सब बकवास
हम जब उनके बँगले
में पहुँचे, आसमान बिल्कुल
साफ था, धूप खिली हुई थी और बँगले
में खड़े नीम, आम, अमरूद, अनार-के पेड़ों पर चिड़ियाँ चहचहा रही थीं। बँगले के एक ओर एक कोने में केले
के वृक्षों का समूह एक-दूसरे से मुँह जोड़े खड़े थे और उनमें घारें और खिलने को
विकल फूल लटक रहे थे। लगभग एक हजार वर्गमीटर में फैले उस बँगले, जी हाँ उन्होंने बँगला ही कहा था और वह था भी,
में आगे के आधे भाग में फैला था उनका वह
उद्यान।
मेन गेट से बँगले
तक जाने के लिए लाल बजरी का पंद्रह फीट चौड़ा गलियारा था, जिसके दोनों ओर ईटों को टेढ़ा करके गाड़ा गया था। गलियारे
के दोनों ओर लॉन और उससे हटकर पेड़। बँगले के चारों ओर बाउण्ड्रीवॉल और उस दीवार
के साथ फूलों की क्यारियाँ - खिले रंग-बिरंगे फूल। बजरी के गलियारे के बायीं ओर के
लॉन में झूला पड़ा हुआ था और बराम्दे में गद्दीदार चार कुर्सियों के साथ एक आराम
कुर्सी थी जिस पर वह अधलेटे हुए थे। सामने कुर्सी पर उनकी पत्नी आँखों पर चश्मा
सँभालती, जो बार-बार खिसककर नाक पर
आ टिकता था, अखबार पढ़ रही
थीं। उन्होंने हम पर कुछ इस प्रकार दृष्टि डाली मानो कहना चाहती थीं कि सुबह हमारा
आगमन उन्हें अप्रिय लगा था। सामने अधलेटे उनके चेहरे पर भी प्रसन्नता का कोई भाव
नहीं था, लेकिन चूँकि उन्होंने आने
की इज़ाजत दी थी इसलिए चेहरे पर हल्की स्मिति ला बोले, ‘बैठें - जो भी पूछना है पूछ लें - दस बजे मुझे सी.एम. से
मिलने जाना है। ग्यारह का समय दिया है उन्होंने।’ उनके चेहरे पर स्मिति का स्थान गंभीरता ने ओढ़ लिया था और
वह पूरी तरह हमारे प्रश्नों के लिए अपने को तैयार कर चुके थे किसी नेता की तरह।
हमारे कुछ पूछने
से पहले उन्होंने यथावत गंभीरता बरकरार रखते हुए पूछा, ‘कुछ लोगे?’
ना में सिर
हिलाने के बाद वह बोले, ‘आप पत्रकार लोग
ठंडा-गर्म कहाँ लेते हैं!’
हमने उनके
व्यंग्य को समझा और बोले, ‘सर पहले हम अपने
परिचय - ।’
हमारी बात बीच
में ही काटते हुए उन्होंने कहा, ‘परिचय मैं भूल
जाया करता हूँ - क्या होगा जानकर - आप पत्रकार हैं - आप लोगों ने मेरे विरुद्ध
बहुत विषवमन किया है। प्रारंभ में मैंने उत्तर भी दिए - लेकिन आप लोगों के दिमाग
में जो कीड़ा प्रवेश कर गया उसका इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं, फिर मेरी क्या औकात - मैं एक साधारण लेखक - ।’
‘आप अपना वही
घिसा-पिटा प्रश्न दोहरा रहे हैं। नहीं बन्धु मैं आज भी कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ।
फिर यह आवश्यक भी नहीं कि लेखक कागज पर कलम ही घिसता रहे, यदि वह कुछ भी साहित्य के लिए अपना योगदान दे रहा है तो
क्या वह साहित्य की सेवा नहीं! और जहाँ तक लिखने का प्रश्न है - कुछ दिन पहले -
यही कोई दो महीने पहले - ‘पुस्तक सदन
प्रकाशन’ की स्मारिका में उसके
संस्थापक स्व. डॉ. सदाशिव शांडिल्य पर मेरा एक आलेख प्रकाशित हुआ था। स्व. डॉ.
शांडिल्य राज्य के शिक्षा मंत्री डॉ. शिवानंद शांडिल्य के पिता थे यह तो आप जानते
ही होगें।’
‘जी हाँ, मेरी पुस्तकें उसी प्रकाशन से प्रकाशित हुई थीं
और स्व. शांडिल्य जी के जीवन काल में प्रकाशित हुई थीं। मेरा गहरा संबंध था उनसे।
वे मेरे आत्मीय थे - कहना चाहता हूँ कि साहित्य में उन्होंने मुझे पहचान दी और जब
तक वे जीवित रहे उनकी मुझ पर विशेष कृपा रही। यह आलेख मुझे बहुत पहले ही लिख लेना
चाहिए था, और सच यह है कि लिखा भी
गया था, लेकिन प्रकाशित यह देर से
हुआ - तो आपका यह कहना कि मैं लिख ही नहीं रहा, उचित नहीं है। आप मेरी व्यस्तता भी तो देखें - कितनी ही
संस्थाओं से जुड़ा हुआ हूँ। आप लोगों को पता होना चाहिए। कितनी ही संस्थाओं का मैं
अध्यक्ष हूँ, कितनी ही का
सलाहकार और ये सभी संस्थाएँ साहित्य के लिए समर्पित हैं।’
‘यह प्रश्न कितना
विचित्र है आपका - इतने बड़े बँगले में अकेले क्यों रहता हूँ ! बच्चे बाहर हैं, एक अमेरिका में, दूसरा दुबई में -
आते-जाते रहते हैं - और अंततः उन्हें आकर रहना यहीं है।’
‘यह सच है कि जब
मैं क्लर्क था - उन दिनों मैंने बहुत लिखा। पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर मेरी
कहानियाँ प्रकाशित होती थीं- एक साहित्यिक दायरा था - ।’
‘अब वह बात नहीं
है। लोग कम ही एक-दूसरे से मिलते हैं।’
‘क्यों? आपको जानना चाहिए। साहित्य में राजनीति प्रवेश
कर गयी है। लोग अपने-अपनों को स्थापित करने की राजनीति कर रहे हैं। आपसी विश्वास
घटा है।’
‘राजनीति पहले भी
थी। आजादी के पहले भी - लेकिन आजादी के बाद वह बढ़ी और अब – तौबा।’
‘आपका यह आरोप सही
नहीं है कि मैं भी अपने मित्रों के साथ मिलकर अपने समकालीनों को उखाड़ने में
सक्रिय रहता था - सब बकवास है। तब भी मेरे विरोधियों की कमी न थी, आज भी नहीं है - तब कम थे आज अधिक हैं, लोग ईर्ष्या-द्वेष रखते हैं - कुप्रचार करते
हैं - यह क्या कुप्रचार नहीं है कि मेरी साहित्यिक मृत्यु हो चुकी है - या मैं कल
का लेखक हूँ।’
‘आप मेरी व्यस्तता
देखें - जब मात्र क्लर्क था - क्लर्की के बाद समय ही समय था मेरे पास। लिखता था -
मित्रों से मिलता था, रचनाओं पर - पढ़ी
हुई पुस्तकों पर चर्चा करता था। लेकिन अब हर बात में मेरी व्यस्तता आड़े आ जाती
है। पुराने मित्र कट गए।’
‘नहीं, यह सच नहीं है। मैंने उन्हें अपने से नहीं काटा
- वे मेरी व्यस्तता के कारण स्वयं ही अलग हो गए।’
‘संभव है, जैसाकि आप कह रहे हैं, उन्हें कुंठा हो। मैं क्या कर सकता हूँ। कुंठा बहुत घातक
होती - ।’
‘यह लोगों का
कुप्रचार है। यह सच है कि मैं सरकारी नौकरी में पाँच वर्षों तक लक्ष्यद्वीप में
रहा था।’
‘मिसेज भरुनी -
साहित्य मर्मज्ञ - अच्छी हिन्दी कथाकार थीं। मेरे संपर्क में आने के बाद वह बहुत
अच्छा लिखने लगी थीं- बहुत ही नेक महिला थीं। उनके दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए
थे - ।’
‘जी हाँ , उन संग्रहों के प्रकाशन में मेरी इतनी ही
भूमिका थी कि उनका परिचय मैंने प्रकाशक से करवा दिया था। वह रिटायरमेण्ट के करीब
थीं और लंबे समय से लक्ष्यद्वीप में सेवारत थीं - आई.ए.एस. थीं - ।’
‘यह संयोग ही था
कि मैं उनके संपर्क में आ गया था। उनकी बड़ी कृपा थी मुझ पर। मेरी पत्नी को छोटी
बहन मानती थीं वह। छोटे भाई की तरह मुझे स्नेह देती थीं।’
‘यह मेरे विरोधियों
का निराधार दुष्प्रचार है। मैंने उन पर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं डाला था। कहा
न कि वह मुझ पर बहुत कृपालु थीं - मेरी पत्नी को इतना अधिक प्रेम करती थीं कि
उन्होंने स्वेच्छया अपनी वसीयत मेरी पत्नी के नाम कर दी थी, जिसमें यह बँगला भी था।’
‘जी हाँ, वे अकेले थीं। उनके पति की मृत्यु लगभग दस वर्ष
पहले हो चुकी थी और पति की मृत्यु के पश्चात इस बँगले में एकाकी जीवन बिताना कठिन
जान उन्होंने अपना स्थानांतरण लक्ष्यद्वीप करवा लिया था।’
‘ लतिका सरकार - आप
मिसेज भरुनी की तुलना उनसे क्यों कर रहे हैं ? मैंने कहा न, उन्होंने स्वेछया मेरी पत्नी के नाम वसीयत की थी। उनके
परिवार में कोई नहीं था। दूर-दराज के रिश्तेदारों को वह पसंद नहीं करती थीं। मेरे
परिवार के प्रति उनकी आत्मीयता प्रगाढ़ थी। वे देवीस्वरूपा थीं - बड़ा दिल पाया था
उन्होंने।’
‘नहीं, वह वापस दिल्ली नहीं आ पायीं। मेरी पत्नी के
नाम वसीयत करने के कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी थी।’
‘मैंने पहले ही
कहा कि मेरे विरोधी हर प्रकार से मुझे बदनाम करने की नीयत से यह दुष्प्रचार कर रहे
हैं। उस नेक महिला की मृत्यु स्वाभाविक रूप से हुई थी। कोई रहस्य नहीं था।
फूडप्वायजनिंग से हुई थी उनकी मृत्यु। मेडिकल रपट आज भी मेरे पास है। आप कभी भी
देख सकते हैं - लेकिन आज नहीं - मुझे सी.एम. से मिलने जाना है।’
‘मुझे अपने
विरोधियों के दुष्प्रचार का कोई उत्तर नहीं देना। उत्तर न देना ही सबसे बड़ा उत्तर
है।’ वह उठ खड़े हुए ‘क्षमा करेगें - मुझे।’
‘ जी सर , आपको सी.एम. से मिलने जाना है।’ हमने उनकी बात लपक ली थी।
जब हम उनके बँगले
से बाहर निकल रहे थे चिड़ियाँ नहीं चहचहा रही थीं। आम के पेड़ पर कौवा काँव-काँव
कर रहे थे और आसमान पर घने काले बादल घिरते दिख रहे थे।
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