को आ जाती है। बडे-बडे विद्धान भी
शुद्ध अंगरेजी नही लिख सकते, बोलना तो दुर रहा। और मैं कहता हूं,
तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी
सबक नही लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूं,
तुम अपनी आंखो देखते हो, अगर नही देखते, जो यह तुम्हाररी आंखो का कसूर है,
तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने
मेले-तमाशे होते है, मुझे
तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज
ही क्रिकेट और हाकी मैच होते हैं। मैं पास
नही फटकता। हमेशा पढता रहा हूं, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पडा रहता हूं फिर तुम कैसे
आशा करते हो कि तुम यों खेल-कुद में वक्ता गंवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो-ही-तीन साल लगते हैं,
तुम उम्र-भर इसी दरजे में पडे सडते
रहोगे। अगर तुम्हेझ इस तरह उम्र गंवानी है, तो बंहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली -डंडा
खेलो। दादा की गाढी कमाई के रूपये क्योब बरबाद करते हो?’
मैं यह लताड़ सुनकर आंसू बहाने लगता। जवाब ही क्याज था। अपराध तो मैंने किया, लताड कौन सहे? भाई साहब उपदेश कि कला में निपुण थे।
ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे
सूक्तिई-बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकडे-टुकडे हो जाते और हिम्मतत छूट जाती। इस
तरह जान तोडकर मेहनत करने कि शक्तिा मैं अपने में न पाता था और उस निराशा मे जरा
देर के लिए मैं सोचने लगता-क्योंऔ न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है,
उसमे हाथ डालकर क्योक अपनी जिन्देगी
खराब करूं। मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्करर आ
जाता था। लेकिन घंटे–दो
घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर
पढूंगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शाढ बनाए, बिना कोई स्कि म तैयार किए काम कैसे
शुरूं करूं? टाइम-टेबिल
में, खेल-कूद कि मद बिलकुल
उड जाती। प्रात:काल उठना, छ:
बजे मुंह-हाथ धो, नाश्ताु
कर पढने बैठ जाना। छ: से आठ तक अंग्रेजी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढे नौ तक इतिहास, फिर भोजन और स्कू ल। साढे तीन बजे
स्कूमल से वापस होकर आधा घंण्टाछ आराम, चार से पांच तक भूगोल, पांच से छ: तक ग्रामर, आघा घंटा होस्टाल के सामने टहलना, साढे छ: से सात तक अंग्रेजी कम्पो्जीशन,
फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद,
नौ से दस तक हिन्दील, दस से ग्यापरह तक विविध विषय, फिर विश्राम।
मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन
से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हलके-हलके झोके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दांव-घात, वाली-बाल की वह तेजी और फुरती मुझे
अज्ञात और अनिर्वाय रूप से खीच ले जाती और वहां जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह
जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह
आंखफोड पुस्त के किसी कि याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं उनके
साये से भागता, उनकी
आंखो से दूर रहने कि चेष्टा करता। कमरे मे
इस तरह दबे पांव आता कि उन्हेर खबर न हो। उनकि नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण
निकले। हमेशा सिर पर नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति्
के बीच मे भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकडा रहता है, मैं फटकार और घुडकियां खाकर भी खेल-कूद
का तिरस्कातर न कर सकता।
सालाना इम्तखहान हुआ। भाई साहब फेल हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया।
मेरे और उनके बीच केवल दो साल का अन्त र रह गया।
जी में आया, भाई
साहब को आडें हाथो लूँ—आपकी
वह घोर तपस्या कहाँ गई? मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और दरजे में अव्व ल
भी हूं। लेकिन वह इतने दु:खी और उदास थे कि मुझे उनसे दिल्लीे हमदर्दी हुई और उनके
घाव पर नमक छिडकने का विचार ही लज्जा स्पलद जान पडा। हां, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और
आत्मालभिमान भी बढा भाई साहब का वहरोब मुझ पर न रहा। आजादी से खेल–कूद में शरीक होने लगा। दिल मजबूत था।
अगर उन्हो।ने फिर मेरी फजीहत की, तो
साफ कह दूँगा—आपने
अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते दरजे में अव्व ल आ गया। जबावसेयह
हेकडी जताने कासाहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग से साफ जाहिर होता था कि भाई साहब
का वह आतंक अब मुझ पर नहीं है। भाई साहब ने इसे भाँप लिया-उनकी ससहसत बुद्धि बडी
तीव्र थी और एक दिन जब मै भोर का सारा समय गुल्लीस-डंडे कि भेंट करके ठीक भोजन के
समय लौटा, तो भाई साइब ने मानो
तलवार खीच ली और मुझ पर टूट पडे-देखता हूं, इस साल पास हो गए और दरजे में अव्वचल आ
गए, तो तुम्हे दिमाग हो गया है; मगर भाईजान, घमंड तो बडे-बडे का नही रहा, तुम्हा्री क्याम हस्तीो है, इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही
होगा। उसके चरित्र से तुमने कौन-सा उपदेश लिया? या यो ही पढ गए? महज इम्तहहान पास कर लेना कोई चीज नही,
असल चीज है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढो,
उसका अभिप्राय समझो। रावण भूमंडल का
स्वा मी था। ऐसे राजो को चक्रवर्ती कहते है। आजकल अंगरेजो के राज्य का विस्ता र बहुत बढा हुआ है, पर इन्हेर चक्रवर्ती नहीं कह सकते।
संसार में अनेको राष्ट़्रब अँगरेजों का आधिपत्य, स्वीनकार नहीं करते। बिलकुल स्वाेधीन
हैं। रावण चक्रवर्ती राजा था। संसार के सभी महीप उसे कर देते थे। बडे-बडे देवता
उसकी गुलामी करते थे। आग और पानी के देवता भी उसके दास थे; मगर उसका अंत क्यात हुआ, घमंड ने उसका नाम-निशान तक मिटा दिया,
कोई उसे एक चिल्लूे पानी देनेवाला भी न
बचा। आदमी जो कुकर्म चाहे करें; पर
अभिमान न करे, इतराए
नही। अभिमान किया और दीन-दुनिया से गया।
शैतान का हाल भी पढा ही होगा। उसे यह अनुमान हुआ था कि ईश्व र
का उससे बढकर सच्चाी भक्त कोई है ही नहीं।
अन्त में यह हुआ कि स्वचर्ग से नरक में
ढकेल दिया गया। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार किया था। भीख मांग-मांगकर मर गया।
तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास किया है और अभी से तुम्हा रा सिर फिर गया, तब तो तुम आगे बढ चुके। यह समझ लो कि
तुम अपनी मेहनत से नही पास हुए, अन्धेप
के हाथ बटेर लग गई। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं। कभी-कभी गुल्लीब-डंडे में
भी अंधा चोट निशाना पड़ जाता है। उससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता। सफल खिलाड़ी
वह है, जिसका कोई निशान खाली
न जाए।
मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दाँतो पसीना आयगा। जब अलजबरा और
जामेंट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और इंगलिस्ता न का इतिहास पढ़ना पड़ेंगा!
बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी को गुजरे है कौन-सा कांड किस
हेनरी के समय हुआ, क्यात
यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी
सातवें की जगह हेनरी आठवां लिखा और सब नम्ब र गायब! सफाचट। सिर्फ भी न मिलगा,
सिफर भी! हो किस ख्यानल में! दरजनो तो
जेम्स हुए हैं, दरजनो विलियम, कोडियों चार्ल्सइ दिमाग चक्कर खाने
लगता है। आंधी रोग हो जाता है। इन अभागो को नाम भी न जुडते थे। एक ही नाम के पीछे
दोयम, तेयम, चहारम, पंचम नगाते चले गए। मुछसे पूछते,
तो दस लाख नाम बता देता।
और जामेट्री तो बस खुदा की पनाह! अ ब ज
की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नम्ब र कट गए। कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं
पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या।
फर्क है और व्यंर्थकी बात के लिए क्यो छात्रो का खून करते हो दाल-भात-रोटी खायी या
भात-दाल-रोटी खायी, इसमें
क्याल रखा है; मगर
इन परीक्षको को क्याफ परवाह! वह तो वही देखते है, जो पुस्तयक में लिखा है। चाहते हैं कि
लडके अक्षर-अक्षर रट डाले। और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोडा है और आखिर इन
बे-सिर-पैर की बातो के पढ़ने से क्या फायदा?
इस रेखा पर वह लम्बऔ गिरा दो, तो आधार लम्बक से दुगना होगा। पूछिए,
इससे प्रयोजन? दुगना नही, चौगुना हो जाए, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेगी। कह
दिया-‘समय की पाबंदी’
पर एक निबन्धी लिखो, जो चार पन्नोी से कम न हो। अब आप कापी
सामने खोले, कलम
हाथ में लिये, उसके
नाम को रोइए।
कौन नहीं जानता कि समय की पाबन्दीम बहुत अच्छीस बात है। इससे
आदमी के जीवन में संयम आ जाता है, दूसरो
का उस पर स्नेहह होने लगता है और उसके करोबार में उन्न ति होती है; जरा-सी बात पर चार पन्ने कैसे लिखें?
जो बात एक वाक्यम में कही जा सके,
उसे चार पन्नेन में लिखने की जरूरत?
मैं तो इसे हिमाकत समझता हूं। यह तो समय
की किफायत नही, बल्किन
उसका दुरूपयोग है कि व्यूर्थ में किसी बात को ठूंस दिया। हम चाहते है, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर नही,
आपको चार पन्नेी रंगने पडेंगे, चाहे जैसे लिखिए और पन्ने भी पूरे
फुल्सआकेप आकार के। यह छात्रो पर अत्याचार नहीं तो और क्या है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो। समय की पाबन्दीर पर
संक्षेप में एक निबन्धन लिखो, जो चार पन्नो से कम न हो। ठीक! संक्षेप में चार पन्नें हुए,
नही शायद सौ-दो सौ पन्ने लिखवाते। तेज भी दौडिए और धीरे-धीरे भी। है उल्टी
बात या नही? बालक
भी इतनी-सी बात समझ सकता है, लेकिन
इन अध्यालपको को इतनी तमीज भी नहीं। उस पर दावा है कि हम अध्याेपक है। मेरे दरजे
में आओगे लाला, तो
ये सारे पापड बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस दरजे में अव्वमल
आ गए हो, वो जमीन पर पांव नहीं
रखते इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूं, संसार का मुझे तुमसे ज्या दा अनुभव है।
जो कुछ कहता हूं, उसे गिरह बांधिए नही पछताएँगे।
स्कूनल का समय निकट था, नहीं
इश्वयर जाने, यह
उपदेश-माला कब समाप्तत होती। भोजन आज मुझे निस्वाहीं द-सा लग रहा था। जब पास होने
पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो
फेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिए जाएं। भाई साहब ने अपने दरजे की पढाई का
जो भयंकर चित्र खीचा था; उसने
मुझे भयभीत कर दिया। कैसे स्कू ल छोडकर घर नही भागा, यही ताज्जुुब है; लेकिन इतने तिरस्कार पर भी पुस्त कों
में मेरी अरूचि ज्योत-कि-त्यों बनी रही।
खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी था, मगर बहुत कम। बस, इतना कि रोज का टास्क पूरा हो जाए और दरजे में जलील न होना पडें। अपने ऊपर जो विश्वा स पैदा हुआ था,
वह फिर लुप्तन हो गया और फिर चोरो
का-सा जीवन कटने लगा।
3
फिर सालाना इम्त्हान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मै फिर पास हुआ
और भाई साहब फिर फेल हो गए। मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने, कैसे दरजे में अव्विल आ गया। मुझे खुद
अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गये थे; दस बजे रात तक इधर, चार बजे भोर से उभर, छ: से साढे नौ तक स्कू ल जाने के पहले।
मुद्रा कांतिहीन हो गई थी, मगर
बेचारे फेल हो गए। मुझे उन पर दया आतीन थी। नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने
पास होने वाली खुशी आधी हो गई। मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दु:ख न होता,
लेकिन विधि की बात कौन टाले?
मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अन्त र और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई
कि कही भाई साहब एक साल और फेल हो जाएँ, तो मै उनके बराबर हो जाऊं, फिर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर
सकेगे, लेकिन मैंने इस कमीने
विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल डाला। आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो
डांटते हैं। मुझे उस वक्तर अप्रिय लगता है अवश्ये, मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो
कि मैं दनानद पास होता जाता हूं और इतने अच्छेस नम्ब रों से।
अबकी भाई साहब बहुत-कुछ नर्म पड़ गए थे। कई बार मुझे डांटने का
अवसर पाकर भी उन्हों ने धीरज से काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डांटने का अधिकार
उन्हे नही रहा; या रहा तो बहुत कम। मेरी स्वच्छंदता भी
बढी। मैं उनकि सहिष्णुबता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं
तो पास ही हो जाऊंगा, पढू
या न पढूं मेरी तकदीर बलवान् है, इसलिए भाई साहब के डर से जो थोडा-बहुत
बढ लिया करता था, वह
भी बंद हुआ। मुझे कनकौए उडाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाजी
ही की भेंट होता था,
फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था,
और उनकी नजर बचाकर कनकौए उड़ाता था।
मांझा देना, कन्ने
बांधना, पतंग टूर्नामेंट की
तैयारियां आदि समस्याकएँ अब गुप्तं रूप से हल की जाती थीं। भाई साहब को यह संदेह न
करने देना चाहता था कि उनका सम्मा्न और लिहाज मेरी नजरो से कम हो गया है।
एक दिन संध्याह समय होस्टाल से दूर मै एक कनकौआ लूटने बंतहाशा
दौडा जा रहा था। आंखे आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला जा
रहा था, मानो कोई आत्माज स्व
र्ग से निकलकर विरक्त मन से नए संस्कानर
ग्रहण करने जा रही हो। बालकों की एक पूरी सेना लग्गे और झड़दार बांस लिये उनका स्वागत
करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को अपने
आगे-पीछे की खबर न थी। सभी मानो उस पतंग
के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहॉं
सब कुछ समतल है, न
मोटरकारे है, न
ट्राम, न गाडियाँ।
सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड हो गई, जो शायद बाजार से लौट रहे थे। उन्होसने वही मेरा हाथ
पकड लिया और उग्रभाव से बोले-इन बाजारी लौंडो के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते
तुम्हें शर्म नही आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में
नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में
आ गये हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का
ख्याल करना चाहिए। एक जमाना था कि कि लोग आठवां दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो
जाते थे। मैं कितने ही मिडलचियों को जानता
हूं, जो आज अव्व ल दरजे के
डिप्टी मजिस्ट्रे ट या सुपरिटेंडेंट है।
कितने ही आठवी जमाअत वाले हमारे लीडर और समाचार-पत्रो के सम्पा दक है। बडें-बडें
विद्धान उनकी मातहती में काम करते है और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाजारी लौंडों
के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो। मुझे तुम्हामरी इस कमअकली पर दु:ख होता है। तुम
जहीन हो, इसमें शक नही: लेकिन वह जेहन किस काम का,
जो हमारे आत्मीगौरव की हत्या कर डाले?
तुम अपने दिन में समझते होगे, मैं भाई साहब से महज
एक दर्जा नीचे हूं और अब उन्हे् मुझको कुछ कहने का हक नही है; लेकिन यह तुम्हा री गलती है। मैं तुमसे
पांच साल बडा हूं और चाहे आज तुम मेरी ही जमाअत में आ जाओ–और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्सं देह अगले साल तुम मेरे समकक्ष
हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओ-लेकिन मुझमें और जो पांच साल
का अन्तबर है, उसे
तुम क्या, खुदा भी नही मिटा
सकता। मैं तुमसे पांच साल बडा हूं और हमेशा रहूंगा। मुझे दुनिया का और जिन्दनगी का
जो तजरबा है, तुम
उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे
तुम एम. ए., डी.
फिल. और डी. लिट. ही क्यो न हो जाओ।
समझ किताबें पढने से नहीं आती है। हमारी
अम्माग ने कोई दरजा पास नही किया, और दादा भी शायद पांचवी जमाअत के आगे
नही गये, लेकिन हम दोनो चाहे
सारी दुनिया की विधा पढ ले, अम्माग
और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नही कि वे
हमारे जन्मुदाता है, बल्कि इसलिए कि उन्हे दुनिया का हमसे ज्यादा जतरबा है
और रहेगा। अमेरिका में किस जरह कि राज्ये-व्यनवस्था है और आठवे हेनरी ने कितने
विवाह किये और आकाश में कितने नक्षत्र है, यह बाते चाहे उन्हे न मालूम हो, लेकिन हजारों ऐसी आते है, जिनका ज्ञान उन्हे
हमसे और तुमसे ज्यामदा है।
दैव न करें, आज
मैं बीमार हो आऊं, तो
तुम्हासरे हाथ-पांव फूल जाएगें। दादा को तार देने के सिवा तुम्हे और कुछ न सूझेंगा; लेकिन तुम्हारी जगह पर दादा हो, तो किसी को तार न दें, न घबराएं, न बदहवास हों। पहले खुद मरज पहचानकर
इलाज करेंगे, उसमें
सफल न हुए, तो किसी डांक्टार को
बुलायेगें। बीमारी तो खैर बडी चीज है। हम-तुम तो इतना भी नही जानते कि महीने-भर का
महीने-भर कैसे चले। जो कुछ दादा भेजते है, उसे हम बीस-बाईस तक र्खच कर डालते है और पैसे-पैसे को मोहताज
हो जाते है। नाश्तास बंद हो जाता है, धोबी और नाई से मुंह चुराने लगते है; लेकिन जितना आज हम और तुम र्खच कर रहे
है, उसके आधे में दादा ने
अपनी उम्र का बडा भाग इज्जचत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुम्बं का पालन
किया है, जिसमे सब मिलाकर नौ
आदमी थे। अपने हेडमास्टटर साहब ही को देखो। एम. ए. हैं कि नही, और यहा के एम. ए. नही, आक्यएफोर्ड के। एक हजार रूपये पाते है, लेकिन उनके घर इंतजाम कौन करता है? उनकी बूढी मां। हेडमास्टर साहब की
डिग्री यहां बेकार हो गई। पहले खुद घर का
इंतजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जब से उनकी माताजी ने
प्रबंध अपने हाथ मे ले लिया है, जैसे
घर में लक्ष्मीब आ गई है। तो भाईजान, यह जरूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गये हो और अब
स्वईतंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नही चल पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे, तो मैं (थप्पेड दिखाकर) इसका प्रयोग भी
कर सकता हूं। मैं जानता हूं, तुम्हेंब
मेरी बातें जहर लग रही है।
मैं उनकी इस नई युक्तिब से नतमस्त।क हो गया। मुझे आज सचमुच
अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे तम में श्रद्धा उत्पलन्नत
हुईं। मैंने सजल आंखों से कहा-हरगिज नही। आप जो कुछ फरमा रहे है, वह बिलकुल सच है और आपको कहने का अधिकार
है।
भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बाल-कनकाए उड़ान को मना नहीं
करता। मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन
क्या करूँ, खुद बेराह चलूं तो
तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ? यह
कर्त्तव्य भी तो मेरे सिर पर है।
संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ
हमारे ऊपर से गुजरा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला
आता था। भाई साहब लंबे हैं ही, उछलकर
उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होटल की तरफ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।
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