Friday, October 21, 2016

धिक्कांर..मुंशी प्रेमचन्द की कहानी



धिक्कांर
 
अनाथ और विधवा मानी के लिए जीवन में अब रोने के सिवा दूसरा अवलम्ब  न था । वह पांच वर्ष की थी, जब पिता का देहांत हो गया। माता ने किसी तरह उसका पालन किया । सोलह वर्ष की अवस्थाा मकं मुहल्ले वालों की मदद से उसका विवाह भी हो गया पर साल के अंदर ही माता और ‍पति दोनों विदा हो गए। इस विपति में उसे उपने चचा वंशीधर के सिवा और कोई नज़र न आया, जो उसे आश्रय  देता । वंशीधर ने अब तक  जो व्य वहार किया था, उससे यह आशा न हो सकती थी कि वहां वह शांति के साथ रह सकेगी पर वह सब कुछ सहने और सब कुछ करने को तैयार थी । वह गाली, झिड़की, मारपीट सब सह लेगी, कोई उस पर संदेह तो न करेगा, उस पर मिथ्याझ लांछन तो न लगेगा, शोहदों और लुच्चों  से तो उसकी रक्षा होगी । वंशीधर को कुल मर्यादा की कुछ चिन्तान हुई । मानी की वाचना को अस्वींकार न कर सके ।

            लेकिन दो चार महीने में ही मानी को मालूम हो गया कि इस घर में बहुत दिनों तक उसका निबाह न होगा । वह घर का सारा काम करती, इशारों पर नाचती, सबको खुश रखने की कोशिश करती पर न जाने क्यों। चचा और चची दोनों उससे जलते रहते । उसके आते ही महरी अलग कर दी गई । नहलाने-धुलाने के लिए एक लौंडा था उसे भी जवाब दे दिया गया पर मानी से इतना उबार होने पर भी चचा और चची न जाने क्योंा उससे मुंह फुलाए रहते । कभी चचा घुड़कियां जमाते, कभी चची कोसती, यहां तक कि उसकी चचेरी बहन ललिता भी बात-बात पर उसे गालियां देती । घर-भर में केवल उसक चचेरे भाई गोकुल ही को उससे सहानुभूति थी । उसी की बातों में कुछ स्ने ह का परिचय मिलता था । वह उपनी माता का स्वउभाव जानता था। अगर वह उसे समझाने की चेष्टा  करता, या खुल्लकमखुल्लाव मानी का पक्ष लेता, तो मानी को एक घड़ी घर में रहना कठिन हो जाता, इसलिए उसकी सहानुभुति मानी ही को दिलासा देने तक रह जाती थी । वह कहता-बहन, मुझे कहीं नौकर हो जाने दो, फिर तुम्हा रे कष्टों का अंत हो जाएगा । तब देखूंगा, कौन तुम्हें तिरछी आंखों से देखता है । जब तक पढ़ता हूं, तभी तक तुम्हामरे बुरे दिन हैं । मानी यह स्नेखह में डूबी हुई बात सुनकर पुलकित हो जाती और उसका रोआं-रोआं गोकुल को आशीर्वाद देने लगता ।

आज ललिता का विवाह है । सबेरे से ही मेहमानों का आना शुरू हो गया है। गहनों की झनकार से घर गूंज रहा है । मानी भी मेहमानों को देख-देखकर खुश हो रही है । उसकी देह पर कोई आभूषण नहीं है और न ठसे सुन्द र कपड़े ही दिए गए हैं, फिर भी उसका मुख प्रसन्नह है।
            आधी रात हो गई थी । विवाह का मुहूर्त निकट आ गया था। जनवासे से पहनावे की चीजें आईं । सभी औरतें उत्सुकक हो-होकर उन चीजों को देखने लगीं । ललिता को आभूषण पहिनाए जाने लगे । मानी के हदय में बड़ी इच्छां हुई कि जाकर वधू को देखे । अभी कल जो बालिका थी, उसे आज वधू वेश में देखने की इच्छा न रोक सकी । वह मुस्काती हुई कमरे में घुसी। सहसा उसकी चची ने झिड़ककर कहा-तुझे यहां किसने बुलाया था, निकल जा यहां से ।
            मानी ने बड़ी-बड़ी यातनाएं सही थीं, पर आज की वह झिड़की उसके हदय में बाण की तरह चुभ गई । उसका मन उसे धिक्काररने लगा । तेरे छिछोरेपन का यही पुरस्कागर है । यहां सुहागिनों के बीच में तेरे आने की क्यार जरूरत थी वह खिसियाई हुई कमरे से निकली और एकांत में बैठकर रोने के लिए ऊपर जाने लगी । सहसा जीने पर उसी इंद्रनाथ से मुठभेड़ हो गई । इंद्रनाथ गोकुल का सहपाठी और परम मित्र था वह भी न्यैेते में आया हुआ था । इस वक्तह गोकुल को खोजने के लिए ऊपर आया था । मानी को वह दो-बार देख चुका था और यह भी जानता था कि यहां बड़ा दुर्व्यदवहार किया जाता है । चची की बातों की भनक उसके कान में भी पड़ गई थी । मानी को ऊर जाते देखकर वह उसके चित का भाव समझ गया और उसे सांत्वनना देने के लिए ऊपर आया, मगर दरवाजा भीतर से बंद था । उसने किवाड़ की दरार से भीतर झांका । मानी मेज के पास खड़ी रो रही थी ।
            उसने  धीरे से कहा-मानी,  द्वार खोल दो।
मानी उसकी आवाज सुनकर कोने में छिप गई और गम्भीझर स्वोर में बोली-क्याु काम है ?
            इंद्रनाथ ने गदगद स्व र में कहा-तुम्हावरे पैरों पड़ता हूं मानी, खोल दो ।
यह स्नेकह में डूबा हुआ हुआ विनय मानी के लिए अभूतपूर्व था । इस निर्दय संसार में कोई उससे ऐसे विनती भी कर सकता है, इसकी उसने स्व्प्न  में भी कल्पीना न की थी । मानी ने कांपते हुए हाथों से द्वारा खोल दिया । इंद्रनाथ झपटकर कमरे में घुसा, देखा कि छत से पुखे के कड़े से एक रस्सीन लटक रही है । उसका हदय कांप उठा। उसने तुरन्तड जेब से चाकू निकालकर रस्सी काट दी और बोला-क्याठ करने जा रही थीं मानी ? जानती हो, इस अपराध का क्या- दंड है ?
            मानी ने गर्दन झुकाकर कहा-इस दंड से कोई और दंड कठोर हो सकता है ? जिसकी सूरत से लोगों का घणा है, उसे मरने के लिए भी अगर कठोर दंड दिया जाए, तो मैं यही कहूंगी कि ईश्वदर के दरबार में न्याकय का नाम भी नहीं है ।
            इन्द्रनाथ की आंखे सजल हो गईं । मानी की बातों में कितना कठोर सत्य् भ्ं रा हुआ था । बोला-सदा ये दिन नहीं रहेंगे मानी । अगर तुम यह समझ रही हो कि संसार में तुम्हाआरा कोई नहीं है, तो यह तुम्हा।र भ्रम है । संसार में कम-से-कम एक मनुष्य  ऐसा है, जिसे तुम्हारे प्राण आने प्राणों से भी प्यारे हैं ।
            सहसा गोकुल आता हुआ दिखाई दिया । मानी कमरे से निकल गई 1 इन्द्रआनाथ के शब्दों  से उसके मन में एक तूफान-सा उठा दिया । उसका क्या  आशय है, यह उसकी समझ में न आया ।  फिर भी आज उसे अपना जीवन सार्थ्कय मालूक हो रहा था । उसके अन्ध कारमय जीवन में एक प्रकाश का उदय हो गया था ।
इन्द्ररनाथ को वहां बैठे और मानी को कमरे से जाते देखकर गोकुल को कुछ खटक गया । उसकी त्योकरियां बदल गईं । कठोर स्व र में बोला-तुम यहां कब आये ?
            इद्रंनाथ ने अविचलित भाव से कहा-तुम्हींत को खोजता हुआ यहां आया था। तुम यहां न मिले तो नीचे लौटा जा रहा था, अगर चला गया होता तो इस वक्तु तुम्हेंन यह कमरा बन्दथ मिलता और पंखे के कड़े में एक लाश लटकती हुई नजर आती ।
गोकुल ने समझा, यह अपने अपराध के छिपाने के लिए कोई बहाना निकाल रहा है । ती‍व्र कंठ से बोला-तुम यह विश्वासघात करोगे, मुझे ऐसी आशा न थी ।
            इन्द्रथनाथ का चेहरा लाल हो गया । वह आवेश में आकार खड़ा हो गया और बोला-न मुझे यह आशा थी कि तुम मुझ पर इतना बड़ा लांछन रख दोगे । मुझे ने मालुम था कि तुम मुझे इतना नीच और कुटिल समझते हो । मानी तुम्हामरे लिए तिरस्कानर की वस्तुछ हो, मेरे लिए वह श्रद्धा की वस्तु  है और रहेगी । मुझे तुम्हा रे सामने अनी सफाई देने की जरूरत नहीं है, लेकिन मानी केरे लिए उससे कहीं पवित्र है, जितनी तुम समझते हो । मैं नहीं चाहता था कि इस वक्तर ‍तुमसे उससे ये बातें कहूं । इसके लिए और अनूकूल परि‍‍स्थ्तियों की राह देख रहा था, लेकिन मुआमला आ पड़ने परकहना ही पड़ रहा है । मैं यह तो जानता था कि मानी का तुम्हा रे घर में कोई आदर नहीं, लेकिन तुम लोग उसे इतना नीच और त्या्ज्या समझते हो, यह कि आज तुम्हािरी माताजी की बातें सुनकर मालूम हुआ । केवल इतनी-सी बात के लिए वह चढ़ावे के गहने देखने चली गयी थी, तुम्हातरी माता ने उसे इस बुरी तरह झिड़का, जैसे कोई कुत्ते् को भी न भिड़केगा । तुम कहोगे, इसमें मैं क्याझ करूं, मैं कर ही क्या  सकता हूं । जिस घर में एक अनाथ स्त्री  पर इतना अत्याझचार हो, उस घर का पानी पीना भी हराम है । अगर तुमने अपनी माता को पहले ही दिन समझा दिया होता, तो आज यह नौबत न आती । तुम इस इलजाम से नहीं बच सकते । तुम्हा रे घर में आज उत्स व है, मैं तुम्हा रे माता-पिता से कुछ नहीं बातचीत नहीं कर सकता, लेकिन तुमसे कहने में संकोच नहीं हे कि मानी को को मैं अपनी जीवन सहचरी बनाकर अपने को धन्यक समझूंगा । मैंने समझा था, उपना कोई ठिकाना करके तब यह प्रस्तासव करूंगा पर मुझे भय है कि और विलम्बज करने में शायद मानी से हाथ धोना पड़े, इसलिए तुम्हेंम और तुम्हावरें घर वालों को चिन्ताम से मुक्त़ करने के लिए मैं आज ही यह प्रस्ताहव किए देता हूं ।
            गोकुल के हदय में इंद्रनाथा के प्रति ऐसी श्रद्धा कभी न हुई थी । उस पर ऐसा सन्देंह करके वह बहुत ही ल‍‍‍ज्ज त हुआ । उसने यह अनुभव भी किया कि माता के भय से मैं मानी के विषय में तटस्थद रहकर कायरता का दोषी हुआ हूं । यह केवल कायरता थी और कुछ नहीं । कुछ झेंपता हुआ बोला-अगर अम्मांा ने मानी को इस बात पर झिड़का तो वह उनकी मूर्खता है। मैं उनसे अवसर मिलते ही पूछूँगा ।
इन्द्रूनाथ-अब पूछने-पाछने का समय निकल गया । मैं चाहता हूं कि तुम मानी से इस विषय में सलाह करके मुझे बतला दो । मैं नहीं चाहता कि अब वह यहां क्षण-भर भी रहे । मुझे आज मालूम हुआ कि वह गर्विणी प्रकति की स्त्रीव है और सच पूछो तो मैं उसके स्वहभाव पर मुग्ध  हो गया हूं । ऐसी स्त्री  अत्या चार नहीं सह सकती ।
            गोकुल ने डरते-डरते कहा-लेकिन तुम्हें मालूम है, वह विधवा है ?
            जब हम किसी के हाथों अपना असाधारण हित होते देखते हैं, तो हम अपनी सारी बुराइयों उसके सामने खोलकर रख देते हैं । हम उसे दिखाना चाहते हैं कि हम आपकी इस कपा के सर्वथा योग्य  नहीं है ।
            इन्द्रहनाथ ने मुस्क राकर कहा-जानता हूं सुन चुका हूं और इसीलिए तुम्हाहरे बाबूजी से कुछ कहने का मुझे अब तक साहस नहीं हुआ । लेकिन न जानता तो भी इसका मेरे निश्चछय पर कोई अवसर न पड़ता । मानी विधवा ही नहीं, अछूत हो, उससे भी गयी-बीती अगर कुछ अगर कुछ हो सकती है, वह भी हो, ‍‍ फिर भी मेरे लिए वह रमणी-रत्न? है । हम छोटे-छोटे कामों के लिए तजुर्बेकार आदमी खोजते हैं, जिसके साथ हमें जीवन-यात्रा करनी है, उसमें तजुर्बे का होना ऐब समझते हैं । मैं न्या य का गला घोटनेवालो में नहीं। विपति से बढ़कर तजुर्बा सिखाने वालो कोई विद्वालय आज तक नही खुला। जिसने इस विद्वालय में डिग्री ले ली, उसके हाथों में हम होकर जीवन की बागडोर दे सकते हैं । किसी रमणी का विधा होना मेरी आंखों में दोष नहीं, गुण है।
            गोकुल ने पूछा-अगर तुम्हा रे घरवाले आपतिध करें तो ?
            इन्द्रननाथ न प्रसन्नह होकर कहा-मैं अपने घरवालों को इतना मुर्ख नहीं समझता कि इस विषय में आपति करें, लेकिन वे आपति करें भी तो मैं अपनी किस्मसत अपने हाथ में ही रखना पसंद करता हूं । मेरे बड़ों को मुझपर अनेकों अधिकार हैं । बहुत-सी बातों में मैं उनकी इच्छा को कानून समझता हूं, लेकिन जिस बात को मैं अपनी आत्मां के विकास के लिए शुभ समझता हूं,  उसमें मैं किसी से दबना नहीं चाहता । मैं इस गर्व का आनन्दम
उठाना चाहता हूं कि मैं स्वजयं अपने जीवन का निर्माता हूं ।
            गोकुल ने कुछ शंकित होकर कहा-और मानी न मंजूर करे ।
            इन्द्रननाथ को यह शंका बिलकुल निर्मल जान पड़ी । बोले-तुम इस समय बच्चोंु की-सी बात कर रहे हो गोकुल । यह मानी हुई बात है मानी आसनी से मंजूर न करेगी । वह इस घर में ठोकरे, झिड़कियॉं सहेगीण्‍ गालियॉं सुनेगी, पर इसी घर में रहेगी। युगों के संस्कारों को ‍मिटा देना आसन नहीं है, लेकिन हमें उसका राजी करना पड़गा । उसके मन से संचित संस्कागरों को निकालना पड़ेगा । हमें विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष में नहीं हूँ। मेरा ख्याोल है कि पतिव्रत का यह अलौकिक आदर्श संसार का अमूल्यँ  रत्नो है और हमें बहुत सोच-समझकर उस पर आघात करना चाहिए, लेकिन मानी के विषय में यह बात नहीं उठती । प्रेम और भक्ति नाम से नहीं, व्यकक्ति  से होती है । जिस पुरूष से उसने सूरत भी नीं देखी, उससे उसे प्रेम नहीं हो सकता । केवल रस्मत की बात है। इस आडम्बुर की, इस दिखावे की, हमें परवाह नह करनी चाहिए । देखो, शायद कोई तुम्हें  ‍बुला रहा है । मैं भी जा रहा हूं । दो-तीन दनि में ‍फिर मिलूंगा, मगर ऐसा न हो कि तुम संकोच में पड़कर सोचते-विचारते रह जाओ और दिन निकलते चले जाएं ।
            गोकुल ने उसके गले में हाथ डालकर कहा-मैं परसों खुद ही आऊंगा ।

बारात ‍विदा हो गई थी । मेहमान भी रूखसत हो गए । रात के नौ बज गए ‍थे । विवाह के बाद की नींद मशहूर है । घर के सभी लोग सरेशाम से सो रहे थे । कोई चरपाई पर, कोई तख्त  पर, कोई जमीन पर, जिसे जहां जगह मिल गई, वहीं सो रहा था । केवल मानी घर की देखभाल कर रही थी और ऊपर गोकुल अपने कमरे में बैठा हुआ समाचार पढ़ रहा था।
            सहसा गोकुल ने पुकारा-मानी, एक ग्लारस ठंडा पानी तो लाना, प्या स लगी है।
            मानी पानी लेकर ऊपर गई और मेज पर पानी रखकर लौटना ही चाहती थी कि गोकुल ने कहा-जरा ठहरो मानी, तुमसे कुछ कहना है ।
मानी ने कहा-अभी फुरसत नहीं है भाई, सारा घर सो रहा है । कहीं कोई घुस आए तो लोटा-थाली भी न बचे ।
            गोकुल ने कहा-घुस आने दो, मैं तुम्हाररी जगह होता, तो चोरों से मिलकर चोरी करवा देता । मुझे इसी वक्त, इन्द्र नाथ से मिलना है । मैंने उससे आज मिलने का वचन दिया है-देखो संकोच मत करना, जो बात पूछ रहा हूं, उसका लल्दस उतर देना । देर होगी तो वह घबराएगा । इन्द्र नाथ को तुमसे प्रेम है, यह तुम जानती हो न ?
            मानी ने मुंह फेरकर कह-यही बात कहने के लिए मुझे बुलाया था ? मैं कुछ नहीं जानती।
            गोकुल-खैर, यह वह जाने या तुम जानो । वह तुमसे विवाह करना चाहता है। वैदिक रीति से विवाह होगा । तुम्हें  स्वीतकार है ?
            मानी की गर्दन शर्म से झुक गई । वह कुछ जवाब न दे सकी ।
            गोकुल ने ‍‍फिर कहा-दादा और अम्मांी से यह बात नहीं कही गई, इसका कारण तुम जानती ही हो । वह तुम्हेंद घुड़कियां दे-देकर जला-जलाकर चाहे मार डालें, पर विवाह करने की सम्म्ति कभी नह देंगे। इससे उनकी नाक कट जाऐगी, इसलिए अब इसका निर्णय तुम्हाीरे ही ऊपर है । मैं तो समझता हूं, तुम्हेंब स्वी कार कर लेना चाहिए । इंद्रनाथ तुमसे प्रेम करता ही हैं, यों भी निष्क‍लंक चरित्र आदमी और बला का दिलेर है 1 भय तो उसे छू ही नहीं गया । तुम्हेंन सुखी देखकर मुझे सच्चाम आन्निद होगा ।
            मानी के हदय में एक वेग उठ रहा था, मगर मुंह से आवाज न निकली ।
            गोकुल ने अबी खीझकर कहा-देखो मानी, यह चुप रहने का समय नहीं है । क्या सोचती हो ?मानी ने कांपते स्वेर में कहा-हां ।
गोकुल के हदय का बोझ हल्काच हो गया । मुस्कांने लगा । मानी शर्म के मारे वहा भाग गई ।
शाम को गोकुल ने अपनी मां से कहा-अम्मा , इंद्रनाथ के घर आज कोइ उत्सव है । उसकी माता अकेली घबड़ा रही थी कि कैसे सब काम होगा, मैंने कहा, मैं मानी को कल भेज दूंगा । तुम्हारी आज्ञा हो, तो मानी का पहुंचा दूँ। कल-परसों तक चली आयेगी।
            मानी उसी वक्त  वहां आ गई, गोकुल ने उसकी ओर कनखियों से ताका । मानी लज्जा  से गड़ गई । भागने का रास्तास न मिला ।
            मां ने कहा-मुझसे क्याग पूछती हो, वह जाय, ले जाओ ।
            गोकुल ने मानी से कहा-कपड़े पहनकर तैयार हो जाओ, तुम्हेंह इंद्रनाथ के घर चलना है ।
            मानी ने आपत्ति की-मेरा जी अच्छाप नहीं है, मैं न जाऊंगी।
गोकुल की मां ने कहा-चली क्योंप नहीं जाती, क्यान वहां कोई पहाड़ खोदना है?
            मानी एक सफेद साड़ी पहनकर तांगे पर बैठी, तो उसका हदय कांप रहा था और बार-बार आंखों में आंसू भर आते थे । उकसा हदय बैठा जाता था, मानों नदी में डुबन जा रही हो।
            तांगा कुछ दुर निकल गया तो उसने गोकुल से कहा-भैया, मेरा जी न जाने कैस हो रहा है । घर चलो, तुम्हाहरे पैर पड़ती ।
            गोकुल ने कहा-तू पागल है । वहां सब लोग तेरी राह देख रहे हैं और तू कहती है लौट चलो ।
            मानी-मेरा मन कहता है, कोई अनिष्टत होने वाला है ।
            गोकुल-और मेरा मन कहता है तू रानी बनने जा रही है ।
            मानी-दस-पांच दिन ठहर क्यों नहीं जाते ? कह देना, मानी बीमार है।
            गोकुल-पागलों की-सी बातें न करो ।
            मानी-लोग कितना-हंसेंगे ।
            गोकुल-मैं शुभ कार्य कें किसी की हॅसी की परवाह नहीं करता ।
            मानी-अम्मॉ तुम्हें  घर में घुसने न देंगी । मेरे कारण तुम्हें  भी झिड़कियॉ मिलेंगी ।
            गोकुल-इसकी कोई परवाह नहीं है । उसकी तो यह आदत ही है ।
            तॉंगा पहुंच गया । इंद्रनाथ की माता विचारशील महिला थीं । उन्होंपन आकर वधू को उतारा और भीतर ले गयीं ।

गोकुल वहां से घर चला तो ग्यारह बज रहे थे । एक ओर तो शुभ कार्य के पूरा करने का आनंद था, दूसरी ओर भय था कि कल मानी न जाएगी, तो लोगों को क्याआ जवाब दूंगा । उसने निश्च य किया, चलकर साफ-साफ कह दूं। छिपाना व्यंर्थ है । आज नहीं कल, कल नहीं परसों तो सब-कुछ कहना ही पड़ेगा । आज ही क्योंज न कह दूं ।
            यह निश्चाय करके घर में दाखिल हुआ ।
            माता ने किवाड़ खोलते हुए कहा-इतनी रात तक क्याच करने लगे ? उसे भी क्यों  न लेते आये ? कल सवेरे चौका-बर्तन कौन करेगा ?
            गोकुल ने सिर झुकाकर कहा-वह तो अब शायद लोटकर न आये अम्मा ,  उसके वहीं रहने का प्रबंध हो गया है।
            माता ने आंखे फाड़कर कहा-क्या बकता है, भला वह वहां कैसे रहेगी?
            गोकुल-इंद्रनाथ से उसका विवाह हो गया है ।
            माता मानो आकाश से गिर पड़ी । उन्हेंह कुछ सुध न रही कि मेंरे मुंह से क्याा निकल रहा है, कुलांगार, भड़वा, हरामजादा, न जाने क्याघ-क्याक कहा । यहां तक कि गोकुल का धैर्य चरमसीमा का उल्लंकघन कर गया । उसका मुंह लाल हो गया, त्योीरियॉ चढ़ गई, बोला-अम्मार, बस करो। अब, मुझमें इससे ज्या दा सुनने की सामर्थ्यर नहीं है । अगर मैंन कोई अनुचित कर्म किया होता, तो अपकी जूतियां खकार भी सिर न उठाता, मगर मैंने कोई अनुचित कर्म नहीं किया । मैंने वही किया जो ऐसी दशा में मेंरा कर्तव्यच था और जो हर एक भले आदमी का करना चाहिए । तुम मूर्खा हो, तुम्हेंच नहीं मालूम कि समय की क्या  प्रगति । इसीलिए अब तक मैनें धैर्य के साथ् तुम्हांरी गालियॉ सुनी । तुमने, और मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि पिताजी ने भी, मानी के जीवन का नारकीय बना रखा था । तुमने उसे ऐसी-ऐसी ताड़नाऍ दीं, जो कोई अपने शत्रु को भी न देगा । इसीलिए न कि वह तुम्हासरी आश्रित थी ? इसी लिए न कि वह अनाथिन थी ? अब वह तुम्हाहरी गालियॉ  खाने न आएगी । जिस दिन तुम्हानरे घर विवाह का उत्सहव हो रहा था, तुम्हारे ही एक कठोर वाक्यन से आहत होकर वह आत्माहत्या  करने जा रही थी। इंद्रनाथ उस समय ऊपर न पहुंच जाते तो आज हम, तुम, सारा घर हवालात में बैठा होता ।
            माता ने आंखे मटकाकर कहा-आहा । कितने सपूत बेटे हो तुम, कि सारे घर को संकट से बचा लिया । क्यों  न हो ? अभी बहन की बारी है । कुछ दिन में मुझे ले जाकर किसी के गले में बांध आना । ‍फिर तुम्हा री चांदी हो जायेगी । यह रोजगार सबसे अच्छा है । पढ़ लिखकर क्याम करोगे ?
            गोकुल मर्म-वेदना से तिलमिला उठा । व्य थित कंठ से बोला-ईश्व र न करे कि कोई बालक तुम जैसी माता के गर्भ से जन्मह ले । तुम्हारा मुंह देखना भी पाप है ।
            यह कहता हुआ वह घर से निकल पड़ा और उन्मभत्तों की तरह एक तरफ चल खड़ा हुआ । जोर से झोंके चल रहे थे, पर उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि सॉस लेने ‍के लिए हवा नहीं है ।

एक सप्ताकह बीत गया पर गोकुल का कहीं पता नहीं। इंद्रनाथ को बम्बेई में एक जगह मिल गई थी। वह वहां चला गया था। वहां रहने का प्रबंध करके वह अपनी माता को तार देगा और तब सास और बहू चली जाऍगी । वंशीधर को पहले संदेह हुआ कि गोकुल इंद्रनाथ के घर छिपा होगा, पर जब वहां पता न चला तो उन्हों ने सारे शहर में खोज-पूछ शुरू की। जितन मिलने वाले, मित्र, स्नेशही, सम्ब न्धीन थे, सभी के घर गये, पर सब जगह से साफ जवाब ‍पाया । दिन-भर दौड़-धूप कर शाम को घर आते, तो स्त्री  के आड़े हाथों लेते-और कोसो लड़के को, पानी पी-पीकर कोसो । न जाने तुम्हें  कभी बु‍द्धि आयेगी भी या नहीं । गयी थी चुड़ैल, जाने देती । एक बोझ सिर से टला । एक महरी रख लो, काम चल जाएगा । जब वह न थी, तो घर क्याट भूखों मरता था ? विधवाओं के पुनर्विवाह चारों ओर तो हो रहे हैं, यह कोई अनहोनी बात नहीं है । हमारे बस की बात होती, तो विधवा-विवाह के पक्षपातियों को देश से निकाल देते, शाप देकर जला देते, लेकिन यह हमारे बस की बात नहीं । फिर तुमसे इतनी भी न हो सका कि मुझसे तो पूछ लेतीं । मैं जो उचित समझता, करता । क्या तुमने समझा था, मैं दप्त र से लौटकर आऊंगा ही नहीं, वहीं अत्ये‍षिट हो जाएगी ? बस, लड़के पर टूट पड़ी। अब रोओ, खूब दिल खोलकर।
            संध्या हो गई थी। वंशीधर स्त्री को फटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में टहल रहे थे। रह-रहकर मानी पर क्रोध आता था। इसी राक्षसी के कसरण मेरे घर का सर्वनाश हुआ, न जाने किस बुरी साइत में आयी कि घर को मिटाकर छोड़ा । वह न आयी होती, तो आज क्योंब यह बुरे दिन ‍देखने पड़ते । ‍कितना होनहार, कितना प्रतिभाशाली लड़का था । न जाने कहां गया ?
            एकाएक एक बुढिया उनके समीप आयी और बोली-बाबू साहब, यह खत लायी हूं, ले लीजिए ।
            वंशीधर ने लपककर बुढिया के हाथ से पत्र ले लिया,  उनकी छाती आशा से धक-धक करने लगी । गोकुल ने शायद यह पत्र लिखा होगा । अंधेरे में कुछ ने सुझा । पूछा-कहॉ से आयी है ?
            बुढिया ने कहा-वह जो बाबू हुसनेगंज में रहते हैं, जो बम्बभई में नौकर हैं,  उन्हींब की बहु ने भेजा है ।
            वंशीधर ने कमरे में जाकर लैम्पू जलाया और पत्र पढ़ने लगे । मानी का खत था लिखा था ।
            पूज्यल चाचाजी, आभागिनी मानी का प्रणाम स्वी कार कीजिए ।
            मुझे यह सुनकर अत्यचन्त, दु:ख हुआ कि गोकुल भैया कहीं चले गए और अब तक उनका पता नहीं है । मैं ही इसका कारण हूं । यह कलंक मेरे ही मुख पर लगना था वह भी लग गया । मेरे कारण आपको इतना शोक हुआ, इसका मुझे बहुत दु:ख है, मगर भैया आएंगे अवश्यऔ, इसका मुझे विश्वाआस है । मैं भी नौ बजे वाली गाड़ी से बम्ब ई जा रही हूं । मुझझे जो कुछ अपराध हुआ है, उसे क्षमा कीजिएगा और चाची से मेरा प्रणाम कहिएगा। मेरी ईश्वैर से यही प्रार्थना है कि शीघ्र ही गोकुल भैया सकुशल घर लौट आयें । ईश्व र की अच्छा् हुई तो भैया के विवाह में आपके चरणों के दर्शन करूंगी ।
            वंशीधर न पत्र को फाड़कर पुर्जे-पुर्जे कर डाला । घड़ी में देखा तो आठ बज रहे थे । तुरन्तर कपड़े पहने, सड़क पर आकर एक्का  किया और स्टेजशन चले ।
बम्बेई मेल प्लेनटफार्म पर खड़ा था । मुसा‍फिरों में भगदड़ मची हुई थी। खोमचे वालों की चीख-पुकार से कान पड़ी आवाज न सुनाई देती थी। गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर थी मानी और उसकी सास एक जनाने कमरे में ‍बैठी हुई थी । मानी सजल नेत्रों से सामने ताक रही थी । अतीत चाहे दुख:द ही क्यों  न हो, उसकी स्महतियॉ मधुर होती हैं । मानी आज बुरे दिनों को स्मकरण करके दु:खी हो रही थी । गोकुल से अब न जाने कब भेंट होगी। चाचाजी आ जाते तो उनके दर्शन कर लेती । कभी-कभी बिगड़ते थे तो क्याज, उसके भले ही के लिए तो डांटते थे । वह आवेंगे नहीं । अब तो गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर है । कैसे आऍ, समाज में हलचल न मच जाएगी । भगवान की इच्छा होगी, तो अबकी जब यहॉ आऊंगी, तो जरूर उनके दर्शन करूंगी ।
            एकाएक उसने लाला वंशीधर को आते देखा । वह गाड़ी से निकलकर बाहर खड़ी हो गई और चाचाजी की ओर बढ़ी । चरणों पर गिरना चाहती थी कि वह पीछे हट गए और ऑखे निकालकर बोले-मुझे मत छू, दूर रह, अभगिनी कहीं की । मुंह की कालिख लगाकर मुझे पत्र लिखती है । तुझे मौत नहीं आती । तूने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया आज तक गोकुल का पता नहीं है । तेरे कारण वह घर से निकला और तू अभी तक मेरी छाती पर मूंग दलने को बैठी है । तेरे लिए क्यार गंगा में पानी नहीं है ? मैं तुझे कुलटा, ऐसी हरजाई समझता, तो पहले दिन तेरा गला घोंट देता । अब मुझे अपनी भक्तिक दिखलाने चली है । तेरे जैसी पापिष्ठाओं का मरना ही अच्छाप है, पथ्वीी का बोझ कम हो जाएगा ।
प्लेरटफार्म पर सैकड़ो आदमियों की भीड़ लग गई थी और वंशीधर निर्लज्ज‍ भाव से गालियों की बौछार कर रहे थे । किसी की समझ में न आता था, क्या  माजरा है, पर मन से सब लाला को ‍धिक्कालर रहे ‍थे ।
            मानी पाषाण-मूर्ति के सामान खड़ी थी, मानो वहीं जम गई हो । उसका सारा अभिमान चूर-चूर हो गया । ऐसा जी चाहता था, धरती फट जाए और मैं समा जाऊं, कोई वज्र गिरकर उसके जीवन-अधम जीवन-का अन्तऔ कर दे । इतने आदमियों के सामने उसका पानी उतर गया उसी आंखों से पानी की एक बूंद भी न निकला । हदय में ऑसू न थे । उसकी जग एक दावनल-सा दहक रहा था, जो मानो वेग से मस्तिउष्कस की ओर बढ़ता चला जाता था । संसार में कौन जीवन इतना अधम होगा ।
            सास ने पुकारा-बहू, अन्दतर आ जाओ ।

गाड़ी चली तो माता ने कहा-ऐसा बेशर्म आदमी नहीं देखा । मुझे तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि उसका मुंह नोच लूं ।
            मानी ने सिर ऊपर न उठाया ।
            माता ‍फिर बोली-न जाने इन सडियलों ‍को बुद्धि कब आएगी, अब तो मरने के दिन भी आ गए । पूछो, तेरा लड़का भाग तो हम क्या  करें; अगर ऐसे पापी ने होते तो यह वज्र क्यों  गिरता ।
            मानी ने फिर भी मुंह न खोला । शायद उसे कुछ सुनाई ही न दिया था। शायद उसे अपने असित्तनव का ज्ञान भी न था । वह टकटकी लगाए खिड़की की ओर ताक रही थी । उस अंधकार में जाने क्याथ सूझ रहा था ।
कानपुर आया । माता ने पूछ-बेटी, कुछ खाओगी ? थोड़ी-सी मिठाई खा लो; दस कब के बज गए ।
            मानी ने कहा-अभी तो भूख नहीं है अम्मा , फिर खा लूंगी ।
            माताजी सोई। मानी भी लेटी; पर चचा की वह सूरत आंखों के सामने खड़ी थी और उनकी बातें कानों में गूंज रही थीं-आह, मैं इतनी नीच हूं, ऐसी पतित, कि मेरे मर जाने से पथ्वीआ का भार हल्का हो जाएगा ? क्या  कहा था, तू अपने मॉ-बाप की बेटी है तो फिर मुंह मत दिखाना । न दिखाऊंगी, जिस मुंह पर ऐसी कालिमा लगी हुई है, उसे किसी को दिखाने की इच्छा, भी नहीं है ।
            गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी । मानी ने अपना टंक खोला और अपने आभषण निकालकर उसमें रख दिए । ‍फिर इंद्रनाथ का चित्र निकालकर उसे देर तक देखती रही । उसकी आखों से गर्व की एक झलक-सी दिखाई दी । उसने तसवीर रख दी और आप-ही-आप बोली-नहीं-नहीं, मैं तुम्हाउरे जीवने को कलंकित नहीं कर सकती । तुम देवतुल्य- हो, तुमन मुझ पर दया की है । मैं अपने पूर्व संस्का रों का प्रायश्चिमत कर रही थी । तुमने मुझे उठाकर हदय से लगा लिया; लेकिन मैं तुम्हें कलंकित न करूंगी । तुमने मुझसे प्रेम है । तुम मेरे लिए अनादर, अपमान, निन्दां सब सहू लोगे; पर मैं तुम्हालरे जीवन का भार न ‍बनूंगी ।
गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी । मानो आकाश की ओर इतनी देर तक देखती रही कि सारे तारे अदय हो गए और उस अन्धतकार में उसे अपनी माता का स्व रूप दिखाई दिया-ऐसा प्रत्याक्ष कि उसने चौंककर आंखें बन्द  कर लीं ।



न जाने कितनी रात गुजर चुकी थी । दरवाजा खुलने की आहट से माता जी की आंखें खुल गईं । गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी; मगर बहू का पता न था वह आखें मलकर उठ बैठी और पुकारा-बहू । बहू । कोई जवाब न मिला।
उसका हदय धक-धक करने लगा । ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशाबखान में देखा, बेंचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी । तब वह द्वार पर आकर खड़ी हो गई । बहू का क्या, हुआ, यह द्वार किसने खोला ? कोई गाड़ी में तो नहीं आया । उसका जी घबराने लगा । उसने किवाड़ बन्दव कर दिया और जोर-जोर से रोने लगी । किससे पूछे ? डाकगाड़ी अब न जाने कितनी देर में रूकेगी । कहती थी, बहू, मरदानी गाड़ी में बैठें । मेरा कहना न माना । कहने लगी, अम्मा जी, आपको सोने की तकलीफ होगी । यही आराम दे गई।
            सहसा उसे खतरे की जंजीर याद आई । उसने जोर-जोर से कई बार जंजीर खींची । कई मिनट के बाद गाड़ी रूकी । गार्ड आया । पड़ोस के कमरे से दो-चार आदमी और भी आये । फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया । किया नीचे तख्तेक को ध्या न से देखा । रक्त  का कोई चिन्हय न था । असबाब की जॉच की । बिस्तार, संदूक, संदुकची, बरतन सब मौजूद थे । ताले भी सबसे बंद थे । कोई चीज गायब न थी । अगर बाहर से कोई आदमी आता, तो चलती गाड़ी से जाता कहॉ ? एक स्त्री  को लेकर गाड़ी से कूद असम्भबव था । सब लोग इन लक्षणों से इसी नतीजे पर पहुचे कि मानी द्वार खोलकर बाहर झाकने लगी होगी और मुठिया हाथ से छूट जाने के कारण गिर पड़ी होगी । गार्ड भला आदमी था । उसने नीचे उतरकर एक मील तक सड़क के दोनों तरफ तलाश किया । मानी को कोई निशान न मिला । रात को इससे ज्यादा और क्या। किया जा सकता था ? माताजी को कुछ लोग आग्रहपूर्वक एक मरदाने डब्बेा में ले गए । यह निश्चिय हुआ कि माताजी अगले स्टेहशन पर उतर पड़े और सबेरे इधर-उधर दूर तक देख-भाल की जाए ।
            विपत्ति में हम परमुखपेक्षी हो जाते हैं । माताजी कभी इसका मुंह देखती, कभी उसका । उसकी याचना से भरी हुई आंखें मानो सबसे कह रही थीं-कोई मेरी बच्ची को खोज क्योंख नहीं लाता ?हाय, अभी तो बेचारी की चुंदरी भी नहीं मैली हुई । कैसे-कैसे साधों और अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी । कोई उस दुष्ट- वंशीधर से जाकर कहता क्यों ‍नहीं-ले तेरी मनोभिलाषा पूरी हो गई- जो तू चाहता था, वह पूरा हो गया । क्या  अब भी तेरी छाती नहीं जुडाती ।
            वुद्धा बैठी रो रही थी और गाड़ी अंधकार को चीरती चली जाती थी ।

रविवार का दिन था । संध्या  समय इंद्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने घर की छत पर बैठा हुआ था । आपस में हास-परिहास हो रहा था । मानी का आगमन इस परिहास का विषय था ।
            एक मित्र बोले-क्यों  इंद्र, तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें क्या। सलाह देते हो ? बनाए कहीं घोसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें ? पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ थोड़ा ही-सा अंतर है ।
            इंद्रनाथ ने मुस्करराकर कहा-यह तो तकदीर का खेल है, भाई, सोलहों आना तकदीर का । अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरकतुल्य  है, तो दूसरी दशा में वर्ग में कम नहीं ।
            दूसरे मित्र बोल-इतनी आजादी तो भला क्यात रहेगी ?
इंद्रनाथइतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी। अगर तुम रोज सिनेमा देखकर बारह बजे लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और दफ्तर से चार बजे लौटकर ताश खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा। और जो हर महीने सूट बनवाते हो, तब शायद साल-भर भी न बनवा सको।
            श्रीमतीजी,  तो आज रात की गाड़ी से आ रही हैं?’
            हॉँ, मेल से। मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न?’
            यह भी पूछने की बात है। अब घर कौन जाता है, मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी।
            सहमा तार के चपरासी ने आकर इंद्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया।
            इंद्रनाथ का चेहरा खिल उठा। झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते ही उसका हृदय धक हो गया, साँस रूक गई, सिर घूमने लगा। ऑंखों की रोशनी लुप्त हो गई, जैसे विश्व पर काला परदा पड़ गया हों उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया ओर दोनों हाथों से मुँह ढॉँपकर फूट-फूटकर रोने लगा। दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया और उसे पढ़ते ही हतबुद्धि-से हो दीवार की ओर ताकने लगे। क्या सोच रहे थे ओर क्या हो गया।
            तार में लिखा थामानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसकी लाश लालपुर से तीन मील पर पाई गई। में लालपुर में हूँ, तुरंत आओ।
            एक मित्र ने कहाकिसी शत्रु ने झूठी खबर न भेज दी हो?
            दूसरे मित्र ने बोलेहॉँ, कभी-कभी लोग ऐसी शरारतें करते हें।
            इंद्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर देखा, पर मुँह से कुछ बोले नहीं।
            कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक् निस्पंद बैठे रहे। एकाएक इंद्रनाथ खड़े हो गए और बोलेमैं इस गाड़ी से जाऊंगा।
            बम्बई से नौ बजे को गाड़ी छू, टूटती थी। दोनों ने चटपट बिस्तर आदि बाँधकर तैयार कर दिया। एक ने बिस्तर उठाया, दूसरे ने ट्रंक। इंद्रनाथ ने चटपट कपड़े पहने और स्टेशन चले। निराशा आगे थी, आशा रोती हुई पीछे।

एक सप्ताह गुजर गया था। लाला वंशीधर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ही थे कि इंद्रनाथ ने आकर प्रणाम किया। वंशीधर उसे देखकर चौंक पड़े, उसके अनपेक्षित आगमन पर नहीं, उसकी विकृत दशा पर, मानो तीतराग शोक सामने खड़ा हो, मानो कोई हृदय से निकली हुई आह मूर्तिमान् हो गई हों
            वंशीधर ने पूछातुम तो बम्बई चले गए थे न?
            इंद्रनाथ ने जवाब दियाजी हॉँ, आज ही आया हूँ।
            वंशीधर ने तीखे स्वर में कहागाकुल को तो तुम ले बीते! आये? तुमसे कहॉँ उसकी भेंट हुई? क्या बम्बई चला गया था?
            जी नहीं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गए।
            तो जाकर लिवी लाओ न, जो किया अच्छा किया।
यह कहते हुए वह घर में दौड़े। एक क्षण में गोकुल की माता ने उसे उंदर बुलाया।
            वह अंदर गया तो माता ने उसे सिर से पॉँव तक देखातुम बीमार थे क्या भैया?
            इंद्रनाथ ने हाथमुँह धोते हुए काहमैंने तो कहा था, चलो, लेकिन डर के मारे नहीं आते।
            और था कहॉँ इतने दिन?’
            कहते थे, देहातों में घूमता रहा।
            तो क्या तुम अकेले बम्बई से आये हो?’
            जी नहीं, अम्मॉँ भी आयी हैं।
            गोकुल की माता ने कुछ सकुचाकर पूछामानी तो अच्छी तरह है?
            इंद्रनाथ ने हँसकर कहाजी हॉँ, अब वह बड़े सुख से हैं। संसार के बंधनों से छूट गई।
            माता ने अविश्वास करके कहाजी हॉँ, अब वह बड़े सुख से है। संसार के बंधनों से छूट गई।
            माता ने अविश्वास करके कहाचल, नटखट कँही का! बेचारी को कोस रहा है, मगर जल्दी बम्बई से लौट क्यों आये?
            इंद्रनाथ ने मुस्काते हुए कहाक्या करता! माताजी का तार बम्बई में मिला कि मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दें दिए। वह लालपुर में पड़ी हुई थी, दौड़ा हुआ आया। वहीं दाह-क्रिया कीं आज घर चला आया। अब मेरा अपराध क्षमा कीजिए।
            वह और कुछ न कह सका। ऑंसुओ के वेग ने गला बंद कर दियां जेब से एक पत्र निकालकर माता के सामने रखता हुआ बोलाउसके संदूक में यही पत्र मिला है।
            गोकुल की माता कई मितट तक मर्माहतसी बैठी जमीन की ओर ताकती रही! शोक और उससे अधिक पश्चाताप ने सिर को दबा रखा था। फिर पत्र उठाकर पढ़ने लगी
स्वामी,
            जब यह पत्र आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक में इस संसार से विदा हो जाऊँगी। मैं बड़ी अभागिन हूँ। मेरे लिए संसार में स्थान नहीं हे। आपको भी मेरे कारण क्लेश और निन्दा ही मिलेगी। मैने सोचकर देखा ओर यही निश्चय किया कि मेरे लिए मरना ही अच्छा हे। मुझ पर आपने जो दया की थी, उसके लिए आपको क्या प्रतिदान करूँ? जीवन में मेंने कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं की, परन्तु मुझे दु:ख है कि आपके चरणों पर सिर रखकर न मर सकी। मेरी अंतिम याचना है कि मेरे लिए आप शोंक न कीजिएगा। ईश्वर आपको सदा सुखी रखे।
            माताजी ने पत्र रख दिया और ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। बरामदे में वीशीधर निस्पंद खड़े थे और जैसे मानी लज्जानत उनके सामने खड़ी थी।






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