सुहेल अज़ीमाबादी की कहानी
अँधियारे
में एक किरण
“चाची!”
“कौन है बेटा?”
“आ जा...आ जा।”
बूढ़ी बफातिन बकरी को हरा
पत्ता और गाय को घास देने के बाद चरखा लेकर छाँव में बैठी गयी। और कपड़ा बुनने के
लिए जड़ी भरने लगी। बूढ़ा तूफानी सुबह सबेरे बासी भात, प्याज की मोटी-सी एक गाँठ और दो मिर्चे खाने के बाद कपड़ा
बुनने के लिए करघे पर बैठ गया था। घर के अन्दर दो प्रकार की आवा$जें गूँज रही थीं, एक तो करघे की खटखट और दूसरा चरखे की चरख चूँ-बफातिन के
बुलाने पर चन्दर घर के अन्दर आ गया और आते ही बोला-
“चाची दिनभर इस चर-चों से
तेरा मन नहीं घबराता, उस पर चाचा अलग
दिन भर ठक-ठक करता रहता है। इसका भी न तो हाथ दुखता है न जी घबराता है।”
“मन घबराये बेटा तो काम
कैसे चले। हम दोनों बूढ़े पुरनिया खाएँ क्या? और सब कपड़ा भी कहाँ बुनता है। महीने भर में एक बंडल तो सूत
मिलता है। जब तेरा चाचा जवान था और सूत भी मिलता था तो तेरा चाचा दो दिन में एक
थान उतार लेता था। अब तो महीना भर ढक-ढक करने पर भी कुछ नहीं बुनता।”
“ठीक हुआ, चाची जो सूत कम हो गया। भगवान भी देखता है कि
बूढ़ा-बूढ़ी अधिक काम नहीं कर सकते इसलिए सूत कम कर दिया...हा हा हा हा हा...”
चन्दर अपनी बात खत्म करके
ज़ोर-ज़ोर से हँसा। बात ख़त्म करके ज़ोर से कहकहा लगाना उसकी आदत हो गयी थी। जब
गाँव में रहता तो दिन भर में एक बार हर एक के घर ज़रूर जाता। थोड़ी देर बैठता,
घरवालों से बातें करता और चला जाता। और अगर
किसी को कोई काम पड़ जाता तो उसका इन्त$जाम कर देता। मगर अब तो गाँव में रहता बहुत कम था। $ज्यादातर बाहर ही रहता था। एक गाँव से दूसरे गाँव में और
दूसरे से तीसरे में। उसकी साइकिल थी और वह...कभी तो हफ्तों वापस ही नहीं आता था।
आज एक गाँव में किसानों की सभा है तो कल दूसरे में...आसपास के सारे गाँवों के
किसानों पर उसका अधिक असर था और जमींदार उसे नफरत करते थे, खास तौर पर बलराम सिंह को तो उससे दुश्मनी ही थी।
छह वर्ष पहले उसने
मैट्रिक की परीक्षा दी थी। उसे यकीन था कि वह जरूर सफल होगा। उसका इरादा था कि वह
कॉलेज में दाखिला लेगा। और बी.ए. करके वकालत करेगा और नाम पैदा करेगा। यह उसका
आत्म विश्वास था पर उसका पिता एक ग़रीब किसान था। सिर्फ कुछ बीघे खेत ही इसके पास
थे। पर हिम्मतवाला आदमी था। खुद दिक्कत सह कर अपने सारे बच्चों को पढ़ा रहा था।
चन्दर से छोटे दो भाई थे जो छोटी कक्षाओं में पढ़ रहे थे। चन्दर ने अपना भविष्य
सोच लिया था और उसे यकीन था कि जो कुछ वह सोच चुका है उसमें वह ज़रूर सफल होगा। पर
अचानक एक ऐसी घटना घटी कि उसकी पूरी ज़िन्दगी ही बदल गयी।
बात यह हुई कि परीक्षा
देकर वह शहर ही में रह गया। एक तो अपना परीक्षाफल जानने के लिए और दूसरे वह अपना
कुछ इन्त$जाम भी करना चाहता था।
उसका बाप एक गरीब किसान था और कॉलेज का खर्च उसके बस की बात नहीं थी। उसके दो भाई
सातवीं कक्षा से आगे न बढ़ पाये थे। एक पाठशाला में गुरु का काम करता था और दूसरा
बाप के साथ खेती-बाड़ी। उससे छोटा भाई हाईस्कूल में नवीं क्लास में पढ़ रहा था। और
सब से छोटा सातवीं क्लास में। चन्दर जानता था कि कितनी दिक्कत में सब भाई पढ़ रहे
हैं। दो साल पहले उसकी बहन का विवाह हुआ था। और विवाह में उसके पिता को दो जगह खेत
बन्धक रखना पड़ा था। अगर शहर में रह कर कोई इन्त$जाम न करता तो कॉलेज कैसे ज्वायन करता। उसका दोस्त नरसिंह,
जो बड़ा जोशीला था और पढ़ाई के दौरान ही दो बार
जेल जा चुका था, इसी वजह उसने
चन्दर के साथ परीक्षा दी थी। नहीं तो वह कभी का बी.ए. कर गया होता। वह बराबर चन्दर
को भी किसानों, मजदूरों और
विद्यार्थियों की सरगर्मियों में सम्मिलित करना चाहता था, पर चन्दर चाहता था कि सबसे पहले वह पढ़ाई ख़त्म कर ले फिर
कोई काम करे। नरसिह से उसकी बराबर बहस होती पर निचोड़ एक ही रहा, यानी चन्दर टस से मस न हुआ।
बात ऐसी न थी कि चन्दर के
दिल में देश-विदेश के किसानों और मजदूरों और गरीबों का दर्द न था। जब काँगे्रसी
मन्त्रियों ने इस्तीफा दिया था और दोबारा जेल में भर दिए गये थे, तो उसका खून खौलने लगा था। पर वह हाथ मसल कर रह
गया। उसके एक मास्टर ने एक बात कही थी जो उसके दिल में जम गयी थी। मास्टर ने कहा
था, “तुम पढ़-लिख कर जितना
अच्छा काम कर सकते हो उतना अज्ञानी रह कर नहीं। तुम जितना पढ़ कर जो काम करोगे
उतना ही अच्छा रोगे।” यह बात चन्दर को
बहुत अच्छी लगी थी, तभी उसने सोचा था
कि पहले मैं अपनी पढ़ाई समाप्त कर लूँ फिर कोई काम करूँगा...वह अपने इस फ़ैसले पर
दृढ़ रहा।
उन्हीं दिनों नरसिंह के
घर पर एक आदमी और आया। दुबला पतला-सा, बहुत मोटे शीशे की ऐनक लगाये। उसके बाल हमेशा उलझे रहते थे। वह बहुत सिगरेट
पीता था। नरसिंह ने उस बताया कि उसका नाम परेश है। और यह नरसिंह का रिश्तेदार भी
था। कुछ दिनों रह कर चला जाएगा। परेश अजीब आदमी था। कहीं आता-जाता नहीं था। दिनभर
कमरे में बैठा अख़बार पढ़ता, सिगरेट पीता था,
कुछ लिखा करता या फिर वह और नरसिंह अकेले बैठ
कर न जाने क्या बातें करते। नरसिंह के पिता बहुत धन छोड़ कर मरे थे। घर में माँ थी
और एक छोटा भाई, जिसे चन्दर
पढ़ाया करता था।
एक दिन परेश ने चन्दर से
पूछा-
“आगे तुम क्या करोगे?”
और चन्दर ने उत्तर दिया
था-
“वकालत पढ़ूँगा।”
फिर परेश ने मुँह बनाकर
कहा था, “वकालत पढ़ कर क्यो करोगे,
भारत में वकील इतने हैं कि उनकी गिनती मुश्किल
है।”
फिर चन्दर ने उससे सवाल
किया था-
“तो फिर क्या करूँ?”
और परेश ने उसे जवाब दिया
था-
“अभी देश को हजारों
नौजवानों की ज़रूरत है। लड़ाई छिड़ चुकी है। अभी तक तो भारत प्रभावित नहीं हुआ है।
मगर अँग्रेज़ दबाव में आ गये हैं। यही समय है कि हम अपना देश आज़ाद करा लें।”
और चन्दर ने थोड़ा सोचने
के बाद जवाब दिया था-
“पर मेरे घरवालों को भी
मेर$जी जरूरत है। मेरे पिता
बूढ़े हैं ज़मीन कम है, छोटे भाइयों को
पढ़ाना भी है...?”
और परेश ने अजीब-सा मुँह
बनाकर कहा था-
“ठीक ही है।”
फिर परेश ने उससे कभी कोई
सवाल नहीं किया, और न चन्दर ने
परेश से कोई बात पूछी। वह बराबर इस चिन्ता में लगा रहा कि कॉलेज की किताबों का
इन्त$जाम कैसे करे?
एक रात तीनों खाना खाकर
सो रहे थे। सुबह होने से पहले घर के चारों तरफ शोर हुआ और किसी ने दरवा$जे की $जंजीर खटखटायी। परेश उठ कर भागा। वह दीवार फाँद कर भाग जाना चाहता था। पर उसके
पाँव फिसल गये और वह गिर पड़ा। नरसिंह ने दरवोजा खोल दिया और बहुत से सिपाही और
पुलिस के अफ़सर घुस आये और तीनों गिर$फ्तार कर लिये गये। थाना जाकर चन्दर को मालूम हुआ कि परेश मशहूर मजदूर लीडर
है। इसका नाम भी परेश नहीं 'नासिर' है। और वह बहुत दिनों से छिपा-छिपा फिर रहा था।
चन्दर बहुत गुस्से में था, वह डेढ़ महीने तक
हर रोज एक मुसलमान के साथ बैठकर खाना खाता रहा। उसकी जाति पर धब्बा आ गया। फिर
तीनों को सजा सुना दी गयी। नासिर को तीन साल, चन्दर और नरसिंह को दो-दो साल।
चन्दर, नासिर के साथ एक साल तक जेल में रहा। इतने
दिनों में चन्दर का दिलो दिमाग दोनों बदल गये और उसे अपने जेल जाने पर कोई अफ़सोस
न हुआ। फिर जब वह जेल से बाहर निकला तो उसका मन बिलकुल साफ हो चुका था। उसके सामने
एक राह थी। पर उसे जेल के दरवा$जे पर ही एक बुरी
ख़बर मिली-वह यह कि कुछ दिन पहले ही उसकी बहन के पति को पुलिस ने एक पुल तोड़ते
समय गोली मार दी और वह वहीं मर गया। इस बात से वह बड़ा आहत हुआ। उसकी बहन का पति
अगर ज़िन्दा होता तो वह इसकी बहुत मदद कर सकता था। पर वह अब मर चुका था। जब चन्दर
घर आया तो उसका पिता शोकग्रस्त था। दामाद की मृत्यु और एक होनहार बेटे का इस तरह
बिगड़ जाना, फिर तो उन्हें
उम्मीद थी कि चन्दर कॉलेज में नाम लिखवाएगा। पर चन्दर ने पढऩे का नाम भी न लिया और
गाँव में रहकर किसानों के साथ काम करने लगा। पहले तो चन्दर का पिता खुश नहीं था पर
थोड़े ही दिनों में चन्दर ने अपने पिता को भी अपने ही रंग में रंग लिया और अब
चन्दर ही नहीं, उसका सारा घर
किसान सभा के जोशीले कार्यकत्र्ता थे, $खास तौर पर उसकी विधवा बहन 'डोलनी।'
“चाची बेटों ने पैसे कब से
नहीं भेजे?”
चन्दर के हँसने पर बफातिर
बोली-
“तीन महीने से बेटा। काम न
करें तो पेट कैसे भरे। तोरे भाई सब को अकल थोड़े है। सब अपनी जोरू को पहचानते हैं।
हम दोनों बूढ़े पुरनिया की कोई खोज-खबर ना ले है। सारी मेहनत अकारथ बेटा।”
चन्दर फिर हँसा और बोला-
“चाची तो थोड़ी-सी बात पर
सबको बुरा कहने लगती है। सुना है कि शोबराती भाई तो खूब कमाता है। कलकत्ता में
उसकी बीड़ी की दुकान खूब चलती है, वह कुछ नहीं
भेजता?”
“सुअर, हरामी बेटा, एक आधी भी तो ना, सब जोय को देता है। ससुराल में खेत और ज़मीन खरीदता है। पक्का घर बनाइस है।
ऐंहाँ खरीदेगा तो हम लोग न खा जाएँगे। वोंहाँ तो उसक जोरू बेटी के काम आएगा। हम
लोग तो गैर हैं।”
“और चाची बफाती भाई भी तो
बहुत कमाता है। वह भी कुछ नहीं भेजता?”
“कमाता होगा। सुने तो हम
भी, मगर न कभी खत भेजता और न
अपने आता है। क्या कहें बेटा, तीनों ककड़ी
तीनों कानी, कोई पूछे है भला
हम लोग को...तो सब जियो बेटा। कोई खेती-बाड़ी की भी फिकर नहीं करता। तेरा बात न
रहे तो हम लोगों का जीना भारी हो जाएे। वही सब को देता है बेचारा।”
“चाची बात यह है कि सब
जानते ही हैं कि दिन भर तुम दोनों काम करते हो। पैसे की आवश्यकता ही क्या है। फिर
खेती-बाड़ी भी है। इसलिए भी कुछ मिल ही जाता है। चाची...सच मान, काम करना छोड़ दे...फिर देख सब पैसा भेजते हैं
कि नहीं-हा हा हा हा...।”
“नाही बेटा, ओ सब जोरू का हो के रह गया है। हम सब को काहे
को भेजेगा?”
चन्दर बोल ही रहा था कि
एक मुर्गी हड़बड़ा कर चन्दर के सिर से होकर गुजर गयी। चन्दर भी चौंक कर खड़ा हो
गया और बुढिय़ा बड़बड़ाने लगी, “मुर्गी निगोड़ी
गन्दी...।”
“कोई बात नहीं चाची।
मुर्गी का मांस कैसा होता है चाची, बड़ा स्वाद देता
है...।”
“कौन है शोबराती की माँ।”
बूढ़े तूफानी मियाँ की
आवाज़ आयी। फिर कुछ पलों के लिए दोनों हाथ कमर पर रखे हुए बाहर निकले। चन्दर देखते
ही खड़ा होकर बोला-
“सलाम चाचा।”
“जीते रहे बेटा, चन्दर, अरे हम तो तुम्हारे घर जाने को थे। अब छटाई-बटाई का इन्तजाम हो जाना चाहिए।
फसल तैयार हो रही है। हमसे क्या होगा। इस साल तेरा बाप खड़ा होकर घर की मरम्मत न
करा देता, तो हम दोनों तो पानी में
भीग-भीग कर ही मर जाते।”
“नहीं चाचा, ऐसा भी कभी हो सकता है। आख़िर हम लोग किस दिन
के लिए हैं।” तू$फानी मियाँ जानते थे कि चन्दर जब घर में रहता
है एक बार ज़रूर आता है। फिर भी सवाल कर ही बैठे-
“कैसे आना हुआ इतनी सवेरे
बेटा?”
तूफानी मियाँ गाँव में
सबसे बूढ़े आदमी थे और पुराने ढंग के पढ़े-लिखे। बचपन में पाँच वर्ष तक मौलवी साहब
से गाँव ही में उर्दू-फारसी पढ़ते रहे थे। गाँव की मस्जिद में अजान देते और नमाज
पढ़ाते थे। और शायद पाँचों वक्त कायदे से नमाज पढ़ाने वाले और पढऩे वाले अकेले
आदमी थे। इनका एक विचार था कि जब भी कोई इनसे मिलने आता तो केवल राय लेने या इनके
ज्ञान का $फायदा उठाने के
लिए...जिसके लिए वह हर वक्त तैयार रहते थे। तूफानी मियाँ के सवाल पर चन्दर थोड़ा
गड़बड़ाया पर चुप रहने का वक्त भी न था, वह बोला-
“चाचा बाबूजी ने एक बात
पूछने को भेजा है।”
“हाँ हाँ, कहो क्या बात है। शोबराती की माँ हुक्का तो
देना भर के। हाँ बेटा, बोलो। चन्दर तेरा
बाप भी अभी तक लडक़ा है। नाती-पोतों वाला हुआ पर जहाँ कोई बात हुई तो तू$फानी भाई। हा-हा-पर है तो मेरे सामने लडक़ा ही।
रघुबर की उम्र की क्या होगी। यही पचास, पचपन...बस...।”
तूफानी मियाँ ने अपनी कमर
सीधी की और बोले-
“हाँ तो क्या बात है?”
चन्दर ने तूफानी मियाँ के
सन्तुष्ट चेहरे पर नज़र डाली। कितना सन्तुष्ट है यह बूढ़ा। आज भी सत्तर-पछत्तर साल
की उम्र में भारत में साँस ले रहा है। फिर चन्दर बोला-
“चाचा थोड़ा धीरे बोलो,
कोई आते-आते हमारी बात न सुन ले।”
“कोई सुनकर क्या कर लेगा?”
“नहीं चाचा बात ही ऐसी है।
एक ज़रूरी बात पूछने को भेजा है बाबूजी ने।”
“अरे ऐसी क्या बात है?”
तूफानी मियाँ के चेहरे पर
लकीरें खिंचने लगीं। उन फैली हुई लकीरों को चन्दर ने देख लिया और वह दिलासा देने
के अन्दाज में बोला-
“घबराने की कोई बात नहीं
चाचा, बाबूजी ने पूछने को कहा
है, न जाने क्यूँ?”
“हाँ क्या बात है?”
चन्दर ने बात उस अन्दाज़
में कही जैसे इसका कोई महत्व ही न हो-
“चाचा शोबराती भाई के घर में
कितने मुसलमान हैं?”
“क्यों क्या बात है! होंगे
कोई तीस घर...।”
“और बफाती भाई के ससुराल
में?”
“यही कोई चालीस-पचास घर।”
“और रमजानी भाई के ससुराल
में?”
“कोई तीन सौ घर!”
“चाचा हैं तो सब मजबूत ना?”
“हाँ...हाँ...पठान हैं,
जमींदार हैं।”
“तो बस ठीक है।”
“बात क्या है।” तूफानी मियाँ ने घबरा कर पूछा।
“हम कुछ नहीं जानते चाचा,
बाबूजी ने कहा था कि पूछ आ...और जहाँ अधिक
मुसलमान रहते हैं वहीं अपने चाचा और चाची को पहुँचा आ...।” “काहे? आखिर कोई बात तो
होगी?”
चन्दर ने गर्दन झुका ली।
जैसे उसने चोरी की हो और पकड़ा गया हो। उसकी गर्दन फिर नहीं उठी। बफातिन हुक्का भर
के लायी और तूफानी मियाँ गुडग़ड़ाने लगे। फिर बफातिन ने पूछा-
“क्या सोच रहा है बेटा?”
चन्दर ने सिर उठाया और
हँसता चेहरा बना कर बोला-
“चाची तेरा धान कटवाना है।
फिर ये देख खम्भा भी ख़राब हो गया है। इसे बदलवाना है। तुझे और चाचा को इदन दीदी
के घर पहुँचाना है। इदन दीदी ने सबको पर्व पर बुलाया है।”
तूफानी मियाँ गहरी सोच
में पड़ गये। बात उनकी समझ में आयी कि अब केवल कुछ दिन ही पर्व को रह गये हैं। तो
वो बेटी के यहाँ जाएँ।
“आखिर क्यूँ...।” बफातिन बोली, “सालभर के पर्व में अपना घर छोड़ कर कोई बेटी के यहाँ जाता
है?”
मगर तूफानी मियाँ के
दिमाग में बात आ गयी। चार दिन बकरईद को बाकी थे। शायद इस वर्ष कुछ हंगामे का डर
हो। मगर उस गाँव में तो कभी कुछ न हुआ था, फिर भी बात कुछ जरूर थी। वे बोले-
“काहे बेटा-इस साल पर्व
में कुछ डर है क्या?”
“हाँ चाचा।” चन्दर की गर्दन फिर झुक गयी। तूफानी मियाँ भी
सोच में पड़ गये। अगर कोई बात न होती तो कभी भी रघुबर गाँव से जाने को न कहता। फिर
उन्हें याद आया कि दो दिन पहले ही अली बख्श आकर उनसे कह गया था कि वो अपने बच्चों
को लेकर कलकत्ता जा रहा है। फिर उन्हें गाँव में एक नई बात भी नज़र आयी। मगर उस पर
इन लोगों ने इतना ध्यान नहीं दिया था। पहले लोग बहुत रात गये तक रामायण पढ़ते रहते
या कीर्तन करते रहते थे। मगर इधर कुछ दिनों से 'बजरंग बली की जय', 'महावीर की जय' पुकार रहे थे। 'बजरंग बली' जीवन में पहली बार इन लोगों ने इसी वर्ष सुना था। और वह
बोले-
“चन्दर ये रात को लोग,
'बजरंग बली की जय' क्यों पुकारते हैं।”
“चाचा इन्हीं लोगों से तो
डर है। यही सब हैं गाँव के कुछ लोग। बदमाशी करने पर तुले हुए हैं।”
तूफानी मियाँ फिर बोले-”कुछ नहीं होगा। कुछ नहीं होगा। हमारे गाँव में
आज तक कोई बात नहीं हुई। डरने की कोई बात नहीं है।”
“चाचा जमाना बदल चुका है।
पुरानी बातें भूल जाओ, अब चलने को तैयार
हो जाओ।”
“अपने गाँव के लोग न
बिगड़े। फिर कुछ डर नहीं।”
“चाचा मुश्किल तो यही है।”
अभी चन्दर की बात खत्म भी
न हुई थी कि रमजानी बीवी-बच्चों के साथ आँगन में आ खड़ा हुआ। तीनों बच्चे दो और आठ
साल के बीच के। दोनों बड़ी लड़कियाँ आते ही दादी के पास चली गयीं। छोटा बच्चा माँ
की गोद में ही रहा। रमजानी की पत्नी आते ही सास के पास बैठ कर रोने लगी।
“भइया सब लुट गया।”
चन्दर उठ कर खड़ा हो गया
और बोला-”कैसे आ गये रमजानी भाई।
कोई खबर तो आने की न थी।”
“क्या बताएँ चन्दर,
मुसीबत के मारे आये हैं। यहाँ का क्या हाल है?”
चन्दर बोला-
“हम भी तो सुनें बात क्या
है?
“क्या बताएँ चन्दर,
वहाँ के सारे हिन्दू बिगड़ गये हैं। मुसलमानों
को मार डालते हैं। घर लूट कर, फिर आग लगा देते
हैं। कोई राई-दुहाई नहीं, न थाना, न पुलिस-बस हर तरफ यही हो रहा है। सब मुसलमानों
को मार रहे हैं और कहते हैं गाँधी जी का हुक्म है। सरकार का हुक्म है। मुसलमान को
मार डालो। बहुत से लोग मारे गये चन्दर। हिन्दू भी मरे-मगर मुसलमान बहुत अधिक-औरत भी
बच्चे भी...ओह...।”
चन्दर ने घबराकर पूछा-”तुम सब तो अच्छे रहे ना।”
“हाँ बस किसी तरह से बच
गये। कुल छ: घर तो मुसलमान थे ही। इसमें भी बहुत से आदमी कलकत्ते में रहते हैं।
गाँव में औरत और बच्चे...और सब तो हिन्दू ही हैं। वहाँ कभी कोई बात नहीं थी चन्दर।
पर राजू तेली ने सब बदमाशी की। उसी ने सबको बहकाया। कहता था, नोआखाली का बदला लो। मुसलमानों को मार डालो।
पहले तो कोई भी उसके साथ न हुआ, फिर एक-दो उसके
साथ हो गये। पर गाँव के और दूसरे लोग हमें दिलासा देते रहे। कल शाम को जाकर वह
बहुत से आदमी बुला लाया, सभा हुई और गाँव
के सारे लोग बिगड़ गये। हम लोगों को तो नत्थू बेचारा रातों रात भगा लाया। अब यहाँ
पहुँच रहे हैं। रास्ते में दरगाही मिला था, वह किसी तरह जान बचा कर भागा, कह रहा था सब मारे गये, कोई भी नहीं बचा, बूढ़े, बच्चे, जवान, औरतें कोई भी...सारे घरों में आग लगा दी गयी। यही हाल हर जगह का है। हम लोग दस
दिन तक गाँव से बाहर नहीं निकले थे।”
चन्दर ने लम्बी साँस ली
और बोला-”अच्छा हुआ रमजानी भाई!
तुम आ गये। हम चाचा से यही बात कर रहे थे, यहाँ भी गाँव का रंग-ढंग अच्छा नज़र नहीं आता। चमारी, बुधन, लोटन और रामदीन
बदमाशी पर आतुर हैं। सच पूछो तो सबका माथा फिर गया है। किसी का दिल साफ नहीं रहा।
चमारी कह रहा था, मुसलमान
पाकिस्तान माँगते हैं। इनको कब्रिस्तान पहुँचा दो। हमने कहा कि भाई हमारे गाँव के
मुसलमानों ने तो काँगे्रस को वोट दिया है। ये सब तो पाकिस्तान के विरुद्ध हैं। तो
वह बदमाश बोला-बला से, हैं तो मुसलमान
और मुसलमान को जीवित नहीं छोड़ सकते। बाबूजी ने उसे बुलाकर डाँटा-फटकारा, हम सबने भी समझाया-बुझाया और हमारी साथी भी आये
और बात खत्म हो गयी थी। मगर कल शाम को मालूम हुआ कि चमारी को बलराम सिंह ललकार रहा
है। उसका तो यह कहना है कि जो हिन्दू, मुसलमानों को बचाने का प्रयत्न करे, उसे भी खत्म कर दो। यानी हम लोगों को भी मार जाएे। इसमें उसकी बड़ी चाल है।
हमें मालूम है कि बिहार भर में जमींदार बदमाशी पर आतुर हैं जिससे सरकार इसी झगड़े
में उलझी रहे और जमींदारी न उठ सके। इसमें बड़ी चाल है जमीदारों की। पर हम लोग
अनपढ़ हैं समझते ही नहीं। पर घबराने की कोई बात नहीं है। बाबूजी ने सबको कह दिया
है-मुसलमानों पर हाथ उठाने से पहले हमसे लडऩा होगा। गाँव के आधे लोग तो
खुल्लमखुल्ला हम लोगों के साथ हैं। और कुछ लोग चुप हैं। उन लोगों पर भरोसा नहीं।
आज सुबह ही मालूम हुआ है कि चमारी, बुधन और रामदीन
दूसरे गाँवों के हिन्दुओं को बुलाने गये हैं। अब जमाना बदला हुआ है। लूट की लालसा
में बहुत से लोग इक_े हो जाएँगे।
इसलिए हम लोगों ने सोचा है कि आज रात को सब लोगों को इदन दीदी के घर पहुँचा
दें।...क्या राय है तुम्हारी?”
रमजानी सोच में पड़ गया।
फिर वह यहाँ क्यों आया। किसी ऐसे गाँव में चला जाता जहाँ मुसलमान अधिक थे। यहाँ तो
कुल दस-बारह घर ही हैं। और वह भी गरीब, सब मेहनत-मजदूरी करने के लिए शहर में रहते हैं। कुल पाँच-सात आदमी, फिर बच्चे और औरतें। अगर कोई बात हो गयी तो
कितनी देर सामना किया जा सकता है। और चन्दर आदि का भी क्या भरोसा, है तो यह भी हिन्दू ही। हालात को समझ कर वो
उदास हो गया। इसे पूरा विश्वास हो गया कि हमला होगा ही। रास्ते में आते वक्त दुखो
चमार से मुलाकात हुई थी, इसने खुशी-खुशी
सलाम किया था। “सलाम दुखो चाचा।”
पर दुखो ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि विषभरी निगाहों से उसे देखा था।
रमजानी को परेशान देखकर
चन्दर ने उसे दिलासा दिया-
“रमजानी भाई, घबराने की कोई बात नहीं, हम लोग घर में बारह जन हैं। पहले हम लोग मर जाएँगे तब ही
कोई तुमको छू सकता है। डरने की कोई बात नहीं, चेतन को बाबूजी ने थाने भेजा है कि जाकर सूचना कर दे। वह
साइकिल पर गया है फिर हीरामन चाचा और उनके सब लडक़े, दुखो दुसाध के घर के सारे लोग, और भी बहुत से लोग तैयार हैं। कुछ भी हो जाएे मगर अपने जीते
जी गाँव में कुछ भी होने न देंगे।”
रमजानी ने चन्दर को देखा।
उसके चेहरे पर भी परेशानी की लकीरें थीं। उसका मन चाहा कि चन्दर को छाती से लगा कर
खूब रोये। इतनी जोर-जोर से रोये कि आँगन में इक_े होकर रोने और शोर मचाने वाली औरतों की आवाज़, उसकी आवाज़ में डूब जाएे। एक ये भी हिन्दू हैं।
इसके बाप, भाई भी हिन्दू हैं। इसके
साथी भी हिन्दू हैं।...और हिन्दू रामदीन महतो भी है। सीताराम भी हैं जो खुलेआम
कहते हैं मुसलमानों को मार डालो। घर लूट लो। आग लगा दो। औरतों की इज्जत लूट लो।
सबको हिन्दू बना डालो। और हिन्दू भैरव भी हैं, लक्ष्मण भी हैं और दीना भी जो अन्त तक ढाढ़स बँधाते रहे,
पर बाद में बदल गये। ये लोग भी हिन्दू हैं जो
मुसलमानों को बचाने के लिए अपनी जान तक देने को तैयार हैं। और हिन्दू वो लोग भी
हैं जो औरतों और बच्चों को भी मारने से नहीं शरमाते। पर फिर भी उसके उदास दिल में
उम्मीद की कोई किरण न फूटी। कौन जाने हैं तो यह लोग भी हिन्दू ही। भैरव, लक्ष्मण, दीना भी तो ऐसी ही बातें बनाते हैं। वह नत्थू ने अपना धर्म
निभा दिया।
चन्दर ने कहा, “अच्छा मैं चलता हूँ, सब लोग चलने को तैयार हो जाओ, जल्दी, जल्दी। समय बहुत
कम है। मैं जाकर और इन्तजाम करता हूँ।”
तूफानी मियाँ अब तक गहरे
सोच में थे। अब तक कुछ न बोले थे। सारे आँगन में गाँव की मुसलमान औरतें और बच्चे
भरे हुए थे। और मेले जैसा समा हो बच्चा था। वह कमर पर हाथ रखकर उठे और बोले-
“जाओ सब अपने-अपने घर।
घबराने की कोई बात नहीं। अल्लाह सबसे बड़ी ताकत है। वही सबका मालिक है। वही जिलाता
है, वही मारता है। आदमी कुछ
नहीं कर सकता और हमारे गाँव में कभी कुछ नहीं हुआ और कभी कुछ नहीं होगा।”
चन्दर ने एक कदम आगे
बढ़ाया चलने की तैयारी में फिर रुककर बोला, “रमजानी भाई! सब तैयारी कर लो। दिल हारने की कोई बात नहीं
है।”
फिर वह दूसरों से बोला-”जाओ सब अपने-अपने घर और जरूरी वस्तुएँ एक जगह
इक_ी कर लो।”
तूफानी मियाँ के कहने को
तो कह दिया कि कोई बात नहीं पर वह खुद घबराये हुए थे। अब इन्हें अपने अलावा रमजानी
और उसके बच्चों की भी चिन्ता थी। इनके कान में पहले ही भनक पहुँच चुकी थी। मगर वो
बूढ़े थे, कर भी क्या सकते थे।
अभी चन्दर दो ही कदम आगे
बढ़ा था कि उसकी बहन डोलनी चीखती हुई आयी।
“चन्दर जल्दी कर, बाबूजी कह रहे हैं, सब मुसलमानों को अपने घर ले चल, हीरामन, सहाय और सबको
पुकार ले, जल्दी कर।”
डोलनी पागलों जैसी हो रही
थी। चन्दर उसका मुँह तकने लगा।
“मुँह क्या देखता है। ले
चल सबको घर। समय नहीं रहा अब। जयकारे की आवा$जें नहीं सुनता। चलो सब जल्दी करो। बाबूजी, भइया और सब लोग लाठी, भाला लिए खड़े हैं। जल्दी-करो-और देखो हीरामन चाचा, बुधन चाचा, सहाय भइया और दुखो के घर के लोगों के सिवा किसी को मत घर की
ओट आने देना। सब हम लोगों के दुश्मन हो रहे हैंं। हे भगवान!”
और वह पागलों की तरह
धक्का देकर मुसलमान औरतों को घर से निकलाने लगी-”जाओ, सब जल्दी करो,
मेरे घर में, बाबूजी वहीं खड़े हैं। जल्दी करो...।”
वह जल्दी से निकल कर
दूसरे घर में घुस गयी। वह बिलकुल दीवानी हो रही थी। रमजानी और चन्दर ने
जल्दी-जल्दी सबको घसीटा और चन्दर के घर भेजा। बफातिन और उसकी बहू सामान इक_ा करने लगीं। पर चन्दर ने सबको डाँटा। वह एक
घंटा पहले वाला चन्दर नहीं रहा था। धक्का देकर बाहर निकाल कर बोला-
“जाओ जल्दी घर पर।”
जब वह दरवाजे से बाहर
निकला तो देखा कि उसका छोटा भाई, महावीर और हीरामन
का बेटा शामू भाला लिये खड़े हैं। वह औरतों के दो तरफ हो गये। चन्दर ने इन लोगों
को भेजा और दूसरी तरफ बढ़ा कि उसके कान में आवाज़ आयी “जय बजरंग बली”, और जैसे उसे बिजली घेर गयी। और उसने देखा कि सारे मुसलमान औरतें, बच्चे, मर्द उसके धर की तरफ भागे जा रहे हैं।
फिर भी वह सीधा अपने घर
की ओर भागा और सबको पुकारता गया-”जल्दी करो-जल्दी।”
और जब वह अपने दरवाजे पर
पहुँचा तो उसे मालूम हुआ कि दंगाई बहुत बड़ी संख्या में आये हैं। अब वह साफ दिखाई
दे रहे थे। खेतों से गुजर रहे थे। तीन हजार से कम आदमी न होंगे।
उसने पलट कर अपने लोगों
को देखा। एक बूढ़ा बाप, सात भाई, तीन भतीजे, छ: मुसलमान और...और गाँव के सत्तरह-अठारह हिन्दू। फिर भी वह
घबराया नहीं। उसे विश्वास था कि गाँव के और हिन्दू उसका साथ जरूर देंगे। पर जैसे
ही दंगाइयों ने जयकार लगायी-”जय बजरंग बली”,
गाँव के घरों में भी यही आवाज़ उठी और उसे
अनुमान हो गया कि उसे धोखा दिया गया है। फिर उसने देखा-सब घरों से भाला, गँड़ासा और कठियाँ लेकर निकल आये और शोर हुआ।
मारो-मारो...फिर एक बार जयकार हुआ और उसने देखा कि दंगाई तीन भागों में बँट गये।
दो दल दो ओर से मुसलमानों के घरों की तरफ चले और एक उसके घर की ओर। अब कोई रास्ता
न था। ये लोग भी भला, गँड़ासा, और लाठी लेकर तैयार हो गये। उसे सन्तुष्टि इस
बात की थी कि गाँव के सारे मुसलमान उसके घर में थे। जब बहुत से लोग उसके घर की ओर
बढ़े तो चन्दर उनकी तरफ बढ़ा। इस जन-समूह में इसका साथी धर्मदेव भी था जो उसके
साथ-साथ किसान सभा में काम करता था। उसने धर्मदेव को पुकार कर कहा-
“धर्मदेव-तुम इन लोगों में?
कल तक तुम सभाओं में क्या कहते थे? हिन्दू और मुसलमान भाई-भाई हैं। आज तुम उन्हीं
मुसलमानों का कत्ल करने निकले हो। यह तुम्हें शोभा नहीं देता।”
धर्मदेव बोला-”वक्त बदल गया। चन्दर। मुसलमान हमारे भाई नहीं
हो सकते। हम धोखा खा रहे थे। हम नोआखाली का बदला बिहार में लेंगे।”
बूढ़े रघुबर को क्रोध आ
गया, वह बोला-”बहादुर हो तो नोआखाली में जाकर बदला लो उनसे
जिन लोगों ने जुल्म किया है। वह सचमुच बदला होगा। मगर तुम तो मारने आये हो उन
लोगों को, जो ये भी नहीं जानते कि
नोआखाली है कहाँ...”
इतने में चमारी सामने आया
और बोला-”रघुबर चाचा! सब मुसलमानों
को हमारे हवाले कर दो। हम आज किसी को भी जिन्दा न छोड़ेंगे-ये साले मुसलमान...।”
“शरम नहीं आती चमारी। कल
तक जिन लोगों को चाचा और भाई कहता था आज उनको साला कहता है और इन्हें मारना चाहता
है। हम किसी मुसलमान को जीते जी तुम्हारे...।”
चमारी क्रोधित होकर बोला-
“मारो इस बूढ़े साले को।
बड़ा आया है मुसलमान का जना-खच्चर-मूत दो साले के मूँछ पर।”
और जयकारा हुआ, गाँव के हर कोने से। रघुबर के छोटे बेटे महावीर
को गाली सुन कर ताव आ गया। और वह भाला लेकर तड़पा कि एक-दो बार में चमारी का काम
तमाम कर दूँ। अगर रघुबर ने उसे पकड़ न लिया होता तो चमारी का काम तमाम था।
रघुबर ने कहा-”बात बढ़ाने का वक्त नहीं है। जिनको तुमने बचाने
का वचन लिया है उनकी जान का सवाल है। तुम गाली पर ही बिगड़ गये, धीरज धरो धीरज।”
जन-समूह और आगे बढ़ा।
बिलकुल आमने-सामने केवल कुछ गज की दूरी बाकी थी। चन्दर, महावीर और सीतल ने पिता की ओर देखा। जैसे वे पूछ रहे हों अब
क्या हुक्म है।
रघुबर ने कहा-”जल्दी न करो। अगर उनमें से कोई आगे बढ़े तो फिर
ध्यान न धरना कि कौन आता है। कोई भी सामने आये, मार डालो। अगर न मारा तो खुद मारे जाओगे। और प्रतिज्ञा न
टूटे। तुमने प्रतिज्ञा की है कि मरते समय तक बचाएँगे।”
फिर जयकार हुई “जय बजरंग बली”-फिर मुसलमानों के मोहल्लों स धुआँ उठा। इस पर लियाकत चीख
उठा-
“हाय हमारा घर।”
“रोने का वक्त नहीं लियाकत,
हिम्मत से काम लो।” हीरामन बोला, जो अभी-अभी अपने लडक़ों के साथ इन लोगों के साथ आ मिला था जिससे रघुबर और
चन्दर का साहस बढ़ गया था।
जन-समूह में से एक आदमी
भाला लिये आगे निकल कर आने लगा। रघुबर ने चिल्ला कर कहा-”क्या कहना चहाते हो, कहो आगे मत बढ़ो।”
उसने कहा-
“सब मुसलमानों को हमारे
हवाले कर दो।”
चन्दर ने उसे पहचाना। ये
था जनक सिंह, बलराम सिंह का
चेला जो किसानों की सभाओं में हंगामा करने जाएा करता था। उसे भी मालूम हो चुका था
कि बलराम सिंह ने उसे बहुत-सा धन और अनाज दिया है। इसलिए कि वह हर जगह घूम-घूम कर
हंगामा कराये और दंगा कराता रहे।
चन्दर ने कहा-”हम तुम्हें जानते हैं जनका। हम जीते जी एक
मुसलमान को भी मरने न देंगे।”
“साले तुम भी कुत्तों की
मौत मरोगे।”
एक दूसरे ने पुकार कर
कहा-”तुम हिन्दू हो इसीलिए
समझा रहा हूँ। मुसलमान मलेछों के लिए क्यों अपनी जान दे रहे हो?”,
अब चमारी तड़प कर सामने आ
गया, “देखते क्या हो, मारो सालों को। ये सब मुसलमान के जने हैं।
लातों का भूत बातों से नहीं मानेगा। और तुम सब इस साले चन्दरा से बात करते हो,
इसका कोई धर्म है।”
अब के महावीर का हाथ रुक
न सका। उसने पूरा भाला चमारी के सीने में उतार दिया और वह धम से धरती पर गिर पड़ा।
जनक ने 'फाँसे' का पूरा हाथ महावीर पर चलाया लेकिन वह बैठ कर
बच निकला। दूसरी और से हीरामन के बेटे और दादू ने तड़प कर गँड़ासे का पूरा हाथ जनक
सिंह के सिर पर दे मारा जो सिर के आर-पार हो गया और वह धरती पर गिर पड़ा। महावीर
ने दूसरा हाथ भाले का उसकी छाती पर मारा और वह ढेर हो गया। फिर एक और हाथ चमारी को
लगा और दोनों तड़पने लगे। जनक और सब के सब भाग खड़े हुए। कोई भी न ठहरा।
जनक सिंह ने चिल्लाकर
कहा-
“मैं तो मर रहा हूँ मगर
देखो ये रघुबर का घर बचने न पाये...इसे खत्म कर दो...।”
और चन्दर ने कहा-”हम जानते हैं। बलराम सिंह यही चाहते हैं। अच्छा
अब तुम चुप-चाप पड़े रहो।”
जन-समूह भाग कर थोड़ी दूर
पर फिर ठहरा...और आपस में कुछ बातें करने लगा। फिर मुसलमानों के घरों की ओर से धुएँ
का तूफान-सा उठा। फिर शोले आसमान छूने लगे और उधर से दंगाइयों की एक टोली जयकारे
लगाती हुई निकली। रघुबर का सिर चकरा गया। वह अब तक अपने लोगों के दिल बढ़ा रहा था।
“यह सब बदमाश हैं। चोर और
लुटेरे। अगर थोड़ा भी साहस दिखाओगे तो एक भी न ठहरेगा।” फिर उसने उत्तर की ओर हाथ उठा कर कहा-
“गंगा मय्या हम सब की
इज्जत अब तोहरे हाथ। यह काल कट गया तो पाली चढ़ाएँगे।”
इतने में दूसरी टोली
मुसलमानों के घरों की ओर बढ़ी। और इसने देखा कि बहुत सारे लोग मुसलमानों के घरों
से बहुत-सी चीजें ले-लेकर दूसरे गाँवों की ओर भागे जा रहे हैं। चमारी खून में लथपथ
पड़ा था। उसकी छाती से लगातार खून बह रहा था। पर जब जयकारे की आवाज़ उसने सुनी तो
फिर एक बार उठ बैठा और चिल्ला कर बोला-
“अरे देखते क्या हो,
यहाँ रघुबर ने सारे मुसलमानों को छुपा रखा है।
हिन्दू जाति के असल दुश्मन है यह सब।”
और महावीर बोला-”चमारी भइया अब मरते वक्त तो शुभ-शुभ बोलो,
भगवान का नाम लो।”
डोलनी ने जल्दी से एक
लोटा पानी लाकर महावीर को दिया, जिसे वह एक ही
साँस में पी गया। जन-समूह और भी करीब आ गया था। और इन सबने देखा वो लोग रजब की लाश
को घसीटे ला रहे थे। वह बेचारा घर से बाहर न निकल सका था। छ: दिन पहले ही उसके घर
बच्चा पैदा हुआ था। पत्नी घर पर ही पड़ी थी वह उसे छोडक़र कैसे निकल आता। वह इसी
चिन्ता में था कि किसी तरह सबको ले चले। पर समय न मिला, इतने में दंगाई घर में घुसे और सबका काम तमाम कर दिया। वो
लोग रजब की लाश को पाँव से पकड़े, घसीटे ला रहे थे।
साथ में इसकी बीवी की लाश भी थी। नंगी, शरीर पर कपड़े का नाम तक न था। छ: दिन के बच्चे को एक नौजवान इस तरह लटकाये जा
रहा था, जैसे छोटे-छोटे बच्चे मरी
हुई चुहिया को पकडक़र लाते हैं। ये लोग रघुबर के घर की ओर बढ़ रहे थे। इनको पता चल
चुका था कि सबको उसने छुपा रखा है।
हीरामन ने रजब, उसकी बीवी और बच्चे की लाश को इस तरह देखा तो
उसका खून खौल उठा और वह चिल्ला कर बोला-
“रघुबर भाई, ये सब हिन्दू नहीं राक्षस हैं-मार डालो सबको।”
वह ' जय हनुमान जी', कह कर आगे बढ़ा मगर फिर रघुबर ने उसका हाथ पकड़ लिया और
बोला-”हीरामन-बात मत बढ़ाओ-बस
आज का दिन किसी तरह कट जाएे-डटे रहो-चेतन थाने पहुँच चुका है। अब मिलिटरी आती ही
होगी।”
पर हीरामन जोश में था,
बोला-”रघुबर भाई, जब तक मिलिटरी
आएगी, गाँव बर्बाद हो चुका
होगा। देखते हो रजब की लाश। वह मेरा भाई था। इसको मेरी माँ ने अपना दूध पिला कर
पाला था। तुम जानते हो बुढिय़ा की कितनी सेवा करता था। पर्व में जब तक बुढिय़ा के
कपड़े न बनवाता उस समय तक अपनी बीवी-बच्चों को कुछ न देता। रघुबर भाई मेरा खून खौल
रहा है।” बोलते-बोलते उस का गला भर
आया।
रघुबर बोला-”हिम्मत से काम लो हीरामन, हिम्मत से” इतने में किसी ने पत्थर फेंका जो रघुबर के माथे पर गया। ठीक
बायीं आँख से थोड़ा ऊपर और खून बह निकला। दूसरी ओर से डोलनी की चीख सुनाई दी-”बाबूजी”-और वह दौडक़र बाप से लिपट गयी। रघुबर को पकड़ कर उसने घर
में पहुँचाया। जाते-जाते रघुबर ने कहा-”कोई अपनी जगह से न डिगे।”
और कोई भी न हटा। रघुबर
मुँह धोने लगा और जब कपड़ा जलाकर जख्म पर बाँध लिया तो उसने देखा, तूफानी मियाँ एक कोने में नमाज पढ़ कर दुआ माँग
रहे थे। जैसे कोई बात ही न थी। उसे सन्तुष्ट तूफानी को देखकर हँसी आ गयी। और फिर
सबके पास चला गया। जन-समूह से लोगों की गलियों और ललकारने की आवा$जें बराबर आ रही थीं। पर कोई आगे न बढ़ता था।
चमारी ज़$ख्म से कराह रहा था। और
जनक सिंह ठण्डा हो चुका था। यही दोनों सरदार थे और इनकी मौत से सब ढीले पड़ गये
थे। एकाएक फिर शोर उठा और सबने देखा, बलराम सिंह का छोटा भाई जगन्नाथ सिंह अपने काले रंग के घोड़े पर तेजी से चला आ
रहा है। उसने दूर ही से ललकारा-
“तुम सब खड़े क्या हो,
टूट पड़ो सालों पर, मार डालो सबको। आग लगा दो इस बुड्ढे साले के घर को-बदमाश-!”
वह तेजी के साथ चन्दर के
बहुत करीब आ गया। उसके हाथ में तलवार थी। उसने चाहा कि चन्दर पर भरपूर वार करे,
पर ठीक उसी समय असीम ने घोड़े को भाला मारा और
वह अकड़ गया। चन्दर बच गया। स्वयं वह घोड़े से गिरते-गिरते बचा पर घोड़ा जो भागा
तो न रुका। पर किसी ने लाठी खींच कर महावीर के सिर पर मारी और वह तिलमिला कर गिर
पड़ा और चिल्लाया-
“बाबूजी”, हीरामन के बेटे कमल ने जल्दी से आगे बढक़र
महावीर को बचा लिया नहीं तो दूसरी लाठी फिर इसके सिर पर पडऩे वाली थी।
अब कोई बात नहीं रह गयी
थी। चारों ओर एक शोर था, हंगामा था और
लाठियाँ, भाले, तलवारें और गँड़ासे चल रहे थे। खट-खट और छन-छन
की आवा$जें गूँज रही थीं। न
दंगाइयों के कदम पीछे जाते न हिफाजत करने वालों के। हीरामन ने फिर ललकारा।
“आगे कदम बढ़ाते जाओ
बहादुरो।” पर दूसरी ओर से औरतों की
चीख सुनाई दी। एक टोली ने दूसरी ओर से मकान पर हमला कर दिया था। सबसे आगे-आगे एक
काँगे्रसी, झण्डा लिए हुए था। चन्दर
ने जब उसके हाथ में काँगे्रसी झण्डा देखा तो उसका खून खौल उठा, वह चिल्लाया-
“अरे ओ
मलेछ...राक्षस...अपने साथ इन झण्डों को भी अपवित्र करना चाहता है।”
और वह उधर टूट पड़ा। उसके
साथ दो आदमी और भी दौड़े। वह चाहता था कि झण्डा उसके हाथ से छीन ले। पर किसी ने
लाठी का पूरा हाथ मारा। वह चकरा गया। उसका भाई आगे बढ़ा कि उसे बचा ले। पर किसी ने
भाले का भरपूर हाथ चन्दर की छाती में मारा, और उसके मुँह से निकला-”बाबूजी।”
लोग उसे उठा कर ले आये,
और थोड़े से आदमियों के लिए हमले को रोकना
मुश्किल हो गया। पर फिर भी जन-समूह में इतनी हिम्मत न थी कि कुछ आदमियों का सामना
कर पाते। चन्दर ने आँखें खोलीं। मुसलमानों के घरों से उठी आग की लपटें आकाश को छू
रही थीं।
उसने फिर एक बार अपनी
पूरी शक्ति से कहा-”बाबूजी, मैं चला। मुसलमानों को बचाओ-महावीर घबराना नहीं
मेरे भाई...तेरे भाई ने हमेशा कमजोरों का साथ दिया है। और कमजोरों को बचाते हुए
उसने अपनी जान दी। ऐसी मौत बड़ी अच्छी है। महावीर...पीछे न हटना...मेरी तरह मरना।”
मालूम नहीं, किसने यह बात सुनी और किसने नहीं सुनी। डोलनी
और सारी मुसलमान औरतें, चन्दर की लाश पर
खड़ी फफक-फफक कर रो रही थीं। जन-समूह बढ़ता ही आ रहा था। बूढ़ा रघुबर सबको ललकार
रहा था। एकाएक शोर उठा मिलिटरी...मिलिटरी...और सब लोगों ने देखा थोड़ी दूर पर
मिलिटरी से भरे पाँच ट्रक आ रहे थे। दंगाई भागने लगे।
रघुबर ने ललकार कर कहा-”पकड़ लो इन लुटेरों को भागने न पाएँ।”
मिलिटरी समीप आ गयी-भागने
वालों पर गोलियाँ बरसाती हुई। रघुबर ने कहा-”मेरी इज्जत रख ली भगवान-धन्न है तू!”
मिलिटरी के लिए आराम का
वक्त न था। जल्दी-जल्दी सारे मुसलमानों को ट्रक में बिठाया और चले गये।
रघुबर ने कहा-”तूफानी भाई-ये चन्दर का खून लेते जाओ। अपने
भतीजे का खून, जिसे तुमने गोदी
खिलाया था। उसने अपना फर्ज निभा दिया...गवाह रहना?”
और सबकी आँखों से आँसू
उबल पड़े।
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