तार
पहले इन साहब को
जरा आप जान लीजिए - इन्हीं की जुबानी। इसके बाद मेरी सुनिएगा। इनसे जो कुछ छूट
जाएगा, मैं बताने की कोशिश
करूँगा। मुझसे कुछ छूटा तो आप जोड़ने-घटाने के लिए स्वतन्त्र हैं। तो पहले यह
सज्जन स्वयं।
मैं, श्रीमानजी, मौलाना अजीबुर्रहमान के खानदान में पैदा हुआ और मेरा नाम
सिर्फ रहमान है। ये मौलाना वही हैं, जिन्हें शायद आप नहीं जानते। अठारह सौ सत्तावन के गदर में ये बीस साल के थे
लेकिन न तो ये अंग्रेजों की तरह से थे न ही बहादुरशाह जफर की तरह से। इसके वालिद
साहब भी, जिनका नाम हमें नहीं
मालूम, मौलाना थे और बड़े शौक से
अपने साहबजादे को मौलानागिरी सीखने के लिए दिल्ली से सटे शाहजहानाबाद के एक मदरसे
में रख छोड़ा था जहाँ इनका रहना-सहना, खाना-पीना और पढ़ना-लिखना होता था। उस मदरसे में ट्रेनिंग करते-करते, श्रीमानजी, इनकी नजर अपने ही मौलवी साहब की इकलौती साहबजादी रोकैया
बानो पर पड़ी। किसी साथी ट्रेनिंग-याफ्ता नौजवान ने समझाया कि मौलवी साहब तुम्हें
कच्चा चबा जाएँगे, हड्डी समेत।
मौलाना अजीबुर्रहमान यानी कि हमारे मौलाना, जिद्दी आदमी थे, बस ठान लिये। यही रोकैया बानो आगे चलकर हमारी पर - पर - परदादी बनीं। यानी
ग्रेट-ग्रेट-ग्रेट ग्रैंडमदर।
खानदानी शजरे को
पढ़कर ऐसा लगता है कि जब सन् सत्तावन में फैसले की घड़ी आयी होगी तो हमारे मौलाना
न इधर गये न उधर। जिस समय जोगिया वस्त्र धारण करके साधु के वेश में घूम-घूमकर
षड्यन्त्रकारी अँग्रेजों की सुपारी दे रहे थे, बिगुल और नगाड़े से विचित्र-विचित्र ध्वनियाँ निकाल रहे थे,
चारों ओर तीर-तलवार बरछी-भाले तैयार किये जा
रहे थे, हमारे मौलाना
अजीबुर्रहमान अपने उस्ताद मोहतरम की बेटी रोकैया बानो को किसी तरह उड़ा लेने की
फिराक में मशगूल थे। परिवार में वर्षो से चली आ रही किंवदन्तियों से पता चलता है
कि जिस दिन मेरठ में कुछ स्वदेशी जावानों ने अपने अंग्रेज हुक्मरानों की नाफरमानी
करते हुए हल्ला बोला और गदर का बिगुल फुँका, बीस साल के मौलाना अजीबुर्रहमान एक हिन्दू की वेशभूषा -
मिर्जई, धोती पगड़ी और लाठी-धारण
कर नंगे पैर हमारी होने वाली पर-पर-परदादी को घाघरा-चोली पहना भगाकर कहीं लिये जा
रहे थे। आगे कहानी और हैं, श्रीमानजी,
लेकिन पहले विनम्रतापूर्वक मन का भेद खोल दूँ
कि अपने पुरखों की यह कारस्तानी मुझे अपने परिवार के इतिहास की सर्वश्रेष्ठ घटना
लगती है। मौलाना के लिए मन श्रद्धा और गर्व से भर जाता है। जब चहुँदिश खून-खराबा
मचा हुआ था, जब बिना किसी
उद्देश्य और योजना के लोग एक अन्तहीन जंग में उलझे हुए थे और जिसमें पराजय निश्चित
थी, हमारे मौलाना ने प्रेम का
रास्ता चुना और उस पर चल पड़े। वीरगति का अवसर हाथ से जाने देकर मौलाना ने बहुत
अच्छा किया - इसके लिए न मुझे शर्म है, न दुःख।
छूसरी बात और सुन
लें - और यह भी मेरे मन का भेद है। उस दृश्य को - जिसमें बीस साल के मौलाना एक
हिन्दू की वेशभूषा में अठारह साल की हमारी परदादी को भगाये लिये जा रहे थे - मैंने
कई बार देखा है। वह दृश्य मुझे पुलकित कर देता है। गुदगुदाता है। मेरे मन-मस्तिष्क
के तन्तुओं को ऊर्जा से भर देता है। मेरा सन्तुलन बनाये रखने में मेरी मदद करता
है। मेरा विश्वास है कि उस दृश्य ने मुझे ही नहीं बल्कि मौलाना अजीबुर्रहमान के
बाद उनके खानदान की छह पीढ़ियों में से कई को आनन्दित और प्रेरित किया है।
कभी-कभी मैं उनके
उस सफर और उस दौरान उनके बीच हुए सम्भावित वार्तालाप को विजुअलाइज करने का प्रयास
करता हूँ तो मन रोमांच से भर उठता है। परदादा ने कहा होगा - जल्दी से गरारा-समीज
उतारकर घाघरा-चोली पहन लो। ऊँटगाड़ी बाग में तैयार है। तुम्हारे अब्बा मस्जिद में
नमाज पढ़ने गये हैं, आते ही होंगे।
दादी बोली होंगी - तुम तो पहचान में ही नहीं आ रहे हो काफिरों के भेष में। क्या अब
इसी तरह रहोगे? दादा बोले होंगे
- हाँ, अब इस तरह भी रहेंगे। तुम
जल्दी करो नहीं तो पकड़ी जाओगी। तुम्हारे अब्बा तुम्हारा सिर कलम करवा लेंगे।
हमारे खानदान में यह भी रिवायत है कि दादी निकलीं तो, लेकिन घाघरा-चोली में नहीं। वे समीज औा गरारा में ही भागीं
और हमेशा वही पहना।
मैं जरा गौर से
फिर वहाँ लौटता हूँ तो पाता हूँ कि दादा-दादी ऊँटगाड़ी पर बैठे हिलते-डुलते चले जा
रहे हैं। रोकैया बानो रो रही हैं और मौलाना से लौट चलने की जिद कर रही हैं। दरअसल
दादी को अपने अब्बा की याद आ रही है। लेकिन दादा उनसे भी ज्यादा जिद्दी थे,
कहते हैं अब निकल पड़ा हूँ तो निकल पड़ा हूँ,
साथ चलना है तो चलो। दादी कहती हैं चारों ओर आग
लगी है और आपको यह सूझी है। वह बोले होंगे, मेरे दिल में उससे भी ज्यादा आग लगी है, पहले इसे बुझा लूँ तो गदर की खबर लूँगा। दादी
ने चौंकते हुए कहा होगा। वह देखो फिरंगी आ रहे हैं। लालकोट, नीला टाप, काली पतलून और
सफेद जुराबें पहने वे घोड़ो पर सवार हमारी ओर ही आ रहे हैं। उनके हाथों में नंगी
तलवारें हैं, काँधे में बन्दूक
टँगी हैं और कमर में करौली लटक रही है। कहीं वे हमें ही तो नहीं खोज रहे हैं। दादा
बोले होंगे - नहीं, वे बागियों को
ढूँढ़ रहे हैं। हमें तो हाथ में तस्वीर लेकर तुम्हारे अब्बा ढूँढ़ रहे होंगे। फिर
तनकर बोले होंगे - अगर फिरंगियों ने तुम्हारी ओर नजर उठाकर भी देखा तो उन्हें कत्ल
कर दूँगा। तो दादी ने बनावटी गुस्से से पूछा होगा - खंजर कहाँ है? दादा ने मुस्कुराते हुए उनकी आँखों की ओर इशारा
किया होगा - यहाँ। वह धत करके रह गयी होंगी।
यह बात तो है कि
दादी समझ न पायी होंगी कि आखिर उनके प्रेमी की मंशा क्या है और दरअसल फिरंगियों और
दिल्ली के शहंशाह के बारे में क्या कुछ सोचता है। मेरा अनुमान है कि वह थककर चुप
हो गयी होंगी और फिर दादा के कन्धे से लगकर सो गयी होंगी। गाड़ीवान ने कई कोस का
सफर पूरा करके किसी बाजार के बाहरी इलाके में एक छायादार पेड़ के निकट स्थित कुएँ
के पास पड़ाव डाला होगा। ऊँट ने पानी पिया होगा, गुड़ खाया होगा, पत्ता खाया होगा। गाड़ीवान ने पानी पिया होगा, बीड़ी पी होगी, सत्तू खाया होगा। दादा ने फिरंगियों, बागियों, बहादुरशाह जफर और
रोकैया बानो के बारे में सोचा-विचारा होगा। फिर सिर को झटककर रोकैया बानो की ओर
प्रेमासक्त होकर देखने लगे होंगे। उसके बाद अपनी मिर्जई, अपनी धोती, अपनी पगड़ी और
लाठी को देखा होगा और मुस्करा पड़े होंगे। मेरा मानना है कि काल, स्थान और परिस्थितियों पर ध्यान दे तो पाएँगे
कि मौलाना अजीबुर्रहमान ने हिम्मत का काम किया था। इसीलिए शायद हमारे खानदानी
तस्किरों में उन्हें कहीं अजीब मौलाना, अजीब जाँबाज, बेताज बादशाह,
दिल का पहला मरीज तो कहीं अजीब शागिर्द,
अजीब इनसान जैसे उनवानों से नवाजा गया है।
लेकिन जो नाम पारिवारिक अभिलेखों, रिवायतों,
किंवदन्तियों और चुटकुलों में सबसे अधिक आता है
वह है अजीब जिद्दी।
एक बात और। बाद
की हमारी कुछ पीढ़ियों और उनके लम्बरदारों के बारे में हमारी जानकारी उतनी पुख्ता
और पक्की नहीं है जितनी मौलाना अजीबुर्रहमान के बारे में। मौलाना जिद्दी, सिरफिरे, दिल के मरीज या कुछ भी रहे हों, वह थे मजेदार आदमी। यह बात फेमिली रिसर्च के दौरान मेरे
सामने आयी। वह स्वान्तः सुखाय शायर भी थे। उनकी दोयम दर्जे की तमाम गजले और शेर
जबानी और तहरीरी शक्ल में बिखरे पड़े हैं। एक ऐसे ही शेर में वह कहते हैं -
हंगामा बरपा है
तलवारें चमचमायी हैं।
घायल पड़ा अजीब
रोकैया की गोद में।
दूसरा शेर कुछ
यूँ है -
बागी खड़े हैं
बाग में बगावत के नशे में
इक बागी यह रहा
उल्फत के सफर में।
लगता है यह सब
गदर और बगावत के माहौल में डरी-सिमटी अपनी प्रेयसी को ढाढ़स बँधाने के लिए
तुरत-फुरत में इन्होंने गढ़ लिये होंगे। यह भी हो सकता है कि रास्ते से गुजर रहे
तलवार भाँजते फिरंगियों या विद्रोहियों को देखकर रोकैया बानो ने मौलाना को ताने
मारे होंगे और मौलाना ने यह बानगी दिखायी होगी। लेकिन शेर सच्चे हैं, दमदार हैं।
कुएँ के नजदीक
घंटा-दो घंटा आराम करने के बादी गाड़ीवान ने गाड़ी हाँक दी होगी।
ऐसा जिक्र आता है
कि सूरज डूबते-डूबते ये लोग मेरठ पार करके किसी कस्बे के नजदीक पहुँच गये और वहीं
पहुँचकर ऊँटगाड़ी खराब हो गयी। दोनों एक सराय में शरण लेने पहुँचे। यह भी सुनने
में आता है कि ऊँटगाड़ी नहीं खराब हुई थी। बल्कि गाड़ीवान की नीयत खराब हो गयी थी
और वह गाड़ी को वहीं रोककर कुख्यात ठग अमीर अली के गिरोह के कुछ ठगों को बुलाने
गया ताकि मौलाना को ठिकाने लगाकर रोकैया बानो को लेकर फूट सकें। मौलाना तेज आदमी
थे, झट ताड़ गये कि गाड़ीवान
उस्ताद बनना चाहता है तो गाड़ीवान के लौटने से पहले ही दोनों चुपचाप खिसक लिये और
सराय पहुँचे। सराय मालिक को शक हो गया कि ये भटके हुए नौजवान हैं। कुछ बागी उस
सराय में गुप्त रूप से डेरा जमाये हुए थे। सराय मालिक ने उनके नजदीक जाकर फुसफुसा
दिया। एक-एक कर बागी मिर्जई और धोती वाले छोकरे और समीज-गरारा वाली छोकरी को ताक
गये। कुछ देर के लिए फिरंगियों का भूत उनके सिर से उतर गया। उनमें से एक ने कहा -
हम सब बहार सोते हैं, तुम दोनों अंदर
जाकर सो जाओ। मौलाना ने रोकैया बानो का हाथ पकड़ा और अंदर गये और मौका ताड़कर पीछे
वाले चोर दरवाजे से बाहर निकल गये।
और यात्रा के इसी
मोड़ पर इतिहास ने खुद को दोहराया। अन्ततः उन्हें एक ब्राह्मण पुजारी के घर आश्रय
मिला और शायद प्रेम भी, क्योंकि एक
अपुष्ट पारिवारिक उपकथा के अनुसार वे लोग वहाँ दो वर्ष तक रहे। मेरा मानना है कि
वह ब्राह्मण खाली रहा होता तो मौलाना अपनी प्रेयसी के साथ इतने लम्बे समय तक वहाँ
न टिक पाते। वास्तव में छोटा-छोटा व्यापारी भी था और खुशबूदार तेलों की तिजारत
करता था। यह बात मौलाना के एक शेर से खुलती है। खैर...। प्रेमी मौलाना ने उसके तेल
के व्यापार में मदद करना शुरू किया और जम गये। और यहीं उन्होंने फिर से इतिहास
रचा। बात मुख्तसर में यह कि जहाँ शरण मिली थी, वहीं किसी और पर नजर पड़ी। रोकैया बानो ने ताना मारा - ये
हिन्दू छोकरी मेरे जैसी बेवकूफ न निकलेगी जो तुम्हारे साथ मरने-जीने को तैयार हो
जाए। मौलाना फिर ठान लिये। आले दर्जे के जिद्दी तो थे ही। खुशबूदार तेल के सौदागर
पुजारी की राजदुलारी सुमन्ती देवी को रातोंरात ले उड़े, मुसलमान बनाया और शहर काजी के पास जाकर, रोकैया बानो की रजामन्दी से, निकाह को अंजाम दिया।
एक अरसे के बाद,
जब मुल्क और गदर का वारा-न्यारा हो गया,
और उम्र भी हो गयी, तो मौलाना अजीबुर्रहमान घर लौटे। दोनों बीवियों ने उन्हें
कई औलादों से नवाजा था। इन्हीं में से किसी से हम हैं। पर हमारी असली दादी कौन
हैं। हमारे खानदान में किसी को नहीं मालूम - यकीन के साथ कोई भी नहीं बता सकता।
वैसे सरहद के इस पार से उस पार तक फैले हमारे खानदान के अधिसंख्य लोग अपने आपको
रोकैया बानो के पेट या उनके सिलसिले से मानते हैं। सुमन्ती देवी, जिनका इस्लामी नाम भी किसी को नहीं पता,
का हवाला कोई नहीं देता। लेकिन बिला सुबहा वे
मौलाना की चहेती थीं। यह इस बात से पता चलता है कि मौलाना के हस्तलिखित
उर्दू-हिन्दवी शेरों का जो जखीरा कीड़े-मकोड़ों से बचा रह गया हे उसमें सुमन्ती
देवी का नाम और संदर्भ कई बार आया है जबकि रौकेया बानो का सिर्फ दो बार। एक
मजाहिया शेर में तो उन्होंने यहाँ तक कहा है -
रोकैया के बाप ने
क्या काम कर दिया
इल्मो अदब के नाम
पर बरबाद कर दिया,
देवी सुमन्ती आयी
किस्मत में जब से है
तेली बने,
आबाद हुए, और घर बसा लिया।
एक अन्य स्थान पर
उन्होंने सुमन्ती देवी को कुछ इस तरह याद किया है -
एक बामन की बेटी
ने घर-बार छोड़कर अपना
हमदम हमें बनाया
ईमान छोड़कर अपना।
वैसे सुमन्ती
देवी कम जिद्दी न रही होंगी। नहीं तो एक म्लेच्छ को जिसकी भगायी गयी प्रेयसी उसके
साथ हो, अपना जीवन-साथी कैसे चुन
लेतीं और अपना अपने पिता का सब कुछ उसके ऊपर लुटा देतीं। इस रहस्य का खुलासा
मौलाना के एक दोहानुमा शेर में कुछ इस प्रकार हुआ है -
जिद्दी को जिद्दी
मिली मिला इश्क को हुस्न
बानो देखती रह
गयी देवी आयी संग।
लेकिन हमारे
बाबा-ए-खानदान की इन कारस्तानियों ने कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ा। हमारे परिवार का
कोई सदस्य जब कभी दकियानूसी से दूर भागता, मजहब से कुछ बेरुखी दिखाता या तथाकथित गैर-इस्लामिक बातों में दिलचस्पी लेता
तो गाँव-मुहल्ले में कहने वाले कहते - वहीं पंडिताइन का खून है और क्या... मौलाना
की जो पहली रहीं... उनकर औलादन तो सब पाकिस्तान चले गयेन... ऊ सब रोजा नमाज के
पाबंद हैं... इनकी तरह काफिर नाय होय गयेन।
तो, श्रीमानजी, मौलाना अजीबुर्रहमान के कुनबे में आगे चलकर कई कठमुल्ले,
कई आलिम, कई हिंदुस्तानी, कई पाकिस्तानी और कई महाजिद्दी आशिक पैदा हुए। हाँ, कोई नामचीन देशभक्त नहीं पैदा हुआ। जंगेआजादी में, या उसके पेशतर, या उसके बाद, किसी ने भी देश के लिए सिर नहीं कटाया। सन् सत्तावन में पहला और अंतिम मौका
आया था लेकिन बाबा-ए-खानदान ने उसे जाने दिया। उसके बाद तो उस नेक काम के लिए किसी
को फुर्सत ही न मिली।
मौलाना ने हामारी
हिन्दू दादी के साथ मिलकर खुशबूदार तेलों का कारोबार जमाया। इसकी सौदागरी के गुर
तो उन्होंने अपने हिन्दू ससुर से ही सीखे थे। कारोबार ऐसा चला कि यह हमारा
पुश्तैनी धन्धा बन गया - सरहद के दोनों तरफ। दूर-दूर से लोग खरीदने आते, दूर-दूर तक हमारे पुरखे खुशबूदार तेल बेचने
जाते। हम कई तरह का शुद्ध खुशबूदार तेल बनाने और बेचने के लिए मशहूर रहे। कई
पीढ़ियों तक तो हमारे खानदान में किसी ने कोई दूसरा काम ही नहीं किया।
लेकिन बाद में
वक्त बदलने के साथ कुछ लोगों ने दीगर धन्धों में हाथ आजमाना शुरू किया। क्योंकि
खुशबूदार तेल की सौदागरी अब फायदे की सौदागरी नहीं रह गयी थी। कई तरह के तेल बाजार
में आ गये थे और हमारे ग्राहक और प्रशंसक कम होने लगे। कई लोग हमारे दुश्मन बन
गये। कई बार मिलावट का इल्जाम भी लगा जबकि मिलावट हम करते न थे। टैक्स और चुंगी
बढ़ा दी गयी और फिर कई बार छापे पड़े। फिर इधर आकर बड़े घिनौने इल्जाम लगे कि हम
अपनी दौलत का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं, मुल्क के दुश्मनों का साथ दे रहे हैं। थाना-पुलिस कोर्ट-कचहरी आये दिन की बात
हो गयी। अन्ततः हमारे वालिद मरहूम ने खुशबूदार तेलों के कारोबार से हाथ खींच लेने
का फैसला कर लिया।
मैंने कुछ दिन तक
हाथ-पैर मारा लेकिन सफल न हो सका। तेल बनाने की मशीन बेच दी। तेल की खास शीशियाँ
जहाँ से बनकर आती थीं, वे लोग बेकार हो
गये। जो लोग शीशी का कॉर्क बनाकर देते थे, उनके खाने के लाले पड़ गये। मोर छाप चिब्बियाँ जहाँ से छपकर आती थीं उनका
बिजनेस आधा हो गया। अगर, श्रीमानजी,
आप हमारे घर मे आएँ तो आपको लगेगा ही नहीं कि
कभी यह घर मोरछाप खुशबूदार तेलों का अड्डा था। आज तो आपको घर की अलमारियों में,
कोनों में, और गोदाम में अलग-अलग आकार-प्रकार की खाली शीशियाँ ही दिखाई
देंगी
अब मैं एक नये
धन्धे के बारे में सोच रहा हूँ। मेरे एक दोस्त ने सलाह दी है कि लॉटरी की टिकटें
बेचूँ। देखिए, हम लोग जमाने से
तेल का ही काम करते आये... कुछ और सीखा नहीं... कुछ और किया ही नहीं। घर का
बच्चा-बच्चा इस कारोबार की बारीकियों, इसके मिजाज, इसके उतार-चढ़ाव
से वाकिफ है। कहें कि यह तो हमारे खून में है। हमने घर के आँगन में, सेहन में, बारादरी में, कोने-कोने में फूलों के ढेर देखे हैं, खुशबूदार पत्तियों, जड़ी-बूटियों,
और नायाब पौधों के बेशकीमती खजाने देखे हैं।
सैकड़ों कारीगरों को एक साथ फूलों से अर्क निकालते, पत्तियों की लुग्दी बनाते और इमामदस्ते में जड़ी-बूटियों को
कूटते-पीटते देखा है। पूरा घर, घर के सारे लोग,
घर के अगल-बगल का पूरा माहौल खुशबू से गमकता
था। जैसे-जैसे खरीदार व्यापारियों के आमद की तारीखें नजदीक आती थीं, काम दो-गुना बढ़ जाता था। रात-दिन कारीगर एक कर
देते थे... उनके रहने खाने का इंतजाम बारादरी में हो जाता था... सुबह-शाम खानसामे
जुटे रहते। शीशियों की खनटन में और कुछ सुनाई न पड़ता। रात में पेट्रोमैक्स की
रोशनी में शीशियों पर चिब्बियाँ चिपकायी जातीं। वालिद मरहूम इस पर खास नजर रखते।
जिन शीशियों पर चिब्बियाँ टेढ़ी-मेढ़ी चिपकी होतीं उन्हें हटा दिया जाता। काम का
बोझ इतना होता... माल की माँग इतनी होती कि इन हटायी गयी शीशियों की ओर किसी का
ध्यान ही न जाता। वे वैसी ही खाली पड़ी रहतीं। घर में सैकड़ों ऐसी शीशियाँ इधर-उधर
पड़ी हुई आज भी देख सकते हैं। दूर-दराज से आने वाले व्यापारी पहले एक-दो दिन तो
बारादरी के ऊपर वाले कमरों में आराम करते। वहीं वे अपना खाना खुद बनाते जिसके लिए
पूरा इंतजाम रहता। फिर वे अपनी शीशियाँ गिनवाते, और शीशियाँ गिनवाते-गिनवाते शिकवा-शिकायत करते, नफा-नुकसान बताते, हँसी-मजाक करते, कीमत को कम-बेश करवाते और फिर उनके हाथ अपनी धोतियों, लुंगियों की टेंटों या मिर्जई और सदरियों की अंदरूनी जेबों
की तरफ बढ़ जाते। पंडित हरिनारायण जो हमारे यहाँ खानदानी मुंशी थे, अपने चश्मे के अंदर से सब कुछ देखते रहते,
बात बिल्कुल न करते। कलम को दवात में डुबोते,
दीवार पर छिड़कते और अपनी लाल पोथी में दर्ज कर
लेते।
व्यापारी चले
जाते, कारीगरों की एक महीने की
छुट्टी हो जाती, बारादरी में ताला
लग जाता, पेट्रोमैक्स का तेल
निकालकर टाँग दिया जाता, लेकिन खुशबू
हमारा पीछा न छोड़ती। अब, श्रीमानजी,
खुशबूदार तेलों को छोड़कर कागज के टुकड़ों का
व्यापार करूँ, मन तैयार नहीं
होता है। लेकिन मरता क्या न करता। अब यही करूँगा। एक बार अगर मन में जम गयी तो
बिजनेस जमा लूँगा। ठान लूँगा तो कर लूँगा। मौलाना अजीबुर्रहमान का पोता जो ठहरा।
तो बस ठानने भर की बात है। रात भर सोचने का मौका दीजिए।
अभी-अभी मौलाना
अजीबुर्रहमान के पड़पोते साहब ने, जिसका नाम रहमान
है, अपना परिचय समाप्त किया
है। इसमें उन्होंने खुशबूदार तेल का धन्धा बंद करके लॉटरी-टिकट बेचने का कारोबार
शुरू करने की बात कही है। मैं इस कहानी को वहीं से पकड़ता हूँ।
ऐसे तो रहमान भाई
को मैं बचपन से जानता हूँ। लेकिन करीब से तब से जानता हूँ जब से खुशबूदार तेलों के
धन्धे में उन्हें घाटा होना शुरू हुआ। घाटा तो पहले से शुरू हो गया था और रही-सही
कसर पुलिसवालों ने ढेर सारे संगीन इल्जाम लगाकर पूरी कर दी। रहमान मियाँ को तो याद
नहीं लेकिन सच्चाई यह है कि लाटरी के नये धन्धे के बारे में मैंने ही उन्हें राय
दी थी। अब जबकि लाटरी वाला धन्धा वे शुरू करने वाले हैं, कभी-कभी मुँह में पान दबाकर... बाल खुजलाते हुए याद करने का
बहाना करते हैं - बस यही तो याद नहीं कि कौन बंदा था। तुम्हीं थे क्या? मैं हँसने लगता हूँ। दरअसल ऐसा कई बार हो चुका
है और इसी मरहले पर आकर बात खत्म हो जाती है। ये नेकदिल लोग हैं। इनके वालिद भी
अच्छे इनसान थे। बस ये लोग थोड़ा अकड़ू हैं। कोई बात लग गयी तो ठान लेते हैं। हाँ,
अगर ठान लिया तो कर दिखाते हैं। जाने कहाँ से
यह सिफत आयी है इनमें। तेल का धन्धा ऐसा खराब नहीं हुआ था कि उसे बंद कर दें। बस
किसी ने शिकायत कर दी कि मोर छाप तेल वालों ने मदरसों में चन्दा बढ़ा दिया है। बस
क्या था सी.आई.डी. वाले पीछे पड़ गये। नुकसानदेह केमिकल तो अलग से चल ही रही थी।
रहमानभाई के वालिद ऐसे कि घूस देने को तैयार नहीं। कोर्ट-कचहरी करते-करते, सी.आई.डी. वालों को जवाब देते-देते पिछले साल
चल बसे।
रहमान भाई ने
कारोबार सँभाला ही था... ठीक-ठीक चल भी रहा था कि वह कश्मीर वाली बात हो गयी। वहाँ
के कुछ व्यापारी मोर छाप तेल लेने आये थे। आते ही रहते थे। जाड़े में उधर से ऊनी
सामान लाते और इधर से मोरछाप तेल की शीशियाँ ले जाते। मोर छाप चिब्बी के नीचे लिखा
होता था - यह तेल दिल्ली, श्रीनगर, अमृतसर, लाहौर और पेशावर तक भेजा जाता है। जबकि बँटवारे के बाद यह
तेल पकिस्तान नहीं जाता था लेकिन चिब्बी पर इबारत बरकरार थी। पिछले साल की ही तो
बात हैं। रात में पुलिस और एस.टी.एफ. ने धावा बोला और सबको उठाकर ले गये। इल्जाम
लगाया कि शीशियों में यहाँ से तेल भर कर जाता है और वहाँ से तबाही का लिक्विड आता
है। कश्मीरियों और उनके कम्बलों और चादरों का तो कुछ पता न चला। हाँ, एक महीने बाद रहमान भाई शक्ल-सूरत बिगाड़कर
वापस लौटे। बस तभी से तेल के धन्धे से हीक हो गयी। लेकिन चोट भी पहुँची थी। ठीक
दिल पर लगी थी। लेकिन कर क्या सकते थे। सी.आई.डी. का मामला था। पीले झंडे वालों ने
घर के सामने ही धरना दे दिया... नारे लगाने लगे... पोस्टर छाप डाले... पोस्टर में
रहमान भाई के मुँह पर कालिख पोत डाला... गद्दार और आंतकवादी बना डाला।
अभी पिछले ही
महीने यही मुकाम था, जब मैं एक शाम
उनके साथ बैठा लाटरी की टिकटों के बारे में सोच रहा था। जब मैंने उन्हे यह सुझाव
दिया तो वह भी सोचने लगे। फिर मैंने उन्हें एक नाम भी सुझाया भारत माता लॉटरी
केन्द्र या फिर हिन्दुस्तान लॉटरी सेंटर जैसा कुछ रख लें... नहीं तो गाँधी या
नेहरू के नाम पर...। वे हँसते हुए पूछे - मोर छाप लॉटरी सेंटर नहीं चलेगा क्या?
मोर तो हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। मैंने
संजीदगी से कहा, देखिए एक बार
बदनामी हो जाने के बाद...। वे और जोर से हँसने लगे फिर बोले नाम के बारे में मुझे
सोचने दो।
दो दिन बाद रहमान
भाई ने मुझे बुलाया। मैं समझ गया नाम के बारे में ही कुछ होगा। बात वही थी। चाय
पिलाने के बाद वे मुझे अंदर वाले कमरे में ले गये और अभी-अभी अपने हाथों से पेंट
किया हुआ साइनबोर्ड दिखाया। जो कुछ मैंने देखा उसे तो मैं आपको बताऊँगा ही लेकिन
पहले यह सुन लीजिाए कि उस साइनबोर्ड को देखते ही मुझे कैसा महसूस हुआ, मुझ पर क्या बीती, मैंने क्या सोचा। देखिए, पहले तो कुछ समझ न आया। फिर माथे में कुछ सरसराया। अरे...
अह... ओऽऽऽ... यह क्या...! यह क्या रहमान भाई... मैं बुदबुदाया फिर हँस पड़ा। हँसी
रुकी ही नहीं। रोके नहीं रुक रही थी। कभी-कभी सिम्पल-सी बातों में कितना तीखा
व्यंग्य, कितना अर्थ, कितना भेदक ह्मूमर छिपा होता है... छिपा नहीं
बल्कि उसमें से टपक रहा होता है... छलछला रहा होता है कि आप बस शब्द-मुक्ति की
परमस्थिति में पहुँच जाते हैं। उसका आस्वाद क्षणिक होते हुए भी परमानन्ददायी होता
है। इस सादगी और सीधेपन में जो व्यंजना होती है वह किसी प्रच्छन्न या छद्म प्रविधि
के प्रयोग के कारण नहीं बल्कि यह उसकी अन्तर्निहित शक्ति के कारण घटित होती है।
हाँ, उसकी अपनी एक नेचुरल
टाइमिंग होती है जो कभी-कभी ही सेट बैठती है। और जब बैठती है तो लगता है जैसे किसी
ने आपकी आत्मा में गुदगुदी लगा दी हो... या फिर सिर में... जहाँ से सारी क्रियाएँ
और विचार संचालित होते हैं, एक हथौड़ा दे
मारा हो... या कि अपकी प्रेयसी या प्रेमी ने किसी के सामने आपका चुम्बन ले लिया
हो। आप मुग्ध या भयभीत होने से लेकर चौकन्ने, अचम्भित होने, आश्वस्त होने या सशंकित होने जैसी प्रक्रियाओं से एक साथ या अलग-अलग गुजर सकते
हैं। उस साइनबोर्ड को देखने के बाद मैं कई भावों से गुजरा लेकिन जो अन्ततः मुझे
याद रह गया है वह है सनसनी। जी हाँ, एक प्रकार की सनसनी ने मेरे पूरी शरीर को, मेरी सम्पूर्ण चेतना को धर दबोचा। और, अब आपसे कैसे बताऊँ, यह सनसनी न तो पूरी तरह सकारात्मक थी न पूरी तरह नकारात्मक।
मन-मुदित... मन-व्यथित जैसी स्थिति थी। एक विशेष प्रकार का भाव मेरे मुँह में,
मेरे दिमाग में, मेरे पूरे शरीर में शुरू हुआ और फिर बंद हो गया। इन सबसे जब
मैं सँभला तो बेतहाशा हँसने लगा। रहमान भाई की पीठ थपथपाता हुआ बस हँसता ही जा रहा
था। फिर उनके ऊपर कुछ असर नहीं। वे चुपचाप खड़े थे। बिल्कुल चुपचाप।
वह एक चार बाई
तीन का टिन का टुकड़ा था। पहले उसे सफेद रंग से रँग दिया गया था। ठीक बीच में लाल
पेंट से लॉटरी की टिकटें बनाने की कोशिश की गयी थीं। वे किसी तरह बन गयी थीं... और
कोशिश नाकाम नहीं थीं। पीले रंग से एकदम नीचे छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा हुआ था -
मोर छाप खुशबूदार तेल की जगह यहाँ से लॉटरी की टिकटें खरीदें। सबसे ऊपर मेरी नजर
सबसे बाद में गयी। वहाँ हरे रंग से साफ-साफ बड़े अक्षरों में लिखा था - 'अल-फायदा लॉटरी सेंटर'।
रहमान भाई अभी भी
चुपचाप खड़े थे। अचानक मुझे लगा जैसे उन्हें लम्बी-लम्बी दाढ़ी उग आयी है, वे पतले और लम्बे हो गये हैं... सिर पर
पगड़ी... और कन्धे में ए.के. 47 टँग गयी है।
मैंने उनके उसी कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा - अच्छा बनाया है... पर इतनी मेहनत
क्यों की... किसी पेंटर से बनवा लेते। वे मेरे हाथ को धीरे-से हटाते हुए बोले,
साले तैयार ही नहीं हुए... तो खुद करना पड़ा...
नाम कैसा है? मैं फिर हँसने
लगा, मेरे मुँह से निकला,
रहमान भाई, चीजों को हल्के-फुल्के ढंग से लेना छोड़िए। समय को देखिए...
यह पैरोडी महँगी पड़ सकती है... सोच लीजिए।
मैं जानता था
रहमान भाई जिस माटी के बने हैं वे अपने निर्णय पर अडिग रहेंगे। जो ठान लिया सो
करेंगे। कल जरूर यह बोर्ड उनके घर पर टँगा मिलेगा। मुझे यह भी पता था अगर रहमान
भाई ने मेरी चेतावनी पर ध्यान न दिया तो मुश्किल में अवश्य पड़ जाएँगे। वही हुआ।
ठीक वही। अल-फायदा लॉटरी सेंटर का बोर्ड रहमान भाई ने अपने घर पर टाँगा और दूसरे
ही दिन सी.आई.डी. और एस.टी.एफ. के लोग उनके दरवाजे पर आ धमके। मुझे खबर मिली तो
मैं भी घबराया हुआ वहाँ पहुँच गया। यद्यपि रहमान भाई ने कोई अच्छा काम नहीं किया
था और मेरे सुझाव की अनदेखी करके उन्होंने और भी बुरा किया था, फिर भी मेरी सच्ची सहानुभूति उनके साथ थी। जब
मैं पहुँचा तो बाहर से ही मामले की गम्भीरता का एहसास हो गया। मुहल्ले के लोग
दर्शक बने कुछ फासले पर खड़े थे। पहले मैंने उन्हें ही देखा और पाया कि कई लोग
पुलिसिया हरकत से नाखुश थे। रहमान भाई अपने ही बरामदे में जमीन पर बैठाये गये थे।
सिपाहियों को कुर्सी नहीं नसीब हुई थी और वे बन्दूकें लटकाये इधर-उधर टहल रहे थे।
वह कसूरवार साइनबोर्ड नीचे कोने में पड़ा था। मैं चलता-चलता वहाँ तक चला गया जहाँ
से मैं पुलिसवालों और रहमान भाई के सवाल-जवाब आसानी से सुन सकता था। मैं इस तरह
खड़ा हुआ कि जमीन पर बैठे रहमान भाई मुझे न देख सकें।
''महीने भर जेल की
हवा खाकर लौटा था... अब यह सब करने की क्या जरूरत थी बे?'' पूछनेवाला सादी वर्दी में था।
''क्या किया?''
रहमान भाई ने भी प्रश्न पूछा। स्वर कहीं से
कमजोर नहीं था।
''यह बोर्ड घर पर
क्यों टाँगा?''
''बिजनेस के लिए।''
''इस तरह का नाम
क्यों रखा?''
''मुझे तो इसमें
कोई बुराई नजर नहीं आती।''
''जी नहीं।''
''तूने क्या नाम
रखा है, पता है?''
''अल-फायदा लॉटरी
सेंटर। मेरे यहाँ से जो टिकट खरीदे, उसका फायदा होगा।''
''तुझे और कोई नाम
नहीं सूझा?''
''सुझा था लेकिन
यही चुना।''
''क्यों?''
''देखने में,
सुनने में, यह ध्यान खींचता है। बिजनेस के लिए यही जरूरी है।''
''साले, उच्चारण पर ध्यान दिया है, कितना मिलता-जुलता है?''
''वही तो कह रहे
हैं, लोगों का ध्यान खींचेगा।''
''ठीक कहता है,
हमारा भी ध्यान खिंच गया। अच्छा बोल, इसे हरे रंग से क्यों लिखा?''
''ध्यान खींचने के
लिए।''
''तो बिजनेस के लिए
तुम देशद्रोह का काम करोगे?''
''इसमें देशद्रोह
कैसा?''
''अच्छा सुन,
यह काला पेंट है। मिटा अपने हाथ से। छोड़ देंगे
तुझे।''
''यह कोई गाली नहीं
है, जो मिटा दूँ।''
''बहुत बड़ी गाली
है बे।''
''आप बिना वजह
भयभीत हो रहे हैं। यह बोर्ड किसी का कुछ नहीं बिगाड़ेगा। यह मेरी दुकान का नाम है
बस।''
''अच्छा, चल मिटा, तेरा पाप धुल जाएगा।''
''बड़ी मेहनत से
तैयार किये हैं इसे। यह कोई पाप नहीं है।''
''बड़े जिद्दी हो
भाई।''
''आप सही फरमा रहे
है।''
''अबे!''
''जी हाँ, मैं बड़ा जिद्दी हूँ। मेरा मानना है कि चिढ़ाना
किसी को गाली बकने से अलग है। इसलिए यह मेरे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के अधीन है।''
''अंग्रेजी मत बोल।
और जिद के पेड़ से नीचे उतर। चला ब्रश।''
''हम जिद नहीं
करेंगे तो मर जाएँगे। जिद हमारे लिए ऑक्सीजन है। ब्रश नहीं चला सकते।''
''देशहित में भी
नहीं?''
''नहीं। मेरा भी
कोई हित है। कोई सुन रहा है कि नहीं?''
''पूरे सनकी हो
भाई।''
''आप बड़े लोग हैं
कुछ भी कहें।''
''अबे तुझ जैसे
सनकियों से हिंदुस्तान को खाली कराना पड़ेगा।''
''तब हिंदुस्तान
सूना हो जाएगा।''
''अजीब आदमी है।
पागल।''
''जी, मैं सही में अजीब आदमी हूँ। मेरे पूरे खानदान
में सभी हैं।''
''तू सुधरेगा नहीं?''
''वह भी नहीं सुधरे
थे।''
''कौन?''
''कोई नहीं।''
''तुम्हें हम अंदर
करके आजीवन सड़ा सकते हैं। यहाँ तक कि तुम्हारा एनकांउटर भी हो सकता है।''
''किस जुर्म में?''
''तुम्हारे कारनामे
से पूरी फाइल भरी पड़ी है। हमें पता है तूम्हारे तार कहाँ-कहाँ से जुड़े हैं। ''
''यह आप कभी भी पता
नहीं कर सकते''
''जबान लड़ाता है।
साले, दस साल से तुम लोग यही कर
रहे हो। कहो तो बताएँ कहाँ-कहाँ से तुम्हारे तार जुड़े हैं?''
''इसके लिए आपको
बहुत पीछे जाना होगा। बहुत पीछे। आप तो बस नाक की सीध पर देखते है।''
''बेसिर-पैर की बात
मत कर, अच्छा बता, कहाँ से पढ़ा-लिखा है?''
''अलीगढ़।''
''मदरसा दाख़िल
ईमान में नाम लिखवाया है। मौलाना बनाना चाहते हैं।''
''हवलदार, इसे जीप में बैठाओ। साला पक्का आतंकवादी बन गया
है। बैठाओ साले को गाड़ी में।''
सुनकर मैं काँप
उठा। मेरे पाँव थरथराने लगे। वहाँ खड़ा होना दूभर हो गया। याद नहीं कैसे मैं घर
पहँचा। बाद में घर पर किसी ने बताया कि एस.टी.एफ. वाले रहमान भाई को साथ ले गये।
मैं बेचैन हो उठा। क्या करूँ, किससे कहूँ। आखिर
क्या जरूरत थी रहमान भाई को इतनी अकड़ दिखाने की? पहले ही समझाया था... लेकिन जिद के आगे कुछ न कर सका।
रात में बहुत देर
तक करवट बदलने रहने के बाद नींद आयी तो सपने में रहमान भाई को देखा। उन्हे तीन
गोलियाँ मारी गयी थीं। एक सिर में, एक सीने में और
एक मुँह में उनकी लाश जहाँ पड़ी थी वहीं मोर छाप तेल की असंख्य खाली शीशियाँ बिखरी
पड़ी थीं और पुलिस वाले उन पर लाठियाँ बरसा रहे थे। मुझे डर है कि यह सपना कहीं सच
न हो जाए। आखिर आजकल सपनों के सच होने में वक्त ही कितना लगता है।
No comments:
Post a Comment