जिज्ञासा
ईश्वर ने सृष्टि
की।
सब ओर निराकार
शून्य था और अनन्त आकाश में अन्धकार छाया हुआ था। ईश्वर ने कहा - प्रकाश हो! और
प्रकाश हो गया। उसके आलोक में ईश्वर ने आकाश के असंख्य टुकड़े किये और प्रत्येक
में एक-एक तारा जड़ दिया। तब उसने सौर-मंडल बनाया। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना
अच्छी है।
तब उसने
वनस्पति-पौधे, झाड़-झंखाड़,
फल-फूल, लता-बेलें उगायीं और उन पर मँडराने को भौंरे और तितलियाँ,
गाने को झींगुर भी बनाये।
तब उसने
पशु-पक्षी भी बनाये और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।
लेकिन उसे शान्ति
नहीं हुई। तब उसने जीवन में वैचित्र्य लाने के लिए दिन और रात, आँधी-पानी, बादल-मेंह, धूप-छाँह इत्यादि
बनाये; और फिर कीड़े-मकोड़े,
मकड़ी, मच्छर, बर्रे, बिच्छू और अन्त में साँप भी बनाये।
लेकिन फिर उसे
सन्तोष नहीं हुआ। तब उसने ज्ञान का नेत्र खोलकर सुदूर भविष्य में देखा। अन्धकार
में पृथ्वी और सौर-लोक पर छाई हुई प्राणहीन धुन्ध में कहीं एक हलचल, फिर उस हलचल में धीरे-धीरे एक आकार, एक शरीर जिसमें असाधारण कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी सामर्थ्य है, एक आत्मा जो निर्मित होकर भी अपने आकार के भीतर
बँधती नहीं, बढ़ती ही जाती है,
एक प्राणी जो जितनी बार धूल को छूता है,
नया ही होकर, अधिक प्राणवान् होकर उठ खड़ होता है...
ईश्वर ने जान
लिया कि भविष्य का प्राणी यही मानव है। तब उसने पृथ्वी पर से धुँध को चीरकर एक
मुट्ठी धूल उठायी और उसे अपने हृदय के पास ले जाकर उसमें अपने विराट आत्मा की एक
साँस फूँक दी - मानव की सृष्टि हो गयी।
ईश्वर ने कहा -
जाओ, मेरी रचना के महाप्राण
नायक, सृष्टि के अवतंस!
लेकिन कृतित्व का
सुख ईश्वर को तब भी नहीं प्राप्त हुआ, उसमें का कलाकार अतृप्त ही रह गया।
क्योंकि पृथ्वी
खड़ी रही, तारे खड़े रहे। सूर्य
प्रकाशवान नहीं हुआ, क्योंकि उसकी
किरणें बाहर फूट निकलने से रह गयीं। उस विराट सुन्दर विश्व में गति नहीं आयी।
दूर पड़ा हुआ
आदिम साँप हँसता रहा। वह जानता था कि क्यों सृष्टि नहीं चलती। और वह इस ज्ञान को
खूब सँभालकर अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हुआ था।
एक बार फिर ईश्वर
ने ज्ञान का नेत्र खोला और फिर मानव के दो बूँद आँसू लेकर स्त्री की रचना की।
मानव ने चुपचाप
उसको स्वीकार कर लिया, सन्तुष्ट वह पहले
ही था, अब सन्तोष द्विगुणित हो
गया। उस शान्त जीवन में अब भी कोई कमी न रही आयी और सृष्टि अब भी न चली।
और वह चिरन्तन
साँप ज्ञान को अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हँसता रहा।
साँप ने मनुष्य
से कहा - मूर्ख, अपने जीवन से
सन्तुष्ट मत हो! अभी बहुत-कुछ है जो तूने नहीं पाया, नहीं देखा, नहीं जाना! यह
देख, ज्ञान मेरे पास है। इसी
के कारण तो मैं ईश्वर के समकक्ष हूँ।
लेकिन मानव ने एक
बार अनमना-सा उसकी ओर देखा और फिर स्त्री के केश से अपना मुँह ढक लिया। उसे कोई
कौतूहल नहीं था, वह शान्त था।
बहुत देर तक ऐसे
ही रहा। प्रकाश होता और मिट जाता, पुरुष और स्त्री
प्रकाश में मुग्ध दृष्टि से एक-दूसरे को देखते रहते, और अन्धकार में लिपटकर सो रहते।
और ईश्वर अदृष्ट
ही रहता और साँप हँसता ही जाता।
तब एक दिन जब
प्रकाश हुआ, तो स्त्री ने
आँखें नीची कर लीं, पुरुष की ओर नहीं
देखा। पुरुष ने आँख मिलाने की कोशिश की, तो पाया कि स्त्री केवल उसी की ओर न देख रही हो, ऐसा नहीं है, वह किसी की ओर भी नहीं देख रही है, उसकी दृष्टि मानो अन्तर्मुखी हो गयी है, अपने भीतर ही कुछ देख रही है और उसी दर्शन में एक
अनिर्वचनीय तन्मयता पा रही है... जब अन्धकार हुआ, तब भी स्त्री उसी तद्गत-भाव में लेट गयी, पुरुष को न देखती हुई, बल्कि उसकी ओर से विमुख उसे कुछ परे रखती हुई...
पुरुष उठ बैठा।
नेत्र मूँदकर वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। उसके पास शब्द नहीं थे, भाव नहीं थे, दीक्षा नहीं थी। लेकिन शब्दों से, भावों से, प्रणाली के ज्ञान
से परे जो प्रार्थना है, जो सम्बन्ध के
सूत्र पर आश्रित है, वही प्रार्थना
उसमें से फूट निकलने लगी...
लेकिन विश्व फिर
भी वैसा ही निश्चल पड़ा रहा, गति उसमें नहीं
आयी। स्त्री रोने लगी, उसके भीतर कहीं
दर्द की एक हूक उठी, वह पुकारकर कहने
लगी - क्या हो रहा है मुझे, क्या हो रहा है
मुझे! मैं बिखर रही हूँ, मैं मिट्टी में
मिल जाऊँगी...
पुरुष अपनी
निस्सहायता में कुछ भी नहीं कर सका, उसकी प्रार्थना और भी आतुर और विकल और भी उत्सर्गमयी हो गयी और जब वह स्त्री
का दुख नहीं देख सका, तब उसने नेत्र
खूब ज़ोर से भींच लिये...
निशीथ के निविड
अन्धकार में स्त्री ने पुकारकर कहा-ओ मेरे ईश्वर - ओ मेरे पुरुष - यह देखो!
पुरुष ने पास
जाकर देखा, टटोला और क्षण-भर स्तब्ध
रह गया। उसकी आत्मा के भीतर विस्मय की, भय की एक पुलक उठी। उसने धीरे से स्त्री का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया...
फूटते हुए कोमल
प्रकाश में उसने देखा, स्त्री उसी के एक
बहुत छोटे, बहुत स्निग्ध, बहुत प्यारे प्रतिरूप को अपनी छाती से चिपटाये
है और थकी हुई सो रही है। उसका हृदय एक विराट् विस्मय से, एक दुस्सह उल्लास से भर आया और उसके भीतर से एक प्रश्न फूट
निकला - ईश्वर, यह क्या सृष्टि
है, जो तूने नहीं की!
ईश्वर ने कोई
उत्तर नहीं दिया। तब मानव ने साँप से पूछा - ओ ज्ञान के रक्षक साँप, बताओ, यह क्या है, जिसने मुझे
तुम्हारा और ईश्वर का समकक्ष बना दिया है - एक स्रष्टा - बताओ, मैं जानना चाहता हूँ!
उसके यह प्रश्न
पूछते ही अनहोनी घटना घटी। पृथ्वी घूमने लगी, तारे दीप्त हो उठे, फिर सूर्य उदित हो आया और दीप्त हो उठा, बादल गरज उठे, बिजली तड़क उठी... विश्व चल पड़ा!
साँप ने कहा -
मैं हार गया। ईश्वर ने ज्ञान मुझसे छीन लिया। और उसकी गुंजलक धीरे-धीरे खुल गयी।
ईश्वर ने कहा -
मेरी सृष्टि सफल हुई, लेकिन विजय मानव
की है। मैं ज्ञानमय हूँ, पूर्ण हूँ,
मैं कुछ खोजता नहीं। मानव में जिज्ञासा है,
अतः वह विश्व को चलाता है, गति देता है...
लेकिन मानव की
उलझन थी, अस्तित्व की समस्या थी।
वह पुकार-पुकार कर कहता जाता था - मैं जानना चाहता हूँ! मैं जानना चाहता हूँ!
और जितनी बार वह
प्रश्न दुहराता था, उतनी बार सूर्य
कुछ अधिक दीप्त हो उठता था, पृथ्वी कुछ अधिक
तेजी से घूमने लगती थी, विश्व कुछ अधिक
गति से चल पड़ता था - और मानव के हृदय का स्पन्दन भी कुछ अधिक भरा हो जाता था।
आज भी जब मानव यह
प्रश्न पूछ बैठता है, तब अनहोनी घटनाएँ
होने लगती हैं।
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