बंद खिड़की खुल
गयी
उस रोज़ सूरज ने
दिन को अलविदा कहा और निकल पड़ा बेफिक्री की राह पर! इधर वह बड़ी तेज़ी से भाग रही
थी, इस उम्मीद में कि इस सड़क
पर हर अगला कदम उसके घर की दहलीज़ के कुछ और करीब ले जाएगा! तेज़ बहुत तेज़,
मानो उसके पांवों में मानों रेसिंग स्केट्स
बंधे हों! पर आज लग रहा था, हर कदम पर घर कुछ
और दूर हो जाता है! वह कौन थी? शर्लिन, शालिनी, सलमा या सोहनी। नाम कुछ भी हो, अकस्मात आ टपकी आपदाओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे
हमेशा सॉफ्ट टारगेट ढूंढ ही लेती हैं! तो उस बदहवास हालत में कहाँ पाँव पड़ रहे थे,
उसे होश नहीं था। हाथ का बैग कब, कहाँ गिर गया था, उसे याद नहीं। उस मीठे जाड़े वाले सर्द मौसम एक शाल को अपने
जिस्म पर कसे वह दौड़ती जा रही थी।
ऑफिस से लौटते
हुए अपनी एक दोस्त के यहाँ जाना था उसे! एकाएक शहर दंगों की चपेट में आ गया! इसके
बाद कुछ भी ठीक नहीं रहा! अमूमन वास्तविक दंगे शुरू होने के काफी पहले से ही
स्थितियां शांति के विरुद्ध कदम बढ़ाना शुरू कर देती हैं! अफवाहें, आरोप-प्रत्यारोप हवा में घुल जाते हैं! तब तनाव
धीरे-धीरे कदम बढ़ाता उस एक खास स्थान पर आ खड़ा होता है जब एक मामूली-सी चिंगारी
दावानल बन जाती है और पूरी आबादी को चपेट में ले लेती है! पर इस बार ऐसा नहीं था
कि हालात कुछ ठीक नहीं थे! ऐसा भी नहीं कि संशय के काले बादल पहले से मंडरा रहे
थे! तो अचानक ये क्या हुआ कि एक जुलूस निकालने को लेकर हुए झगड़ें की आड़ में
शैतान मुस्कुराया और पूरा शहर दंगों की चपेट में आ गया था।
हर ओर एक शोर था,
मारकाट थी, हुजूम था और मानवता सिहर कर किसी कोने में दुबकी जान की
अमान मांग रही थी! पता नहीं ये दंगे क्यों शुरू होते हैं, ये बात हमेशा पर्दे में रह जाती है और बाकी सब सड़कों पर आ
जाता है। दंगों के जितने भी कारण वजूद में आते हैं दरअसल वे सब महज लिबास होते हैं
उस मूल वजह का जो हमेशा अनबूझ, अनसुलझी ही रह
जाती है! दंगे कौन शुरू करता है, ये तो कोई नहीं
जानता पर दंगों में कत्ल हमेशा इंसानियत का ही होता है! भीड़ की कोई शक्ल नहीं
होती, ईमान नहीं होता, मन्तव्य भी नहीं होता पर ये तकरीबन तय है कि भीड़
के आतंक को दिशा की कोई ज़रूरत नहीं होती!
रास्ता अब उसकी
पहचान के दायरे से बाहर निकल चुका था और आगे का रास्ता दिमाग नहीं डर तय कर रहा
था! उसके भागते हुए, बदहवास कदम,
रास्ता मुड़ने पर, मुड़ते गए और कुछ देर बाद वह एक गली में थी! थोडा आगे उसने
खुद को गली के आखिरी छोर पर एक मकान के सामने पाया! लकड़ी के तख्तों से बने मेन
गेट को धकियाकर वह घुसती चली गई! सामने छोटे-से बरामदे के पार एक लकड़ी का दरवाज़ा
था उस पर एक सांकल चढ़ी थी! लड़की ने हिस्टीरियाई अंदाज़ में दरवाज़े को झंझोड़ा!
सांकल हाथ लगते ही उसने जल्दी से उसे खोल दिया! भीड़ का शोर बाहर सड़क पर दूर कहीं,
बहुत पीछे छूट गया था! बुरी तरह हांफते हुए,
उसने झाँका तो यह एक खाली कमरा था! आसमान में
गहराए अँधेरे पर एक नज़र डालकर वह बदहवास-सी भीतर चली गई!
घर में घुसते ही
उस पुराने, अधटूटे, लकड़ियों के दरवाज़े पर लटकी लोहे की सांकल लगा
ली और एक कोने में बैठ गई! मुश्किल से साँसों की रफ्तार कुछ थमी। उखड़ती साँसों पर
काबू पाकर लड़की ने अपनी विस्फारित आँखों को कुछ पल मींच लिया। सुन्न कनपटियाँ,
अँधेरा और वातावरण की ऊष्मा पाकर कुछ पल
सामान्य हुई तो आँखों में पसरा सारा डर, सारी पीड़ा तरल हुए और बांध टूट गया। पलकों के कोरों से सैलाब बह निकला। अपनी
सुबकियों को नियंत्रित करते हुये वह दुपट्टे के कोने से आँसू पोंछती रही। मुंह पर
रखा उसका बेरहम हाथ तो जबान पर नियंत्रण में करने में कामयाब रहा, वहीँ कुछ चीखें उसके हलक में कांटे-सी अटकी रही
पर बेहिसाब आँसू जाने कब से जमा थे, रुकते ही नहीं थे। उसके कानों में अब भी पगलाई भीड़ का शोर था, जेहन पर अब भी पगलाए-उजड़ते शहर की तस्वीर कौंध
रही थी!
धीरे-धीरे रोना
तो थम गया पर पिछले कुछ समय की रुलाई अब भी घुटी सुबकियों और गूंगी हिचकियों की
शक्ल में एक सिलसिला बनाए हुये थी। कुछ पल संभलने के बाद जब आँखें उस अंधेरे की
अभ्यस्त हुईं तो लड़की ने उन्हे रोने से मुक्ति दी और उस कमरे में चारों ओर नज़र
घुमाने लगी।
वह एक हालनुमा
कमरा था जिसका एक ही दरवाजा था! पूरे कमरे में अँधेरे का शासन कायम था और वह जो
अंधेरे से डरती थी, उसे आज अँधेरा
भला-सा मालूम हो रहा था। टूटे दरवाजे के नीचे से और बड़ी-बड़ी झिर्रियों से
स्ट्रीट लाइट छनकर आ रही थी। उसे लगा दरवाजे के नीचे से रेंगकर आता रोशनी का नाग
आएगा और उसका गला दबोच लेगा। उसने अपने पैरों को ख़ुद से सटाया और एक गठरी की शक्ल
में अपने घुटनों पर सर टिका लिया।
कुछ क्षणों बाद
उसकी निगाहें एक वृत की आकृति में उसके ठीक दायें से शुरू होकर पूरे कमरे का चक्कर
लगा कर ठीक बाएँ आकर रुक गईं। जालीदार रोशनदानों से आती रोशनी में कमरे का कुछ
हिस्सा वह देख पा रही थी कि इस हॉलनुमा कमरे में करीब आधे हिस्से में शायद
कढ़ाई-सिलाई की मशीनें लगीं थी जो अधढकी थीं। दीवार पर कुरान की आयतें मढ़वा कर
टांगी गई थीं। एक कोने में कुछ सामान था, जो अंधेरे में ठीक-ठाक नज़र नहीं आ रहा था। दीवारों पर पान की पीकें थीं और एक
कोने में दो बड़े-बड़े मटके रखे थे।
उस दिल तेज़ी से
धड़का, "हे, भगवान, ये मैं कहाँ आ गई!" उसे एकाएक हलक सूखने का अहसास हुआ, ये अहसास का लौटना इस बात की तसदीक कर रहा था
कि वह अब तक ज़िंदा थी।
उसने गिलास में
पानी भरा और एक झटके में गिलास खाली कर दिया। एक गहरी सांस ली और दूसरी बार गिलास
में पानी भरकर वह वापिस अपनी जगह पर बैठ गई और धीरे धीरे पीने लगी। हलक तर हुआ तो
उसे लगा वह फिर रो पड़ेगी। उसका अंदाज़ा ग़लत नहीं था।
अब उसे माँ की
बातें याद आने लगी। कहा था न माँ ने, "आज शाम को मत जाओ! रविवार को दिन में चली जाना! जानती नहीं
क्या वह इलाका कहाँ पड़ता है? मेरा मन नहीं
मानता बिट्टो, देर हो गई और कुछ
हो गया तो? क्या भरोसा उन लोगों
का..." सब याद आया, माँ की चिंता,
माँ का टोकना और माँ का गुस्सा सब कुछ। वह खुद
को कोसने लगी कि माँ का कहा मान, आज रुक क्यों न
गई. आखिर एक माँ का मन कभी झूठा नहीं होता, जाने कैसे अपनी संतान के लिए आने वाली बलाएँ उसे साक्षात
दीखने लगती हैं, वह उनकी आहट और
आशंकाओं से सहम जाती है पर किसी को समझा न पाने की स्थिति से जूझती जाने कितने ही
डरों से आतंकित रहती है।
लड़की ने एक लंबी
सांस ली और उसकी सोच का केंद्र अब माँ थी। उसने धीमे से कहा 'माँ' और सोचा कि अगर इस बार वह यहाँ से सुरक्षित घर लौटी तो माँ से अपनी तमाम
लापरवाहियों और हाल में की गई नाफ़रमानियों के लिए माफी मांगेगी। सोच की रफ्तार जब
थोड़ा थमी तो उसने सिलसिलावर उन सारी बातों के बारे में सोचा जो माँ की नसीहतों की
शक्ल में उस तक आना चाहती थी पर उसके इर्द-गिर्द बुने व्यस्तताओं के घेरे में
दाखिल न हो सकीं। वह माँ की उसी रोक-टोक और उसकी डांट के लिए फिर से माँ के पास
लौटना चाहती थी। एक उड़ते-से ख्याल ने उसे छुआ, शायद वह किसी की माँ बने बिना इस दुनिया से चली जाएगी। इस
ख्याल की आमद ने उसे और उदास कर दिया!
कहीं दूर सड़क से
शोर का एक रेला गुज़रा तो लगा जैसे मौत अब भी जैसे कुछ ही कदमों पर नृत्यरत थी।
उसे लगा 'वे लोग' आते ही होंगे! 'वे' अब आए और उसका सर
धड़ से अलग! उफ़, तो क्या आज की
रात मौत के दबे कदमों की आहट सुनते हुये बीतेगी! आशंकाओं के सैंकड़ों बिच्छुओं ने
एक साथ उसे घेर लिया! लड़की इतनी सहमी थी कि सुबह का ख्याल उसके नजदीक आने से डर
रहा था। वह सुबह, सूरज और जिंदगी
के बारे में सोचना चाहती थी पर सोच जैसे लकवाग्रस्त हो घिसट रही थी। उन 'बेरहम' लोगों का डर कुछ इस तरह छाया हुआ था कि लड़की के करीब बस अंधेरा, मौत का ख़्याल और खौफ ही रह गया था।
बाहर हवा में
सर्दी घुल रही थी जिसका एक अंश उसे छूते हुये सिहरा गया। उसने अपने शॉल को अपने
गिर्द लपेट कर खुद को अपनी बाहों में कसा तो उसे उन दो मजबूत बाहों की याद हो आई
जिन्हे वह अक्सर छिटक दिया करती थी। उसे लगा उनके बीच आशियां बनाती उन दूरियों के
लिए वही जिम्मेदार थी, उसका प्रेमी नहीं,
जो उन दूरियों की पगडंडियों पर चलकर उसकी
बेरुखी की दीवार पर नाराजगी के अफसाने लिखता, अभी कुछ दिन पहले ही उससे दूर हो गया था।
आज वह उन बाहों
की कैद में खोकर उसके कान में कहना चाहती थी कि उसे उससे नहीं खुद से डर लगता था।
वह उससे नफरत की नहीं, अपने डर की कैद
में थी। उसने साथ बिताए लम्हों के बारे में बारहा सोचा। मरने से पहले वह उसके
चेहरे पर बेशुमार चुंबन बरसाना चाहती थी। पर एक पल के लिए उसे लगा कि वह अब कभी
उससे नहीं मिल पाएगी। उसने अपनी तमाम बेरुखियों और बदतमीजियों के लिए खुद को जीभर
कोसा। उसने जीवन से जुडी अनिश्चिंतताओं को कभी वक़्त नहीं दिया और न ही प्यार को!
मन के किसी कोने में एक इच्छा ने सिर उठाया। अगर यह उसके जीवन की अंतिम रात है तो
ये सर्द रात आज वह अपने प्रेमी की बाजुओं के घेरे में, उसके सीने पर सर रखे गुजारना चाहती थी। कम से कम उसके प्यार
को महसूस किये बिना वह दुनिया से कैसे जा सकती थी!
यूं लड़की अपने
आप को बेतरहा कोस रही थी पर इस अकेले कमरे और भय और अनिश्चितता भरी रात में वह खुद
की एकमात्र साथी थी, भला खुद से कब तक
नाराज़ रहती। वह एक बार फिर खुद के पास लौट आई. उसने जैसे ख़ुद को ही धीमे से
थपथपाया और लौट आई अपने खोल में, जिसमें कुछ देर
पहले उसका दम घुट रहा था।
दीवार से टेक
लगाए शाल में काँपती, वह ऊंघ रही थी।
धीरे-धीरे बोझिल हुई पलकें भारी हो चली थीं। रात का तीसरा पहर भी अब बीत चला था।
कहीं दूर मस्जिद की अजान से उसकी झपकी टूटी तो बाहर पक्षियों की चहचहाहट ने उसे
अहसास दिलाया कि सुबह होने ही को है। उसने खुद को तसल्ली देने की एक और कोशिश पर
दूर-दूर तक इत्मीनान की आमद की तो कोई आहट नहीं थी!
कुछ देर बाद
झिर्रियों से मद्धम रोशनी कमरे में आने लगी जो स्ट्रीट लाइट की नहीं थी। ये रोशनी
सुबह की आमद का पैगाम लाई थी। आखिर रोशनी के कन्धों पर सवार सुबह आने को थी पर
लड़की एक बार फिर चिंता में पड़ गई. अब वह यहाँ से सुरक्षित निकलने के बारे में
सोच रही थी। सारे इष्टदेवों को मनाती लड़की बिलकुल अपनी माँ की प्रति प्रतिमूर्ति
में बदल गई थी! बाहर एक-एक कर घरों के दरवाजे खुलने की आवाज़े हो रही थीं! दंगों
के मारे जड़ हुई गली जाग रही थी! हर हलचल मानों उसका कलेजा निकाले जाती थी!
ठक-ठक-ठक...तभी
कुछ कदमों की आहट ने उसकी दिल धड़कनों को बढ़ा दिया। कदमों की आहट इस दिशा की ओर
करीब आती जा रही थी, बेहद करीब।
लड़की का दिल
धाड़-धाड़ उसकी पसलियों पर बज़ रहा था और एक आवाज़ पर उसे लगा उसकी धड़कने जैसे
रुक जाएंगी। दरवाजे के बाहर चहलकदमी और फिर दरवाजे पर धम-धम आवाज़ हुई. बाहर शोर
था, कुछ आवाज़ें पुकार रही
थीं पर उसे तो मौत की पुकार के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था! सूखे पत्ते की
तरह कंपकपाते, उसने डरते हुये
उठकर झिर्रियों के बाहर झाँका।
कुछ पांव जिनमें
जूतियां थी! तिल्ले वाली जूतियां, कुछ पठानी
सलवारों के पाँयचे! 'वे लोग' आ गए थे!
"हे ईश्वर,
तो जिंदगी का अंत यहीं होना लिखा था!"
उसकी अस्फुट फुसफुसाहट का अनुवाद यदि कुछ होता तो यही होता!
दरवाज़ा बजा,
जोर से कई बार बजा और इस बार इतनी जोर से
खड़काया गया कि धड़ाम की आवाज़ के साथ अटकी हुई पुरानी सांकल गिर गई! एक शोर ने
उसे और कुछ सायों ने जैसे रोशनी को घेर लिया!
उसने सर उठाया तो
पठानी सलवारों वाले पांवों के साथ कुछ गोल सफ़ेद टोपियां भी नमूदार हुईं! दो,
तीन, चार और फिर कई सारे! ओह, ये वही थे,
वही लोग जिनका माँ को कोई भरोसा नहीं था! जिनके
दिल में कोई रहम नहीं होता, वह सुनती आई थी!
उसे लगा वह एक गहरी सुरंग में दाखिल हो गई है, गहरी अंधी सुरंग, जिसके आगे एक गहरी खाई थी जिसमें वह गिरी तो गिरती चली गई!
ठंडे पानी के कुछ
छींटे उसे वापिस उसी दुनिया में ले आये! होश आया तो अपना सर एक बुजुर्ग खातून की
गोद में पाया, जो उसे गिलास से
पानी पिला रही थी! मतलब वह अभी तक जिन्दा थी!
"कौन हो बीबी?
यहाँ कैसे पहुंची? तुम ठीक हो न? फ़िक्र न करो, अल्लाह सब अच्छा
करेगा! मियां इमरान, भई, बच्ची के लिए चाय लाओ! ऐ देखो तो कैसे काँप रही
है!"
कुछ सवाल,
एक जुमला और फिर एक पुकार, उसे लगा किसी ने मानों जिंदगी को आवाज़ देकर
पुकारा! एक चाय का कप, उसे थामे हुए दो
स्नेहिल, झुर्रियों भरे हाथ,
कुछेक उत्सुक आँखे, और उसने पाया सुरंग के आगे रोशनी की किरणे थीं! रोशनी ही
नहीं, साथ में जिंदगी ने भी मौत
को धकियाकर उसका हाथ थाम लिया! माँ और ज़माने की बनाई तमाम तस्वीरें धुंधली होने
लगी, फिर जैसे सब कहा-सुना उस
रोशनी में विलीन होता गया! उन हाथों की गर्माहट में वे मुश्किल पल पिघले तो पिघलते
गए, साथ ही दरकती गईं,
बचपन से दिलो-दिमाग पर अंकित कुछ छवियाँ,
ध्वस्त हुईं कुछ गढ़ी हुई मान्यताएं और बहता
चला गया सारा विषाद! अब उनकी जगह उसके स्कूल-रिक्शावाले सादिक चचा, प्राइमरी स्कूल टीचर फातिमा मैम और कई चेहरे थे
जो जीवन की स्मृतियों की एल्बम पर जमी समय की धूल हटा नई तस्वीरों में बदल रहे थे!
थोड़ी देर बाद वह
एक जीप में बैठी थी। 'इमरान' जीप चला रहा था और जीप मेन सड़क पर दौड़ रही
थी। सुबह हो चुकी थी। सूरज की मद्धम किरणों का स्पर्श उसे भला मालूम हो रहा था और
वह खुश थी कि एक काली भयावह मौत के आगोश में बसर रात के बाद रोशनी फिर से मुस्कुरा
रही थी। उसने महसूस किया 'उन लोगो' की बुराई दरअसल एक परछाई थी जो विश्वास की घनी
धूप के ढलते ही अपना कद बढ़ाने लगती थी! आज वह उस परछाई को दूर छोड़ आई थी! मानों
उसने आशा के काँधे पर पैर रख हाथ बढ़ाया और सुकून का फल उसके हाथ में था!
सुबह की रोशनी
में उम्मीद के नन्हे पंछी ने पंख संवारे और एक ऊंची उड़ान भर उड़ चला आकाश की ओर!
वहीं दंगो के कहर से डरा हुआ शहर कुनमुनाया और सूरज की ओर आशा से देखने लगा! पुलिस
के साये में ही सही, थमी ज़िंदगी
रफ्तार से आगे बढ़ रही थी! उसने शाल को कसकर लपेट लिया और पीछे भागती सड़क को
देखने लगी जिसके साथ ही छूटते जा रहे थे, वे सारे भयावह लम्हे जो कल रात से उसके वजूद से चस्पा थे! कल तक जिस उम्मीद के
सिरे लुप्त होते प्रतीत होते थे वह अब बेहद करीब होने का अहसास करा रही थी! हाँ,
वह सही-सलामत घर लौट रही थी! रास्ते में रात भर
अंधेरे और डर में डूबे घरों की खिड़कियां खुल रही थी! उसने पाया उसके जेहन में
जाने कब से बंद एक खिड़की खुल गई थी, लगा दिमाग में लगे सारे जाले हट गए! अब वहाँ कोई संशय नहीं था, डर नहीं था, बस था तो उजला-उजला सवेरा! तभी सूरज, सुबह और ज़िंदगी के ख्याल ने उसे होले से उसे अपनी गिरफ्त
में ले लिया और इस बार उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था, कोई भी नहीं!
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