शांति
स्वतर्गीय
देवनाथ मेरे अभिन्न मित्रों में थे। आज भी
जब उनकी याद आती है, तो
वह रंगरेलियां आंखों में फिर जाती हैं, और कहीं एकांत में जाकर जरा रो लेता हूं। हमारे देर रो लेता
हूं। हमारे बीच में दो-ढाई सौ मील का अंतर था। मैं लखनऊ में था, वह दिल्ली में; लेकिन ऐसा शायद ही कोई महीना जाता हो कि हम आपस में न मिल पाते
हों। वह स्व च्छंन्द; प्रकति
के विनोदप्रिय, सहृदय,
उदार और मित्रों पर प्राण देनेवाला आदमी
थे, जिन्होंदने अपने और
पराए में कभी भेद नहीं किया। संसार क्या है और यहां लौकिक व्य्वहार का कैसा
निर्वाह होता है, यह
उस व्य।क्ति ने कभी न जानने की चेष्टाक की। उनकी जीवन में ऐसे कई अवसर आए, जब उन्हेंन आगे के लिए होशियार हो जाना
चाहिए था।
मित्रों
ने उनकी निष्कबपटता से अनुचित लाभ उठाया, और कई बार उन्हें
लज्जित भी होना पडा; लेकिन
उस भले आदमी ने जीवन से कोई सबक लेने की कसम खा ली थी। उनके व्य वहार ज्योंस के
त्यों रहे— ‘जैसे भोलानाथ जिए, वैसे ही भोलानाथ मरे, जिस दुनिया में वह रहते थे वह निराली
दुनिया थी, जिसमें संदेह,
चालाकी और कपट के लिए स्थांन न था—
सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने बार-बार उन्हेंक
सचेत करना चाहा, पर
इसका परिणाम आशा के विरूद्ध हुआ। मुझे कभी-कभी चिंता होती थी कि उन्होंनने इसे बंद
न किया, तो नतीजा क्यान होगा?
लेकिन विडंबना यह थी कि उनकी स्त्रीं
गोपा भी कुछ उसी सांचे में ढली हुई थी। हमारी देवियों में जो एक चातुरी होती है,
जो सदैव ऐसे उडाऊ पुरूषों की असावधानियों
पर ‘ब्रेक का काम करती है,
उससे वह वंचित थी। यहां तक कि
वस्त्राभूषण में भी उसे विशेष रूचि न थी। अतएव जब मुझे देवनाथ के स्वतर्गारोहण का
समाचार मिला और मैं भागा हुआ दिल्लीझ गया, तो घर में बरतन भांडे और मकान के सिवा और कोई संपति न थी। और
अभी उनकी उम्र ही क्या थी, जो
संचय की चिंता करते चालीस भी तो पूरे न हुए थे। यों तो लड़पन उनके स्वभाव में ही
था; लेकिन इस उम्र में
प्राय: सभी लोग कुछ बेफ्रिक रहते हैं। पहले एक लड़की हुई थी, इसके बाद दो लड़के हुए। दोनों लड़के तो
बचपन में ही दगा दे गए थे। लड़की बच रही थी, और यही इस नाटक का सबसे करूण दश्यग था।
जिस तरह का इनका जीवन था उसको देखते इस छोटे से परिवार के लिए दो सौ रूपये महीने
की जरूरत थी। दो-तीन साल में लड़की का विवाह भी करना होगा। कैसे क्या होगा,
मेरी बुद्धि कुछ काम न करती थी।
इस अवसर पर मुझे यह बहुमूल्यू अनुभव हुआ
कि जो लोग सेवा भाव रखते हैं और जो स्वाबर्थ-सिद्धि को जीवन का लक्ष्यव नहीं बनाते,
उनके परिवार को आड़ देनेवालों की कमी
नहीं रहती। यह कोई नियम नहीं है, क्यों
कि मैंने ऐसे लोगों को भी देखा है, जिन्होंनने
जीवन में बहुतों के साथ अच्छेन सलूक किए; पर उनके पीछे उनके बाल-बच्चे की किसी ने बात तक न पूछी। लेकिन
चाहे कुछ हो, देवनाथ
के मित्रों ने प्रशंसनीय औदार्य से काम लिया और गोपा के निर्वाह के लिए स्था,ई धन जमा करने का प्रस्तासव किया। दो-एक
सज्जेन जो रंडुवे थे, उससे
विवाह करने को तैयार थे, किंतु
गोपा ने भी उसी स्वा भिमान का परिचय दिया, जो महारी देवियों का जौहर है और इस
प्रस्ताव को अस्वीनकार कर दिया। मकान बहुत बडा था। उसका एक भाग किराए पर उठा दिया।
इस तरह उसको 50
रू महावार मिलने लगे। वह इतने में ही अपना निर्वाह कर लेगी। जो कुछ खर्च था,
वह सुन्नील की जात से था। गोपा के लिए
तो जीवन में अब कोई अनुराग ही न था।
इसके
एक महीने बाद मुझे कारोबार के सिलसिले में विदेश जाना पड़ा और वहां मेरे अनुमान से
कहीं अधिक—दो साल-लग गए। गोपा
के पत्र बराबर जाते रहते थे, जिससे
मालूम होता था, वे
आराम से हैं, कोई
चिंता की बात नहीं है। मुझे पीछे ज्ञात हुआ कि गोपा ने मुझे भी गैर समझा और
वास्तआविक स्थिति छिपाती रही।
विदेश
से लौटकर मैं सीधा दिल्ली पहुँचा। द्वार
पर पहुंचते ही मुझे भी रोना आ गया। मृत्यु
की प्रतिध्व नि-सी छायी हुई थी। जिस कमरे में मित्रों के जमघट रहते थे उनके
द्वार बंद थे, मकडियों
ने चारों ओर जाले तान रखे थे। देवनाथ के साथ वह श्री लुप्त हो गई थी। पहली नजर में मुझे तो ऐसा भ्रम हुआ
कि देवनाथ द्वार पर खडे मेरी ओर देखकर मुस्क।रा रहे हैं। मैं मिथ्यारवादी नहीं हूं
और आत्मा की दैहिकता में मुझे संदेह है, लेकिन उस वक्ती एक बार मैं चौंक जरूर पडा हृदय में एक
कम्पदन-सा उठा; लेकिन
दूसरी नजर में प्रतिमा मिट चुकी थी।
द्वार
खुला। गोपा के सिवा खोलनेवाला ही कौन था। मैंने उसे देखकर दिल थाम लिया। उसे मेरे
आने की सूचना थी और मेरे स्वागत की प्रतिक्षा में उसने नई साड़ी पहन ली थी और शायद
बाल भी गुंथा लिए थे; पर
इन दो वर्षों के समय ने उस पर जो आघात किए थे, उन्हें क्याप करती? नारियों के जीवन में यह वह अवस्था है, जब रूप लावण्यं अपने पूरे विकास पर होता है, जब उसमें अल्हवड़पन चंचलता और अभिमान की
जगह आकर्षण, माधुर्य
और रसिकता आ जाती है; लेकिन
गोपा का यौवन बीत चुका था उसके मुख पर झुर्रियां और विषाद की रेखाएं अंकित थीं,
जिन्हेंब उसकी प्रयत्नपशील प्रसन्नदता
भी न मिटा सकती थी। केशों पर सफेदी दौड़ चली थी और एक एक अंग बूढा हो रहा था।
मैंने
करूण स्व र में पूछा क्याअ तुम बीमार थीं गोपा।
गोपा
ने आंसू पीकर कहा नहीं तो, मुझे
कभी सिर दर्द भी नहीं हुआ। ‘तो
तुम्हापरी यह क्या, दशा
है? बिल्कुहल बूढी हो गई
हो।’
‘तो
जवानी लेकर करना ही क्याय है? मेरी
उम्र तो पैंतीस के ऊपर हो गई!
‘पैंतीस
की उम्र तो बहुत नहीं होती।’
‘हाँ
उनके लिए जो बहुत दिन जीना चाहते है। मैं तो चाहती हूं जितनी जल्दह हो सके,
जीवन का अंत हो जाए। बस सुन्नी के
ब्यारह की चिंता है। इससे छुटटी पाऊँ; मुझे जिन्दवगी की परवाह न रहेगी।’
अब
मालूम हुआ कि जो सज्जतन इस मकान में किराएदार हुए थे, वह थोडे दिनों के बाद तबदील होकर चले गए
और तब से कोई दूसरा किरायदार न आया। मेरे हृदय में बरछी-सी चुभ गई। इतने दिनों इन
बेचारों का निर्वाह कैसे हुआ, यह
कल्प ना ही दु:खद थी।
मैंने
विरक्तद मन से कहा—लेकिन
तुमने मुझे सूचना क्यों न दी? क्या
मैं बिलकुल गैर हूँ?
गोपा
ने लज्जित होकर कहा नहीं नहीं यह बात नहीं है। तुम्हेंक गैर समझूँगी तो अपना किसे
समझूँगी? मैंने समझा परदेश में
तुम खुद अपने झमेले में पडे होगे, तुम्हें
क्यों सताऊँ? किसी न किसी तरह दिन कट ही गये। घर में
और कुछ न था, तो
थोडे—से गहने तो थे ही। अब
सुनीता के विवाह की चिंता है। पहले मैंने सोचा था, इस मकान को निकाल दूंगी, बीस-बाइस हजार मिल जाएँगे। विवाह भी हो
जाएगा और कुछ मेरे लिए बचा भी रहेगा; लेकिन बाद को मालूम हुआ कि मकान पहले ही रेहन हो चुका है और
सूद मिलाकर उस पर बीस हजार हो गए हैं। महाजन ने इतनी ही दया क्यास कम की, कि मुझे घर से निकाल न दिया। इधर से तो
अब कोई आशा नहीं है। बहुत हाथ पांव जोड़ने पर संभव है, महाजन से दो ढाई हजार मिल जाए। इतने में
क्या होगा? इसी फिक्र में घुली जा रही हूं। लेकिन
मैं भी इतनी मतलबी हूं, न
तुम्हेंग हाथ मुंह धोने को पानी दिया, न कुछ जलपान लायी और अपना दुखड़ा ले बैठी। अब आप कपडे उतारिए
और आराम से बैठिए। कुछ खाने को लाऊँ, खा लीजिए, तब
बातें हों। घर पर तो सब कुशल है?
मैंने
कहा—मैं तो सीधे बम्बँई
से यहां आ रहा हूं। घर कहां गया।
गोपा
ने मुझे तिरस्कातर—भरी
आंखों से देखा, पर
उस तिरस्का।र की आड़ में घनिष्ठे आत्मीयता बैठी झांक रही थी। मुझे ऐसा जान पड़ा,
उसके मुख की झुर्रिया मिट गई हैं। पीछे
मुख पर हल्कीक—सी
लाली दौड़ गई। उसने कहा—इसका
फल यह होगा कि तुम्हा री देवीजी तुम्हें
कभी यहां न आने देंगी।
‘मैं
किसी का गुलाम नहीं हूं।’
‘किसी
को अपना गुलाम बनाने के लिए पहले खुद भी उसका गुलाम बनना पडता है।’
शीतकाल
की संध्या’ देखते ही देखते दीपक
जलाने लगी। सुन्नीन लालटेन लेकर कमरे में आयी। दो साल पहले की अबोध और कृशतनु
बालिका रूपवती युवती हो गई थी, जिसकी
हर एक चितवन, हर
एक बात उसकी गौरवशील प्रकति का पता दे रही थी। जिसे मैं गोद में उठाकर प्यातर करता
था, उसकी तरफ आज आंखें न
उठा सका और वह जो मेरे गले से लिपटकर प्रसन्नल होती थी, आज मेरे सामने खडी भी न रह सकी। जैसे
मुझसे वस्तुप छिपाना चाहती है, और
जैसे मैं उस वस्तुी को छिपाने का अवसर दे रहा हूं।
मैंने
पूछा—अब तुम किस दरजे में
पहुँची सुन्नी ?
उसने
सिर झुकाए हुए जवाब दिया—दसवें
में हूं।
‘घर
का भ कुछ काम-काज करती हो।
‘अम्मा जब करने भी दें।’
गोपा
बोली—मैं नहीं करने देती
या खुद किसी काम के नगीच नहीं जाती?
सुन्नी
मुंह फेरकर हंसती हुई चली गई। मां की दुलारी लडकी थी। जिस दिन वह गहस्थीी का काम
करती, उस दिन शायद गोपा रो
रोकर आंखें फोड लेती। वह खुद लड़की को कोई काम न करने देती थी, मगर सबसे शिकायत करती थी कि वह कोई काम
नहीं करती। यह शिकायत भी उसके प्यारर का ही एक करिश्मा था। हमारी मर्यादा हमारे बाद भी जीवित रहती है।
मैं
तो भोजन करके लेटा, तो
गोपा ने फिर सुन्नीर के विवाह की तैयारियों की चर्चा छेड दी। इसके सिवा उसके पास
और बात ही क्याज थी। लडके तो बहुत मिलते हैं, लेकिन कुछ हैसियत भी तो हो। लडकी को यह
सोचने का अवसर क्योंक मिले कि दादा होते हुए तो शायद मेरे लिए इससे अच्छा घर वर
ढूंढते। फिर गोपा ने डरते डरते लाला मदारीलाल के लड़के का जिक्र किया।
मैंने
चकित होकर उसकी तरफ देखा। मदारीलाल पहले इंजीनियर थे, अब पेंशन पाते थे। लाखों रूपया जमा कर
लिए थे, पर अब तक उनके लोभ की
भूख न बुझी थी। गोपा ने घर भी वह छांटा, जहां उसकी रसाई कठिन थी।
मैंने
आपति की—मदारीलाल तो बड़ा
दुर्जन मनुष्यई है।
गोपा
ने दांतों तले जीभ दबाकर कहा—अरे
नहीं भैया, तुमने उन्हें पहचाना न होगा। मेरे उपर बड़े दयालु हैं।
कभी-कभी आकर कुशल— समाचार
पूछ जाते हैं। लड़का ऐसा होनहार है कि मैं तुमसे क्या कहूं। फिर उनके यहां कमी किस
बात की है? यह ठीक है कि पहले वह
खूब रिश्व त लेते थे; लेकिन
यहां धर्मात्मा कौन है? कौन
अवसर पाकर छोड़ देता है? मदारीलाल
ने तो यहां तक कह दिया कि वह मुझसे दहेज नहीं चाहते, केवल कन्या चाहते हैं। सुन्नीह उनके मन में बैठ गई है।
मुझे
गोपा की सरलता पर दया आयी; लेकिन
मैंने सोचा क्योंत इसके मन में किसी के प्रति अविश्वा स उत्पलन्नस करूं। संभव है
मदारीलाल वह न रहे हों, चित
का भावनाएं बदलती भी रहती हैं।
मैंने
अर्ध सहमत होकर कहा—मगर
यह तो सोचो, उनमें
और तुममे कितना अंतर है। शायद अपना सर्वस्वम अर्पण करके भी उनका मुंह नीचा न कर
सको।
लेकिन
गोपा के मन में बात जम गई थी। सुन्नी को
वह ऐसे घर में चाहती थी, जहां
वह रानी बरकर रहे।
दूसरे
दिन प्रात: काल मैं मदारीलाल के पास गया और उनसे मेरी जो बातचीत हुई, उसने मुझे मुग्धर कर दिया। किसी समय वह
लोभी रहे होंगे, इस
समय तो मैंने उन्हें बहुत ही सहृदय उदार
और विनयशील पाया। बोले भाई साहब, मैं
देवनाथ जी से परिचित हूं। आदमियों में रत्न
थे। उनकी लड़की मेरे घर आये, यह मेरा सौभाग्ये है। आप उनकी मां से कह दें, मदारीलाल उनसे किसी चीज की इच्छा नहीं रखता। ईश्वतर का दिया हुआ मेरे घर में सब
कुछ है, मैं उन्हें जेरबार नहीं करना चाहता।
ये
चार महीने गोपा ने विवाह की तैयारियों में काटे। मैं महीने में एक बार अवश्य उससे मिल आता था; पर हर बार खिन्नं होकर लौटता। गोपा ने
अपनी कुल मर्यादा का न जाने कितना महान आदर्श अपने सामने रख लिया था। पगली इस भ्रम
में पड़ी हुई थी कि उसका उत्सा ह नगर में अपनी यादगार छोड़ता जाएगा। यह न जानती
थी कि यहां ऐसे तमाशे रोज होते हैं और आये दिन भुला दिए जाते हैं। शायद वह संसार
से यह श्रेय लेना चाहती थी कि इस गई—बीती दशा में भी, लुटा हुआ हाथी नौ लाख का है। पग-पग पर उसे देवनाथ की याद आती।
वह होते तो यह काम यों न होता, यों
होता, और तब रोती।
मदारीलाल
सज्ज न हैं, यह
सत्य है, लेकिन गोपा का अपनी कन्याउ के प्रति भी
कुछ धर्म है। कौन उसके दस पांच लड़कियां बैठी हुई हैं। वह तो दिल खोलकर अरमान
निकालेगी! सुन्नीय के लिए उसने जितने गहने और जोड़े बनवाए थे, उन्हेंक देखकर मुझे आश्चएर्य होता था।
जब देखो कुछ-न-कुछ सी रही है, कभी
सुनारों की दुकान पर बैठी हुई है, कभी
मेहमानों के आदर-सत्कादर का आयोजन कर रही है। मुहल्लेर में ऐसा बिरला ही कोई
सम्पान्न मनुष्य होगा, जिससे उसने कुछ कर्ज न लिया हो। वह इसे
कर्ज समझती थी, पर
देने वाले दान समझकर देते थे। सारा मुहल्लाह उसका सहायक था। सुन्नीप अब मुहल्लेन
की लड़की थी। गोपा की इज्जात सबकी इज्जसत है और गोपा के लिए तो नींद और आराम हराम
था। दर्द से सिर फटा जा रहा है, आधी
रात हो गई मगर वह बैठी कुछ-न-कुछ सी रही है, या इस कोठी का धान उस कोठी कर रही है।
कितनी वात्सरल्यक से भरी अकांक्षा थी, जो कि देखने वालों में श्रद्धा उत्पकन्नस कर देती थी।
अकेली
औरत और वह भी आधी जान की। क्या क्या करे। जो काम दूसरों पर छोड देती है, उसी में कुछ न कुछ कसर रह जाती है,
पर उसकी हिम्मदत है कि किसी तरह हार
नहीं मानती।
पिछली
बार उसकी दशा देखकर मुझसे रहा न गया। बोला—गोपा देवी, अगर
मरना ही चाहती हो, तो
विवाह हो जाने के बाद मरो। मुझे भय है कि तुम उसके पहले ही न चल दो।
गोपा
का मुरझाया हुआ मुख प्रमुदित हो उठा। बोली उसकी चिंता न करो भैया विधवा की आयु
बहुत लंबी होती है। तुमने सुना नहीं, रॉंड मरे न खंडहर ढहे। लेकिन मेरी कामना यही है कि सुन्नी का
ठिकाना लगाकर मैं भी चल दूं। अब और जीकर क्या
करूंगी, सोचो।
क्याठ करूं, अगर
किसी तरह का विघ्न पड़ गया तो किसकी
बदनामी होगी। इन चार महीनों में मुश्किल से घंटा भर सोती हूंगी। नींद ही नहीं आती,
पर मेरा चित प्रसन्नस है। मैं मरूं या
जीऊँ मुझे यह संतोष तो होगा कि सुन्नी के लिए उसका बाप जो कर सकता था, वह मैंने कर दिया। मदारीलाल ने अपन
सज्जीनता दिखाय, तो
मुझे भी तो अपनी नाक रखनी है।
एक
देवी ने आकर कहा बहन, जरा
चलकर देख चाशनी ठीक हो गई है
या
नहीं। गोपा उसके साथ चाशनी की परीक्षा करने गयीं और एक क्षण के बाद आकर बोली जी
चाहता है, सिर पीट लूं। तुमसे
जरा बात करने लगी, उधर
चाशनी इतनी कडी हो गई कि लडडू दोंतों से लडेंगे। किससे क्याज कहूं।
मैने
चिढ़कर कहा तुम व्यदर्थ का झंझट कर रही हो। क्यों नहीं किसी हलवाई को बुलाकर
मिठाइयां का ठेका दे देती। फिर तुम्हाहरे यहां मेहमान ही कितने आएंगे, जिनके लिए यह तूमार बांध रही हो। दस
पांच की मिठाई उनके लिए बहुत होगी।
गोपा
ने व्यठथित नेत्रों से मेर ओर देखा। मेर यह आलोचना उसे बुर लग। इन दिनों उसे बात
बात पर क्रोध आ जाता था। बोली भैया, तुम ये बातें न समझोगे। तुम्हेंत न मां बनने का अवसर मिला,
न पत्नि बनने का। सुन्नीं के पिता का
कितना नाम था, कितने
आदमी उनके दम से जीते थे, क्या यह तुम नहीं जानते, वह पगड़ी मेरे ही सिर तो बंधी है।
तुम्हें विश्वाुस न आएगा नास्तिक जो ठहरे,
पर मैं तो उन्हें सदैव अपने अंदर बैठा पाती हूं, जो कुछ कर रहे हैं वह कर रहे हैं। मैं
मंदबुद्धि स्त्री भला अकेली क्यां कर
देती। वही मेरे सहायक हैं वही मेरे प्रकाश है। यह समझ लो कि यह देह मेरी है पर
इसके अंदर जो आत्मा है वह उनकी है। जो कुछ
हो रहा है उनके पुण्यर आदेश से हो रहा है तुम उनके मित्र हो। तुमने अपने सैकड़ों
रूपये खर्च किए और इतना हैरान हो रहे हो। मैं तो उनकी सहगामिनी हूं, लोक में भी, परलोक में भी।
मैं
अपना सा मुह लेकर रह गया।
जून
में विवाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ दिया और अपनी हैसियत से बहुत ज्यांदा दिया,
लेकिन फिर भी, उसे संतोष न हुआ। आज सुन्नीद के पिता
होते तो न जाने क्या करते। बराबर रोती
रही।
जाड़ों
में मैं फिर दिल्लीब गया। मैंने समझा कि अब गोपा सुखी होगी। लड़की का घर और वर
दोनों आदर्श हैं। गोपा को इसके सिवा और क्या चाहिए। लेकिन सुख उसके भाग्यर में ही
न था।
अभी
कपडे भी न उतारने पाया था कि उसने अपना दुखडा शुरू—कर दिया भैया, घर द्वार सब अच्छास है, सास-ससुर भी अच्छेी हैं, लेकिन जमाई निकम्मास निकला। सुन्नी बेचारी रो-रोकर दिन काट रही है। तुम उसे देखो,
तो पहचान न सको। उसकी परछाई मात्र रह गई
है। अभी कई दिन हुए, आयी
हुई थी, उसकी दशा देखकर छाती
फटती थी। जैसे जीवन में अपना पथ खो बैठी हो। न तन बदन की सुध है न कपड़े-लते की।
मेरी सुन्नी की दुर्गत होगी, यह
तो स्वाप्नल में भी न सोचा था। बिल्कुनल गुम सुम हो गई है। कितना पूछा बेटी तुमसे
वह क्यों नहीं बोलता किस बात पर नाराज है,
लेकिन कुछ जवाब ही नहीं देती। बस,
आंखों से आंसू बहते हैं, मेरी सुन्नम कुएं में गिर गई।
मैंने
कहा तुमने उसके घर वालों से पता नहीं लगाया।
‘लगाया
क्यों नहीं भैया, सब हाल मालूम हो गया। लौंडा चाहता है,
मैं चाहे जिस राह जाऊँ, सुन्नी मेरी पूरा करती रहे। सुन्नीत भला
इसे क्यों सहने लगी? उसे तो तुम जानते हो, कितनी अभिमानी है। वह उन स्त्रियों में
नहीं है, जो पति को देवता
समझती है और उसका दुर्व्यतवहार सहती रहती है। उसने सदैव दुलार और प्यार पाया है।
बाप भी उस पर जान देता था। मैं आंख की पुतली समझती थी। पति मिला छैला, जो आधी आधी रात तक मारा मारा फिरता है।
दोनों में क्या बात हुई यह कौन जान सकता है, लेकिन दोनों में कोई गांठ पड़ गई है। न
सुन्नीई की परवाह करता है, न
सुन्न उसकी परवाह करती है, मगर
वह तो अपने रंग में मस्तन है, सुन्ने
प्राण दिये देती है। उसके लिए सुन्नी की
जगह मुन्नी। है, सुन्ने
के लिए उसकी अपेक्षा है और रूदन है।’
मैंने
कहा—लेकिन तुमने सुन्नीह
को समझाया नहीं। उस लौंडे का क्याक बिगडेगा? इसकी तो जिन्दीगी खराब हो जाएगी।
गोपा
की आंखों में आंसू भर आए, बोली—भैया-किस दिल से समझाऊँ? सुन्नी को देखकर तो मेर छाती फटने लगती
है। बस यही जी चाहता है कि इसे अपने कलेजे में ऐसे रख लूं, कि इसे कोई कड़ी आंख से देख भी न सके।
सुन्नीऊ फूहड़ होती, कटु
भाषिणी होती, आरामतलब
होती, तो समझती भी। क्या यह
समझाऊँ कि तेरा पति गली गली मुँह काला करता फिरे, फिर भी तू उसकी पूजा किया कर? मैं तो खुद यह अपमान न सह सकती।
स्त्री पुरूष में विवाह की पहली शर्त यह
है कि दोनों सोलहों आने एक-दूसरे के हो जाएं। ऐसे पुरूष तो कम हैं, जो स्त्री को जौ-भर विचलित होते देखकर शांत रह सकें,
पर ऐसी स्त्रियां बहुत हैं, जो पति को स्व्च्छंसद समझती हैं। सुन्नर
उन स्त्रियों में नहीं है। वह अगर आत्मतसमर्पण करती है तो आत्म समर्पण चाहती भी है,
और यदि पति में यह बात न हुई, तो वह उसमें कोई संपर्क न रखेगी,
चाहे उसका सारा जीवन रोते कट जाए।
यह
कहकर गोपा भीतर गई और एक सिंगारदान लाकर उसके अंदर के आभूषण दिखाती हुई बोली
सुन्नी इसे अब की यहीं छोड़ गई। इसीलिए आयी थी। ये वे गहने हैं जो मैंने न जाने
कितना कष्टे सहकर बनवाए थे। इसके पीछे महीनों मारी मारी फिरी थी। यों कहो कि भीख
मांगकर जमा किये थे। सुन्नी। अब इसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती! पहने तो किसके
लिए? सिंगार करे तो किस पर?
पांच संदूक कपडों के दिए थे। कपडे
सीते-सीते मेरी आंखें फूट गई। यह सब कपडे उठाती लायी। इन चीजों से उसे घृणा हो गई
है। बस, कलाई में दो चूडियां
और एक उजली साड़ी; यही
उसका सिंगार है।
मैंने
गोपा को सांत्व ना दी—मैं
जाकर केदारनाथ से मिलूंगा। देखूं तो, वह किस रंग ढंग का आदमी है।
गोपा
ने हाथ जोडकर कहा—नहीं
भरेया, भूलकर भी न जाना;
सुन्नीत सुनेगी तो प्राण ही दे देगी।
अभिमान की पुतली ही समझो उसे। रस्सीक समझ लो, जिसके जल जाने पर भी बल नहीं जाते। जिन
पैरों से उसे ठुकरा दिया है, उन्हेंस
वह कभी न सहलाएगी। उसे अपना बनाकर कोई चाहे तो लौंडी बना ले, लेकिन शासन तो उसने मेरा न सहा, दूसरों का क्यां सहेगी।
मैंने
गोपा से उस वक्तह कुछ न कहा, लेकिन
अवसर पाते ही लाला मदारीलाल से मिला। मैं रहस्यन का पता लगाना चाहता था। संयोग से
पिता और पुत्र, दोंनों
ही एक जगह पर मिल गए। मुझे देखते ही केदार ने इस तरह झुककर मेरे चरण छुए कि मैं
उसकी शालीनता पर मुग्धए हो गया। तुरंत भीतर गया और चाय, मुरब्बाश और मिठाइयां लाया। इतना सौम्यु,
इतना सुशील, इतना विनम्र युवक मैंने न देखा था। यह
भावना ही न हो सकती थी कि इसके भीतर और बाहर में कोई अंतर हो सकता है। जब तक रहा
सिर झुकाए बैठा रहा। उच्छृंरखलता तो उसे छू भी नहीं गई थी।
जब
केदार टेनिस खेलने गया, तो
मैंने मदारीलाल से कहा केदार बाबू तो बहुत सच्चटरित्र जान पडते हैं, फिर स्त्रीह पुरूष में इतना मनोमालिन्यु
क्यों हो गया है।
मदारीलाल
ने एक क्षण विचार करके कहा इसका कारण इसके सिवा और क्याी बताऊँ कि दोनों अपने माँ-बाप
के लाड़ले हैं, और
प्या र लड़कों को अपने मन का बना देता है। मेरा सारा जीवन संघर्ष में कटा। अब जाकर
जरा शांति मिली है। भोग-विलास का कभी अवसर ही न मिला। दिन भर परिश्रम करता था,
संध्या को पडकर सो जाता था। स्वा स्य्
म भी अच्छाा न था, इसलिए बार-बार यह चिंता सवार रहती थी कि
संचय कर लूं। ऐसा न हो कि मेरे पीछे बाल बच्चे
भीख मांगते फिरे। नतीजा यह हुआ कि इन महाशय को मुफ्त का धन मिला। सनक सवार
हो गई। शराब उडने लगी। फिर ड्रामा खेलने का शौक हुआ। धन की कमी थी ही नहीं,
उस पर माँ-बाप अकेले बेटे। उनकी प्रसन्नथता ही हमारे जीवन को
स्वहर्ग था। पढ़ना-लिखना तो दूर रहा, विलास की इच्छाा बढ़ती गई। रंग और गहरा हुआ, अपने जीवन का ड्रामा खेलने लगे। मैंने
यह रंग देखा तो मुझे चिंता हुई। सोचा, ब्या ह कर दूं, ठीक
हो जाएगा। गोपा देवी का पैगाम आया, तो
मैंने तुरंत स्वीीकार कर लिया। मैं सुन्नी, को देख चुका था। सोचा, ऐसा रूपवती पत्नीग पाकर इनका मन स्थिर
हो जाएगा, पर वह भी लाड़ली
लड़की थी—हठीली, अबोध, आदर्शवादिनी। सहिष्णुगता तो उसने सीखी
ही न थी। समझौते का जीवन में क्या मूल्यव
है, इसक उसे खबर ही नहीं।
लोहा लोहे से लड़ गया। वह अभयन से पराजित करना चाहती है या उपेक्षा से, यही रहस्ये है। और साहब मैं तो बहू को
ही अधिक दोषी समझता हूं। लड़के प्राय मनचले होते हैं। लड़कियां स्वा भाव से ही
सुशील होती हैं और अपनी जिम्मे दारी समझती हैं। उसमें ये गुण हैं नहीं। डोंगा कैसे
पार होगा ईश्वअर ही जाने।
सहसा
सुन्नीग अंदर से आ गई। बिल्कुाल अपने चित्र की रेखा सी, मानो मनोहर संगीत की प्रतिध्व नि हो।
कुंदन तपकर भस्मत हो गया था। मिटी हुई आशाओं का इससे अच्छा चित्र नहीं हो सकता।
उलाहना देती हुई बोली—आप
जानें कब से बैठे हुए हैं, मुझे
खबर तक नहीं और शायद आप बाहर ही बाहर चले भी जाते?
मैंने
आंसुओं के वेग को रोकते हुए कहा नहीं सुन्नीन, यह कैसे हो सकता था तुम्हारे पास आ ही
रहा था कि तुम स्वीयं आ गई।
मदारीलाल
कमरे के बाहर अपनी कार की सफाई करने लगे। शायद मुझे सुन्नी से बात करने का अवसर
देना चाहते थे।
सुन्नी
ने पूछा—अम्मां तो अच्छी तरह हैं?
‘हां
अच्छी हैं। तुमने अपनी यह क्यां गत बना रखी है।’
‘मैं
अच्छी तरह से हूं।’
‘यह
बात क्यान है? तुम
लोगों में यह क्या अनबन है। गोपा देवी
प्राण दिये डालती हैं। तुम खुद मरने की तैयारी कर रही हो। कुछ तो विचार से काम लो।’
सुन्नीह
के माथे पर बल पड़ गए—आपने
नाहक यह विषय छेड़ दिया चाचा जी! मैंने तो यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि मैं
अभागिन हूं। बस, उसका
निवारण मेरे बूते से बाहर है। मैं उस जीवन से मृत्युक को कहीं अच्छा समझती हूं, जहां अपनी कदर न हो। मैं व्रत के बदले
में व्रत चाहती हूं। जीवन का कोई दूसरा रूप मेरी समझ में नहीं आता। इस विषय में
किसी तरह का समझौता करना मेरे लिए असंभव है। नतीजे मी मैं परवाह नहीं करती।
‘लेकिन...’
‘नहीं
चाचाजी, इस विषय में अब कुछ न
कहिए, नहीं तो मैं चली
जाऊँगी।’
‘आखिर
सोचो तो...’
‘मैं
सब सोच चुकी और तय कर चुकी। पशु को मनुष्य
बनाना मेरी शक्ति से बाहर है।’
इसके
बाद मेरे लिए अपना मुंह बंद करने के सिवा और क्या रह गया था?
5
म
ई
का महीना था। मैं मंसूर गया हुआ था कि गोपा का तार पहुचा तुरंत आओ, जरूरी काम है। मैं घबरा तो गया लेकिन
इतना निश्चित था कि कोई दुर्घटना नहीं हुई है। दूसरे दिन दिल्ली जा पहुचा। गोपा मेरे सामने आकर खड़ी हो गई,
निस्पंद, मूक, निष्प्रा ण, जैसे तपेदिक की रोगी हो।
‘मैंने
पूछा कुशल तो है, मैं
तो घबरा उठा।‘
‘उसने
बुझी हुई आंखों से देखा और बोल सच।’
‘सुन्नी
तो कुशल से है।’
‘हां
अच्छी तरह है।’
‘और
केदारनाथ?’
‘वह
भी अच्छी तरह हैं।’
‘तो
फिर माजरा क्या है?’
‘कुछ
तो नहीं।’
‘तुमने
तार दिया और कहती हो कुछ तो नहीं।’
‘दिल
तो घबरा रहा था, इससे
तुम्हें बुला लिया। सुन्नी को किसी तरह
समझाकर यहां लाना है। मैं तो सब कुछ करके हार गई।’
‘क्याह
इधर कोई नई बात हो गई।’
‘नयी
तो नहीं है, लेकिन
एक तरह में नयी ही समझो, केदार
एक ऐक्ट्रे स के साथ कहीं भाग गया। एक सप्ता ह से उसका कहीं पता नहीं है। सुन्नीक
से कह गया है—जब
तक तुम रहोगी घर में नहीं आऊँगा। सारा घर सुन्नीन का शत्रु हो रहा है, लेकिन वह वहां से टलने का नाम नहीं
लेता। सुना है केदार अपने बाप के दस्तहखत बनाकर कई हजार रूपये बैंक से ले गया है।
‘तुम
सुन्नीत से मिली थीं?’
‘हां,
तीन दिन से बराबर जा रही हूं।’
‘वह
नहीं आना चाहती, तो
रहने क्यों नहीं देती।’
‘वहां
घुट घुटकर मर जाएगी।’
‘मैं
उन्हींु पैरों लाला मदारीलाल के घर चला। हालांकि मैं जानता था कि सुन्नीं किसी तरह
न आएगी, मगर वहां पहुचा तो
देखा कुहराम मचा हुआ है। मेरा कलेजा धक से रह गया। वहां तो अर्थी सज रही थी।
मुहल्ले के सैकड़ों आदमी जमा थे। घर में
से ‘हाय! हाय!’ की क्रंदन-ध्वेनि आ रही थी। यह
सुन्नी का शव था।
मदारीलाल
मुझे देखते ही मुझसे उन्म त की भांति लिपट गए और बोले:
‘भाई
साहब, मैं तो लुट गया।
लड़का भी गया, बहू
भी गयी, जिन्द्गी ही गारत हो
गई।’
मालूम
हुआ कि जब से केदार गायब हो गया था, सुन्नीए और भी ज्या दा उदास रहने लगी थी। उसने उसी दिन अपनी
चूडियां तोड़ डाली थीं और मांग का सिंदूर पोंछ डाला था। सास ने जब आपत्ति की,
तो उनको अपशब्दक कहे। मदारीलाल ने
समझाना चाहा तो उन्हेंत भी जली-कटी सुनायी। ऐसा अनुमान होता था—उन्माद हो गया है। लोगों ने उससे बोलना
छोड़ दिया था। आज प्रात:काल यमुना स्नान करने गयी। अंधेरा था, सारा घर सो रहा था, किसी को नहीं जगाया। जब दिन चढ़ गया और
बहू घर में न मिली, तो
उसकी तलाश होने लगी। दोपहर को पता लगा कि यमुना गयी है। लोग उधर भागे। वहां उसकी
लाश मिली। पुलिस आयी, शव
की परीक्षा हुई। अब जाकर शव मिला है। मैं कलेजा थामकर बैठ गया। हाय, अभी थोडे दिन पहले जो सुन्द री पालकी पर
सवार होकर आयी थी, आज
वह चार के कंधे पर जा रही है!
मैं
अर्थी के साथ हो लिया और वहां से लौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे पांव कांप रहे थे। मालूम नहीं,
यह खबर पाकर गोपा की क्या। दशा होगी।
प्राणांत न हो जाए, मुझे
यही भय हो रहा था। सुन्नी उसकी प्राण थी। उसकी जीवन का केन्द्रा थी। उस दुखिया के
उद्यान में यही पौधा बच रहा था। उसे वह हृदय रक्ते से सींच-सींचकर पाल रही थी।
उसके वसंत का सुनहरा स्वेप्नक ही उसका जीवन था उसमें कोपलें निकलेंगी, फूल खिलेंगे, फल लगेंगे, चिड़िया उसकी डाली पर बैठकर अपने सुहाने
राग गाएंगी, किन्तुल
आज निष्ठुफर नियति ने उस जीवन सूत्र को उखाडकर फेंक दिया। और अब उसके जीवन का कोई
आधार न था। वह बिन्दु ही मिट गया था,
जिस पर जीवन की सारी रेखाएँ आकर एकत्र
हो जाती थीं।
दिल
को दोनों हाथों से थामे, मैंने
जंजीर खटखटायी। गोपा एक लालटेन लिए निकली। मैंने गोपा के मुख पर एक नए आनंद की झलक
देखी।
मेरी
शोक मुद्रा देखकर उसने मातृवत् प्रेम से मेरा हाथ पकड तलया और बोली आज तो तुम्हारा
सारा दिन रोते ही कटा; अर्थी
के साथ बहुत से आदमी रहे होंगे। मेरे जी में भी आया कि चलकर सुन्नी के अंतिम दर्शन
कर लूं। लेकिन मैंने सोचा, जब
सुन्नर ही न रही, तो
उसकी लाश में क्याज रखा है! न गयी।
मैं
विस्मनय से गोपा का मुहँ देखने लगा। तो इसे यह शोक-समाचार मिल चुका है। फिर भी वह
शांति और अविचल धैर्य! बोला अच्छा्-किया, न गयी रोना ही तो था।
‘हां,
और क्याक? रोयी यहां भी, लेकिन तुमसे सचव कहती हूं, दिल से नहीं रोयी। न जाने कैसे आंसू
निकल आए। मुझे तो सुन्नीत की मौत से प्रसन्नलता हुई। दुखिया अपनी मान मर्यादा लिए
संसार से विदा हो गई, नहीं
तो न जाने क्या क्यान देखना पड़ता। इसलिए
और भी प्रसन्नौ हूं कि उसने अपनी आन निभा दी। स्त्रीा के जीवन में प्यार न मिले तो
उसका अंत हो जाना ही अच्छाप। तुमने सुन्नीत की मुद्रा देखी थी? लोग कहते हैं, ऐसा जान पड़ता था—मुस्क रा रही है। मेरी सुन्नी सचमुच देवी थी। भैया, आदमी इसलिए थोडे ही जीना चाहता है कि
रोता रहे। जब मालूम हो गया कि जीवन में दु:ख के सिवा कुछ नहीं है, तो आदमी जीकर क्याा करे। किसलिए जिए?
खाने और सोने और मर जाने के लिए?
यह मैं नहीं चाहती कि मुझे सुन्नी की याद न आएगी और मैं उसे याद करके रोऊँगी
नहीं। लेकिन वह शोक के आंसू न होंगे। बहादुर बेटे की मां उसकी वीरगति पर प्रसन्नह
होती है। सुन्नीं की मौत मे क्या कुछ कम
गौरव है? मैं आंसू बहाकर उस
गौरव का अनादर कैसे करूं? वह
जानती है, और चाहे सारा संसार
उसकी निंदा करे, उसकी
माता सराहना ही करेगी। उसकी आत्मा से यह
आनंद भी छीन लूं? लेकिन
अब रात ज्याहदा हो गई है। ऊपर जाकर सो रहो। मैंने तुम्हा री चारपाई बिछा दी है,
मगर देखे, अकेले पडे-पडे रोना नहीं। सुन्नीच ने
वही किया, जो उसे करना चाहिए
था। उसके पिता होते, तो
आज सुन्नी की प्रतिमा बनाकर पूजते।’
मैं
ऊपर जाकर लेटा, तो
मेरे दिल का बोझ बहुत हल्का हो गया था,
किन्तु रह-रहकर यह संदेह हो जाता था कि
गोपा की यह शांति उसकी अपार व्यगथा का ही रूप तो नहीं है?
No comments:
Post a Comment